राजा और प्रजा
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक रामचंद्र वर्मा

बंबई: हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, पृष्ठ ९५ से – ११२ तक

 

अत्युक्ति।*

[]

पृथ्वीके पूर्वकोणके लोग अर्थात् हम लोग अत्युक्तिका बहुत अधिक व्यवहार करते हैं। अपने पश्चिमीय गुरुओंसे हम लोगोंको इस सम्बन्धमें अकसर उलटी सीधी बात सुननी पड़ती हैं। जो लोग सात समुद्रपारसे हम लोगोंके भलेके लिये उपदेश देने आते हैं, हम लोगोंको उचित है कि सिर झुकाकर चुपचाप उनकी बातें सुना करें। क्योंकि वे लोग हमारे जैसे अभागोंकी तरह केवल बातें करना ही नहीं जानते और साथ ही वे लोग यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि बातें किस तरह सुनी जाती हैं। और फिर हम लोगों के दोनों कानोंपर भी उनका पूरा अधिकार है।

लेकिन हम लोगोंने डाँट-डपट और उपदेश तो बार बार सुना है और हम लोगोंके स्कूलोंमें पढ़ाए जानेवाले भूगोलके पृष्ठों और कन्वोकेशन (Convocation) से यह बात अच्छी तरह प्रतिध्वनित होती है कि हम लोग कितने अधम हैं। हम लोगोंका क्षीण उत्तर इन बातोंको दबा नहीं सकता, लेकिन फिर भी हम बिना बोले कैसे रह सकते हैं? अपने झुके हुए सिरको हम और कहाँतक झुकावेंगे?

सच बात तो यह है कि अत्युक्ति और अतिशयिता सभी जातियों में है। अपनी अल्युक्ति बहुत ही स्वाभाविक और दूसरोंकी अत्युक्ति बहुत ही असंगत जान पड़ती है। जिस विषयमें हम लोगोंकी बात आपसे आप बहुत बढ़ चलती है उस विषयमें अँगरेज लोग बिलकुल चुप रहते हैं और जिस विषयमें अँगरेज लोग बहुत अधिक बका करते हैं उस विषयमें हम लोगों के मुँहसे एक बात भी नहीं निकलती। हम लोग सोचते हैं कि अंगरेज लोग बातोंको बहुत अधिक बढ़ाते हैं और अँगरेज लोग सोचते हैं कि पूर्वीय लोगोंको परिमाणका ज्ञान नहीं है।

हमारे देशमें गृहस्थलोग अपने अतिथिसे कहा करते हैं कि-"सब कुछ आपका ही है-घर-बार सब आपका है।" यह अत्युक्ति है। यदि कोई अँगरेज स्वयं अपने रसोई-घरमें जाना चाहे तो वह अपनी रसोई बनानेवालीसे पूछता है-"क्या मैं इस कमरेमें आ सकता हूँ?" यह भी एक प्रकारकी अत्युक्ति ही है।

यदि स्त्री नमककी प्याली आगे खसका दे तो अँगरेज पति कहता है-"मैं धन्यवाद देता हूँ।" यह अत्युक्ति है। निमंत्रण देनेवालेके घरमें सब तरहकी चीजें खूब अच्छी तरह खा-पीकर इस देशका निमंत्रित कहता है-"बड़ा आनन्द हुआ, मैं बहुत सन्तुष्ट हैं।" अर्थात् मेरा सन्तोष ही तुम्हारे लिये पारितोषिक है। इसके उत्तरमें निमंत्रण देनेवाला कहता है—"आपकी इस कृपासे मैं कृतार्थ हो गया।" इसे भी अत्युक्ति कह सकते हैं।

हम लोगोंके देशमें स्त्री अपने पतिको जो पत्र लिखती है उसमें लिखा रहता है-"श्रीचरणेषु।" अँगरेजोंके लिये यह अत्युक्ति है। अँगरेज लोग अपने पत्रोंमें जिस-तिसको "प्रिय" लिखकर सम्बोधन करते हैं। अभ्यस्त न होनेके कारण हम लोगोंको यह बात अत्युक्ति जान पड़ती है। इस प्रकारके और भी हजारों दृष्टान्त हैं। लेकिन ये सब बँधी हुई अत्युक्तियाँ हैं—पैतृक हैं। हम लोग अपने दैनिक व्यवहारमें नित्य नई नई अत्युक्तियोंकी रचना किया करते हैं। वस्तुतः प्राच्यजातिकी भर्त्सनाका यही कारण है। ताली एक हाथसे नहीं बजती, इसी प्रकार बात भी दो आदमियोंके मिलनेसे होती है। जिस स्थानपर श्रोता और वक्ता दोनों एक दूसरेकी भाषा समझते हैं उस स्थानपर दोनोंके संयोगसे अत्युक्ति आपसे आप संशोधित हो जाती है। साहब जब चिट्ठीके अन्तमें हमें लिखते हैं Yours truly-सचमुच तुम्हारा-तब यदि हम उनके इस अत्यन्त घनिष्ठ आत्मीयता दिखलानेवाले पदपर अच्छी तरह विचार करें तो हम समझते हैं कि वे सचमुच हमारे नहीं हैं। विशेषतः जब कि बड़े साहब अपने आपको हमारा बाध्यतम भृत्य बतलाते हैं तो हम अनायास ही उनकी इस बातमेंसे सोलह आने बाद करके ऊपरसे और भी सोलह आने काट ले सकते हैं, अर्थात् इसका बिलकुल ही उलटा अर्थ ले सकते हैं। ये सब बँधी हुई और दस्तूरकी अत्युक्तियाँ हैं। लेकिन प्रचलित भाषा-प्रयोगकी अत्युक्तियाँ भी अँगरेजीमें कोड़ियों भरी पड़ी हैं। Immensely, immeasurably, extremely, awfully, infinitely, absolutely, over so much, for the life of me, for the world, unbounded, endless आदि शब्द-प्रयोग यदि सभी स्थानोंपर अपने अपने यथार्थ भावोंमें लिए जायँ तो उनके सामने पूर्वीय अत्युक्तियाँ इस जन्ममें कभी सिर ही न उठा सकेंगी।

