राजा और प्रजा/९ बहुराजकता
बहुराजकता।
पूर्वकालके साथ प्रस्तुत कालकी तुलना करना हम नहीं छोड़ते हैं। पूर्वकाल जब उपस्थित नहीं है तब एकतर्फा विचारमें जो हो सकता है वही होता है; अर्थात् विचारककी मनःस्थिति के अनुसार कभी पूर्व- कालका भाग्य यशःश्रीका अधिकारी होता है, कभी प्रस्तुत कालका । पर ऐसे विचारपर भरोसा नहीं किया जा सकता ।
हम मुगलोंके राज्यमें अधिक सुखी थे या अँगरेजी राज्यमें अधिक सुखी हैं, बहुतसे बड़े बड़े गवाहोंके इजहार सुनकर भी इसका अन्तिम निर्णय नहीं किया जा सकता । मनुष्यका सुखदुःख अनेकानेक सूक्ष्म वस्तुओंपर निर्भर करता है, एक एक करके उन सबका अन्वेषण करना असम्भव कार्य है। विशेषतः इस कारण कि जो काल चला जाता है वह अपना सुबूत और शहादतें भी अपने साथ ही लिये जाता
परन्तु पूर्वकाल और प्रस्तुतकालका एक प्रभेद अन्य सब प्रभेदों में प्रधान है । जिस तरह यह प्रभेद अन्य सब प्रभेदोंसे बड़ा है उसी तरह इसका फलाफल भी हमारे देशके लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। अपने इस संक्षिप्त प्रबन्धमें हम उसी प्रभेदका संक्षेपमें विचार करना चाहते हैं। पहले भारतवर्षके सिंहासनपर एक व्यक्ति-~-बादशाह-था, पीछे उसपर एक कम्पनी बैठी, आजकल एक जाति आसीन है । पहले उस- पर एक व्यक्ति था, अब अनेक हैं । यह बात इतनी सीधी है कि इसे सिद्ध करनेके लिये किसी सूक्ष्म तर्ककी आवश्यकता नहीं है।
बादशाह सोचते थे कि भारतवर्ष हमारा है; अँगरेज जाति जानती है कि भारतवर्ष हम सबका है। एक राजपरिवार मात्र नहीं, सारी अँगरेज जाति ही भारतवर्षको पाकर धनी हो गई है। सम्भव ही नहीं, बहुत सम्भव है कि बादशाह बहुत अधिक अत्याचार करता रहा हो। अब अत्या- चार नहीं है, पर भार है। पीठपर बैठे हुए महावतका अंकुश थोड़ी थोड़ी देरपर मस्तकमें चुभाया जाना हाथी के लिये सुखकी बात नहीं हो सकती । पर महावतके बदले यदि एक मनुष्य-समूहको सदा ढोए फिरना पड़े तो केवल अंकुशके अभावको हाथी अपना सौभाग्य नहीं समझेगा।
यदि एक ही देवताके पूजापात्रमें फूल सजाये जायें तो वे देखनेमें स्तूपाकार हो सकते हैं और चुननेवालेका परिश्रम भी सब लोग प्रत्यक्ष देख सकते हैं। परन्तु तेतीस करोड़ देवताओंको एक एक पँखड़ी भी भेंट करना देखनेमें चाहे जितना छोटा काम मालूम हो, पर वास्तवमें वह उतना छोटा नहीं है। परन्तु यह एक एक पँखड़ीका हिसाब एक जगह संग्रह करना कठिन है, इसीसे केवल अपने अदृष्टके सिवा और किसीको दोषी बनानेकी बात हमारे मनमें उठती ही नहीं।
यहाँ किसी एकको विशेष रूपसे दोषी सिद्ध करनेकी चर्चा नहीं है । मुगलोंकी अपेक्षा अँगरेज अच्छे हैं या बुरे, इसकी मीमांसा कर- नेमें कोई विशेष लाभ नहीं है। तौ भी अवस्थाको समझ लेनेकी आवश्यकता है। इसे जान लेनेसे अनेक वृथा आशाओं और निष्फल चेष्टाओंसे छुटकारा हो सकता है; और यह भी एक लाभ ही होगा।
हम यह चिल्लाते चिल्लाते मरे जा रहे हैं कि हमारे देशकी प्रायः सभी बड़ी बड़ी नौकरियाँ अँगरेजोंके ही बाँटेमें आती हैं। पर इसके रोकनेका उपाय कहाँसे हो सकता है ? हम सोचते हैं कि यदि इंग्लै- ण्ड जाकर वहाँ वालोंके दरवाजे दरवाजे अपना दुखड़ा रोएँ तो हमारे दुःख कुछ घटा दिए जायेंगे । पर यह बात याद रखनी होगी कि हमें जिनके विरुद्ध नालिश करना है उन्हींके पास हम नालिश करने जा रहें हैं।
