रघुवंश/२—नन्दिनी से राजा दिलीप का वर पाना

पृष्ठ ७० से – ८४ तक

 

दूसरा सर्ग।

नन्दिनी से राजा दिलीप का वर पाना।

प्रात:काल हुआ । नन्दिनी दुही गई । दूध पी चुकने पर उसका बछड़ा अलग बाँध दिया गया। सुदक्षिणा ने चन्दनादि सुगन्धित वस्तुओं से उसकी पूजा की; उसे माला धारण कराया। तदनन्तर प्रजा जनों के स्वामी कीर्तमान् राजा दिलीप ने,वन में ले जाकर चराने के लिए,वशिष्ठ मुनि की उस धेनु को बन्धन से खोल दिया । उसे वह चराने ले चला।

नन्दिनी ने वन का मार्ग लिया। उसके खुरों के स्पर्श से मार्ग की धूलि पवित्र होगई । पतिव्रता स्त्रियों की शिरोभूषण सुदक्षिणा उस धेनु के पीछे पीछे उसी मार्ग से इस तरह जाने लगी जिस तरह कि श्रुति के पीछे पीछे स्मृति जाती है । श्रुति (वेद) में जो बात कही गई है उसी के आश्रय पर स्मृति चलती है-अर्थात् वह वेद-वाक्यों का अनुसरण करती है। सुदक्षिणा ने भी तद्वत् ही नन्दिनी के पीछे पीछे उसके मार्ग का अनुसरण किया । नन्दिनी के कुछ दूर जाने पर उस दयाहृदय राजा ने अपनी रानी को लौटा दिया। रानी के लौट पड़ने पर,परम यशस्वी होने के कारण अत्यन्त मनोज्ञ रूप वाला दिलीप,चारों समुद्रों के समान चार स्तनों वाली धेनुरूपिणी पृथ्वी के सदृश, उस कामधेनु-कन्या नन्दिनी की

रखवाली करने लगा । उसके साथ उस समय तक भी दो चार नौकर चाकर थे। अब उनको भी उसने लौट जाने की आज्ञा दे दी । उसने कहा-"मैंने स्वयं ही नन्दिनी की सेवा करने का व्रत धारण किया है। मुझे नौकरों से क्या काम ?” उन्हें इस तरह लौटा कर वह अकेला ही नन्दिनी की रक्षा में तत्पर हुआ। सच पूछिए तो उसे नौकरों और शरीर
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रघुवंश ।

रक्षकों की आवश्यकता भी न थी। क्योंकि वैवस्वत मनु की सन्तान अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं ही समर्थ थी। दूसरों से सहायता पाने की उसने कभी अपेक्षा नहीं की।

उस सार्वभौम राजा ने नन्दिनी को वन में बिना किसी रोक टोक के फिरने दिया । उसे अच्छी अच्छी हरी घास खिला कर, उसका बदन खुजला कर और उस पर बैठी हुई मक्खियों तथा मच्छड़ों का निवारण करके उसकी सेवा करने में उसने कोई कसर नहीं की। उसके खड़ी होने पर वह भी खड़ा हो जाता था; उसके बैठ जाने पर धीरतापूर्वक आसन लगा कर वह भी बैठ जाता था; जब वह चलने लगती थी तब वह भी उसी के पीछे पीछे चलने लगता था; जब वह पानी पीने लगती थी तब वह भी पीने लगता था। सारांश यह कि जिस तरह मनुष्य की छाया चलते फिरते सदा ही उसके साथ रहती है,कभी उसे नहीं छोड़ती,उसी तरह दिलीप भी परछाई के समान नन्दिनी के साथ साथ फिरता रहा । उस दशा में यद्यपि दिलीप के पास छत्र और चामर आदि कोई राज-चिह्न न थे तथापि उसका शरीर इतना तेज:पुज था कि उन चिह्नों से रहित होने पर भी उसे देखने से यही अनुमान होता था कि यह कोई बड़ा प्रतापी राजा है। मद की धारा प्रकट होने के पहले अन्तर्मद से पूर्ण गज-राज की जैसी शोभा होती है वैसी ही शोभा,उस समय,दिलीप की थी । अपने केशों को लताओं से मज़बूती के साथ बाँध कर और धन्वा पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर उस गाय के पीछे पीछे उसने घने वन में प्रवेश किया। उसे इस वेश में विचरण करते देख,जान पड़ता था कि यज्ञ के निमित्त पाली हुई नन्दिनी की रक्षा के बहाने वह वन के हिंस्र जीवों का शासन करने के लिए ही वहाँ घूम रहा है।