यह बात स्वीकृत करनी ही पड़ेगी कि बाहरी या ऊपरी विषयोंमें हम लोग बहुत ही शिथिल हैं। बाहरकी चीजको न तो हम लोग ठीक तरहसे देखते हैं और न उसे उसके ठीक रूपमें ग्रहण ही करते हैं। प्रायः हम लोग बाहरके ९ को ६ और ६ को ९ कर दिया करते हैं। यद्यपि हम लोग अपनी इच्छासे ऐसा नहीं करते, लेकिन फिर भी ऐसे अवसरपर अज्ञानकृत पापका दूना दोष होता है-एक तो पाप और दूसरा ऊपरसे अज्ञान। इन्द्रियोंको इस प्रकार अलस और बुद्धिको इस प्रकार असावधान कर रखनेसे हम लोग अपनी इन दोनों बातोंको, जो इस संसारमें हम लोगोंका प्रधान आधार हैं, बिलकुल मिट्टी कर देते हैं। जो व्यक्ति वृत्तांतको बिलकुल अलग छोड़कर केवल कल्पनाकी सहायतास सिद्धान्त स्थिर करनेकी चैष्ठा करता है वह अपने आपको ही धोखा देता है। जिन जिन विषयोंमें हम लोग अनजान रहते हैं उन्हीं उन्हीं विषयों में हम लोग धोखा खाते हैं। काना हिरन जिस तरफ अपनी कानी आँख रखकर आनन्दसे घास खा रहा था उसी तरफसे शिकारीका तीर आकर उसके कलेजेमें लगा। हम लोगोंकी फूटी हुई आँख थी इहलोककी तरफ, इसलिये उसी तरफसे हम लोगोंको यथेष्ट शिक्षा भी मिली। उसी तरफकी चोट खाकर हम लोग मरे! लेकिन क्या करें-"जाकर जौन स्वभाव छुटै नहिं जीसों।"

अपना दोष तो हमने मान लिया। अब हमें दूसरोंपर दोषारीपण करनेका अवसर मिलेगा। बहुतसे लोग इस प्रकार दूसरोंपर दोषारोपण करनेकी निन्दा करते हैं, हम भी उसकी निन्दा करते हैं। लेकिन जो लोग विचार करते हैं, दूसरे भी उनका विचार करनेके अधिकारी होते हैं। हम अपने इस अधिकारको नहीं छोड़ सकते। इससे हम यह आशा नहीं करते कि दूसरोंका कुछ उपकार होगा, लेकिन अपने अपमानके समय हमें जहाँसे जो कुछ आत्मप्रसाद मिल सकता हो, उसे हम नहीं छोड़ सकते। हम यह बात देख चुके हैं कि हम लोगोंकी अत्युक्ति अलसबुद्धिका बाहरी प्रकाश है। इसके अतिरिक्त हम यह भी देखते हैं कि बहुत दिनोंतक पराधीन रहनेके कारण चित्तमें जो विकार हो जाता है वह भी इसका कुछ कारण है। इसका एक उदाहरण यह है कि हम लोगोंको जबतब, मौके बेमौके, आवश्यकता हो या न हो, खूब जोरसे चिल्लाकर कहना पड़ता है कि हम राजभक्त हैं, पर इसका कोई ठिकाना ही नहीं कि हम भक्ति करेंगे किसकी-कानूनकी किताबकी या कमिश्नर साहबके चपरासीकी या पुलिसके दारोगाकी? गवर्नमेन्ट तो है, लेकिन आदमी कहाँ है? हम हृदयका सम्बन्ध किसके साथ स्थापित करेंगे? आफिसको तो हम गलेके साथ लगाकर रख ही नहीं सकते। बीच बीचमें अप्रत्यक्ष राजाकी मृत्यु या अभिषेकके उपलक्ष्यमें जब तरह तरहके चन्दोंके रूपमें राजभक्ति दुहनेका आयोजन होता है तब हमें डरते डरते उस सूखी भक्तिको छिपानेके लिये बहुत अधिक रकम और अत्युक्ति के द्वारा राजपात्रको बहुत अच्छी तरह और भरपूर भर देना पड़ता है। जो बात स्वाभाविक नहीं होती यदि उसी बातको प्रमाणित करना आवश्यक हो, तो लोग बहुत जोरसे चिल्लाने लगते हैं। वे यह बात भूल जाते हैं कि मृदु स्वरमें जो बे-सुर पकड़ा नहीं जा सकता, चिल्लानेमें वही बे-सुर चौगुना बढ़ जाता है।

