३—कवि और कविता

स पुस्तक के आरम्भ में "कवि कर्त्तव्य" नाम का एक लेख आचुका है। उसमें यह दिखलाया गया है कि कविता को सरस, मनोरञ्जक और हृदय-ग्राहिणी बनाने के लिए कवि को किन-किन बातों का ख्याल रखना चाहिए। क्योकि अच्छी कविता लिखना सबका काम नहींपर इस बात का विचार आज-कल के कितने ही पद्य-रचना को बहुत कम करते हैं। उन्होंने कविता लिखना बहुत सहल काम समझ लिया है। वे शायद तुली हुई पक्तियों को ही कविता समझते है। यह भ्रम है। कविता एक चीज़ है, तुली हुई शब्द-स्थापना दूसरी चीज़।

उर्दू का साहित्य-समूह हिन्दी से बढ़ा चढ़ा है। इस बात को कबूल करना ही चाहिए। हिन्दी के हितैषियों को उचित है कि हिन्दी-साहित्य को उन्नत करके उनकी लाज़ रक्खे। उर्दू में इस समय अनेक विषयों के कितने ही ऐसे-ऐसे ग्रन्थ विद्यमान है जिनका नाम तक हिन्दी में नहीं। उर्दू-लेखकों में शम्स-उल-उलमा हाली, आजाद, जकाउल्ला, नज़ीर अहमद आदि की बराबरी करने वाला हिन्दी में शायद ही कोई हो। इन हित्य-सेवियों ने उर्दू के तानागार को खूब समृद्धशाली कर दिया है। हिन्दी वालों को चाहिए कि वे इन लोगों की पुस्तके पढ़ें और वैसी ही पुस्तकें हिन्दी में लिखने की कोशिश करें। इनमें से आज हमें हाली के विषय में कुछ कहना है।

शम्स-उल-उलमा मौलाना अल्ताफहुसैन हाली उर्दू के बहुत बड़े कवि हैं। आपने उर्दू में नई तरह की कविता की नींव डाली है। आपकी "मुसद्दस" नाम की कविता गज़ब की है। जिन्होंने इसे न पढ़ा हो जरूर पढ़ें। आप देहली के पास, पानीपत के रहने वाले है। देहली के प्रसिद्ध कवि असदुल्लाखाँ (ग़ालिब) की कृपा से आपने कविता सीखी। पहले आप लाहौर में मुलाजिम थे। वहाँ से देहली आये। अब आप शायद पानीपत में मकान ही पर रहते हैं।[] बूढ़े हो गये है। आपने कई अच्छी अच्छी पुस्तके लिखी है। कविता में आपका बड़ा नाम है। आपने "मुकद्दमा" नाम का एक लेख लिखा है। यह लेख आपके "दीवान" के साथ छपा है। इस लेख में आपने कवि और कविता पर अपने विचार बड़ी योग्यता से प्रकट किये हैं। प्रायः उसी के आधार पर हम ये लेख लिखते है।

यह बात सिद्ध समझी गयी है कि अच्छी कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्दा होता है, वही कविता कर सकता है। देखा गया है कि जिस विषय पर बडे-बड़े विद्वान् अच्छी कविता नहीं कर सकते उसी पर अपढ़ और कम उम्र लड़के कभी-कभी अच्छी कविता लिख देते हैं इससे यह स्पष्ट है कि किसी-किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती है, ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी। वह निरर्थक नहीं हो सकती। उससे समाज को कुछ-न-कुछ लाभ अवश्य पहुँचता है। अतएव यदि कोई यह समझता हो कि कविता करना व्यर्थ है तो यह उसकी भूल है। हाँ कविता के लक्षणों से च्युत तुले हुये वर्णों या मात्राओं की पद्य नामक पंक्तियाँ व्यर्थ हो सकती हैं। आजकल प्रायः ऐसी ही पद्य-मालिकाओं का प्राचुर्य्य है। इससे यदि कविता को कोई व्यर्थ समझे तो आश्चर्य नहीं।

कविता यदि यथार्थ में कविता है तो सम्भव नहीं कि उसे सुनकर सुनने वाले पर कुछ असर न हो। कविता से दुनियाँ में आज तक बहुत बड़े-बड़े काम हुये है। इस बात के प्रमाण मौजूद है। अच्छी कविता सुनकर कविता-गत रस के अनुसार दुःख, शोक, क्रोध, करुणा और जोश आदि भाव पैदा हुये बिना नहीं रहते। जैसा भाव मन में पैदा होता है, कार्य के रूप में फल भी वैसा ही होता है। हम लोगों में, पुराने जमाने में, भाट, चारण आदि अपनी-अपनी कविता ही की बदौलत वीरों में वीरता का संचार कर देते थे। पुराणादि में कारुणिक-प्रसंगों का वर्णन सुनने और उत्तर रामचरित्र आदि दृश्य काव्यों का अभिनय देखने से जो अश्रुपात होने लगता है वह क्या है? वह अच्छी कविता ही का प्रभाव है। पुराने जमाने में ग्रीस के एथेन्स नगर वाले मेगारा वालों से वैरभाव रखते थे। एक टापू के लिये उनमें कई दफे लड़ाइयाँ हुई। पर हर बार एथेन्स वालों ही की हार हुई। इस पर सोलन नाम के विद्वान् को बड़ा दुःख हुआ। उसने एक कविता लिखी। उसे उसने एक ऊँची जगह पर चढ़कर एथेन्स वालोंको सुनाया। कविता का भावार्थ यह था।