नौकरों को वह पहले हो छोड़ चुका था। परन्तु,वरुण के समान पराक्रमी होने के कारण,उनके बिना उसे कुछ भी कष्ट नहीं हुआ। वह अकेला ही नन्दिनी की सानंद सेवा करता रहा । जहाँ जहाँ वह उसके साथ साथ वन में फिरता था वहाँ वहाँ उसके मार्ग के दोनों तरफ़ वाले वृक्ष,उन्मत्त पक्षियों के शब्दों द्वारा,उसका जय-जयकार सा करते थे। वृक्ष ही नहीं, लताये भी उसके आगमन से प्रसन्न थीं। बाहर से नगर
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में प्रवेश करते समय पुरवासिनी कन्यायें जिस तरह राजा पर खीलों की वृष्टि करती हैं उसी तरह,उस अग्नि समान तेजस्वी और परम पूजनीय दिलीप को अपने आस पास चारों तरफ़ फिरते देख,नवीन लताओं ने पवन की प्रेरणा से उस पर फूल बरसाये । यद्यपि राजा के हाथ में धनुर्वाण था,तथापि उसकी मुखचर्या से यह साफ़ मालूम हो रहा था कि उसका हृदय बड़ा ही दयालु है। इस कारण हरिण-नारियाँ उससे ज़रा भी नहीं डरीं। उन्होंने उसके दयालुताद- र्शक शरीर का पास से अवलोकन करके अपने नेत्रों की विशालता को अच्छी तरह सफल किया-उसे खूब टकटकी लगाकर उन्होंने देखा। वृक्षों,लताओं और मृग-महिलाओं तक को राजा के शुभागमन के कारण आनन्द मनाते और उसका समुचित पूजोपचार करते देख वन-देवताओं से भी न रहा गया। छेदों में वायु भर जाने के कारण बाँसुरी के समान शब्द करने वाले बाँसों से उन्होंने बड़े ऊँचे स्वर से दिलीप को सुना सुना कर लतागृहों के भीतर उसका यशोगान किया । अब पवन की बारी आई । उसने देखा कि व्रतस्थ होने के कारण राजा छत्ररहित है और तेज़ धूप उसे सता रही है । अतएव पर्वतों पर बहने वाले झरनों के कणों के स्पर्श से शीतल और वृक्षों के हिलते हुए फूलों के सुवास से सुगन्धित होकर उसने भी उस सदाचार-शुद्ध राजा की सेवा की।

उस धेनु-रक्षक राजा का वन में प्रवेश होने पर,बिना वृष्टि के ही सारी दावाग्नि बुझ गई; फलों और फूलों की बेहद वृद्धि हुई; यहाँ तक कि प्रबल प्राणियों ने निर्बलों को सताना तक छोड़ दिया।

अपने भ्रमण से सारी दिशाओं को पवित्र करके, नये निकले हुए कोमल पत्तों के समान लाल रङ्ग वाली सूर्य की प्रभा और वशिष्ठ मुनि की धेनु,दोनों ही,सायङ्काल घर जाने के लिए लौटी-सूर्यास्त के समय नन्दिनी ने आश्रम की ओर प्रस्थान किया।

देवताओं के लिए किये जानेवाले यज्ञ, पितरों के लिए किये जाने वाले श्राद्ध और अतिथियों के लिए दिये जाने वाले दान के समय काम आने वाली उस सुरभि-सुता के पीछे पीछे पृथ्वी का पति दिलीप भी आश्रम को चला। अपने शुद्ध आचरण के कारण श्रेष्ठजनों के द्वारा सम्मान पाये हुए
उस राजा के साथ जाती हुई नन्दिनी ने, उस समय, ऐसी शोभा पाई जैसी कि धर्म-कार्य करते समय शास्त्र-सम्मत विधि के साथ श्रद्धा, अर्थात स्तिक्य-बुद्धि, शोभा पाती है। उस समय, सायङ्काल, वन का दृश्य बहुत ही जी लुभानेवाला था। शूकरों के यूथ के यूथ छोटे छोटे जलाशयों से निकल रहे थे; मोर पक्षी अपने अपने बसेरे के वृक्षों की तरफ़ उड़ते हुए जा रहे थे; कोमल घास उगी हुई भूमि पर जहाँ तहाँ हिरन बैठे हुए थे। ऐसे मनोहर दृश्योंवाले श्यामवर्ण वन की शोभा देखता हुओ राजा, वशिष्ठ के आश्रम के पास पहुँच गया। नन्दिनी पहले ही पहल ब्याई थी। उसका ऐन बहुत बड़ा था। उसका बोझ सँभालने में उसे बहुत प्रयास पड़ता था। उधर राजा का शरीर भी भारी था। उसकी भी गुरुता कम न थी। अतएव अपने अपने शरीर के भारीपन के कारण दोनों को धीरे धीरे चलना पड़ता था। उनकी उस मन्द और सुन्दर चाल से तपोवन के आने जाने के मार्ग की रमणीयता और भी बढ़ गई।

महामुनि वशिष्ठ की धेनु के पीछे वन से लौटते हुए दिलीप को, उसकी रानी सुदक्षिणा ने, बड़े ही चाव से देखा। सारा दिन न देख पाने के कारण उसके नेत्रों को उपास सा पड़ रहा था। अतएव उसने अपने तृषित नेत्रों से राजा को पी सा लिया। बिना पलके बन्द किये, बड़ी देर तक टकटकी लगाये, वह पति को देखती रही। अपनी पर्णशाला से कुछ दूर आगे बढ़ कर वह नन्दिनी से मिली। वहाँ से वह उसे आश्रम को ले चली। वह आगे हुई, नन्दिनी उसके पीछे, और राजा नन्दिनी के पीछे। उस समय राजा और रानी के बीच नन्दिनी, दिन और रात के बीच सन्ध्या के समान, शोभायमान हुई।