लेकिन इस प्रकारकी अत्युक्तियोंके लिये अकेले हम ही लोग उत्तरदायी नहीं हैं। यह बात ठीक है कि इस प्रकारकी अत्युक्तियोंसे पराधीन जातिकी भीरुता और हीनता प्रकट होती है, लेकिन यह अवस्था इस बातका प्रमाण नहीं देती कि हमारे शासकोंमें महत्ता और सत्यके प्रति अनुराग है। यदि कोई प्रसन्नतापूर्वक यह कहे कि जलाशयका जल समतल नहीं है, तो यही समझना होगा कि यद्यपि यह बात विश्वास करनेके योग्य नहीं है तो भी उसका स्वामी यही बात सुनना चाहता है। आजकल अँगरेजलोग साम्राज्यके मदसे मत्त हैं, इसलिये वे तरह तरहसे यही सुनना चाहते हैं कि हम लोग राजभक्त हैं—हम लोग अपनी इच्छासे ही उनके चरणोंमे बिके हुए हैं। और फिर इस बातको वे सारे संसारमें ध्वनित और प्रतिध्वनित करना चाहते हैं।

और इधर हम लोगोंका किसी प्रकारका कुछ विश्वास भी नहीं किया जाता। इतना बड़ा देश एक दमसे निरस्त्र है। यदि दरवाजे पर कोई हिंसक पशु आजाय तो हम लोगोंके हाथमें दरवाजा बन्द कर लेनेके सिवा और कोई उपाय नहीं है। पर जब सारे संसारको साम्राज्यका बल दिखलाना होता है तब अटल भक्तिकी रट लगानेके समय हमारी आवश्यकता होती है। मुसलमान शासकोंके समय हम लोगोंका देशनायकता और सेना नायकता का अधिकार छीना नहीं गया था। मुसलमान सम्राट् जब अपने दरबारमें अपने सरदारोंको साथ लेकर बैठा करते थे तब वह कोरा प्रहसन ही नहीं होता था। वे सरदार या राजेलोग सचमुच सम्राट्के सहायक थे, रक्षक थे, सम्मानभाजन थे। लेकिन आजकल राजाओंका सम्मान केवल मौखिक है। और उन्हें अपने पीछे पीछे घसीटकर देस परदेसमें राजभक्तिका अभिनय और आडम्बर कराना उन दिनोंकी अपेक्षा चौगुना बढ़ गया है। जिस समय इंग्लैण्डकी साम्राज्य-लक्ष्मी अपनी सजावट करने बैठती है उस समय उपनिवेशोंके सामान्य शासक लोग तो उसके माथेके मुकुटमें झिलमिलाने लगते हैं और भारतवर्षके प्राचीन वंशीय राजामहाराजा उस राजलक्ष्मीके पैरोंके नूपुरोंमें घुँघरुओंकी तरह बँध कर केवल झनकार देनेका काम करते हैं। यह बात इस बारके विलायती दरबारमें सारे संसारने अच्छी तरह देखी है। अँगरेजी साम्राज्यके जगन्नाथजीके मन्दिरमें जहाँ कनाडा, न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया और दक्षिण आफ्रिका अपना पेट फुलाए हुए और हृष्टपुष्ट शरीर लेकर खूब रोबदाबके साथ पंडागिरी करते फिरते हैं वहाँ, दुबले पतले और जीर्णतनु भारतवर्षको कहींसे भी प्रवेश करनेका अधिकार नहीं है। ठाकुरजीका भोग भी उसके भागमें बहुत थोड़ा पड़ता है, लेकिन जिस दिन संसारके राजपथमें ठाकुरजीका गगनभेदी रथ चलता है केवल उसी एक दिन रथका रस्सा पकड़कर खींचनेके लिये भारतवर्षकी बुलाहट होती है। उस दिन कितनी 'वाहवा' होती है, कितनी तालियाँ बजती हैं, कितना सौहार्द्र दिखलाया जाता है-उस दिन कर्जनकी निषेध-शृंखलासे मुक्त भारतीय राजा-महाराजाओंके मणि-माणिक्य लंदनके राजमार्गमें झिलमिलाते हुए दिखाई पड़ते हैं और राजभक्त राजाओंकी प्रशंसाकी झड़ी लगा दी जाती है। यह सब प्रशंसा भारतवर्ष चुपचाप सिर झुकाकर सुना करता है। यह सबकी सब पश्चिमी अत्युक्ति है। लेकिन यह झूठी और दिखौआ अत्युक्ति है, सच्ची नहीं।

पूर्वीय लोगोंकी अत्युक्ति और अतिशयता प्रायः उन लोगोंके स्वभावकी उदारताके कारण ही होती है। पाश्चात्य अत्युक्ति बनावटी चीज है, उसे जाल भी कह सकते हैं। बड़े बड़े दिलदार मुगल-सम्राटोंके समय भी दिल्लीमें दरबार हुआ करता था। आज न तो वह दिन रह गया है और न वह दिल्ली रह गई है, लेकिन फिर भी दरबारकी नकल करनी ही पड़ती है। राजा लोग सदा ही पोलिटिकल एजेन्टरूपी राहुओंसे ग्रस्त रहते हैं। साम्राज्यके संचालनमें न तो उनके लिये कोई स्थान है, न उनका कोई काम है और न उन्हें किसी प्रकारकी स्वतंत्रता है। अचानक एक दिन अँगरेज सम्राट्के प्रतिनिधिने परित्यक्तमहिमा दिल्लीमें सलाम बटोरनेके लिये अँगरेजोंको तलब किया, और अपनी जमीनपर लटकती हुई पोशाकका सिरा सिक्ख और राजपूतकुमारोंके द्वारा उठवा लिया,-आकस्मिक उपद्रवकी तरह एक दिन एक समारोहका आग्नेय उच्छ्वास उठा और उसके बाद फिर सब कुछ वैसा ही शून्य और वैसा ही निष्प्रभ हो गया।

