कलम, तलवार और त्याग/६-राजा मानसिंह

कलम, तलवार और त्याग
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ८६ से – ९५ तक

 

‘दरबारे-अकबरी' के रचयिता ने, जिसकी कलम मैं जादू था, क्या .खुब कहा है-इस उच्च-कुल संभूत राजा का चित्र दरबारे-अक- बरी के चित्र-संग्रह में सोने के पानी से खींचा जाना चाहिए। निस्सन्देह! और न केवल मानसिंह का, किन्तु उसके कीर्तिशाली पिता राजा भगवानदास और सुविख्यात दादा राजा भारमल के चित्र भी इसी सम्मान और श्रृंगार के अधिकारी हैं। राजा भारमल वह पहला बुद्धिमान और दूर तक देखने-सोचनेवाला राजा था, जिसने हजारों साल के धार्मिक संस्कारों को देश के सामयिक हित पर बलिदान करके मुसलमानों से नाता जोड़ा और सन् ९६९ हिन्नी में अपनी रुप-गुण- शीला कन्या को अकबर की पटरानी बनाया। आमेर के कछवाहा वंश को विचार-स्वातन्त्र्य और धर्मगत उदारता के क्षेत्र में अगुआ बनने का गौरव प्राप्त है। और जब तक ज़माने की निगाहों में इन पुनीत गुणों का आदर रहेगा। इस घराने के नाम पर सम्मान की श्रद्धा- ञ्जलि अर्पित की जाती रहेगी।

मानसिंह आमेर में पैदा हुआ और उसका बचपन उसी देश के जोशीले, युद्धप्रिय निवासियों में बीता, जिनसे उसने वीरता और साहस के पाठ पढ़े। पर जब जवानी ने हृदय में उत्साह और उत्साह में उमंग पैदा की तो अकबर के दरबार की तरफ रुख किया जो उस जमाने में मान-प्रतिष्ठा, पद और अधिकार की खान समझा जाता था। भगवानदास की सच्ची शुभचिन्तना और उत्सर्गमयी सहायताओं
ने शाही दरबार में उसे मान-प्रतिष्ठा के आसन पर आसीन कर रखा था। उसके होनहार तेजस्वी बेटे की जितनी आव भगत होनी चाहिए थी, उससे अधिक हुई। अकबर ने उसके साथ पितृ-सुलभ स्नेह दिखाया! और सन् १५७२ ई॰ में जब गुजरात पर चढ़ाई की तो नवयुवक राज कुमार को हमराही को सम्मान प्रदान किया। इस मुहिम में उसने वह बढ़-बढ़कर हाथ मारे कि अकबर की नजरों में जॅच गया। अगर कुछ कोर-कसर थी तो वह उसे वक्त पूरी हो गई जब खान आजम अहमदाबाद में घिर गया और अकबर ने आगरे से कुच करके दो महीने की राह ७ दिन में तै की। नौजवान राजकुमार इस धावे में भी साथ रहा। यह मानो उसकी शिक्षा और परीक्षा के दिन थे।

अब वह समय आया कि बड़े-बड़े विश्वास और दायित्व के काम उसे सौंपे जाएँ। दैव-योग से इसका अवसर भी जल्दी ही हाथ आया। वह शोलापुर की मुहिम मारे चला आ रहा था कि रास्ते में कुभलमेर स्थान में महाराणा प्रतापसिंह से भेंट हुई। राणा कछवाहा कुछ पर उसके विचार-स्वातन्त्र्य के कारण तना बैठा था कि उसने राजपूतो के माथे पर कलंक का टीका लगाया। मानसिंह पर चुभते हुए व्यंग्यवाण छोड़े जो उसके कलेजे के पार हो गये। इस घाव के लिए बदला लेने के सिवाय और कोई कारगर मरहम ने दिखाई दिया।