गाय के घर आ जाने पर, पूजा-सामग्री से परिपूर्ण पात्र हाथ में लेकर राजपत्नी सुदक्षिणा ने पहले तो उसकी प्रदक्षिणा की। फिर अपनी मनोकामना की सिद्धि के द्वार के समान उसने उसके विशाल मस्तक की पूजा गन्धाक्षत आदि से की। उस समय नन्दिनी अपने बछड़े को देखने के लिए बहुत ही उत्कण्ठित हो रही थी। तथापि वह ज़रा देर ठहर गई। निश्चल खड़ी रह कर उसने रानी की पूजा का स्वीकार किया। यह देख कर वे दोनों, राजा-रानी, बहुत ही प्रसन्न हुए-उन्हें परमानन्द हुआ।
कारण यह कि कामधेनु कन्या नन्दिनी के समान सामर्थ्य रखनेवाले महात्मा यदि अपने भक्तों की पूजा-अर्च्चा सानन्द स्वीकार कर लेते हैं तो उससे यही सूचित होता है कि आगे चल कर पूजक के अभीष्ट मनोरथ भी अवश्य ही सफल होंगे।

गाय की पूजा हो चुकने पर राजा दिलीप ने अरुन्धती-सहित वशिष्ठ के चरणों की वन्दना की। फिर वह सायङ्कालीन सन्ध्योपासन से निवृत्त हा। इतने में दुही जा चुकने के बाद नन्दिनी आराम से बैठ गई। यह देख कर, अपनी भुजाओं के बल से वैरियों का उच्छेद करनेवाला राजा भी उसके पास पहुँच गया और उसकी सेवा करने लगा। उसने गाय के सामने एक दीपक जला दिया और अच्छा अच्छा चारा भी रख दिया। जब वह सोने लगी तब राजा भी पत्नी-सहित सो गया। ज्योंही प्रातःकाल हुआ और गाय सो कर उठी त्योंही उसका रक्षक वह राजा भी उठ खड़ा हुआ।

सन्तान की प्राप्ति के लिए, उस गाय की इस प्रकार पत्नी-सहित सेवा करते करते उस परम कीर्तिमान और दीनोद्धारक राजा के इक्कीस दिन बीत गये। बाईसवें दिन नन्दिनी के मन में राजा के हृदय का भाव जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने अपने उस अनुचर की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उसने कहा-“देखें, यह मेरी सेवा सच्चे दिल से करता है या नहीं।” यह सोच कर उसने गङ्गाद्वार पर हिमालय की एक ऐसी गुफा में प्रवेश किया जिसमें बड़ी बड़ी घास उग रही थी।

दिलीप यह समझता था कि इस गाय पर सिंह आदि हिंसक जीवों का प्रत्यक्ष आक्रमण तो दूर रहा, इस तरह के विचार को मन में लाने

का साहस तक उन्हें न होगा। अतएव वह निश्चिन्तता-पूर्वक पर्वत की शोभा देखने में लगा था। उसका सारा ध्यान हिमालय के प्राकृतिक दृश्य देखने में था। इतने में एक सिंह नन्दिनी पर सहसा टूट पड़ा और उसे उसने पकड़ लिया। परन्तु राजा का ध्यान अन्यत्र होने के कारण उसने इस घटना को न देखा। सिंह के द्वारा पकड़ी जाने पर नन्दिनी बड़ी जोर से चिल्ला उठी। गुफा के भीतर चिल्लाने से उसके आर्तनाद की बहुत बड़ी प्रतिध्वनि हुई। उसने पर्वत की शोभा देखने में लगी हुई उस दीनवत्सल
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दिलीप की दृष्टि को, रस्सी से खींची गई वस्तु की तरह, अपनी ओर खींच लिया। गाय की गहरी आर्तवाणी सुनने पर उस धनुर्धारी राजा की दृष्टि वहाँ से हटी। उसने देखा कि गेरू के पहाड़ की शिखर-भूमि के ऊपर फूले हुए लोध्रनामक वृक्ष की तरह उस लाल रङ्ग की गाय के ऊपर एक शेर उसे पकड़े हुए बैठा है। अपने बाहुबल से शत्रुओं का क्षय करने वाले और शरणागतों की रक्षा में ज़रा भी देर न लगानेवाले राजा से सिंह का किया हुआ यह अपमान न सहा गया। वह क्रोध से जल उठा। अतएव वध किये जाने के पात्र उस सिंह को जान से मार डालने के लिए, सिंह ही के समान चालवाले उस राजा ने, बाण निकालने के इरादे से, अपना दाहना हाथ तूणीर में डाला। ऐसा करने से सिंह पर प्रहार करने की इच्छा रखनेवाले दिलीप के हाथ के नखों की प्रभा, कङ्कनामक पक्षी के पर लगे हुए बाणों की पूँछों पर, पड़ी। इससे वे सब पूछे बड़ी ही सुन्दर मालूम होने लगी। उस समय बड़े आश्चर्य की बात यह हुई कि राजा की उँगलियाँ बाणों की पूंछों ही में चिपक गई। चित्र में लिखे हुए धनुर्धारी पुरुष की बाण-विमोचन क्रिया के समान उसका वह उद्योग निष्फल हो गया। हाथ के इस तरह रुक जाने से राजा के कोप की सीमा न रही। क्योंकि महा पराक्रमी होने पर भी सामने ही बैठे हुए अपराधी सिंह को दण्ड देने में वह असमर्थ हो गया। अतएव, मन्त्रों और ओषधियों से कीले हुए विष-धर भुजङ्ग की तरह वह तेजस्वी राजा अपनी ही कोपाग्नि से भीतर हो भीतर जलने लगा।

राजा दिलीप कुछ ऐसा वैसा न था। महात्मा भी उसका मान करते थे। वैवस्वत मनु के वंश का वह शिरोमणि था। उस समय के सारे राजाओं में वह सिंह के समान बलवान था। इस कारण, अपना हाथ रुक जाते देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा को इस तरह आश्चर्य-चकित देख कर, नन्दिनी पर आक्रमण करने वाले सिंह ने, मनुष्य की वाणी में, नीचे लिखे अनुसार बाते कह कर, उसके आश्चर्य को और भी अधिक कर दिया। वह बोला:-

