४-कविता

म्बई से मराठी भाषा में, 'बालबोध' नामक एक छोटी-सी मासिक पुस्तक निकलती है। उसकी बाइसवीं जिल्द के पाँचवें अङ्क में कविता-विषयक एक बहुत ही सरल और हृदयङ्गम लेख निकला है। उसका भावार्थ हम यहाँ पर देते हैं।

हँसना, रोना, क्रोध करना और विस्मित होना आदि व्यापार मनुष्यों में आप ही आप उत्पन्न होते हैं। उन व्यापारों के लिये जो सामग्री दरकार होती है उस सामग्रीको यथा समय प्राप्त होते ही वे व्यापार आपही आप आविर्भूत हो जाते हैं। इसके लिए और कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। कविता का भी प्रकार ऐसा ही है। अन्तःकरण की वृत्तियों के चित्रका नाम कविता है। नाना प्रकार के विकारों के योग से उत्पन्न हुए मनोभाव जब मन मे नहीं समाते तब वे आप ही आप मुख के मार्ग से बाहर निकलने लगते है, अर्थात् मनोभाव शब्दों का स्वरूप धारण करते है। वही कविता है। चाहे वह पद्यात्मक हो चाहे गद्यात्मक। शब्दात्मक मनोभाव अपनी शक्ति के अनुसार सुनने वाले पर अपना प्रभाव जमाते हैं। कथा, पुराण अथवा संकीर्तन आदि के समय भक्तिभाव-पूर्ण पदों को सुनकर कोई-कोई प्रेमी आनन्द से लीन हो जाते हैं। उनकी आंखो से आंसुओंकी धारा बहने लगती है, यहां तक कि अपने को भूल जाते हैं। परन्तु वहीं पर उनके पास ही बैठे हुए कोई-कोई महात्मा, निकटस्थ नटखट लड़कों की शरारत देख कर हँसते रहते हैं, किवा ऊँचा करते हैं। इसका यह कारण है कि उन पदों में भरे हुए भक्तिरस का स्वीकार अथवा उपभोग करने का सामर्थ्य उनमें नहीं होता। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। ख़ून के समान भारी घटनाये जिस जगह हो जाती है उस जगह सब समझदार मनुष्य घबरा उठते है, परन्तु तीन-चार वर्ष के छोटे-छोटे लड़के वही आनन्द से खेला करते हैं। उन पर उस घटना का कुछ असर नहीं होता। अज्ञानता के कारण ख़ून के समान भयानक घटनाओं की भयङ्करता का विचार ही जब उन लड़कों के मन में नहीं आता, तब उनको उस विषय में भय कैसे मालूम हो सकता है?

कवियों का यह काम है कि वे जिस पात्र अथवा जिस वस्तु का वर्णन करते है उनका रस अपने अन्तःकरण में लेकर उसे ऐसा शब्द-स्वरूप दे देते हैं कि उन शब्दों को सुनने से वह रस सुनने वालों के हृदय में जागृत हो उठता है। ऐसा होना बहुत कठिन है। सच तो यह है कि काव्य रचना में सब से बड़ी कठिनता जो है वह यही है। रामचन्द्र और सीता को हुए कई युग हुए। तुलसीदास को भी आज कई सौ वर्ष हुए। परन्तु उनके काव्य में किसी-किसी स्थान पर इतना रस भरा हुआ है कि उस रस के प्रवाह में पड़ कर बहे बिना सहृदय मनुष्य कदापि नहीं बच सकते। रामचन्द्र के वन-गमन-समय सीता कहती हैं—

प्राणनाथ करुणायतन, सुन्दर सुखद सुजान।
तुम बिन रघुकुल-कुमुद-विधु, सुरपुर नरक-समान॥
मातु पिता भागिनी प्रिय भाई।
प्रिय परिवार सुहृद समुदाई॥
सासु ससुर गुरु सुजन सुहाई।
सुठि सुन्दर, सुशील सुखदाई॥