मानसिंह ने आगरे पहुँचकर अकबर को सारी कथा सुना दी। अकबर ऊँची हिम्मत का बादशाह था, क्रोध में आ गया। राणा पर चढ़ाई की तैयार की। शाहजादा सलीम सेनापति बनाये गये और मानसिंह उनका मन्त्री नियुक्त हुआ। शाही फौज जंगलों-पहाड़ों को पार करती राणा के राज्य में प्रविष्ट हुई। राणा उस पर मर मिटने को तैयार २१ हजार राजपूतों के साथ हलदी धाटी के मैदान में अड़ा खड़ा था। यहाँ खूब धमासान की लड़ाई हुई, रक्त की नदियाँ बह गई। पहाड़ो के पत्थर सिबरफ बन गये। मेवाड़ के वीर मानसिंह के खून के प्यासे हो रहे थे। ऐसे जान तोड़-तोड़कर हमले करते थे कि
अगर सद्दे सिकन्दर भी होती तो शायद अपनी जगह पर क़ायम न रह सकती। मगर मानसिंह भी शेर का दिल रखता था। उस पर जवानी का जोश। हौसला कहता था कि सारी सेना की निगाहें तुझ पर हैं, दिखा दें कि राजपूत अपनी तलवार का ऐसा धनी होता है। अन्त को अकबरी प्रताप की विजय हुई। राणा के साथियों के पाँव उखड़ गये। चौदह हजार खेत रहे। केवल ८ हज़ार अपनी जानें सला- मैत ले गये। कहाँ हैं पार्टी की सराहना मैं पन्ने के पन्ने काले करने- वाले! आयें और देखें कि भारत के योद्धा कैसी निर्भयता के साथ ज्ञान देते हैं !

राणा लड़ाई तो हार गया पर हिम्मत न हारा। उसकी हेकड़ी उसके गले का हार बनी रही। जब कभी मैदान वाली पाता, अपने मौत से खेलनेवाले साथियों को लेकर किले से निकल पड़ता और आस-पास में आफत मचा देता। अकबर ने कुछ दिनों तक तरह दी, पर जब राणा की ज्यादतियाँ हद से आगे निकल गई तो सन् १५५६ मैं उस पर फिर चढ़ाई की तैयार की। खुद तो अजमेर में आकर ठहर और मानसिंह को पुत्र की पदवी के साथ इस चढ़ाई को सेनापतित्व दिया। राजा हवा के घोड़े पर सवार होकर दम के दृम में गोगडा जा पहुँचे जहाँ राणा अपने दिन काट रहा था।

राणा ने भी अबकी मरने मारने की ठान ली। ज्योंही दोनों सेनाएँ आमने-सामने हुई और डंके पर चोट पड़ी, दुग्त वदस्त लड़ाई होने लगी। राणा के आन-भरे राजपूत ऐसी बेजिगरी से झपटे कि शाही फौज के दोनों बाजुऔ को छिन्न भिन्न कर दिया। 6पर भानसिंह जो सेना के मध्यभाग में था, अपने स्थान पर अटल रहा अचानक उसके तेवर बदले, शेर की तरह गरजा, अपने साथियों को ललकारा और बिजली की तरह राणा की सेना पर टूट पड़ा। राणा क्रोध में भरा

  • खड़े दीवार--- जाता है कि सिकन्दर नै बर्बर जातियों के प्रतिरोध के लिए कोसे की एक दौमारे बनवाई थी।
    ताल ठोंककर सामने आयी और दोनो रणबाँकुरे गुथ गये। ऊपर-तले कई बार हुए और राणा घायल होकर पीछे हटा। उसके हटते ही

उसकी सेना में खलबली पड़ गई। उनके पाँव उखड़े थे कि मानसिंह की प्रलयङ्करी तलवार ने हजारों को धराशायी बना दिया। उनकी बहादुरी ने आज वह करतब दिखाये कि अच्छे-अच्छे प्रौढ़ मुराल योद्धा जो बाबरी तलवार की काट देखे हुए थे, दाँतों तले उँगली दबा कर रह गये।

इस विजय ने कुँवर मानसिंह के सेनापतित्व की धूम मचा दी और सन् १५८१ ई० में उसकी तलवार ने वह तड़प दिखाई कि 'हिन्दी लोहे ने विलायती के जौहर मिटा दिये। बंगाल में कुछ सरदारों ने सिर उठाया और अकबर के सौतेले भाई मिज़ हकीम को (काबुल से) चढ़ लाने की युक्ति लड़ाना शुरू किया। मिर्जा खुशी से फूला न समाया। अपनी सेना लेकर पंजाब की ओर बढ़ा। इधर से राणा मानसिंह सेनापति बनकर उसके मुकाबिले को रवाना हुआ है मिर्जा का दूधभाई शादमान जो बड़ा वीर और साहसी पुरुष था, अटक का घेरा डाले हुए पड़ा था। नगाड़े की घन-गरज ध्वनि कान में पड़ी तो चौंका। पर अब क्या हो सकती थी, मानसिंह सिर पर आ पहुँचा था। उसकी सेना पलक मारते तितर-बितर हो गई और शादमान धूल में लोटता हुआ दिखाई दिया।