आजकलका भारतीय साम्राज्य दफतरों और कानूनोंसे चलता है। उसमें न तो तड़क-भड़क है, न गीत-वाद्य हैं और न प्रत्यक्ष मनुष्य ही हैं। अँगरेजोंका खेल-कूद, नाच-गाना, आमोद-प्रमोद सब कुछ उन्हीं लोगोंमें बद्ध रहता है। उस आनन्द-उत्सवकी बची बचाई भूसी भी भारतवर्षकै सर्वसाधारणके लिये उस प्रमोदशालासे बाहर नहीं आने पाती। अँगरेजोंके साथ हम लोगोंका जो सम्बन्ध है वह आफिसके बँधे हुए कामों और हिसाब-किताबके बही-खातीका ही है। प्राच्य सम्राटों और नवाबोंके साथ हम लोगोंका अन्न-वस्त्र, शिल्पशोभा और आनन्द-उत्सवका बहुत कुछ सम्बन्ध था। जब उनके प्रासादमें आमोद-प्रमोदका दीप जलता था तब उसका प्रकाश बाहर चारों ओर प्रजाके घरोंपर भी पड़ता था। उन लोगोंके नौबतखानोंमें जो नौबत बजती थी उसकी आनन्द-ध्वनि एक दीनकी कुटीमें भी प्रतिध्वनित हो उठती थी।

अँगरेज सिविलियन लोग आपसके आमंत्रण-निमंत्रणमें सामाजिक दृष्टिसे सम्मिलित होनेके लिये बाध्य हैं। और जो व्यक्ति अपने स्वभावके दोषके कारण इस प्रकारके इन सब विनोद-व्यापारोंमें पटु नहीं होता, उसकी उन्नतिमें बहुतसी बाधाएँ आ पड़ती हैं। पर यह सब कुछ स्वयं अपने ही लोगों के लिये है। जिस स्थानपर चार अँगरेज रहते हैं वहाँ आनन्द-मंगलका तो अभाव नहीं होता, लेकिन उस आनन्द-मंगलके कारण चारों ओर आनन्द-मंगल नहीं होता। हम लोग केवल यही देखते हैं कि कुली लोग बाहर बैठकर त्रस्त चित्तसे पंखेकी रस्सी खींच रहे हैं, साईस घोड़ेकी लगाम पकड़कर चँवरसे मक्खियाँ और मच्छड़ उड़ा रहे हैं और दग्ध भारतवर्षके तप्त सम्बन्धसे दूर होनेके लिये शासक लोग शिमलेके पहाड़की तरफ भाग रहे हैं। भारतवर्ष में अँगरेजी राज्यका विशाल शासन-कार्य बिलकुल ही आनन्दहीन और सौन्दर्यहीन है। उसका सारा मार्ग केवल दफतरों और अदालतोंकी ही ओर हैं, जनसमाजके हृदयकी ओर बिलकुल नहीं है। तो फिर अचानक इसके बीचमें यह बिलकुल बेजोड़ दिखनेवाला दरबार क्यों किया जाता है? सारी शासन-प्रणालीके साथ उसका किस जगहसे सम्बन्ध है? पेड़ों और लताओंमें फूल होता है, आफिसोंकी कड़ियों और धरनों में माधधी मंजरी नहीं लगती! यह तो मानों मरुभूमिमें मरीचिकाके समान है। यह छाया तापके निवारणके लिये नहीं है, इस जलसे प्यास नहीं बुझेगी।

