रघुवंश/१७—राजा अतिथि का वृत्तान्त

पृष्ठ ३२२ से – ३३५ तक

 

सत्रहवाँ सर्ग।

राजा अतिथि का वृत्तान्त ।

रात के चौथे पहर से बुद्धि को जैसे विशद-भाव की प्राप्ति होती है वैसेही कुश से कुमुद्रती को अतिथि नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । प्रतापी पिता का पुत्र होने से वह भी बड़ा ही तेजस्वी हुआ । उत्तर और दक्षिण, दोनों, मार्गों को सूर्य की तरह, उसने भी अपने पिता और माता, दोनों, के कुलों को पवित्र कर दिया । उसके बहुदर्शी और विद्वान् पिता ने पहले तो उसे क्षत्रियोचित शिक्षा देकर युद्धविद्या और राजनीति में निपुण कर दिया; फिर, राजाओं की कन्याओं के साथ उसका विवाह किया। कुश जैसा शूर वीर, जितेन्द्रिय और कुलीन था पुत्र भी भगवान ने उसे वैसाही शूर वीर, जितेन्द्रिय और कुलीन दिया । अतएव, कुश को ऐसा मालूम होने लगा कि मैं एक नहीं, अनेक हूँ। अर्थात् पुत्र में अपने ही से सब गुण होने के कारण उसे उसकी आत्मा, एक से अधिक हो गई सी, जान पड़ने लगी।

इन्द्र की सहायता करना रघुवंशी राजाओं के कुल की रीति ही थी। अतएव, कुश को भी इन्द्र की सहायता के लिए अमरावती जाना पड़ा। वहाँ उसने दुर्जय नामक दैत्य के साथ महा घोर संग्राम करके उसे मार डाला । परन्तु उस दैत्य के हाथ से उसे भी अपने प्राण खाने पड़े। चाँदनी जैसे कुमुदों को आनन्द देनेवाले चन्द्रमा का अनुगमन करती है वैसेही नागराज कुमुद की बहन कुमुदती भी कुमुदानन्द (पृथ्वी की प्रीति से प्रानन्दित होने वाले ) कुश का अनुगमन कर गई-पति के साथ वह सती हो गई । इस लोक से उन दोनों के प्रस्थान कर जाने पर कुश को तो इन्द्र के प्राधे सिंहासन का भोग प्राप्त हुआ और कुमुद्रती को इन्द्राणी की सखी
बनने का सौभाग्य। कुमुदती को तो इन्द्राणी के पारिजात का एक अंश भी मिला। अतएव, वे दोनों ही, इन्द्र और इन्द्राणी के समान ऐश्वर्य का उपभोग करने लगे।