मिर्जा ने यह खबर सुनी तो बड़ा क्रुद्ध हुआ। तुरंत लड़ने को तैयार हो गया और अकबर को बङ्गाल के झमेलों में उलझा हुआ समझ कर लाहौर तक दर्राता हुआ घुस आया। पर ज्यों ही सुना कि अकबर धावा मारे इधर चला आ रहा है, उसके होश उड़ गये। पहाड़ों को फाँदता, नदियों को पार करता काबुल को भागा। मानसिंह भी शाही आदेश के अनुसार पेशावर पर जा पड़ा और काबुल की ओर बढ़ना शुरू किया। अकबर भी अपनी प्रतापी सेना लिये उसके पीछे-पीछे चला।

मानसिंह निश्शंक के घुसता हुआ छोटे काबुल तक जा पहुँचा और
वहाँ ठहरा कि शत्रु मैदान में आये तो लंबी मञ्जिलों की थकन दूर हो। मिर्जा हकीम भी बड़े आगा-पीछा के बाद सेना लिये एक घाटी से निकला और उभयपक्ष में संग्राम होने लगा। दोनों ओर के रनबाँकुरे खूब दिल तोड़कर लड़े। यद्यपि मुक़ाबला बहुत कड़ा था और राजपूतों को ऐसी ऊबड़-खाबड़ जमीन पर लड़ने का अभ्यास न था, पर मानसिंह ने सिपाहियों को ऐसा उभारी और ऐसे मौके मौके से कुमक पहुँचाई कि अन्त में मैदान मार लिया। दुश्मन भेड़ों की तरह भागे। राजपूतों के अरमान दिल के दिल ही में रह गये। पर दूसरे दिन सूरज भी न निकलने पाया था कि मिर्जा का मामू फ़रीद् फिर फौज लेकर आ पहुँचा। मानसिंह ने भी अपनी सेना उसके 'सामने ले जाकर खड़ी की और चटपट ,खून की प्यासी तलवारे म्यानो से निकलीं, तोपों ने गोले दागे, और रेलपेल होने लगी। दो घंटे तक तलवारें कड़कती रहीं। अन्त को शत्रु पीछे हटा और मानसिंह विजय-दुंदुभी बजाता हुआ काबुल में दाखिल हुआ। पर धन्य है अकबर की दयालुता और उदारता को कि जो देश इतने रक्तपात के बाद जीता गया, उस पर कब्जा न जमाया, बल्कि मिर्जा का अपराध क्षमा कर दिया और उसको देश उसको लौटा दिया। पेशावर और सीमान्त-प्रदेश का शासन-भार मानसिंह को सौंपा और राजा ने बड़ी बुद्धिमानी तथा गंभीरता से इस कर्तव्य का पालन किया। उश देश का चप्पा-चप्पा उपद्रव-उत्तगत का अखाड़ा हो रहा था। मानसिंह ने अपने नीति-कौशल और दृढ़ता से बड़े-बड़े फसादियों की रंगे ढीली कर दीं। इसके साथ ही उसके सौजन्य ने भले आदमियों का मन जीत लिया। दुल-के-दल लोग सलाम को हाजिर होने लगे। फिर भी वह प्रजा को अधिक समय तक संतुष्ट न रख सका। उसके सिपाही आखिर राजपूत थे। अफ़ग़ानों के अत्याचार याद करते तो बेअख्तियार माथे पर बल पड़ जाती। इस भाव से प्रेरित होकर प्रजा को सताते। अतः इसकी शिकायतें अकबर के दरबार में पहुंचीं। राजा बिहार भेज़ दिये गये। बंगाल अकबर के साम्राज्य का वह नाजुक भाग था, जहाँ फसाद का मवाद इकट्ठा होकर पका करता था। पठानों ने अपने तीन सौ साल के शासन में इस देश पर अच्छी तरह अधिकार जमा लिया था। बहुतेरे वहीं आजाद हो गये थे और यद्यपि अकबर ने कई बार उनका नशा हिरन कर दिया था, फिर भी कुछ ऐसे सिर बाक़ी थे, जिनमें राज्य की हवा समाई हुई थी और वह समय-समय पर उपद्रव खड़ा किया करते थे। वहाँ के हिन्दू राजाओं ने भी उनसे प्रेम का नाता जोड़ रखा था और आड़े समय पर काम आया करते थे।