प्राचीन कालके दरबारोंमें सम्राट् लोग केवल अपना प्रताप ही नहीं प्रकट किया करते थे। वे सब दरबार किसीके सामने ऊँचे स्वरसे कोई बात प्रमाणित करनेके लिये नहीं किए जाते थे, वे स्वाभाविक होते थे। वे सब उत्सव बादशाहों और नवाबोंकी उदारताके उद्वेलित प्रबाह-स्वरूप हुआ करते थे। उस प्रवाहमें दानशीलता होती थी। उससे प्रार्थियोंकी प्रार्थनाएं पूरी होती थीं, उससे दीनोंका अभाव दूर होता था, उससे आशा और आनन्दका दूर दूर तक प्रसार होता था। अब जो दरवार होनेवाला है उसके कारण बतलाओ किस पीड़ितको आश्वासन मिला है, कौन दरिद्र सुखस्वप्न देख रहा है? यदि उस दिन कोई दुराशाग्रस्त अभागा अपने हाथमें कोई प्रार्थनापत्र लेकर सम्राटके प्रतिनिधिके पास जाना चाहे तो क्या उसे पुलिसके हाथकी मार खाकर रोते हुए न लौटना पड़ेगा? इसीलिये कहते हैं कि आगामी दिल्ली दरबार पाश्चात्य अत्युक्ति और वह भी झूठी वा दिखौआ अत्युक्ति है। इधर तो हिसाब किताब और दूकानदारी है और उधर बिना प्राच्य सम्राटोंकी नकल किए काम नहीं चलता। हम लोग देशव्यापी अनशनके दिनोंमें इस अमूलक दरबारका आडम्बर देखकर डर गए थे, इसीलिये हमारे शासकोंने हमें आश्वासन देते हुए कहा था कि इसमें व्यय बहुत अधिक नहीं होगा और जो कुछ होगा भी उसका प्रायः आधा वसूल कर लिया जा सकेगा। लेकिन जिन दिनोंमें बहुत समझ-बूझकर रुपया खर्च करना पड़ता है उन दिनोंमें भी बिना उत्सव किए काम नहीं चलता। जिन दिनों खजानेमें रुपया कम होता है उन दिनों यदि उत्सव करनेकी आवश्यकता हो तो अपना खर्च बचानेकी ओर दृष्टि रखकर दूसरोंके खर्चकी ओरसे उदासीन रहना पड़ता है। इसीलिये चाहे आगामी दिल्ली दरबारके समय सम्राटके प्रतिनिधि थोड़े ही खर्चमें काम चला लें, लेकिन फिर भी आडम्बरको बहुत बढ़ानेके लिये थे राजा महाराजाओंका अधिक खर्च करावेंगे ही। प्रत्येक राजा महाराजाको कुछ हाथी, कुछ घोड़े और कुछ आदमी अपने साथ लाने ही पड़ेंगे। सुनते हैं कि इस सम्बन्धमें कुछ आज्ञा भी निकली है। उन्हीं सब राजा महाराजाओंके हाथी-चौड़ों और लाव-लश्करसे, यथासंभव थोडा खर्च करनेमें चतुर सम्नाटके प्रतिनिधि जैसे तैसे इस बड़े कामको चला ले जायेंगे। इससे चतुरता और प्रतापका परिचय मिलता है। लेकिन प्राच्य सम्प्रदायके अनुसार जो उदारता और वदान्यता राजकीय उत्सवका प्राण समझी जाती है वह इसमें नहीं है। एक आँख रुपयेकी थैलीकी ओर और दूसरी आँख पुराने वादशाहोंके अनुकरण-कार्यकी ओर रखनेसे यह काम नहीं चल सकता। जो व्यक्ति यह काम स्वभावतः ही कर सकता हो वहीं कर सकता है और उसीको यह शोभा भी देता है।

इसी बीचमें हमारे देशके एक छोटेसे राजाने सम्राटके अभिषेकके उपलक्ष्यमें अपनी प्रजाको कई हजार रुपयोंकी मालगुजारी माफ कर दी है। हमने तो इससे यही समझा कि इससे भारतवर्षीय इन राजा साहबने अँगरेज शासकोंको इस बातकी शिक्षा दी है कि भारतवर्षमें राजकीय उत्सव किस प्रकार किया जाता है। लेकिन जो लोग नकल करते हैं वे सच्ची शिक्षा ग्रहण नहीं करते, वे लोग केवल बाहरी आडम्बर ही कर सकते हैं। तपा हुआ बालू सूर्यके समान ताप तो देता है परन्तु प्रकाश नहीं देता। इसीलिये हमारे देशमें तपे हुए बालुके तापको असह्य अतिशयताके उदाहरणमें लेते हैं। आगामी दिल्ली दरबार भी इसी प्रकार अपना प्रताप तो फैलावेगा लेकिन लोगोंको आशा और आनन्द न देगा। केवल दम्भ-प्रकाश सम्राटको भी शोभा नहीं देता। उदारताके द्वारा, दया-दाक्षिण्यके द्वारा दुस्सह दम्भको छिपा रखना ही यथार्थ राजोचित कार्य है। आगामी दिल्ली दरबारमें भारतवर्ष अपने सारे राजा महाराजाओंको लेकर वर्तमान सम्राट्के प्रतिनिधिके सामने अधीनता स्वीकार करने जायगा। लेकिन सम्राट् उसे कौनसा सम्मान, कौनसी सम्पत्ति, कौनसा अधिकार देंगे? कुछ भी नहीं। यह बात भी नहीं है कि इससे केवल भारतवर्षकी अवनतिकी ही स्वीकृति हो। इस प्रकारके कोरे आकस्मिक दरबारकी भारी कृपणतासे प्राच्य जातिके सामने अँगरेजोंकी राजमहिमा भी बिना घटे नहीं रह सकती।