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते।
पिय-बिनु तियहि तरणि ते ताते॥
तनु धन धाम धरणि पुर राजू।
पति विहीन सब शोक समाजू॥
भोग रोग सम भूषण भारू।
यम-यातना सरिस संसारू॥
प्राणनाथ तुम बिनु जग माही।
मो कहं सुखद कतहुँ कोउ नाहीं॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे।
शरद-विमल-बिधु-बदन-निहारे॥
खग मृग परिजन नगर बन, बलकल बसन दुकूल।
नाथ साथ सुर-सदन सम, पर्णशाल सुखमूल॥
वनदेवी वनदेव उदारा।
करिहैं सासु ससुर सम प्यारा॥
कुश-किशलय साथरी सुहाई।
प्रभु संग मञ्जु मनोज तुराई॥
कन्दमूल फल अमिय हारू।
अवध सहस सुख सरिस पहारू॥
क्षरण-क्षण प्रभु-पद-कमल विलोकी।
रहि हौ मुदित दिवस जिमि कोकी॥
वन दुःख नाथ कहेउ बहुतेरे।
भय विषाद परिताप घनेरे॥
प्रभु-वियोग लवलेश समाना।
सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥

अस जिय जान सुजान-शिरोमनि।
लेइय संग मोहि छाँड़िय जनि॥
विनती बहुत करौ का स्वामी।
करुणामय उर अन्तरयामी॥
राखिय अवध जो अवधि लगि, रहित जानिए प्रान॥
दीनबन्धु सुन्दर सुखद, शील-सनेह-निधान॥
मोहि मग चलत न होइहि हारी।
क्षण–क्षण चरण–सरोज निहारी॥
सबहि भाँति प्रिय-सेवा करिहौ।
मारग-जनित सकल श्रम हरिहौ॥
पाँव पखारि बैठि तरु छाही।
करहौ वायु मुदित मन माही॥
श्रमकरण सहित श्याम तनु देखे।
कहं दुःख समय प्राणपति पेखे॥
सम महि तृण-तरु-पल्लव डासी।
पाँय पलोटिहि सब निशि दासी॥
बार बार मृदु मूरति जोही।
लागिहि ताति वयारि न माही॥
को प्रभु संग मोहि चितवनि हारा।
सिह वधुहि जिमि शशक सियारा॥
मैं सुकुमारि नाथ वन–योगू।
तुमहि उचित तप मो कहँ भोगू॥
ऐसेहु वचन कठोर सुनि, जो न हृदय विलगान।
तो प्रभु विषम वियोग दुःख, सहिहैं पामर प्रान॥
अस कहि सीय विकल भई भारी।
बचन वियोग न सकी संभारी

यह पढ़ते अथवा सुनते समय सुनने वाले के हृदय में सीता की धर्मनिष्ठा और पतिपरायणता-विषयक भाव थोड़ा बहुत उद्दीप्त या जाग्रत हुए बिना कभी नहीं रह सकता।

एक और उदाहरण लीजिए। पण्डित श्रीधर पाठक द्वारा अनुवादित "एकान्तवासी योगी" में वियोगिनी पथिक-वेश-धारिणी अञ्जलेना अपने प्रियतम एडविन से उसी के विषय में इस प्रकार कहती है—

पहुँचा उसे खेद इससे अति, हुआ दुखित अत्यन्त उदास,
तज दी अपने मन में उसने, मेरे मिलने की सब आस।
मैं यह दशा देखने पर भी, ऐसी हुईं कठोर।
करने लगी अधिक रूखापन, दिन दिन उसकी ओर॥
होकर निपट निराश अन्त को, चला गया वह बेचारा;
अपने उस अनुचित घमंड का फल मैंने पाया सारा।
एकाकी में जाकर उसने, तोड़ जगत से नेह;
धोकर हाथ प्रीति मेरी से, त्याग दिया निज देह॥
किन्तु प्रेमनिधि, प्राणनाथ को भूल नहीं मैं जाऊगी;
प्राण दान के द्वारा उसका ऋण मैं आप चुकाऊँगी।
उस एकान्त ठौर को मैं, अब ढ़ूँढू हूँ दिन रैन।
दुःख की आग बुझाय जहाँ पर दूँ इस मन को चैन॥
जाकर वहाँ जगत को मैं भी, उसी भाँति विसराऊँगी,
देह गेह को देय तिलाञ्जलि, प्रिय से प्रीति निभाऊँगी
मेरे लिए एडविन ने ज्यों, किया प्रीति का नेम;
त्योही मैं भी शीघ्र करूँगी, परिचित अपना प्रेम॥

इसमें अञ्जलेना के पवित्र प्रेम और उसकी भूल के पश्चाताप-सम्बन्धी रस को कवि ने अपने हृदय में लेकर शब्दों के द्वारा बाहर बहाया है। वह रस-प्रभाव सुनने वालों के अन्तःकरण में प्रवेश करके उपरति उत्पन्न करता है जिसके कारण हृदय गद्गद् हो उठता है और किसी-किसी के आँसू तक निकलने लगते है। इसका नाम कविता-शक्ति है। ऐसी ही उक्तियों को कविता कहते है।