मानसिंह के जाते ही राजा पूरनमल कंधोरिया पर चढ़ गया और उसके दर्प-दुर्ग को ध्वस्त कर दिया। राजा संग्राम (सिंह) को भी तलवार के घाट उतारी और कुक्ष राजाओं को भी दबाकर बिहार को उपद्रव उठानेवालों से साफ कर दिया। इन विश्वस्त सेवाओं के पुरस्कार-स्वरूप उसको राजा की पदवी, शाही जोड़ा, सुनहरे जीन सहित घोड़ा और पंचहज्जारी का पद प्रदान किये गये।

पर ऐसे मनचलें जोशीले राजपूत से कब चुप बैठा जाता था। सन् १५९० ई० मैं उसने घोड़े को एँड़ लगाई और उड़ीसा में दाखिल हो गया। उन दिनों यहाँ का़तुल खाँ पठान राज्य करता था। सामने के लिए तैयार हुआ, पर संयोग-वश इसी बीच पठानों में अनबन हो गई। क़तलु खाँ कतल हुआ, बाकी सरदारों ने अधीनता स्वीकार की और कई साल तक आज्ञा-धारक बने रहे। पर अचानक उनकी हिम्मतों ने फिर सिर उभारा और बादशाही मुल्क पर चढ़ आये। इधर मानसिंह बेकारी से ऊब उठा था। बाहाना हाथ आया। तुरन्त सेना लेकर बढ़ा और दुश्मनों के इलाके में अकबरी झंडा गाड़ दिया। पठान बड़े जोश से मुकाबले को आये, पर राजपूत सूरमाओं के आगे एक भी पेश न गई। दम के दम में सुथराव हो गया और बिहार से लेकर समुद्रतट तक अकबरी प्रताप की पताका फहराने लगी।

राजा मानसिंह रण-विद्या में जैसा पण्डित था, राजनीति के तौं से भी वैसा ही सुपरिचित था। उसकी गहरी निगाह ने साफ देख
लिया था कि यह बेल मुँढे चढ़ने की नहीं। इस प्रकार राज्य कभी स्थिर न रह सकेगा, जब तक की एक ऐसा नगर ने बसाया जाय जो दरियाई हमलों से सुरक्षित हो और ऐसे केन्द्रीय स्थान पर स्थित हो जहाँ से चारों ओर आसानी से कुमक भेजी जा सके। अन्त को बड़े बहस-मुबहसे, सलाह-मश्विरे के बाद अकबर-नगर की नींव डाली गई। मानो जंगल में मंगल हो गया। कुछ ही वर्षों में नगर में ऐसी शोभा और चहल-पहल हो गई कि इन्द्रजाल-सा मालूम होने लगा। यह नगर आज राजमहल के नाम से प्रसिद्ध है और जब तक धारा- धाम पर बना रहेगा, अपने संस्थापक का नाम उजागर करती रहेगी। इस नगर के बीचो-बीच एक सुदृढ़ दुर्ग निर्माण कराया गया और 'पठानो को फिर सिर उठाने का साहस न हुआ। राजा ने चार ही पाँच साल के प्रयत्न और परिश्रम से सारे बंगाल से अकबर के चरणों पर माथा टेकवा दिया। खाॅजमा, खानखाना, राजा टोडरमल जैसे यशस्वी व्यक्तियों ने बंगाल पर जादू फेंके, पर वहाँ अधिकार जमाने में असफल रहे। ऐतिहासिकों ने इस गौरव का अधिकारी मानसिंह को ही माना हैं। इन सूबो में नवयुवक जगतसिंह ने भी मरदानगी के खूब जौहर दिखाये और सन् १५९८ ई० में पंजाब के पहाड़ी इलाके की सूबेदारी से सम्मानित किया गया। पर यह साल मानसिंह के लिए बड़ा ही मनहूस था। उसके दो बेटे ठीक चढ़ती जवानी में, जब जीवन के सुखों के उपभोग के दिन आ रहे थे, काल के ग्रास बने और बाप की आशाओं की कमर तोड़ गये।