"मैं एथेन्स में न पैदा होता तो अच्छा था। मैं किसी और देश में क्यों न पैदा हुआ? मुझे ऐसे देश में पैदा होना था जहाँ के निवासी मेरे देशवासियों से अधिक वीर, अधिक कठोर हृदय और उनकी विद्या से बिलकुल बेख़वर हो। मैं अपनी वर्त्तमान अवस्था की अपेक्षा उस अवस्था में अधिक सन्तुष्ट होता। यदि मैं किसी ऐसे देश में पैदा होता तो लोग मुझे देखकर यह तो न कहते कि यह आदमी उसी एथेन्स का रहने वाला है, जहाँ वाले मेगारा के निवासियों से लड़ाई में हार गये और लड़ाई के मैदान से भाग निकले। प्यारे देशबन्धु, अपने शत्रुओं से जल्द इसका बदला लो। अपने इस कलङ्क को फौरन धो डालो। अपने लज्जाजनक पराजय के अपयश को दूर कर दो। जब तक अपने अन्यायी शत्रुओं के हाथ से अपना छिना हुआ देश न छुड़ा लो तब-तक एक मिनट भी चैन से न बैठों।" लोगों के दिल पर इस कविता का इतना असर हुआ कि फौरन मेगारा वालों पर फिर चढ़ाई कर दी गई और जिस टापू के लिए यह बखेड़ा हुआ था उसे एथेन्स वालों ने लेकर चैन ली। इस चढ़ाई में सालन ही सेनापति बनाया गया था।

रोम, इंग्लैंड अरब, फारस आदि देशों में इस बात के सैकड़ों उदाहरण मौजूद है कि कवियों ने असम्भव बातें सम्भव कर दिखाई हैं। जहाँ पस्तहिम्मती का दौर दौरा था, वहाँ जोश पैदा कर दिया है। जहाँ शान्ति थी, वहाँ गदर मचा दिया है। अतएव कविता एक एक साधारण चीज़ है। परन्तु बिरले ही को सत्कवि होने का सौभाग्य प्राप्त होता है।

जब तक ज्ञान-वृद्धि नहीं होती—जब तक सभ्यता का जमाना नहीं आता—तभी तक कविता की विशेष उन्नति होती है। क्योंकि सभ्यता और कविता में परस्पर विरोध है। सभ्यता और विद्या की वृद्धि होने से कविता का असर कम हो जाता है। कविता में कुछ न कुछ झूठ का अंश ज़रूर रहता है। असभ्य। अथवा अर्द्ध-सभ्य लोगों को यह अंश कम खटकता है, शिक्षित और सभ्य लोगों को बहुत। तुलसीदास की रामायण के खास-खास स्थलों का जितना प्रभाव स्त्रियों पर पड़ता है उतना पढ़ें लिखे आदमियों पर नहीं। पुराने काव्यों को पढ़ने से लोगों का चित्त जितना पहले आकृष्ट होता था उतना अब नहीं होता। हजारों वर्ष से कविता का क्रम जारी है। जिन प्राकृतिक, बातों का वर्णन कवि करते है उनका वर्णन बहुत कुछ अब तक हो चुका। जो नये कवि होते है वे भी उलट फेर से प्रायः उन्हीं बातों का वर्णन करते है। इसीसे अब कविता कम हृदय-ग्राहिणी होती है।

संसार में जो बात जैसी देख पड़े कवि को उसे वैसा ही वर्णन करना चाहिये। उसके लिये किसी तरह की रोक या पाबन्दी का होना अच्छा नहीं। दवाब से कवि का जोश दब जाता है उसके मन से जो भाव आप ही आप पैदा होते है उन्हें जब वह निडर होकर अपनी कविता में प्रकट करता है तभी उसका असर लोगों पर पूरा-पूरा पड़ता है। बनावट से कविता बिगड़ जाती है। किसी राजा या किसी व्यक्ति विशेष के गुण दोषों को देख कर कवि के मन में जो भाव उद्भूत हों उन्हें यदि वह बेरोक टोक प्रकट करदे तो उसकी कविता हृदयद्रावक हुए बिना न रहे। परन्तु परतन्त्रता; या पुरस्कार-प्राप्ति या और किसी कारण से, सच बात कहने में किसी तरह की रुकावट पैदा हो जाने से यदि उसे अपने मन की बात कहने का साहस नहीं होता तो कविता का रस ज़रूर कम हो जाता है। इस दशा में अच्छे कवियों की भी कविता नीरस, अतएव प्रभाव हीन हो जाती है सामाजिक और राजनैतिक विषयों में कटु होने के कारण, सच कहना भी जहाँ मना है, वहाँ इन विषयों पर कविता करने वाले कवियों की उक्तियों का प्रभाव क्षीण हुए बिना नहीं रहता। कवि के लिये कोई रोक नहीं होनी चाहिये अथवा जिस विषय में रोक हो उस विषय पर कविता ही न लिखनी चाहिये। नदी, तालाब, बन, पर्वत, फूल, पत्ती, गरमी सरदी आदि ही के वर्णन से उसे संतोष करना उचित है।

