राजस्थान की रजत बूँदें/ पधारो म्हारे देस

राजस्थान की रजत बूँदें
अनुपम मिश्र

गाँधी शांति प्रतिष्ठान, पृष्ठ ६ से – ११ तक

 

पधारो म्हारे देस

कभी यहां समुद्र था । लहरों पर लहरें उठती रही थीं । काल की लहरों ने उस अघाह समुद्र को न जाने क्यों और कैसे सुखाया होगा । अब यहां रेत का समुद्र है । लहरों पर लहरें अभी भी उठती हैं ।

प्रकृति के एक विराट रूप को दूसरे विराट रूप में _समुद्र से मरुभूमि में बदलने में लाखों बरस लगे होंगे । नए रूप को आकार लिए भी आज हजारों बरस हो चुके हैं । लेकिन राजस्थान का समाज यहां के पहले रूप को भूला नहीं है। वह अपने मन की गहराई में आज भी उसे हाकड़ो नाम से याद रखे है । कोई हजार बरस पुरानी डिंगल भाषा में और आज की राजस्थानी में भी हाकड़ो शब्द उन पीढ़ियों की लहरों में तैरता रहा है, जिनके पुरखों ने भी कभी समुद्र नहीं देखा था।

आज के मारवाड़ के पश्चिम में लाखों बरस पहले रहे हकाड़ो के अलावा

राजस्थान के मन में समुद्र के और भी कई नाम हैं। संस्कृत से विरासत में मिले सिंधु, सरितापति, सागर, वाराधिप तो हैं ही, आच, उअह, देधाण, वडनीर, बारहर, सफरा-भडार जैसे संबोधन भी हैं। एक नाम हेल भी है और इसका अर्थ समुद्र के साथ-साथ विशालता और उदारता भी है।

यह राजस्थान के मन की उदारता ही है कि विशाल मरुभूमि में रहते हुए भी उसके कंठ में समुद्र के इतने नाम मिलते हैं। इसकी दृष्टि भी रही होगी। सृष्टि की जिस घटना को घटे हुए ही लाखों बरस हो चुके, जिसे घटने में भी हजारों बरस लगे, उस सबका जमा घटा करने कोई बैठे तो आकड़ों के अनंत विस्तार के अंधेरे में खो जाने के सिवा और क्या हाथ लगेगा। खगोलशास्त्री लाखों, करोड़ों मील की दूरियों को 'प्रकाश वर्ष' से नापते हैं। लेकिन राजस्थान के मन ने तो युगों के भारी भरकम गुना-भाग को पलक झपक कर निपटा दिया-इस बड़ी घटना को वह 'पलक दरियाव' की तरह याद रखे है-पलक झपकते ही दरिया का सूख जाना भी इसमें शामिल है और भविष्य में इस सूखे स्थल का क्षण भर में फिर से दरिया बन जाना भी।


समय की अंतहीन धारा को क्षण-क्षण में देखने और विराट, विस्तार को अणु में परखने वाली इस पलक ने, दृष्टि ने हाकड़ो को खो दिया। पर उसके जल को, कण-कण को, बूंदों में देख लिया। इस समाज ने अपने को कुछ इस रीति से ढाल लिया कि अखंड समुद्र खंड-खंड होकर ठांव-ठांव यानी जगह-जगह फैल गया।

भूगोल की किताबें वर्षा को 'कंजूस महाजन' की तरह देखती हैं

चौथी हिंदी की पाठ्य पुस्तकों से लेकर देश के योजना आयोग तक राजस्थान की, विशेषकर मरुभूमि की छवि एक सूखे, उजड़े और पिछड़े क्षेत्र की है। थार रेगिस्तान का वर्णन तो कुछ ऐसा मिलेगा कि कलेजा सूख जाए। देश के सभी राज्यों में क्षेत्रफल के आधार पर मध्यप्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा राज्य राजस्थान आबादी की गिनती में नौवां है, लेकिन भूगोल की सब किताबों में वर्षा के मामले में सबसे अंतिम है।

वर्षा को पुराने इंच में नापें या नए सेंटीमीटर में, वह यहां सबसे कम ही गिरती है। यहां पूरे बरस भर में वर्षा ६० सेंटीमीटर का औसत लिए है। देश की औसत वर्षा ११० सेंटीमीटर आंकी गई है। उस हिसाब से भी राजस्थान का औसत आधा ही बैठता है। लेकिन औसत बताने वाले आंकड़े भी यहां का कोई ठीक वर्षा चित्र नहीं दे सकते। राज्य में एक छोर से दूसरे छोर तक कभी भी एक सी वर्षा नहीं होती। कहीं यह १०० सेंटीमीटर से अधिक है तो कहीं २५ सेंटीमीटर से भी कम।