"हे राजा! बस हो चुका। और अधिक परिश्रम करने की आवश्य-

कता नहीं। चाहे जिस शस्त्र का प्रयोग तू मेरे ऊपर कर, वह व्यर्थ हुए
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विना न रहेगा। मुझे तू कुछ भी पीड़ा नहीं पहुंचा सकता। वायु का वेग ऊँचे ऊँचे पेड़ों को चाहे भले ही उखाड़ फेंके; परन्तु पहाड़ों पर उसका कुछ भी ज़ोर नहीं चल सकता। तुझे नहीं मालूम कि मैं कौन हूँ। इसी से शायद तू यह कहे कि मुझ में इतना सामर्थ्य कहाँ से आया। अच्छा, सुन। मैं निकुम्भ का मित्र हूँ। मेरा नाम कुम्भोदर है। मैं अष्टमूर्ति शङ्कर का सेवक हूँ। कैलास पर्वत के समान शुभ्र-वर्ण नन्दो के ऊपर सवार होते समय, कैलाशनाथ पहले मेरी पीठ पर पैर रखते हैं। तब वे अपने वाहन नन्दी पर सवार होते हैं। इस कारण उनके चरण-स्पर्श से मेरी पीठ अत्यन्त पवित्र हो गई है। सिंह का रूप धारण करके मैं यहाँ पर क्यों रहता हूँ, इसका भी कारण मैं तुझे बतला देना चाहता हूँ।

"यह जो सामने देवदारू का वृक्ष देख पड़ता है उसे वृषभध्वज शङ्कर ने अपना पुत्र मान रक्खा है। पार्वती ने अपने घट-स्तनों का दूध पिला कर जिस तरह अपने पुत्र स्कन्द का पालन-पोषण किया है उसी तरह उन्होंने अपने सुवर्ण कलश-रूपी स्तनों के पयःप्रवाह से सींच कर इसे भी इतना बड़ा किया है। उनका इस पर भी उतना ही प्रेम है जितना कि स्कन्द पर है। एक दिन की बात है कि एक जङ्गली हाथी का मस्तक खुजलाने लगा। उस समय वह इसी वृक्ष के पास फिर रहा था। इस कारण उसने अपने मस्तक को इसके तने पर रगड़ कर खुजली शान्त की। उसके इस तरह बलपूर्वक रगड़ने से इसकी छाल निकल गई। इस पर पार्वती को बड़ा शोक हुआ। युद्ध में दैत्यों के शस्त्र प्रहार से स्कन्द के शरीर का चमड़ा छिल जाने पर उन्हें जितना दुःख होता उतनाही दुःख उन्हें इस वृक्ष की छाल निकल गई देख कर हुआ। तब से महादेवजी ने मुझे सिंह का रूप देकर, हिमालय की इस गुफा में, वन-गजों को डराने के लिए रख दिया है और आज्ञा दे दी है कि दैवयोग से जो प्राणी यहाँ आ जाय उसी को खा कर मैं अपना निर्वाह करूँ। कई दिन से खाने को न मिलने के कारण मुझे बहुत भूखा जान, और इस गाय का काल आ गया अनुमान कर, इसे परमेश्वर ही ने यहाँ आने की बुद्धि दी है। चन्द्रमा का अमृत पान करने से जैसे राहु की तृप्ति हो जाती है उसी

तरह इसका रक्त पीकर अपने उपोषणव्रत की पारणा करने से मेरी भी
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यथेच्छ तृप्ति हो जायगी। इस गाय को न छुड़ा सकने के कारण तू अपने मन में ज़रा भी सङ्कोच न कर। इसमें लज्जित होने की कोई बात नहीं। निःसङ्कोच होकर तू यहाँ से आश्रम को लौट जा। गुरु पर शिष्य की जितनी भक्ति हो सकती है उतनी तू प्रकट कर चुका । अतएव तू इस विषय में अपराधी नहीं । इस तरह यहाँ से चले जाने के कारण तेरी कीति पर भी किसी तरह का धब्बा नहीं लग सकता। क्योंकि,जिस वस्तु की रक्षा शस्त्रों से हो सकती हो उसी की रक्षा न करने से शस्त्र-धारियों पर दोष आ सकता है। जिसकी रक्षा शस्त्रों से हो ही नहीं सकती वह यदि नष्ट हो गई तो उससे शस्त्रधारियों का यश क्षीण नहीं हो सकता।"

सिंह के ऐसे गम्भीर और गर्वपूर्ण वचन सुन कर पुरुषाधिराज दिलीप के मन की ग्लानि कुछ कम हो गई। अब तक वह यह समझ रहा था कि सिंह के द्वारा इतना अपमानित होने पर भी मैं उसे दण्ड न दे सका,इसलिए मुझे धिक्कार है । परन्तु अब उसका यह विचार कुछ कुछ बदल गया-उसकी निज विषयक अवज्ञा ढीली पड़ गई । उसने सोचा कि मेरे शस्त्र शङ्कर के प्रभाव से कुण्ठित हो गये हैं, मेरी अशक्तता या अयोग्यता के कारण तो हुए ही नहीं । अतएव यह कोई खेद की बात नहीं । महापराक्रमी होने पर भी वीर क्षत्रिय अपनी बराबरी के वीरों ही की स्पर्धा कर सकते हैं, परमेश्वर की नहीं कर सकते ।