खुशामद के जमाने में कविता की बुरी हालत होती है। जो कवि राजाओ, नवाबों या बादशाहों के आश्रय में रहते है, अथवा उनको खुश करने के इरादे से कविता करते है, उनको खुशामद, करनी पड़ती है। वे अपने आश्रय-दाताओं की इतनी प्रशंसा करते हैं, इतनी स्तुति करते हैं कि उनकी उक्तियाँ असलियत से बहुत दूर जा पड़ती हैं। इससे कविता को बहुत हानि पहुँचती है। विशेष करके शिक्षित और सभ्य देशों में कवि का काम, प्रभावोत्पादक रीति से, यथार्थ घटनाओं का वर्णन करना है। आकाश-कुसुमों के गुलदस्ते तैयार करना नहीं। अलङ्कार-शास्त्र के आचार्यों ने अतिशयोक्ति एक अलङ्कार ज़रूर माना है। परन्तु अभावोक्तियाँ भी क्या कोई अलङ्कार है? किसी कवि की वेसिर-पैर की बातें सुनकर किस समझदार आदमी को आनन्द प्राप्त हो सकता है। जिस समाज के लोग अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते है वह समाज कभी प्रशंसनीय नहीं समझा जाता। काबुल के अमीर हबीबुल्लाखाँ ने अपनी कविता-बद्ध निराधार प्रशंसा सुनने से, अभी कुछ दिन हुए, इनकार कर दिया। खुशामद-पसन्द आदमी कभी आदर की दृष्टि से नहीं देखे जाते।

कारण-वश अमीरों की झूठी प्रशंसा करने, अथवा किसी एक ही विषय का कविता में, कवि-समुदाय के आमरण लगे रहने से कविता की सीमा कट-छँटकर बहुत थोड़ी रह जाती है। इस तरह की कविता उर्दू में बहुत अधिक है। यदि यह कहें कि आशिकाना (शृङ्गारिक) कविता के सिवा और तरह की कविता उर्दू में है ही नहीं, तो बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। किसी दीवान को उठाइये, किसी मसनवी को उठाइये, आशिक-माशूकों के रङ्गीन रहस्यों से आप उसे आरम्भ से अन्त तक रँगी हुई पाइयेगा। इश्क भी यदि सच्चा हो तो कविता में कुछ असलियत आ सकती है। पर क्या कोई कह सकता है कि आशिकाना शेर कहने वालों का सारा रोना, कराहना, ठंडी सांसें लेना, जीते ही अपनी कब्रों पर चिराग जलाना सब सच है? सब न सही उनके प्रलापों का क्या थोड़ा सा भी अंश सच है? फिर इस तरह की कविता सैकड़ों वर्षों से होती आ रही है। अनेक कवि चुके, जिन्होंने इस विषय पर न मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा में नये कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते है? वही तुक, वही छन्द, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक इस पर भी लोग पुरानी लकीर को बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैए, घनाक्षरी, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते। नख शिख, नायिका-भेद, अलङ्कार शास्त्र पर पुस्तकों पर पुस्तके लिखते चले जाते है। अपनी व्यर्थ बनावटी बातों से देवी-देवताओ तक को बदनाम करने से नहीं सकुचाते। फल इसका यह हुआ कि कविता की असलियत काफूर हो गई है। उसे सुन-कर सुनने वाले के चित्त पर कुछ भी असर नहीं होता, उलटा कभी मन में घृणा का उद्रेक अवश्य उत्पन्न हो जाता है।

कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है। वह बरबाद हो जाता है। भाषा में दोष आ जाता है। जब कविता की प्रणाली बिगड़ जाती है, तब उसका असर सारे ग्रन्थकारों पर पड़ता है यही क्यों, सर्वसाधारण की बोलचाल तक में कविता के दोष आ जाते है। जिन शब्दों, जिन भावों, जिन उक्तियों का प्रयोग कवि करते है उन्हीं का प्रयोग और लोग भी करने लगते हैं। भाषा और बोलचाल के सम्बन्ध में कवि ही प्रमाण माने जाते हैं। कवियों ही के प्रयुक्त शब्दों और मुहावरों को कोपकार अपने कोपों में रखते हैं। मतलब यह है कि भाषा और बोलचाल का बनाना या बिगाड़ना प्रायः कवियों ही के हाथ में रहता है। जिस भाषा के कवि अपनी कविता में बुरे शब्द और बुरे भाव भरते रहते हैं, उस भाषा की उन्नति तो होती नहीं, उलटी अवनति होती जाती है।