जिस समय कुश लड़ाई पर जा रहा था उस समय वह अपने बूढ़े बूढ़े मन्त्रियों से कह गया था कि यदि मैं युद्ध से लौट कर न आऊँ तो मेरे पीछे अयोध्या का राज्य अतिथि को दिया जाय। इस आज्ञा को स्मरण करके मन्त्रियों ने अतिथि को ही अयोध्या का राजा बनाना चाहा। उन्होंने कारीगरों को आज्ञा दी कि कुमार अतिथि का राज्याभिषेक करने के लिए, चार खम्भों पर खड़ा करके, एक नये मण्डप की रचना करो और उसके बीच में एक ऊँची सी वेदी बनाओ। इस आज्ञा का तत्काल ही पालन किया गया। सब तैयारियाँ हो चुकने पर, जब कुमार अतिथि अपने पैतृक सिंहासन पर विराजमान हुआ तब तीर्थों के जल से भरे हुए सोने के कलश साथ ले लेकर मन्त्री लोग उसके सामने उपस्थित हुए। अभिषेक की क्रिया प्रारम्भ कर दी गई। तुरहियाँ हृदयहारिणी गम्भीर ध्वनि करने लगी। उन्हें बजते सुन लोगों ने यह अनुमान किया कि राजा अतिथि का सदा ही कल्याण होगा; उसकी सुख-सम्पदाओं में कभी त्रुटि न होगी। दूब, जौ के अंकुर, बरगद की छाल और कोमल पल्लव थाली में रख कर, बूढ़े बूढ़े सजातियों ने पहले अतिथि पर आरती उतारी। तदनन्तर वेदवेत्ता ब्राह्मण, पुरोहित को आगे करके, विजय देनेवाले अथर्ववेद के मन्त्र पढ़ कर अतिथि का अभिषेक करने के लिए आगे बढ़े-उस अतिथि का जिसके भाग्य में सदा ही विजयी होना लिखा था। अभिषेक सम्बन्धी पवित्र जल की बहुत बड़ी धारा जिस समय शब्द करती हुई उसके सिर पर गिरने लगी उस समय ऐसा मालूम होने लगा जैसे त्रिपुर के वैरी शङ्कर के सिर पर गङ्गा की धारा हहराती हुई गिर रही हो। अभिषेक होता देख वन्दीजनों ने अतिथि की स्तुति से पूर्ण गीत गाना प्रारम्भ कर दिया। उस स्तुति को सुन कर-चातकों के द्वारा स्तुति किये गये मेघ के सदृश-वह महत्ता को पहुँचा हुआ सा दिखाई दिया। सन्मंत्रों से पवित्र किये गये विविध जलों से स्नान करते समय उसकी कान्ति-मेंह से भिगोई गई बिजली की आग की कान्ति के सदृश-और भी अधिक हो गई। अभिषेक की क्रिया समाप्त होने पर राजा अतिथि ने स्नातक ब्राह्मणों को अपार धन दिया। उस धन से उन लोगों ने जाकर एक एक यज्ञ भी कर डाला और यज्ञ की दक्षिणा के लिए भी उन्हें और किसी से कुछ न माँगना पड़ा। यज्ञ का सारा खर्च अतिथि के दिये हुए धन से ही निकल गया। राजा अतिथि के अपार दान से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने उसे जो आशीर्वाद दिया उसे बेकार पड़ा रहना पड़ा। बात यह थी कि उस आशीर्वाद से जो फल प्राप्त होने वाले थे वे फल तो अतिथि को, अपने ही' पूर्वजन्म के अर्जित कम्मों की बदौलत, प्राप्त थे। इस कारण ब्राह्मणों के आशीर्वाद के फल, उसके लिए, उस समय, व्यर्थ से हो गये। आगे, किसी जन्म में, उनके विपाक का शायद मौका आवे।

राज्याधिकार पाकर राजा अतिथि ने आज्ञा दी कि जितने कैदी कैद. खानों में हैं सब छोड़ दिये जायें; जिन अपराधियों को वध दण्ड मिला है वे वध न किये जायें; जिनको बोझ ढोने का काम दिया गया है उनसे बोझ न ढुलाया जाय; जो गायें दूध देती हैं वे दुही न जाय-उनका दूध उनके बछड़ों ही के लिए छोड़ दिया जाय। मनोरञ्जन के लिए तोते आदि पक्षी भी, जो उसके महलों में पीजड़ों के भीतर बन्द थे, उसने छोड़ दिये। छूट कर वे आनन्द से यथेच्छ विहार करने लगे।

इसके बाद स्नान करके और सुगन्धित धूप से बाल सुखा कर, वह राज-भवन के भीतर रक्खे हुए हाथीदाँत के चमचमाते हुए बहुमूल्य सिहासन पर, जिस पर सुन्दर बिछौना बिछा हुआ था, वस्त्राभूषण पहनने और शृङ्गार करने के लिए, जा बैठा। तब कपड़े लत्ते पहनाने और शृङ्गार करने वाले सेवक, पानी से अच्छी तरह अपने हाथ धोकर, तुरन्त ही उसके पास जाकर उपस्थित हुए और अनेक प्रकार के शृङ्गारों और वस्त्राभूषणों से उसे खूब ही अलंकृत किया। पहले तो उन्होंने मोतियों की माला से उसके केश-कलाप बाँधे। फिर उनमें जगह जगह फूल गूंथे। इसके पीछे उसके सिर पर प्रभा-मण्डल विस्तार करने वाली पद्मरागमणि धारण कराई। तद- नन्तर कस्तूरी मिले हुए सुगन्धित चन्दन कालेप शरीर पर कर के गोरोचन से बेल-बूटे बनाये। जिस समय सारे आभूषण पहन कर और कण्ठ में माला डाल कर उसने हंसों के चिह्न वाले (हंस कढ़े हुए) रेशमी वस्त्र धारण किये
उस समय उसकी सुन्दरता बहुत ही बढ़ गई-उसकी वेश-भूषा राजलक्ष्मीरूपिणी दुलहिन के दूल्हे के अनुरूप हो गई। शृङ्गार हो चुकने पर सोने का आईना उसके सामने रक्खा गया। उसमें उसका प्रतिबिम्ब, सूर्योदय के समय प्रभापूर्ण सुमेरु में कल्पवृक्ष के प्रतिबिम्ब के सदृश, दिखाई दिया।