एक दफ़े महादेव पर बज्र छोड़ने की इच्छा से इन्द्र ने अपना हाथ उठाया । पर देवाधिदेव महादेव ने जो उसकी तरफ़ आँख उठाकर देख दिया तो इन्द्र का वह हाथ पत्थर की तरह जड़ होकर जैसे का तैसा ही रह गया । इस मौके पर दिलीप की भी दशा इन्द्रही की सी हुई। यह पहला ही प्रसङ्ग था कि उसने बाण प्रहार करने में अपने को असमर्थ पाया। पहले कभी ऐसा न हुआ था कि बाण चलाने का उद्योग करते समय बाण की पूँछही में उसका हाथ चिपक रहा हो। शरसन्धान करने में इन्द्र की तरह अपना प्रयत्न निष्फल हुआ देख राजा ने सिंह से कहा:-

"हे सिंह! तुझे बाण का निशाना बनाने में विफल-मनोरथ होने पर

भी जो कुछ मैं तुझसे कहना चाहता हूँ वह अवश्य ही मेरे लिए उपहासा
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स्पद है । यह सच है। तथापि,शंकर का सन्निधिवर्ती सेवक होने के कारण प्राणियों के मन की बात जानने की तू शक्ति रखता है। अतएव जो कुछ मेरे मन में है-जो कुछ तुझसे मैं कहना चाहता हूँ-वह भी तू जानता ही होगा। इस दशा में मैं स्वयं ही अपने मुँह से अपना वक्तव्य क्यों न तेरे सामने निवेदन कर दूं? अच्छा सुन:-

"स्थावर और जङ्गम- चल और अचल-जो कुछ इस संसार में है उस सब की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कर्ता परमेश्वर शङ्कर मेरे अवश्य ही पूज्य हैं। उनकी आज्ञा मुझे शिरसा धार्य है । साथही इसके यज्ञ की प्रधान साधन, गुरुवर वशिष्ठ की इस गाय की रक्षा करना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। उसका, इस तरह,अपनी आँखों के सामने मारा जाना मैं कदापि नहीं देख सकता । अतएव, शङ्कर की प्रेरणा ही से यह गाय तेरे पब्जे में क्यों न आ फँसी हो,मैं इसे छोड़ कर आश्रम को नहीं लौट सकता । इस समय तू एक बात कर । तेरे लिए शङ्कर की यही आज्ञा है न कि जो कोई प्राणी दैवयोग से यहाँ आ जाय उसे ही मार कर तू अपनी क्षुधा-निवृत्ति कर ? अच्छा, मैं भी तो यहाँ, इस समय, नन्दिनी के साथही आकर उपस्थित हुआ हूँ। अतएव, मुझ पर कृपा करके, तू मेरे ही शरीर से अपनी भूख शान्त कर ले । नन्दिनी को छोड़ दे। इसे मारने से इसका बछड़ा भी जीता न रहेगा। कब सायङ्काल होगा और कब मेरी माँ घर आवेगी, यह सोचता हुआ वह बड़ी ही उत्कण्ठा से इसकी राह देख रहा होगा। इस कारण इसे मारना तुझे मुनासिब नहीं।"

यह सुन कर सारे प्राणियों के पालने वाले शङ्कर के सेवक सिंह ने,कुछ मुसकरा कर, उस ऐश्वर्यशाली राजा की बातों का उत्तर देना प्रारम्भ किया । ऐसा करते समय, उसका मुँह खुल जाने के कारण,उसके बड़े बड़े सफ़ेद दांतों की प्रभा ने उस गिरि-गुहा के अन्धकार के टुकड़े टुकड़े कर दिये-उसके दाँतों की चमक से वह गुफा प्रकाशित हो उठी। वह बोला-

"तू एकच्छत्र राजा है-तेरे रहते किसी और राजा को सिर पर छत्र

धारण करने का अधिकार नहीं; क्योंकि इस सारे भारत का अकेला तू ही
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सार्वभौम स्वामी है। उम्र भी तेरी अभी कुछ नहीं,शरीर भी तेरा बहुत हो सुन्दर है। इस दशा में,तू इन सब का,एक ज़रासी बात के लिए,त्याग करने की इच्छा करता है ! मेरी समझ में तेरा चित्त ठिकाने नहीं । जान पड़ता है,तू बिलकुल ही सारासार-विचार-शून्य है। जीवधारियों पर तेरी अतिशय दया का होना ही यदि ऐसा अविवेकपूर्ण काम कराने के लिए तुझे प्रेरित कर रहा हो तो तेरे मरने से नन्दिनी अवश्य बच सकती है। परन्तु यदि तू उसके बदले अपने प्राण न देकर जीता रहेगा तो, प्रजा का पा- लक होने के कारण,पिता के समान,न तू अपने अनन्त प्रजा-जनों की उपद्रवों से चिरकाल तक रक्षा कर सकेगा । अतएव अपने प्राण खोकर केवल नन्दिनी को बचाने की अपेक्षा,जीता रह कर, तुझे सारे संसार का पालन करना ही उचित है। तू शायद यह कहे कि गाय के मारे जाने से तेरा गुरु वशिष्ठ तुझ पर क्रोध करेगा । उससे बचने का क्या उपाय है ? अच्छा जो तू ऋषि से इतना डरता हो तो मैं इसकी भी युक्ति तुझे बतलाता हूँ। सुन । यदि वह इसकी मृत्यु का अत्यधिक अपराधी तुझे ही ठहरावे और आग-बबूला होकर तुझ पर कोप करे तो तू इस गाय के बदले घड़े के समान ऐन वाली करोड़ों गायें देकर उसके कोप को शान्त कर सकता है। ऐसा करना तेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं । अत- एव,इस ज़रा सी बात के कारण तू अपने तेजस्वी और शक्ति सम्पन्न शरीर का नाश न कर । इस शरीरही की बदौलत मनुष्य को सारे सुखों की प्राप्ति होती है। जो वही नहीं तो कुछ भी नहीं । तुझे इस बात की भी चिन्ता न करनी चाहिए कि नन्दिनी की मृत्यु के कारण तू स्वर्ग सुख से वञ्चित हो जायगा। सम्पूर्ण समृद्धियों से परिपूर्ण तेरा विस्तृत राज्य स्वर्ग से कुछ कम नहीं। वह सर्वथा इन्द्रपद के तुल्य है । भेद यदि कुछ है तो इतना ही है कि तेरा राज्य पृथ्वी पर है और इन्द्र का स्वर्ग में है। बस, इस कारण,अपने शरीर को व्यर्थ नष्ट न करके आनन्दपूर्वक अपने राज्य का सुखोपभोग कर।"