कविता-प्रणाली के बिगड़ जाने पर यदि कोई नये तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निन्दा करते हैं। कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते है, यह बड़ी भद्दी कविता है। कुछ कहते हैं, यह कविता ही नहीं। कुछ कहते हैं कि यह कविता तो "छन्दोदिवाकर" में दिये गये लक्षणों से च्युत है, अतएव यह निर्दोष नहीं। बात यह है कि जिसे अब तक कविता कहते आये हैं, वहीं उनकी समझ में कविता है और सब कोरी काँव-काँव! इसी तरह की नुकता चीनी से तङ्ग आकर अँग्रेजी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को सम्बोधन करके उसको सान्त्वना दी है। वह कहता है—कविते! यह बेकदरी का ज़माना है। लोगों के चित्त को तेरी तरफ खींचना तो दूर रहा, उलटी सब कहीं तेरी निन्दा होती है। तेरी बदौलत सभा-समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना पड़ता है। पर जब मैं अकेला होता हूँ तब तुझ पर मैं घमण्ड करता हूँ। याद रख, तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है। जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा, रखते है, वे निर्धन होकर भी आनन्द से रह सकते हैं। पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद ज़रूर चूर्ण हो जाता है।"

गोल्डस्मिथ ने इस विषय में बहुत कुछ कहा है, पर हमने उसके कथन का सारांश बहुत ही थोड़े शब्दों में दें दिया है। इससे प्रकट है कि नई कविता-प्रणाली पर भृकुटी टेढ़ी करने वाले कवि प्रकाण्डों के कहने की कुछ भी परवा न करके अपने स्वीकृत पथ से ज़रा भी इधर-उधर होना उचित नहीं समझते। नई बातों से घबराना और उनके पक्षपातियों की निन्दा करना मनुष्य का स्वभाव ही-सा हो गया है। अतएव नई भाषा और नई कविता पर यदि कोई नुकताचीनी करें तो आश्चर्य नहीं।

आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज समझ रक्खा है। यह भ्रम है। कविता और पद्य में वही भेद है जो अंग्रेजी की पोयट्री (Poetry) और वर्स (Verse) में है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरञ्जक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है, और नियमानुसार तुली हुई सतरों का नाम पद्य है। जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं। वह नपी-तुली शब्द-स्थापना मात्र है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबन्दी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं। संस्कृत का प्रायः सारा पद्यक्षसमूह बिना तुकबन्दी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो। अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गये हैं। वहाँ भी शुरू-शुरू में तुकबन्दी का बिलकुल ख़्याल न था। अंग्रेजी में भी अनुप्रासहीन बेतुकी कविता होती है। हाँ, एक ज़रूरी बात है कि वजन और काफिये से कविता अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है। पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही हैं जैसे शरीर के लिए वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरञ्जकता और प्रभावोत्पादकता उसमें न हो तो इनका होना निष्फल समझना चाहिए। पद्य के लिए काफिये वग़ैरह की ज़रूरत है, कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बातें एक प्रकार से उलटी हानिकारक हैं। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि दूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातन्त्र्य में बड़ी बाधा आती है। पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेड़ियाँ हैं। उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनता पूर्वक प्रकट करें। पर काफिया और वजन उसकी स्वाधीनता में विध्न डालते हैं। वे उसे अपने भावों को स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं प्रकट होने देते। काफिये और वज़न को पहले ढूँढ कर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है। इससे कवि अपने भाव स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता। फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है। कभी-कभी तो वह बिल्कुल ही जाता रहता है। अब आप ही कहिए कि जो वजन और काफिया कविता के लक्षण का कोई अंश नहीं उन्हें ही प्रधानता देना भारी भूल है या नहीं?

जो बात एक असाधारण और निराले ढंग से शब्दों के द्वारा इस तरह प्रकट की जाय कि सुनने वाले पर उसका कुछ न कुछ असर ज़रूर पड़े, उसी का नाम कविता है। आजकल हिन्दी में जो सज्जन पद्य रचना करते हैं और उसे कविता समझ कर छपाने दौड़ते है, उनको यह बात ज़रूर याद रखनी चाहिए। इन पद्य-रचयिताओं में कुछ ऐसे भी है जो अपने पद्यों को कालिदास, होमर और बाइरन की कविता से बढ़ कर समझते है। यदि कोई सम्पादक उन्हें प्रकाशित करने से इन्कार करता है तो वे अपना अपमान समझते है और बेचारे सम्पादक के खिलाफ नाटक, प्रहसन और व्यङ्ग-पूर्ण लेख प्रकाशित करके अपने जी की जलन शान्त करते है। वे इस बात को बिल्कुल ही भूल जाते हैं कि यदि उनकी पद्य-रचना अच्छी हो तो कौन ऐसा मुर्ख होगा जो उसे अपने पत्र या पुस्तक में सहर्ष और सधन्यवाद न प्रकाशित करेगा?

कवि का सब से बड़ा गुण नई-नई बातों का सूझना है। उसके लिए कल्पना (Imagination) की बड़ी ज़रूरत है। जिस में जितनी ही अधिक यह शक्ति होगी वह उतनी ही अधिक अच्छी कविता लिख सकेगा। कविता के लिये उपज चाहिए। नये-नये भावों की उपज जिसके हृदय में नहीं वह कभी अच्छी कविता नहीं लिख सकता। ये बातें प्रतिभा की बदौलत होती हैं। इसी लिए संस्कृत वालों ने प्रतिभा को प्रधानता दी है प्रतिभा ईश्वरदत्त होती है। अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती है। इस शक्ति को) कवि माँ के पेट से लेकर पैदा होता है। इसी की बदौलत वह भूत और भविष्यत् को हस्तामलकवत् देखता है वर्त्तमान की तो कोई बात ही नहीं। इसी की कृपा से वह सांसारिक बातों को एक अजीब निराले ढंग से बयान करता है, जिसे सुन कर सुनने वाले के हृदयोदधि में नाना प्रकार के सुख, दुःख आश्चर्य आदि विकारों की लहरें उठने लगती हैं। कभी-कभी ऐसी अद्भुत। बातें कह देते है कि जो कवि नहीं है उनकी पहुँच वहाँ तक कभी हो ही नहीं सकती।