दरबारके सब काम अँगरेजी प्रथाके अनुसार सम्पन्न होंगे। चाहे वह प्रथा हमारे यहाँकी प्रथासे मिलती जुलती न हो, लेकिन फिर भी हम लोग इस सम्बन्धमें चुप रहनेके लिये वाध्य हैं। हमारे देशमें पहले बराबरीके किसी राजाके आगमनके समय अथवा राजकीय शुभ कार्योंके समय जो सब उत्सव और आमोद आदि होते थे उनमें सारा व्यय राजा अपने पाससे ही देता था। जन्मतिथि आदि अनेक प्रकारके अवसरोंपर प्रजा सदा राजाका अनुग्रह प्राप्त करती थी। लेकिन आजकल सब बातें इसके बिलकुल विपरीत हैं। राजाके यहाँ चाहे शादी हो चाहे गमी, उसका लाभ हो चाहे हानि, लेकिन उसकी ओरसे सदा प्रजाके सामने चन्देका खाता ही रखा जाता है और राजा तथा रायबहादुर आदि खिताबोंकी राजकीय नीलामकी दूकान जम जाती है। अकबर और शाहजहाँ आदि बड़े बड़े बादशाह अपनी कीर्ति स्वयं अपने व्ययसे ही खड़ी कर गए हैं। लेकिन आजकलके कर्मचारी लोग तरह तरहके छलों और तरह तरहके कौशलोंसे प्रजासे ही अपने बड़े बड़े कीर्तिस्तम्भोंका खर्च वसूल कर लेते हैं। सम्राटके प्रतिनिधिने सूर्यवंशीय क्षत्रिय राजाओंको सलाम करनेके लिये अपने पास बुलाया है, पर यह तो नहीं मालूम होता कि सम्राटके इन प्रतिनिधि महाशयने अपने दानसे कौनसा बड़ा भारी तालाब खोदवाया है, कॉनसी धर्मशाला बनवाई है और देशके लिये शिक्षा और शिल्पचर्चाको कौनसा आश्रय दिया है? प्राचीनकालके बादशाह, नवाब और राजकर्मचारीगण भी इस प्रकारके मंगलकार्योंके द्वारा प्रजाके हृदयके साथ सम्बन्ध रखते थे। आजकल राजकर्मचारियों का तो अभाव नहीं है और उनके बड़े बड़े वेतन भी संसारमें विख्यात हैं; परन्तु ये लोग इस देशमें दान और सत्कर्म करके अपने अस्तित्वका कोई चिह्न नहीं छोड़ जाते। ये लोग विलायती दूकानोंसे ही अपना सारा सामान खरीदते हैं, अपने विलायती संगीसाथियोंके साथ ही आमोद-प्रमोद करते हैं और विलायतके किसी कोनेमें बैठकर अन्तिम कालतक अपनी पेन्शिनका भोग किया करते हैं। भारतवर्षमें लेडी डफरिनके नामसे जो सब अस्पताल खुले हैं उनके लिये इच्छासे अथवा अनिच्छासे भारतवर्षकी प्रजाने ही रुपए एकत्र किए हैं। यह प्रथा बहुत अच्छी तो हो सकती है, लेकिन यह भारतवर्षकी प्रथा नहीं है। इसलिये इस प्रकारके सार्वजनिक कार्य हम लोगोंका हृदय स्पर्श नहीं करते। न करें, लेकिन फिर भी विलायतके राजा विलायतकी प्रथाके अनुसार ही चलेंगे, इसमें कहने सुननेकी कोई बात नहीं है। लेकिन कभी देशी और कभी विलायती बननेसे कोई भी शोभायुक्त नहीं दिखता। विशेषतः आडम्बरके समय तो देशी प्रथा और खर्च आदिके समय विलायती प्रथाके अनुसार चलना हम लोगोंको बहुत अमंगत जान पड़ता है। हम लोगोंके विदेशी शासक यह समझ बैठे हैं कि केवल आडम्बर दिखलानेसे ही प्राच्य हृदय भूल जाता है। इसीलिये वे तीस करोड़ तुच्छ जीवोंको अभिभूत करनेके लिये बड़ी चिन्ता और चेष्टासे और खर्चकी म्यूब कोर-कसर करके एक बहुत बड़ी अत्युक्तिकी तैयारी कर रहे हैं। वे यह नहीं जानते कि प्राच्य हृदय दानसे, दया-दाक्षिण्यने और अवारित मंगल-अनुष्ठानसे ही भूलता है। हम लोगोंका जो उत्सव समारोह होता है वह आहूत और अनाहूत सभीके लिये आनन्द-समागम होता है। उसमें "एहि एहि, देहि देहि, पीयताम् भुज्यताम्" के रखको कहीं भी विराम या रोक नहीं। इसे प्राच्य अतिशयताका लक्षण कह सकते हैं लेकिन यह अतिशयता सच्ची है, स्वाभाविक है। और जो दग्वार पुलिसके द्वारा सीमाबद्ध, संगीतोंके द्वारा कंटकित, संशयके द्वारा वस्त, सतर्क कृपणताके द्वारा संकीर्ण और दया तथा दानसे हीन है, जो केवल दम्भके प्रचारके लिये है वह पाश्चात्य अत्युक्ति है। उससे हम लोगोंका हृदय पीड़ित और लांछित होता है। उससे हम लोगोंकी कल्पना आकृष्ट नहीं होती बल्कि प्रतिहत हुआ करती है। उसके मूलमें न तो उदारता है और न प्रचुरता।

यह तो हुई नकल करनेकी अत्युक्ति, लेकिन यह बात सभी लोग जानते हैं कि नकल केवल बाहरी आडम्बर कराके कार्यके मूल उद्देश्यको छुड़ा देती है । इसलिये अँगरेज लोग यदि अपना अंगरेजी ठाठ छोड़कर नवाबी ठाट करेंगे तो उससे जो अतिशयता प्रकट होगी वह बहुत कुछ कृत्रिम होगी, इसलिये उसके द्वारा उनकी जातिगत अत्युक्तिका ठीक ठीक पता नहीं लग सकता। सच्ची विलायती अत्युक्तिका भी एक दृष्टान्त हमें याद आता है। गवर्नमेन्टने हम लोगोंकी दृष्टिके सामने उस दृष्टान्तको पत्थरके स्तम्भके रूपमें स्थायी बनाकर खड़ा कर दिया है, इसीलिये वह दृष्टान्त हमें सहसा याद आ गया। वह है कलकत्तेकी काल-कोठरीकी अत्युक्ति।