इतना कह कर सिंह चुप हो गया । उस समय उस गिरि-गुहा के भीतर सिंह के मुंह से निकले हुए वचनों की बड़ी भारी प्रतिध्वनि हुई । मानों उस प्रतिध्वनि के बहाने हिमालय पर्वत ने भी ऊँचे स्वर से,प्रीतिपूर्वक,
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राजा से वही बात कही । अर्थात् हिमालय ने भी उस कथन को प्रतिध्वनि द्वारा दुहरा कर यह सूचित किया कि मेरी भी यही राय है ।

अब तक वह सिंह बेचारी नन्दिनी को दबाये हुए बैठा था । उसके पजों में फंसी हुई वह बेतरह भयभीत होकर बड़ी ही कातर-दृष्टि से राजा को देख रही थी और अपनी रक्षा के लिए मन ही मन मूक-प्रार्थना कर रही थी। राजा को उसकी उस दशा पर बड़ी ही दया आई। अतएव उसने सिंह से फिर इस प्रकार कहा :-

"क्षत्र-शब्द का अर्थ बहुत ही प्रौढ़ है। 'क्षत'अर्थात् नाश,अथवा आयुध आदि से किये जानेवाले घाव,से जो रक्षा करता है वही सच्चा क्षत्र अथवा क्षत्रिय है। यह नहीं कि इस शब्द का अकेले में ही ऐसा अर्थ करता हूँ। नहीं,त्रिभुवन में इसका यही अर्थ विख्यात है। सभी इस अर्थ को मानते हैं । अतएव,इस अर्थ के अनुकूल व्यवहार करना ही मेरा परम धर्म है । नाश पानेवाली चीज़ की रक्षा करने के लिए मैं सर्वथा बाध्य हूँ। यदि मुझसे अपने धर्म का पालन न हुआ तो राज्य ही लेकर मैं क्या करूँगा ? और,फिर, निन्दा तथा अपकीर्ति से दूषित हुए प्राण ही मेरे किस काम के ? धर्मपालन न करके अकीति कमाने की अपेक्षा तो मर जाना ही अच्छा है । नन्दिनी के मारे जाने से अन्य हज़ारों गायें देने पर भी महर्षि वशिष्ठ का क्षोभ कदापि शान्त न हो सकेगा। इसमें और इसकी माता सुरभि नामक कामधेनु में कुछ भी अन्तर नहीं। यह भी उसी के सदृश है । यदि तुझ पर शङ्कर की कृपा न होती तो तू कदापि इस पर आक्रमण न कर सकता । तूने यह काम अपने सामर्थ्य से नहीं किया। महादेव के प्रताप से ही यह अघटित घटना हुई है। अतएव,बदले में अपना शरीर देकर इसे तुझसे छुड़ा लेना मेरे लिए सर्वथा न्यायसङ्गत है। मेरी प्रार्थना अनुचित नहीं। उसे स्वीकार करने से तेरी पारणा भी न रुकेगी और महषि वशिष्ठ के यज्ञ-याग आदि का भी निर्विघ्न होते रहेंगे। इस सम्बन्ध में तू स्वयं ही मेरा उदाहरण है। क्योंकि तू भी इस समय मेरे ही सदृश ,पराधीन होकर,बड़े ही यत्न से इस देवदारु की रक्षा करता है।