कवि का काम है कि वह प्रकृति विकास को खूब ध्यान से देखे। प्रकृति की लीला का कोई ओर-छोर नहीं। वह अनन्त है। प्रकृति अद्भुत खेल खेला करती है। एक छोटे-से फूल में वह अजीब अजीब कौशल दिखाती है। वे साधारण आदमियों के ध्यान में नहीं आते। वे उनको समझ नहीं सकते। पर कवि अपनी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति के कौशल अच्छी तरह देख लेता है, उनका वर्णन भी करता है; उनसे नाना प्रकार की शिक्षा भी ग्रहण करता है, और अपनी कविता के द्वारा संसार को लाभ भी पहुँचाता है जिस कवि में प्राकृतिक दृश्य और प्रकृति के कौशल देखने और समझने का जितना ही अधिक ज्ञान होता है वह उतना ही बड़ा कवि भी होता है।

प्रकृति-पर्य्यालोचना के सिवा कवि को मानव-स्वभाव की आलोचना का भी अभ्यास करना चाहिए। मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के सुख, दुःख आदि का अनुभव करता है। उसकी दशा कभी एक-सी नहीं रहती। अनेक प्रकार के विकार-तरङ्ग उसके मन में उठा ही करते हैं। इन विकारों की जाँच, ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इनके अनुभव करने और कविता द्वारा औरों को इनका अनुभव कराने में समर्थ होता है। जिसे कभी पुत्र-शोक नहीं हुआ, उसे। उस शोक का यथार्थ ज्ञान होना सम्भव नही। पर यदि वह कवि है तो वह पुत्र-शोकाकुल माता या पिता की आत्मा में प्रवेश सा करके उसका अनुभव कर लेता है। उस अनुभव का वह इस तरह वर्णन करता है कि सुनने वाला तन्मनस्क होकर उस दुःख से अभिभूत हो जाता है। उसे ऐसा मालूम होने लगता है कि स्वयं उसी पर वह दुःख पड़ रहा है। जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता।

हाली के मुकद्दमें को पढ़कर हमारे एक मित्र महाशय ने कुछ अलवार-शास्त्र के आचार्यों की राय लिखी है और संक्षेपतया यह दिखलाया है कि हमारे अलङ्कारिकों ने कविता के लिए किन-किन बातों की ज़रूरत समझी है। आपके कथनका आशय हम नीचे देते हैं। पाठक देखेंगे कि हालीकी राय संस्कृत-साहित्य के आचार्यों से बहुत कुछ मिलती है। सुनिए—

नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतञ्च बहुनिर्मलम्।
अमन्दश्चाभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसम्पदः॥

(आचार्य दण्डी—काव्यादर्श)

अर्थात् स्वाभाविकी प्रतिभा अर्थात् शक्ति (१); शब्द-शास्त्रादि तथा लोकोचारादि का विशुद्ध ज्ञान (२) और प्रगाढ़ अभ्यास (३) यह सब मिलकर काव्य-रूप सम्पत्ति का कारण है—"श्रुत" शब्द के अर्थ पंडित जीवानन्द विद्यासागर ने ये किये है—"श्रुत" शास्त्रज्ञानं लोकाचारादिज्ञानश्च।" सृष्टि-कार्य और मानव-स्वभाव इन दोनों के ज्ञान का बोध लोकाचारादि ज्ञान है। उसका उल्लेख हाली ने अपनी दूसरी और तीसरी शर्त 'सृष्टिकार्य पर्यालोचना' और 'शब्दविन्यास चातुर्य' में किया है। प्रगाढ़ अभ्यास की आवश्यकता हाली ने "आमद और आवुर्द में फ़र्क"—इस विषय पर बहस करते हुए सिद्ध की है। इसी अभिप्राय का एक श्लोक यह भी है—

शक्तिर्निपुण्नः लोकशास्त्रकार्याद्यवेक्षणात्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भभवे॥

अर्थात् प्रतिभाशक्ति, काव्यादि शास्त्र तथा लोकाचारादि के अवलोकन से प्राप्त हुई निपुर्णता और काव्यों की शिक्षा के अनुसार अभ्यास, ये तीनों बातें कविता के उद्भव में हेतु है। कई आचार्यों ने प्रतिभा ही को काव्यका कारण मानकर व्युत्पत्तिको उसकी सुन्दरता और अभ्यास को वृद्धि का हेतु माना है यथा—

कवित्वं जायते शक्तेर्वर्द्धऽभ्यासयोगतः।
तस्य चारुत्वनिष्पत्तौं व्युत्पत्तिस्तु गरीयसी॥

इस मत की पुष्टि भी हाली के उस लेख से होती है, जो उन्होंने सब से पहली शर्त "तखय्युल" (प्रतिभा) पर लिखा है।