एक तत्वज्ञानी ने तो यहाँ तक कहा है कि रस-परिपक्कता ही कविता है। उसे मुख से कहने की आवश्यकता नहीं और कागज पर लिखने की आवश्यकता नहीं। यदि नट रङ्गभूमि में उपस्थित होकर, अपना मुँह ऊपर की ओर उठाकर और गर्दन हिला कर, सभासदों को हँसादे, तो उसके उस व्यापार को भी कविता कहना होगा। आजकल के विद्वानों का मत है कि अन्तःकरण में रस को उत्पन्न करके, और थोड़ी देर के लिए और बातों को भुला कर, उदार विचारों में मन को लीन कर देना ही कविता का सच्चा पर्यवसान है। कविता द्वारा यह भाषित होना चाहिए कि जो बात हो गई है वह अभी हो रही है; और जो दूर है वह बहुत निकट दिखलाई देती है।

एक पण्डित का मत है कि कविता एक भ्रम है; परन्तु वह सुखदायक है। उनका अच्छी तरह उपभोग लेने के लिए थोड़ी देर तक अपनी सज्ञानता भूल जानी चाहिए। जो कुछ सीखा है उसका भी विस्मरण कर डालना चाहिए, और कुछ काल के लिए बालक बन जाना चाहिए। कसल के समान आँख नहीं होती;‌ कोकिला का-सा कण्ठ किसी का नहीं होता, जो कुछ इसमें लिखा है, झूँठ है—इस प्रकार की बाते मन में आते ही कविता का सारा रस जाता रहता है। कविता मे जो कुछ कहा गया है उसे ईश्वर वाक्य मान कर उसका रस लेना चाहिए।

आज कल के इतिहास-वेत्ताओं का कथन है कि देश में जैसे-जैसे अधिक सुधार होता है और जैसे-जैसे विद्या-बुद्धि बढ़ती जाती है, वैसे-ही-वैसे कविता-शक्ति भी कम होती जाती है। अब पहिले के ऐसे अच्छे कवि नहीं होते। यह इस बात का प्रमाण है। यह बहुत ठीक है कि ज्यों-ज्यों हम प्राचीन काल की ओर देखते हैं त्यों त्यों कविता विशेष रसाल दिखाई देती है। प्राचीन कवियों का सारा ध्यान अर्थ की ओर रहता था; भाषा की ओर बहुत ही कम रहता था। इसीलिए उनकी कविता में उनका हृद-गत-भाव बहुत ही अच्छी तरह से ग्रंथित हो जाता था। परन्तु उनके अनन्तर होने वाले कवियों में प्रबन्ध, शब्द-रचना और अलङ्कार आदिको की ओर ध्यान अधिक जाने से कविता में अर्थ-सम्बन्धी हीनता आ गई है। एक बात और भी है। कविता के लिये एक प्रकार की भावुकता, एक प्रकार की सात्विकता और एक प्रकार का भोलापन दरकार होता है। वह समय के परिवर्तन से प्रतिदिन कम हो जाता है, इसीलिए पहले की जैसी कविता अब नहीं होती। और प्राचीन कवियों की कविता के सरस होने का एक कारण यह भी है कि किसी प्रकार की आशा के वशीभूत होकर वे कविता न करते थे। सत्कृत्य द्वारा कालक्षेप करने, अथवा परमेश्वर को भक्ति द्वारा प्रसन्न करने ही के लिए वे प्रायः कविता करते थे। यह वात अब बहुत कम पाई जाती है। कविता में हीनता आने का यह भी एक कारण है।

कविता से विश्रान्ति मिलती है। वह एक प्रकार का विराम स्थान है। उससे मनोमालिन्य दूर होता है और थकावट कम हो जाती है। चक्की पीसने के समय स्त्रियाँ, काम करने में मजदूर आदि, परिश्रम कम होने के लिये, गीत गाते है। जैसे मनुष्या के लिए गाने की जरूरत है वैसे ही देश के लिए कविता की ज़रूरत है। प्रति दिन नये-नये गीत बनते है और सब कही गाये जाते है। इसी नियमानुसार देश में समय-समय पर नई-नई कविताएँ हुआ करती है। यह स्वाभाविक किवा नैसर्गिक योजना है।