अतएव,तू स्वयं भी इस बात को अच्छी तरह जानता होगा कि जिस वस्तु की रक्षा का भार जिस पर है उसे नष्ट करा कर वह स्वामी के सामने
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अपना अक्षत शरीर लिये हुए मुँह दिखाने का साहस नहीं कर सकता। पहले वह अपने को नष्ट कर देगा तब अपनी रक्षणीय वस्तु को नष्ट होने देगा । जीते जी वह उसकी अवश्य ही रक्षा करेगा। यही समझ कर तू भी अपने स्वामी के पाले हुए पेड़ की रक्षा के लिए इतना प्रयत्न करता है। इस दशा में तू मेरी प्रार्थना को अनुचित नहीं कह सकता। इस पर भी यदि तू मुझे मारे जाने योग्य न समझता हो तो मेरे मनुष्य-शरीर की रक्षा की परवा न करके मेरे यशःशरीर की रक्षा कर । रक्त,मांस और हड्डी के शरीर की अपेक्षा मैं यशोरूपी शरीर को अधिक आदर की चीज़ सम- झता हूँ। पंचभूतात्मक साधारण शरीर तो एक न एक दिन अवश्य ही नष्ट हो जाता है; परन्तु यश चिरकाल तक बना रहता है। इसीसे मैं यश को बहुत कुछ समझता हूँ, शरीर को कुछ नहीं। हम दोनों में अब परस्पर सुहृत्संबंध सा हो गया है; अपरिचित-भाव अब नहीं रहा । इस कारण भी तुझे मेरी प्रार्थना मान लेनी चाहिए। सम्बन्ध का कारण पारस्परिक सम्भाषण ही होता है। बातचीत होने ही से सम्बन्ध स्थिर होता है। जब तक पहले बात- चीत नहीं हो लेती तब तक किसी का किसी के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं हो सकता । वह इस वन में हम दोनों के मिलने और आपस में बातचीत करने से हो गया। हम दोनों सम्बन्ध-सूत्र से बंध चुके। अतएव,हे शिवजी के सेवक ! मुझ सम्बन्धी की प्रणयपूर्ण प्रार्थना का अनादर करना अब तुझे उचित नहीं।"

दिलीप की दलीलें सुन कर सिंह ने अपना अाग्रह छोड़ दिया । उसने कहाः-"बहुत अच्छा; तेरा कहना मुझे मान्य है।" यह वाक्य उसके मुंह से निकलते ही, निषङ्ग के भीतर बाणों की पूंछ पर चिपका हुआ राजा का हाथ छूट गया। हाथ को गति प्राप्त होते ही राजा ने अपने शस्त्रास्त्र खोल कर ज़मीन पर डाल दिये और मास के टुकड़े के समान अपना शरीर सिंह को समर्पण करने के लिए वह बैठ गया । इसके उपरान्त,अपने ऊपर होने वाले सिंह के भयङ्कर उड्डान की राह,सिर नीचा किये हुए,वह देख ही रहा था कि उस पर विद्याधरों ने फूल बरसाये । सिंह का आक्रमण होने के बदले उस प्रजापालक राजा पर आकाश से कोमल कुसुमों

की वृष्टि हुई !
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दूसरा सर्ग।

उस समय'बेटा ! उठ'---ऐसे अमृत मिले हुए वचन उसके कान में पड़े। उन्हें सुन कर वह उठ बैठा। पर सिंह उसे वहाँ न दिखाई पड़ा। टपकते दूधवाली एक मात्र नन्दिनी ही को उसने,अपनी माता के समान,नंसामने खड़ी देखा । इस पर दिलीप को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसे बेतरह विस्मित देख नन्दिनी ने कहा:--

"हे राजा! साधुता की प्रशंसा नहीं हो सकती। यह जानने के लिए कि मुझ पर तेरी कितनी भक्ति है, मैंने ही यह सारी माया रची थी। वह सच्चा सिंह न था; मेरा निर्माण किया हुआ मायामय था। महर्षि वशिष्ठ की तपस्या के सामर्थ्य से प्रत्यक्ष काल भी मेरी ओर वक्र दृष्टि से नहीं देख सकता । बेचारे अन्य हिंसक जीव मुझे क्या मारेंगे ? बेटा ! तू बड़ा गुरु-भक्त है । मुझ पर भी तेरी बड़ी दया है। इस कारण मैं तुझ पर परम प्रसन्न हूँ। जो वर तू चाहे मुझ से माँग ले । यह न समझ कि मैं केवल दूध देने- वाली एक साधारण गाय हूँ; वर प्रदान करने की मुझ में शक्ति नहीं। मैं वैसी नहीं। मैं सब कुछ दे सकती हूँ। सारे मनोरथ पूर्ण करने की मैं शक्ति रखती हूँ। अतएव जो तू माँगेगा वही मुझसे पावेगा।" .

नन्दिनी को इस प्रकार प्रसन्न देख,याचकजनों का आदरातिथ्य करके उनके मनोरथ सफल करने वाले और अपने ही बाहु-बल से अपने लिए 'वीर' संज्ञा पानेवाले राजा दिलीप ने,दोनों हाथ जोड़ कर,यह वर माँगा कि सुदक्षिणा की कोख से मेरे एक ऐसा पुत्र हो जिससे मेरा वंश चले और जिसकी कीर्ति का किसी को अन्त न मिले। पुत्र-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले राजा की ऐसी प्रार्थना सुन कर उस दुग्धदात्री कामधेनु ने 'तथास्तु' कह कर उसे अभिलषित वर दिया। उसने आज्ञा दी-"बेटा ! पत्तों के दोने में दुह कर मेरा दूध तू पी ले। अवश्य ही वैसा पुत्र तेरे होगा।"

राजा ने कहा:- "हे माता! बछड़े के पी चुकने और यज्ञ-क्रिया हो जाने पर तेरा जो दूध बच रहेगा उसे, पृथ्वी की रक्षा करने के कारण राजा जैसे उसकी उपज का छठा अंश ले लेता है वैसे ही,मैं भी,ऋषि की आज्ञा से, ग्रहण कर लूँगा । तेरे दूध से पहले तो तेरे बछड़े की तृप्ति होनी चाहिए,फिर महर्षि के अग्निहोत्र आदि धार्मिक कार्य । तदनन्तर
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रघुवंश।