इन्हीं सब बातों को हाली ने अपने मुकदमें में, ३७ से ५४ पृष्ट तक, उदाहरणादिको से पल्लवित किया है।

सृष्टि-कार्य-निरीक्षण की आवश्यकता कवि को क्या है? इस बात का हाली ने 'मसनबी' पर बहस करते हुए, एक उदाहरण द्वारा, समझाया है। वे लिखते हैं—

. . .इसी प्रकार क़िस्से में ऐसी छोटी-छोटी प्रासङ्गिक बातों का बयान करना, जिन्हें तजरवा और मशाहिदा झुटलाते हो, कदापि उचित नहीं। इससे आख्यायिकार को इतना वेसलीकापन साबित नहीं होता, जितनी उसकी अज्ञता और लोकवृत्तान्त से अनभिन्नता, या ज़रूरी अनुभव प्राप्त करने से वेपरवाई साबित होती है। जैसाकि "वदरे मुनीर" में एक ख़ास मौके और वक्त का समाँ इस तरह बयान किया है—

वो गाने का आलम वो हुस्ने वुनँ,
वो गुलशन की खूबी वो दिन का समाँ।
दरख्तों की कुछ छाँव और कुछ वो धूप,
वो धानों की सब्जी वो सरसों का रूप॥

आख़ीर मिसरे से साफ प्रतीत होता है क एक तरफ धान खड़े थे और एक तरफ सरसों फूल रही थी। मगर यह बात बाक़े के खिलाफ है, क्योंकि धान खरीफ में होते हैं और सरसों रवी में, गेहुँओं के साथ बोई जाती हैं।

कवि-कुल गुरु कालिदास के विश्व विख्यात काव्य, तथा कविवर बिहारीलाल की सतसई से, इसी विषय का, एकाएक प्रत्युदाहरण सुनिये—

इक्षुच्छायनिपादिन्यस्तस्य गोत्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकथोद्घातंशालिगोष्यों जगुर्यशः॥

रघुवंश॥

रघु की दिग्विजयार्थ यात्रा के उपोद्घात में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघु का यश गाती थीं। शरद्-काल में जब धान के खेत पकते हैं तब वह इतनी-इतनी बड़ी हो जाती है कि उसकी छाया में बैठकर खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत भी प्रायः पास ही पास हुआ करते है। कवि को ये सब बातें विदित थी। श्लोक में इस दशा का—इस वास्तविक घटना का— चित्र-सा खींच दिया गया है। श्लोक पढ़़ते ही वह समाँ आँखों में फिरने लगता है।

महाराजाधिराज विक्रमादित्यके सखा, राजसी ठाठ से रहने वाले कालिदास, ने ग़रीब किसानों की, नगर से दूर, जङ्गल से सम्बन्ध रखने वाली एक वास्तविक घटनाका कैसा मनोहर चित्र उतारा है। यह उनके प्रकृति-पर्यालोचक होने का दृढ़ प्रमाण है। दूसरा प्रत्युदाहरण—

सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखारि।
हरी-हरीअरहर अजौ धर धर हर हिय नारि॥

—सतसई

पहले सन सूखता है, फिर बनबाड़ी या कपासके खेतकी खहार खतम होती है। पुनः ईख के उखड़ने की बारी आती है। और इन सब से पीछे गेंहुओं के साथ तक, अरहर हरी-भरी खड़ी रहती है।

ये सब बातें कवि ने कैसे सुन्दर और सरल ढङ्ग से क्रम पूर्वक इस दोहे में बयान की हैं। इसमें अनुप्रास की छटा आदि अन्य काव्य-गुणों पर ध्यान दिलाने का यह अवसर नहीं। यहाँ तक पूर्वोक्त महाशय की राय हुई।

कविता को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उचित शब्द स्थापना की भी बड़ी ज़रूरत है। किसी मनोविकार का दृश्य के वर्णन में ढूंढ-ढूंढ कर ऐसे शब्द रखने चाहिये जो सुनने वाले की आँखों के सामने वर्ण्य-विषय का चित्र-सा खींच दे। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो, यदि वह तदनुकूल शब्दों में न प्रकट किया गया तो उसका असर यदि जाता नहीं रहता तो कम ज़रूर हो जाता है। इसीलिये कवि को चुन-चुन कर ऐसे शब्द रखने चाहिये, और इस क्रम से रखने चाहिये; जिससे उसके मन का भाव पूरे तौर पर व्यक्त हो जाय। उसमें कसर न पड़े। मनोभाव शब्दों ही के द्वारा व्यक्त होता है। अतएव युक्ति सङ्गत शब्द-स्थापना के बिना कवि की कविता तादृश हृदय-हारिणी नहीं हो सकती। जो कवि अच्छी शब्द-स्थापना करना नहीं जानता, अथवा यो कहिए कि जिसके पास काफी शब्द समूह नहीं है, उसे कविता करने का परिश्रम ही न करना चाहिए, जो सुकवि हैं उन्हें एक-एक शब्द की योग्यता ज्ञात रहती है। वे खूब जानते हैं कि किस शब्द में क्या प्रभाव है। अतएव जिस शब्द में उनका भाव प्रकट करने की एक बार भर भी कमी होती है उसका वे कभी प्रयोग नहीं करते। आजकल के पद्य-रचनाकर्ता महाशयों को इस बात का बहुत कम ख़्याल रहता है। इसी से उनकी कविता, यदि अच्छे भाव से भरी हुई भी हो तो भी,बहुत कम असर पैदा करती है। जो कवि प्रति पंक्ति में निरर्थक 'सु' 'जु' और 'रु' का प्रयोग करता है वह मानों इस बात का खुद ही सार्टिफिकेट दे रहा है कि मेरे अधिकृत शब्द कोश में शब्दों की कमी है। ऐसे कवियों की कविता कदापि सर्व-सम्मत और प्रभावोत्पादक नहीं हो सकती।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने कविता के तीन गुण वर्णन किये है। उनकी राय है कि कविता में सादगी हो, जोश से भरी हुई हो, और असलियत से गिरी हुई न हो।