बादशाहके जमानेमें हम वजीर हुए हैं, सेनापति हुए हैं, देशके शासनकी जिम्मेदारी हमें सोंपी गई है। पर इस समय जो ये बातें हमारी आशाके बाहर हो रहीं हैं इसका क्या कारण है ? दूसरे गुप्त या प्रकाश्य कारणोंको जाने दीजिए, पर एक स्थूलसा कारण स्पष्ट रूपसे हमारे आपके सामने है। इंग्लेण्ड सारे अँगरेजोंको अन्न देनेमें अस- मर्थ है; इसलिये भारतवर्षमें उनके लिये अन्नसत्र खोल रखना आवश्यक है । एक समग्र जातिके अन्नका भार अनेकांशमें हमारे ऊपर है, और वही अन्न हमें सैकड़ों आकारों और सैकड़ों रूपके पात्रोंमें परोसकर भेजना पड़ता है।
यदि सप्तम एडवर्ड यथार्थमें हमारे दिल्लीके सिंहासनपर राजाकी भाँति आसीन होते तो हम उनके निकट जाकर पूछ सकते थे कि " राजाधिराज, यदि बड़े बड़े कौर--सभी मुख्य मुख्य भोग्य वस्तुएँ- विदेशियोंकी ही पत्तलों में परोसी जाती रहेंगी तो यह आपका राज्य क्या खाकर रहेगा--यह किस प्रकार जीता बचेगा?" उस समय सम्राट् भी कहते-" बेशक, अपने साम्राज्यसे खास अपने भोगके लिये हम जो कुछ लें वह तो ठीक है, पर यह देखकर यदि सभी ऐरे गैरे पत्तले बिछा बिछाकर बैठ जायें तो कैसे काम चलेगा ?"
उस समय वे भारतको अपना राज्य समझकर उसके दुःखसे दुःखी होते और पराए मनुष्योंके लोभ-प्रेरित हाथोंको उधर ही पकड़- कर रोक रखते। पर आज प्रत्येक अँगरेज भारतवर्षको अपना राज्य समझता है । इस राज्यसे उन्हें मिलनेवाली भोग-वस्तुओंकी मात्रामें जब जरा भी कमी होती है तब वे सब मिलकर ऐसा शोर मचाते हैं कि उनके देशका कोई कानून बनानेवाला इस व्यवस्थामें कोई परि- वर्तन करने ही नहीं पाता ।
यह बात जरा सा सोचनेसे ही समझ ली जा सकती है कि अपने इस हजारों मुखवाले राजाकी पत्तल से कुछ पानेके लिये उसीके दरबारमें फरियाद करना व्यर्थ है।
सारांश यह है कि एक समस्त जातिका अपने ही देशमें रहते हुए दूसरे देशका शासन करना अभूतपूर्व घटना है। राजा कितना ही उत्तम क्यों न हो, इस परिस्थितिमें उसका बोझ उठाए रहना देशके लिये अत्यन्त कठिन है । जिस देशको मुख्य रूपसे दूसरे देशके लाभा- लाभका और गौण रूपसे अपने देशके लाभालाभका एक ही साथ विचार रखना पड़े उसकी अवस्था अत्यन्त शोचनीय होती है। जिस देशका भारकेन्द्र उसके अपने शरीरसे इतना विलग हो, वह क्यों कर खड़ा रह सकता है ? यह सच है कि इस देशसे चोरी डकैतियाँ उठ गई, यह भी सच है कि अदालतें विचार करनेमें बालकी खाल उतार डालती हैं, पर बोझ उतारनेकी भी कोई जगह है ? अतएव कांग्रेसकी कोई प्रार्थना यदि सुसंगत हो सकती है तो यही कि चाहे सम्राट् एडवर्डके पुत्रको, चाहे लार्ड कर्जन या लार्ड किच- नरको, चाहे इंग्लिशमैन, और पायोनियरमेंसे किसी एकके सम्पादकको, गरज यह कि उत्तम, मध्यम या नीच किसी भी एक अँगरेजको पार्लिमेन्ट चुनकर दिल्लीके सिंहासनपर बैठा दे। एक देश हजार समृद्धिशाली होनेपर भी केवल एक राजाका ही पालन कर सकता है, देशभर- राजाका पालन उससे नहीं हो सकता।
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