भूगोल की किताबें प्रकृति को, वर्षा को यहां 'अत्यन्त कंजूस' महाजन की तरह देखती हैं और राज्य के पश्चिमी क्षेत्र को इस महाजन का सबसे दयनीय शिकार बताती हैं। इस क्षेत्र में जैसलमेर, बीकानेर, चुरू, जोधपुर और श्रीगंगानगर आते हैं। लेकिन यहां कंजूसी में भी कंजूसी मिलेगी। वर्षा का 'वितरण' बहुत असमान है। पूर्वी हिस्से से पश्चिमी हिस्से की तरफ आते-आते वर्षा कम से कम होती जाती है। पश्चिम तक जाते-जाते वर्षा सूरज की तरह 'डूबने' लगती है। यहां पहुँच कर वर्षा सिर्फ १६ सेंटीमीटर रह जाती है। इस मात्रा की तुलना कीजिए दिल्ली से, जहां १५० सेंटीमीटर से ज्यादा पानी गिरता है, तुलना कीजिए उस गोवा से, कोंकण से, चेरापूंजी से, जहां यह आंकड़ा ५०० से १००० सेंटीमीटर तक जाता है। मरुभूमि में सूरज गोवा, चेरापूंजी की वर्षा की तरह बरसता है। पानी कम और गरमी ज्यादा – ये दो बातें जहां मिल जाएं वहां जीवन दूभर हो जाता है, ऐसा माना जाता है। दुनिया के बाकी मरुस्थलों में भी पानी लगभग इतना ही गिरता है, गरमी लगभग इतनी ही पड़ती है । इसलिए वहां बसावट बहुत कम ही रही है । लेकिन राजस्थान के मरुप्रदेश में दुनिया के अन्य ऐसे प्रदेशों की तुलना में न सिर्फ बसावट ज्यादा है, उस बसावट में जीवन की सुगंध भी है । यह इलाका दूसरे देशों के मरुस्थलों की तुलना में सबसे जीवंत माना गया है।

इसका रहस्य यहां के समाज में है। राजस्थान के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी का रोना नहीं रोया। उसने इसे एक चुनौती की तरह लिया और अपने को ऊपर से नीचे तक कुछ इस ढंग से खड़ा किया कि पानी का स्वभाव समाज के स्वभाव में बहुत सरल, तरल ढंग से बहने लगा।

इस 'सवाई' स्वभाव से परिचित हुए बिना यह कभी समझ में नहीं आएगा कि यहां पिछले एक हजार साल के दौर में जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर और फिर जयपुर जैसे बड़े शहर भी बहुत सलीके के साथ कैसे बस सके थे। इन शहरों की आबादी भी कोई कम नहीं थी। इतने कम पानी के इलाके में होने के बाद भी इन शहरों का जीवन देश के अन्य शहरों के मुकाबले कोई कम सुविधाजनक नहीं था। इनमें से हरेक शहर अलग-अलग दौर में लंबे समय तक सत्ता, व्यापार और कला का प्रमख केंद्र भी बना रहा था। जब बंबई, कलकत्ता, मद्रास जैसे आज के बड़े शहरों की 'छठी' भी नहीं हुई थी तब जैसलमेर आज के ईरान, अफगानिस्तान से लेकर रूस तक के कई भागों से होने वाले व्यापार का एक बड़ा केन्द्र बन चुका था।

जीवन की, कला की, व्यापार की, संस्कृति की ऊंचाइयों को राजस्थान के समाज ने अपने जीवन-दर्शन की एक विशिष्ट गहराई के कारण ही छुआ था। इस जीवन-दर्शन में पानी का काम एक बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता था। सचमुच धेले भर के विकास के इस नए दौर ने पानी की इस भव्य परंपरा का कुछ क्षय जरूर किया है, पर वह उसे आज भी पूरी तरह तोड़ नहीं सका है। यह सौभाग्य ही माना जाना चाहिए।

पानी के काम में यहां भाग्य भी है और कर्तव्य भी। वह भाग्य ही तो था राजस्थान की कि महाभारत युद्ध समाप्त हो जाने के बाद श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र से अर्जुन को साथ रजत बूंदें लेकर वापस द्वारिका इसी रास्ते से लौटे थे। उनका रथ मरुदेश पार कर रहा था।


आज के जैसलमेर के पास त्रिकूट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिले थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया था और उनके तप से प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने कहा था। उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा। ऋषि सचमुच बहुत ऊंचे थे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभु से प्रार्थना की कि "यदि मेरे कुछ पुण्य है तो भगवान वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अकाल न रहे।"