हम पहले ही कह चुके हैं कि प्राच्य अत्युक्ति मानसिक शिथिलता है। हम लोग कुछ प्रचुरताप्रिय हैं। हम लोगोंको बहुत किफायत या कंजूसी अच्छी नहीं लगता। देखिए न हम लोगोंके कपड़े ढीलेढाले होते हैं और आवश्यकतासे बहुत अधिक या बड़े होते हैं, लेकिन अँगरेजोंके कपड़ोंकी काट-छाँट बिलकुल पूरी पूरी होती है। यहाँतक कि हम लोगोंके मतसे वे कोर-कसर करते करते और काटते-छाँटते शालीनताकी सीमासे बहुत दूर जा पड़े हैं। हम लोग या तो बहुत अधिक नन्न होते हैं और या बहुत अधिक आवृत। हम लोगोंकी बातचीत भी इसी तरहकी होती है। वह या तो बिलकुल मौनके आसपास होगी और नहीं तो उदार भावसे बहुत अधिक विस्तृत होगी। हम लोगोंका व्यवहार भी वैसा ही होता है, वह या तो बहुत अधिक संयत होता है और या हृदयके आवेगसे उछलता हुआ होता है। लेकिन अँगरेजोंकी अत्युक्तिमें वह स्वाभाविक प्रचुरता नहीं है। वह अत्युक्ति होने पर भी क्षीणकाय होती है। वह अपनी अमूलकताको बहुत चतुराईसे दबाकर ठीक समूलकताकी तरह सजाकर दिखला सकती है। प्राच्य अत्युक्तिमें 'अति' की ही शोभा है, वही उसका अलंकार है। इसीलिये वह निस्संकोच भावसे बाहर अपनी घोषणा करती है। पर अँगरेजी अत्युक्तिकी केवल 'अति' ही गम्भीर भावसे अन्दर रह जाती है और बाहर वह वास्तवका संयत साज पहनकर खालिस सत्यके साथ एक पंक्ति में आ बैठती है।

यदि हम लोग होते तो कहते कि कलकत्तेकी कालकोठरीमें हजारों आदमी मर गए। हम लोग इस समाचारको एक-दमसे अत्युक्तिके बीच-दरियामें बहा देते। लेकिन हालोवेल साहबने जनसंख्याको बिलकुल निर्दिष्ट करके और उसकी सूची देकर कालकोठरीकी लंबाई-चौड़ाई बिलकुल फुटके हिसाबसे नाप-जोखकर बतला दी है! इस सचमें कहीं कोई छिद्र नहीं है। लेकिन उन्होंने इस बातका विचार नहीं किया कि इस विषयमें उधर गणितशास्त्र उनका प्रतिवादी हो बैठा है। अक्षयकुमार मैत्रेय महाशयने अपने 'सिराजुद्दौला' नामक ग्रंथमें इस बातकी अच्छी तरह आलोचना की है कि हालोवेल साहबका झूट कितनी जग)पर और कितने रूपसे पकड़ा जाता है। हालोबेल साहबकी यह अत्युक्ति हम लोगोंके उपदेष्टा लार्ड कर्जनकी प्रतियोगिता करनेके लिए राजपथके बीचमें जमीन फोड़कर स्वर्गकी और पत्थरका अँगूठा उठाये हुए खड़ी है।

प्राच्य और पाश्चात्य साहित्यसे दो भिन्न प्रकारको अत्युक्तियोंका उदाहरण दिया जा सकता है। प्राच्य अत्युक्तिका उदाहरण तो अलिफ लैलाका किस्सा है और पाश्चात्य अत्युक्तिका उदाहरण रुडयार्ड किप्लिंगका 'किम्' नामक ग्रन्थ और उनकी भारतवर्षीय चित्रावली है। अलिफलैलामें भी भारतबर्ष और चीन देशकी बातें हैं, लेकिन सभी लोग जानते हैं कि वे केवल किस्सा कहानी हैं। यह बात इतनी अधिक स्पष्ट है कि उससे काल्पनिक सत्यके अतिरिक्त और किसी प्रकारके सत्यकी कोई आशा ही नहीं कर सकता। लेकिन किप्लिंगने अपनी कल्पनाको छिपाकर सत्यका एक ऐसा आडम्बर खड़ा कर दिया है कि जिस प्रकार किसी हलफ लेकर कहनेवाले गवाहसे लोग प्रकृत वृत्तान्तकी आशा करते हैं, उसी प्रकार किलिंगकी कहानीसे ब्रिटिश पाठक भारतवर्षके प्रकृत वृत्तान्तकी आशा किए बिना नहीं रह सकते।