पर राजा संभवतः उन संपूर्ण सुखों का उपभोग कर चुका था जो विधाता ने उसके भाग्य-लेख में लिख रखे थे। इन महाशोकों के दो ही साल बाद उसके हृदय पर ऐसा घाव बैठा कि उबर न सका।

मेवाड़ का राणा अभी तक अकबरी दरबार में हाजिरी लगाने वालों की श्रेणी में न आया था, और अकबर के दिल में लगी हुई थी कि उसे अधीनता का जुआ पहनाये। अभी तक जितनी सेनाएँ इस मुहिम पर गई थीं सब विफल लौटी थीं। अबकी बार बहुत बड़े
पैमाने पर तैयारियां की गई। शाहज़ादा सलीम सेनापति बनाये गये और राजा मानसिंह उनके सलाहकार बने। होनहार राजकुमार जगतसिंह बंगाल में बाप का उत्तराधिकारी हुआ। खश-खश पंजाब से अगरे आया और सफर का सामना करने मे लगा था कि अचानक दुनिया से ही उठ गया। बड़ा ही सुशील जवान था। कछवाहो के घर-घर कुहराम मच गया। मानसिंह को यह खबर मिली तो उसकी आँखों जगत सूना हो गया। दो बेटों के घाव अभी भरने न पाये थे कि यह गहरा घाव और बैठा। हाय! जवान और होनहार बेटे की मौत का सदमा कोई उसके दिल से पूछे। अकबर को भी जगतसिंह की मृत्यु का बड़ा दुःख हुआ उससे बहुत स्नेह रखता था। उसके बेटे महानसिंह को बंगाल भेजा, पर वह अभी अनुभव-हीन लड़का था। पठानो से हार खाई और सारे बङ्गाल में बारियों ने स्वाधीनता का झण्डा फहरा दिया। इधर शाहज़ादा का मन भी राणा की मुहिम से उचाट हुआ। भोग-विलास का भक्त था; पहाड़ों से सिर करना पसन्द न आया। बिना बादशाह की इजाजत के इलाहाबाद को लौट पड़ा। मानसिंह भी अमल को चला कि विश्व की आग को उपद्रवियों के रक्त से बुझाये। मगर अफसोस! बुढ़ापे में बदनामी का धब्बा लगा! अकबर को शक हुआ कि सलीम राजा के इशारे ही से लौटा है, यद्यपि यह सन्देह निराधार था। क्योंकि शाहज़ादे के मन पहले से ही उसकी ओर से सशंक और कलुषित हो रहा था। परन्तु मानसिंह की साहस-वीरता-भरी कार्यावली में शीघ्र ही इस शंका को दूर कर दिया। कुछ ही महीनों में बङ्गाल ने फिर अकबर के सामने सिर झुका दिया। और सन् १६०४ ई० मैं अकबर की गुण-ग्राहकता ने उसे शाहज़ादा खुसरों के शिक्षक-पद पर नियुक्त करके हल्फहजारी मनसब--छ: हजार सवारों के नायकत्व-से सम्मानित किया। अब तक यह गौरव किसी और अधिकारी को प्राप्त न हुआ था। पर राजा टोडरमल के सिवा दूसरा कौन था जो स्वामि भक्ति और उसके लिए जान हथेली पर लिये रहने में उसकी बराबरी कर सकता। इस पर
विशेषता यह कि वह स्वयं भी एक सुविख्यात सुसम्मानित कुल का दीपक था जिसके साथ २० हजार योद्धा हरदम पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे। पर हा, हन्त! सहज वामविधि से उसका यह सम्मान और उत्कर्ष न देखा गया। सन् १६०५ ई० में अकबर ने इस नश्वर चोले का त्याग किया और उसी दिन से मानसिंह का गौरव- सूर्य भी अस्ताचल की ओर अभिमुख हुआ। तथापि जहाँगीर के राज्यकाल में भी उसने ९ बरस तुझे इज्जत-आबरू के साथ निबाह दिया। उसकी सुलझी हुई बुद्धि और व्यवहार-कुशलता की सराहना करनी चाहिए कि जैसा समय देखता था, वैसा करता था और जहाँगीर की उदारता को भी धन्य है कि यद्यपि मानसिंह को खुसरो की ओर से उठाये जानेवाले बखेड़ों का मूल कारण समझता था पर उसका पद् और अधिकार सब ज्यों-का-त्यों रखा। खानखाना और मिरजा अजीज़ समय के संकेत को समझने की बुद्धि न रखते थे। अतः अकबर के बाद जब तक जिये जन्मृत रहे। दुर्दिन के कष्ट झेलते रहें।