जो कुछ बच रहेगा उसी के पाने का मैं अधिकारी हो सकता हूँ, अधिक का नहीं। इसके सिवा इस विषय में तेरे पालक और अपने गुरु ऋषि की आज्ञा लेना भी मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। इस निवेदन का यही कारण है।"

महर्षि वशिष्ठ की वह धेनु,राजा की सेवा-शुश्रूषा से पहले ही सन्तुष्ट हो चुकी थी। जब उसने दिलीप के मुँह से ऐसे विनीत और औदार्यपूर्ण वचन सुने तब तो वह उस पर और भी अधिक प्रसन्न हो गई और राजा के साथ हिमालय की उस गुफा से,बिना ज़रा भी थकावट के,मुनि के आश्रम को लौट आई। उस समय माण्ड- लिक राजाओं के स्वामी दिलीप के चेहरे से प्रसन्नता टपक सी रही थी। उसके मुख की सुन्दरता पौर्णमासी के चन्द्रमा को भी मात कर रही थी। उसकी मुखचा से यह स्पष्ट सूचित हो रहा था कि नन्दिनी ने उसका मनोरथ पूर्ण कर दिया है। उसे देखते ही उसके हर्ष-चिह्नों से महषि वशिष्ठ उसकी प्रसन्नता का कारण ताड़ गये। तथापि राजा ने अपनी वर-प्राप्ति का समाचार गुरु से निवेदन करके उसकी पुनरुक्ति सी की। तदनन्तर वही बात उसने सुदक्षिणा को भी जाकर सुनाई।

यथासमय नन्दिनी दुही गई। बछड़े से जितना दूध पिया गया उसने पिया। जितना आवश्यक था उतना हवन में भी ख़र्च हुआ। जो बच रहा उसे,सज्जनों का प्यार करनेवाले अनिन्दितात्मा दिलीप ने, वशिष्ठ की आज्ञा से,मूर्तिमान् उज्ज्वल यश की तरह,उत्कण्ठा- पूर्वक,पिया।

राजा का गोसेवारूप व्रत अच्छी तरह पूर्ण होने पर, प्रातःकाल,

उसकी यथाविधि पारणा हुई । विधिपूर्वक व्रत खोला गया। इसके उपरान्त प्रस्थानसम्बन्धी समुचित आशीर्वाद देकर जितेन्द्रिय वशिष्ठ ने,अपनी राजधानी को लौट जाने के लिए,दिलीप और सुदक्षिणा को आज्ञा दी । तब,आहुतियाँ दी जाने से तृप्त हुए यज्ञसम्बन्धी अग्निनारायण की,महर्षि वशिष्ठ के अनन्तर उनकी धर्मपत्नी अरुन्ध -ती की,और बछड़े सहित नन्दिनी की प्रदक्षिणा करके, उत्तमोत्तम मङ्गलाचारों से बढ़े हुए प्रभाववाले राजा ने अपने नगर की ओर प्रस्थान करने की तैयारी की । नन्दिनी की सेवा करते समय अनेक दुःख और कष्ट सहन करनेवाले राजा ने,अपनी धर्म
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दूसरा सर्ग।

पत्नी के साथ,रथ पर आरोहण किया। उसका रथ बहुत ही अच्छा था। चलते समय उसके पहियों की ध्वनि कानों को बड़ी ही मनो- हर मालूम होती थी। बुरे मार्ग में भी वह बिना रुकावट के चल सकता था । अतएव,पूर्ण हुए मनोरथ के समान उस सुखदायक रथ पर मार्ग-क्रमण करता हुआ राजा अपने नगर के निकट आ पहुँचा ।

सन्तान की प्राप्ति के निमित्त व्रताचरण करने से राजा दिलीप बहुत ही दुबला हो रहा था। नगर से दूर आश्रम में रहने के कारण प्रजाजनों ने उसे बहुत दिनों से देखा भी न था। उसका पुनर्दर्शन करने के लिए वे बहुत उत्कण्ठित हो रहे थे । अतएव,राजधानी में पहुँचने पर,शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान उस कृशाङ्ग राजा को उसकी प्रजा ने अतृप्त नेत्रों से पी सा लिया। उत्सुकता के कारण घंटों उसकी तरफ़ देखते रहने पर भी लोगों को तृप्ति न हुई।

राजा के लौटने के समाचार पा कर पुरवासियों ने पहले ही से नगर को ध्वजा-पताका आदि से सजा रक्खा था । इन्द्र के समान ऐश्वर्यशाली दिलीप ने,उस सजी हुई अपनी राजधानी में,नगरनिवासियों के मुँह से अपनी स्तुति सुनते सुनते प्रवेश किया और भूमि के भार को शेष के समान बलवान् अपनी भुजाओं पर फिर धारण कर लिया। फिर वह पहले की तरह अपना राज-काज करने लगा।

इधर राजा की सन्तान-सम्बन्धिनी कामना ने भी फलवती होने का उपक्रम किया। अत्रि मुनि की आँखों से निकले हुए चन्द्रमा को जिस तरह नभस्थली ने,और अग्नि के फेंके हुए महादेव के तेज, अर्थात् कार्तिकेय को,जिस तरह गङ्गा ने धारण किया था उसी तरह आठों दिक्पालों के गुरुतर अंशों से परिपूर्ण गर्भ को,सुदक्षिणा ने,दिलीप के वंश का ऐश्वर्य बढ़ाने के लिए,धारण किया । नन्दिनी का वरदानरूपी पादप शीघ्रही कुसुमित हो उठा।