सादगी से यह मतलब नहीं कि सिर्फ शब्द-समूह ही सादा हो, किन्तु विचार-परम्परा भी सादी हो। भाव और विचार ऐसे सूक्ष्म और छिपे हुए न हो कि उनका मतलब समझ में न आवे, या देर से समझ में आवे। यदि कविता में कोई ध्वनि हो तो इतनी दूर की न हो, जो उसे समझने में गहरे विचार की ज़रूरत हो। कविता पढ़ने या सुनने वाले को ऐसी साफ-सुथरी सड़क मिलनी चाहिए जिस पर कंकड़, पत्थर, टीले, खन्दक, काँटे और झाड़ियों का नाम न हो। वह खूब साफ और हमवार हो, जिससे उस पर चलने वाला आराम से चला जाय। जिस तरह सड़क जरा भी ऊँची नीची होने बाइसिकल (पैरगाड़ी) के सवार को दचके लगते हैं उसी तरह कविता की सड़क यदि थोड़ी भी नाहसवार हुई तो पढ़ने वाले के हृदय पर धक्का लगे बिना नहीं रहता। कविता-रूपी सड़क के इधर-उधर स्वच्छ पानी के नदी-नाले बहते हो, दोनों तरफ फलों-फूलों से लदे हुए पेड़ हों, जगह- जगह पर विश्रास करने योग्य स्थान बने हो; प्राकृतिक दृश्यों की नयी-नयी झाँकिआँ आँखों को लुभाती हो। दुनियाँ में आज तक जितने अच्छे अच्छे कवि हुए है उनकी कविता ऐसी ही देखी गयी है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द-प्रयोग करने वाले कवियों की कभी कद्र नहीं हुई। यदि कभी किसी को कुछ हुई भी है तो थोड़े ही दिनों तक। ऐसे कवि विस्मृति के अन्धकार में ऐसे छिप गए है कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता। एक मात्र सूची शब्द-झङ्कार ही जिन कवियों की करामात है उन्हें चाहिए कि वे एक दम ही बोलना बन्द कर दे।

भाव चाहे कैसा ही ऊँचा क्यों न हो, पेंचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए, जिनसे सब लोग परिचित हो। मतलब यह कि भाषा बोलचाल की हो। क्योंकि कविता की भाषा बोल-चाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है। बोलचाल से मतलब उस भाषा से है, जिसे ख़ास और आम सब बोलते, विद्वान् और अविद्वान् दोनों जिसे काम में लाते हैं। इसी तरह कवि को मुहाविरे का भी ख्याल रखना चाहिए। जो मुहावरे सर्वसम्मत है, उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी और उर्दू में कुछ शब्द अन्य भाषाओं के भी आ गये है। व यदि बोल-चाल के है तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता। उन्हें त्याज्यें नहीं समझना चाहिए। कोई-कोई ऐसे शब्दों को उनके मूल-रूप में लिखना ही सही समझते है। पर यह उनकी भूल है। जब अन्य भाषा का कोई शब्द किसी और भाषा में आ जाता है तब वह उसी भाषा का हो जाता है। अतएव उसे उसकी मूल भाषा के रूप में लिखते जाना भाषा विज्ञान के नियमों के खिलाफ है। खुद 'मुहाविरह' शब्द ही को देखिए। जब उसे अनेक लोग हिन्दी में 'महाविरा' लिखने और बोलने लगे तब उसका असली रूप जाता रहा। वह हिन्दी का शब्द हो गया। यदि अन्य भाषाओं के बहु-प्रयुक्त शब्दों का मूल रूप ही शुद्ध माना जायगा तो घर, घड़ा, हाथ, पाँव, नाक, कान, गश, मुसलमान, कुरान, मैगज़ीन, एडमिरल, लालटेन आदि शब्दों को भी उनके पूर्व रूप में ले जाना पड़ेगा। एशियाटिक सोसाइटी के जनवरी १९०७ के जर्नल में फ्रेंच और अँगरेजी आदि यूरोपियन भाषाओं के १३८ शब्द ऐसे दिये गये है जो फ़ारस के फ़ारसी अखबारों में प्रयुक्त है। इनमें से कितने ही शब्दों का रूपान्तर हो गया है। अब यदि इस तरह के शब्द अपने मूल रूप में लिखे जायेंगे तो भाषा में बेतरह गड़बड़ पैदा हो जायगी।