ब्रिटिश पाठकोंको इसी प्रकार छल करके भुलाया जाता है। क्योंकि वे वास्तविक बातके प्रेमी होते हैं। पढ़नेके समय भी उन्हें वास्तविक बात ही चाहिए और खिलानको भी जबतक ये 'वास्तव' न कर डालें तबतक उन्हें चैन नहीं मिलता। हमने देखा है कि ब्रिटिश भोजमें खरगोश पका तो लिया गया है, लेकिन उसकी आकृति यथासंभव ज्योंकी त्यों रखी गई है। उसका केवल सुखाद्य होना ही आनन्दजनक नहीं है, बल्कि ब्रिटिश भांगी इस बातका भी प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते हैं कि वह वास्तवमें एक जन्तु है। अंगरेजी भोजन केवल भोजन ही नहीं होता, उसे प्राणि-वृत्तान्तका एक ग्रन्थ कह सकते हैं। जब किसी व्यंजनमें किसी पक्षीके ऊपर भूने हुए मैदेका आवरण चढ़ाया जाता है, तब उस पक्षीके पर काटकर उस आवरणके ऊपरसे जोड़ दिए जाते हैं। उनके यहाँ वास्तविकता इतनी आवश्यक है। कल्पनाकी सामामें भी ब्रिटिश पाठक 'वास्तव' को ढूँढ़ते हैं, इसीलिये बेचारी कल्पनाको भी विवश होकर जीजानस 'वास्तव' का स्वाँग रचना पड़ता है । जो व्यक्ति किसी असंभव स्थानमें भी सौंप देखना चाहता हो, उस व्यक्तिको धोखा देने के लिये सँपेरेको भी वाध्य होना पड़ता है। वह साँप निकालता तो अपनी झोलीमेंसे ही है, लेकिन दिखलाता इस प्रकार है कि मानो वह दर्शकके दुपट्टेमेंसे ही निकला हो। किप्लिंगने साँप निकाला तो अपनी कल्पनाकी झोलीमेंसे ही, लेकिन उनकी निपुणताके कारण अँगरेजी पाठकोंने ठीक यही समझा कि एशियाके दुपट्टेमेंसे ही दलके दल साँप निकल रहे हैं।

लेकिन बाहरके वास्तव सत्यके लिये हम लोग इस प्रकार एकान्त लोलुप नहीं है। कल्पनाको कल्पना समझनेपर भी हमें उसमें आनन्द मिलता है। इसीलिये जब हम कहानी सुनने बैठते हैं तब स्वयं ही अपने आपको भुला सकते हैं। हमारे लिये लेखकको किसी प्रकारका छल नहीं करना पड़ता। उसे काल्पनिक सत्यको वास्तव सत्यकी दाढी मूंछ नहीं लगानी पड़ती। बल्कि हम लोग और भी उलटी तरफ जाते हैं। हम लोग वास्तव सत्यपर कल्पनाका रंग चढ़ाकर उसे अप्राकृतिक बना सकते हैं, इससे हम लोगोंको किसी प्रकारका दुख नहीं होता। हम लोग वास्तव सत्यको भी कल्पनाके साथ मिला देते हैं और युरोप कल्पनाको भी वास्तव सत्यके रूपमें खड़ा कर देता है तब छोड़ता है। अपने इस स्वभाव-दोपके कारण हम लोगोंकी बहुत कुछ हानि भी हुई है। और क्या अँगरेजोंके स्वभावसे उन लोगोंकी कोई हानि नहीं हुई? गुप्त झूठ क्या उन लोगोंके घर और बाहर विहार नहीं कर रहा है? उन लोगोंके यहाँ समाचारपत्रोंके समाचार गढ़े जाते हैं और यह बात सभी लोग जानते हैं कि उन लोगोंके व्यवसाय-मन्दिरोंमें और शेअर (Share) खरीदन-वेचनेके बाजारोंमें किस प्रकार सर्वनाशक झूठका व्यवहार होता है। हम लोग यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि विलायती विज्ञापनोंकी अत्युक्तियाँ और मिथ्या उक्तियाँ भिन्न भिन्न वर्गों, भिन्न भिन्न चित्रों और भिन्न भिन्न अक्षरोंमें देश-विदेशोंमें किस प्रकार अपनी घोषणा करती हैं। अब हम लोग भी निर्लज्ज होकर और उन्हींमें मिलकर इस प्रकारकी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं! विलायतमें जिस प्रकार राजनीतिक क्षेत्रमें झूठे बजट तैयार किए जाते हैं, प्रश्नोंके जिस प्रकार चतुराईसे गढ़े हुए और दूसरोंको धोखेमें डालनेवाले उत्तर दिए जाते हैं और अभियोग चलाकर एक पक्षपर दूसरे पक्षवाले जो सब दोषारोपण करते हैं, वे सब यदि मिथ्या हों तब तो लज्जाका विषय है और यदि वे मिथ्या न हों तो इसमें सन्देह नहीं कि वे शंकाजनक अवश्य हैं। वहाँकी पार्लिमेन्टसंगत भापामें और कभी कभी उसका उल्लंघन करके भी बड़े बड़े लोगोंको झूठा, धोखेबाज और सच्ची बातको छिपानेवाला कह दिया जाता है। या तो इस निन्दावादको अत्युक्तिपरायणता कहना होगा और नहीं तो यह कहना पड़ेगा कि इंग्लैण्डकी राजनीति झूठसे बिलकुल जीर्ण है।

जो हो, इस आलोचनासे यह बात मनमें आती है कि अत्युक्तिको स्पष्ट अत्युक्तिके रूपमें रखना ही अच्छा है। उसे कौशलसे काट-छाँटकर वास्तवके दलमें मिलानेकी चेष्टा करना अच्छा नहीं है-उसमें बहुत अधिक विपत्तियाँ हैं।


  1. * जिस समय दिल्ली-दरबारकी तय्यारियाँ हो रही थीं, यह लेख उस समय लिखा गया था।