"तथास्तु", भगवान ने वरदान दिया था।

लेकिन मरुभूमि का भागवान समाज इस वरदान को पाकर हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा। उसने अपने को पानी के मामले में तरह-तरह से कसा। गांव-गांव, ठांव-ठांव वर्षा पर सहेज कर रखने की रीति बनाई।

रीति के लिए यहाँ एक पुराना शब्द वोज है। वोज यानी रचना, युक्ति और उपाय तो है ही, सामर्थ्य, विवेक और विनम्रता के लिए भी इस शब्द का उपयोग होता रहा है। वर्षा की बूंदों को सहेज लेने का वोज विवेक के साथ रहा है और विनम्रता लिए हुए भी। यहां के समाज ने वर्षा को इंच या सेंटीमीटर में नहीं, अंगुलों या बितों में भी नहीं, बूंदों में मापा होगा। उसने इन बूंदों को करोड़ों रजत बूंदों की तरह देखा और बहुत ही सजग ढंग से, बीज से इस तरल रजत की बूंदों को संजोकर, पानी की अपनी जरूरत को पूरा करने की एक ऐसी भव्य परंपरा बना ली, जिसकी धवलधारा इतिहास से निकल कर वर्तमान तक बहती है और वर्तमान को भी इतिहास बनाने का वोज यानी सामर्थ्य रखती है।


राजस्थान के पुराने इतिहास में मरुभूमि का या अन्य क्षेत्रों का भी वर्णन सूखे, उजड़े और एक अभिशप्त क्षेत्र की तरह नहीं मिलता । रेगिस्तान के लिए आज प्रचलित थार शब्द भी ज्यादा नहीं दिखता ।अकाल पड़े हैं, कहीं-कहीं पानी का कष्ट भी रहा है पर गृहस्थों से लेकर जोगियों ने, कवियों से लेकर मांगणियारों ने, लंगाओं ने, हिंदू-मुसलमानों ने इसे 'धरती धोरां री' कहा है। रेगिस्तान के पुराने नामों में स्थल है, जो शायद हाकड़ी, समुद्र के सूख जाने से निकले स्थल का सूचक रहा हो । फिर स्थल का थल और महाथल बना और बोलचाल में थली और धरधूधल भी हुआ । थली तो एक बड़ी मोटी पहचान की तरह रहा है । बारीक पहचान में उसके अलग-अलग क्षेत्र अलग-अलग विशिष्ट नाम लिए थे । माड़, मारवाड़, मेवाड़, मेरवाड़, ढूंढार, गोडवाड़, हाडौती जैसे बड़े विभाजन तो दसरेक और धन्वदेश जैसे छोटे विभाजन भी थे । और इस विराट मरुस्थल के छोटे-बड़े राजा चाहे जितने रहे हों - नायक तो एक ही रहा है - श्रीकृष्ण । यहां उन्हें बहुत स्नेह के साथ मरुनायकजी की तरह पुकारा जाता है ।

मरुनायक जी का वरदान और फिर समाज के नायकों के वीज, सामथ्र्य का एक अनोखा संजोग हुआ । इस संजोग से वोजतो-ओजती यानी हरेक द्वारा अपनाई जा सकने वाली सरल, सुंदर रीति को जनम मिला । कभी नीचे धरती पर क्षितिज तक पसरा हाकड़ी ऊपर आकाश में बादलों के रूप में उड़ने लगा था ।ये बादल कम ही होंगे । पर समाज ने इनमें समाए जल को इंच या सेंटीमीटर में न देख अनगिनत बूंदों की तरह देख लिया और इन्हें मरुभूमि में, राजस्थान भर में ठीक बावड़ियों और कुएं, कुंइयों और पार में भर कर उड़ने वाले समुद्र को, अखंड हाकड़ी को खंड-खंड नीचे उतार लिया।

जसढोल, यानी प्रशंसा करना । राजस्थान ने वर्षा के जल का संग्रह करने की अपनी अनोखी परंपरा का, उसके जस का कभी ढोल नहीं बजाया । आज देश के लगभग सभी छोटे-बड़े शहर, अनेक गांव, प्रदेश की राजधानियां और तो और देश की राजधानी तक खूब अच्छी वर्षा के बाद भी पानी जुटाने के मामले में बिलकुल कंगाल हो रही है । इससे पहले कि देश पानी के मामले में बिलकुल 'ऊंचा' सुनने लगे, सूखे माने गए इस हिस्से राजस्थान में, मरुभूमि में फली-फूली जल संग्रह की भव्य परंपरा का जसढोल बजना ही चाहिए। पधारो म्हारे देस ।


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