असलियत से मतलब यह नहीं कि कविता एक प्रकार का इतिहास समझा जाय और हर बात में संचाई का ख़्याल रक्खा जाय। यह नहीं कि सच्चाई की कसौटी पर कसने पर यदि कुछ भी कसर मालूम हो तो कविता का कवितापन जाता रहे। असलियत से सिर्फ इतना ही मतलब है कि कविता बेबुनियाद न हो उसमें जो उक्ति हो वह मानवी मनोविकारों और प्राकृतिक नियमों के आधार पर कही गई हो। स्वाभाविकता से उसका लगाव न छूटा हो। कवि यदि अपनी या और किसी की तारीफ़ करने लगे और यदि वह उसे सचमुच ही सच समझे अर्थात् दिया उसकी भावना वैसी ही हो, तो वह भी असलियत से खाली नहीं, फिर चाहे और लोग उसे उलटा ही क्यों न समझते हो। परन्तु इन बातों में भी स्वाभाविकता से दूर न जाना चाहिए। क्योंकि स्वाभाविकता अर्थात् 'नेचुरल' (natural) उक्तियाँ ही सुनने वाले के हृदय पर असर कर सकती हैं, अस्वाभाविक नहीं। असलियत को लिए हुए कवि स्वतन्त्रता‌पूर्वक जो चाहे कह सकता है; असल बात को एक नए साँचे में ढालकर कुछ दूर तक इधर-उधर भी उड़ान भर सकता है; पर असलियत के लगाव को वह नहीं छोड़ता। असलियत को हाथ से जाने देना मानो कविता को प्रायः निर्जीव कर डालना है। शब्द और अर्थ दोनों ही के सम्बन्ध में उसे स्वाभाविकता का अनुधावन करना चाहिए। जिस बात के कहने में लोग स्वाभाविक रीति पर जैसे और जिस क्रम से शब्द-प्रयोग करते है वैसे ही कवि को भी करना चाहिए। कविता में उसे कोई बात ऐसी न कहनी चाहिए जो दुनियाँ में न होती हो। जो बाते हमेशा हुआ करती है, अथवा जिन बातों का होना सम्भव है, वही स्वाभाविक है। अर्थ की स्वाभाविकता से मतलब ऐसी ही बातों से है। हम इन बातों को उदाहरण देकर अधिक स्पष्ट कर देते, पर लेख बढ़ जाने के डर से वैसा नहीं करते।

जोश से यह मतलब है कि कवि जो कुछ कहे इस तरह कहे मानो उसके प्रयुक्त शब्द आप ही आप उसके मुँह से निकल गये है। उनसे बनावट न जाहिर हो। यह न मालूम हो कि कवि ने कोशिश करके ये बातें कही है; किन्तु यह मालूम हो कि उसके हृद्गत भावों ने कविता के रूप में अपने को प्रकट कराने के लिए उसे विवश किया है। जो कवि है उसमें जोश स्वाभाविक होता है। वर्ण्य वस्तु को देख कर किसी अदृश्य-शक्ति की प्रेरणा से, वह उस पर कविता करने के लिए विवश-सा होता जाता है। उसमें एक अलौकिक शक्ति पैदा हो जाती है। इसी शक्ति के बल से वह सजीव ही नहीं, निर्जीव चीजों तक का वर्णन ऐसे प्रभावोत्पादक ढंग से करता है कि यदि उन चीजों में बोलने की शक्ति होती तो ख़ुद वे भी इससे अच्छा वर्णन न कर सकती। जोश से यह भी मतलब नहीं कि कविता के शब्द ख़ूब ज़ोरदार और जोशीले हो। सम्भव है, शब्द ज़ोरदार न हो, पर जोश उनमें छिपा हुआ हो। धीमे शब्दों में भी जोश रह सकता है। और पढ़ने या सुनने वाले के हृदय पर चोट कर सकता है। परन्तु ऐसे शब्दों का प्रयोग करना ऐसे वैसे कवि का काम नहीं। जो लोग मोटी छुरी से तेज़ तलवार का काम लेना चाहते है, वही धीमे शब्दों में जोश भर सकते है।

सादगी, असलियत और जोश यदि ये तीनों गुण कविता में हों तो कहना ही क्या है। परन्तु बहुधा अच्छी कविता में भी इनमें से एक-आध गुण की कमी पाई जाती है। कभी-कभी देखा जाता है कि कविता में केवल जोश रहता है, सादगी और असलियत नहीं। कभी कभी सादगी और जोश पाये जाते हैं। असलियत नहीं। परन्तु बिना असलियत के जोश का होना बहुत कठिन है। अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए।

अच्छी कविता की सबसे बड़ी परीक्षा यह है कि उसे सुनते ही लोग बोल उठे कि सच कहा। वही कवि सच्चे कवि हैं जिनकी कविता सुन कर लोगों के मुँह से सहसा यह उक्ति निकलती है। ऐसे कवि धन्य है, और जिस देश में ऐसे कवि पैदा होते हैं वह देश भी धन्य है। ऐसे कवियों की कविता चिरकाल तक जीवित रहती है।

  1. खेद है, आपका देहान्त हो गया। १९१९।