सन् १६१४ ई० में जहाँगीर ने एक विशाल सेना खाँजहाँ के सेनापतित्व में दक्षिण पर चढ़ाई करने को भेजी। मानसिंह भी, जो दरबार की उपेक्षा से खिन्न हो रहा था, इस मुहिम के साथ चला कि हो सके तो बुढ़ापे मे जवानी का जोश दिखाकर बादशाह के दिल में जगह पाये। पर मौत ने यह अरमान निकालने न दिया। बेटों में केवल भावसिंह जीता था। जहाँगीर ने उसे मिरजा राजा की पदवी देकर चारह़जारी के पद पर प्रतिष्ठित किया।

मानसिंह युद्ध-नीति और शासन-नीति दोनों का पण्डित था और उनको सम्यक् प्रकार से काम में लाना जानता था। जिस मुहिम पर गया, विजय, कीर्ति लेकर ही लौटा। अफगानिस्तान के लोग अभी तक उसका नाम आदर के साथ लेते हैं। इन गुणों के साथ साथ वह स्वभाव की विनम्र और मिलनसार था। सबके साथ सज्जनोचित व्यवहार करता। पीठ-पीछे लोगों की भलाई करता, प्रसन्नचित्त तथा विनोद-प्रिय था। उसकी उदारता इस ज़माने में बेजोड़ थी, जिसकी
एक कथा इस प्रकार प्रसिद्ध है कि जब दक्षिण को मुहिम जा रही थी, बालाघाट स्थान में अन्न का ऐसा टोटा पड़ा कि एक रुपये के आटे में भी आदमी का पेट नहीं भरता था। एक दिन राजा ने कचहरी से उठकर कहा कि अगर मैं मुसलमान होता तो एक समय हज़ार मुसलमानो के साथ भोजन करता। पर मैं सबमें बूढ़ा हूँ, सच भाई मुझसे पान स्वीकार करें। सबसे पहले खाँजहाँ लोदी ने हाथ सिर पर रख कर कहा कि मुझे स्वीकार है, फिर औरों ने भी स्वीकार किया। राजा ने एक सौ रुपया पंचहजारी की और इसी हिसाब से औरों का भोजन-व्यय बाँध दिया। हर रात को हर एक आदमी के पास एक खरीते मे यह रुपया पहुँच जाता। खरीते पर उसका नाम लिखा होता। सिपाहियों को सद् पहुँचने तक सस्ते दाम पर चीजें मिलने का प्रबन्ध करता। रास्ते में मुसलमानों के लिए हम्माम और कपड़े की मस्जिद बनवाकर खड़ी कराता। इसी को औदार्य कहते हैं और दरियादिली इसी का नाम है। ‘बारोबाहार' में शाहज़ादी बसरा की कहानी पढ़िए और उसकी तुलना इस ऐतिहासिक कथा से कीजिए!

राजा टोडरमल की तरह राजा मानसिंह भी मरते दम तक अपने बाप-दादों के धर्म पर दृद्द रहा; पर कट्टरपन से उसके स्वभाव को तनिक भी लगाव नहीं थी। धार्मिक असहिष्णुता व पक्षपात रखनेवाले ब्यक्ति को अकबर के राज्यकाल में उत्कर्ष पाना असंभव ही था। अकबर ने एक बार मानसिंह से इशारतन धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव किया, उस पर राजा ने ऐसा उपयुक्त उत्तर दिया कि बादशाह को चुप हो जाना पड़ा। पुस्तकों में बहुत-से उल्लेख मिलते हैं जिनसे प्रकट होता है कि राजा रसिकता, विनोदशीलता और चुटकलेबाज़ी में भी औरों से दो क़दम आगे था। यही गुण थे जो उसके उत्कर्ष के सोपान थे। पर हमारी दृष्टि में तो उसका मूल्य और महत्त्व इसलिए है कि उसके घराने ने पहले-पहल दो परस्पर-विरोधी समुदायों को मिलाने का यत्न किया।