इस प्रकार सज कर राजा अतिथि अपनी सभा में जाने के लिए उठा। उसकी सभा कुछ ऐसी वैसी न थी। देवताओं की सभा से वह किसी बात में कम न थी। राजा के चलते ही चमर, छत्र आदि राज-चिह्न हाथ में लेकर, उसके सेवक भी जय-जयकार करते हुए उसके दाहने बाये चले। सभा-स्थान में पहुँच अतिथि अपने बाप-दादे के सिंहासन पर, जिसके ऊपर च दावा तना हुआ था, बैठ गया। यह वह सिंहासन था जिसकी पैर रखने की चौकी पर सैकड़ों राजाओं ने अपने मुकुटों की मणियाँ रगड़ी थीं और जिनकी रगड़ से वह घिस गई थी। उसके वहाँ विराजने से श्रीवत्स चिह्नवाला वह उतना बड़ा मङ्गल स्थान ऐसा शोभित हुआ जैसा कि कौस्तुभमणि धारण करने से श्रीवत्स, अर्थात् भृगु-चरण, से चिह्नित विष्णु भगवान् का वक्षःस्थल शोभित होता है। प्रतिपदा का चन्द्रमा यदि एक बार ही पूर्णिमा का चन्द्रमा हो जाय-अर्थात् रेखामात्र उदित होकर वह सहसा पूर्णता को पहुँच जाय तो जैसे उसकी कान्ति बहुत विशेष हो जायगी वैसे ही वाल्यावस्था के अनन्तर ही महाराज-पद पाने से अतिथि की कान्ति भी बहुत विशेष होगई।

राजा अतिथि बड़ा ही हँसमुख था। जब वह बोलता था मुसकरा कर ही बोलता था। उसकी मुखचा सदा ही प्रसन्न देख पड़ती थी। अतएव, उसके सेवक उससे बहुत खुश रहते थे। वे उसे विश्वास की साक्षात् मूर्ति समझते थे। वह इन्द्र के समान ऐश्वर्यशाली राजा था। जिस हाथी पर सवार होकर वह अपनी राजधानी की सड़कों पर निकलता था वह ऐरावत के समान बलवान था। उसकी पताकाये कल्पद्रुम की बराबरी करने वाली थीं। इन कारणों से उसने अपनी पुरी, अयोध्या, को दूसरा स्वर्ग बना दिया। उसके शासन-समय में एक मात्र उसी के सिर पर शुभ्र छत्र लगता था। और राजाओं को छत्र धारण करने का अधिकार ही न था। परन्तु उसके उस एक ही छत्र ने, उसके पिता कुश के वियोग
का सन्ताप, जो सारे संसार में छा गया था, एकदम ही दूर कर दिया। पहले राजा के वियोग-जन्य आतप से बचने के लिए सब को अलग अलग छाता लगाने की ज़रूरत ही न हुई। धुवाँ उठने के बाद आग की लपट निकलती है और उदय होने के बाद सूर्य की किरणें ऊपर आती हैं। जितने तेजस्वी हैं सब का यही हिसाब है-सब के सब, उत्थान होने के पहले, कुछ समय अवश्य लेते हैं। परन्तु, अतिथि ने तेजस्वियों की इस वृत्ति का उल्लङ्घन कर दिया। वह ऐसा तेजस्वी निकला कि गुणों के प्रकाश के साथ ही उसकी तेजस्विता का भी प्रकाश सब कहीं फैल गया। यह नहीं कि और तेजस्वियों की तरह, पहले उसके गुणों का हाल लोगों को मालूम होता, फिर, उसके कुछ समय पीछे, कहीं उसकी तेजस्विता प्रकट होती।

पुरुषों ही ने नहीं, स्त्रियों तक ने उसे अपना प्रीति-पात्र बनाया। उन्होंने भी उस पर अपनी प्रीति और प्रसन्नता प्रकट की। जिस तरह शरत्काल की राते निर्मल तारों के द्वारा ध्रुव का अनुगमन करती है-उसे बड़ी उत्कण्ठा से देखती हैं-उसी तरह अयोध्या की स्त्रियों ने भी अपने प्रीति-प्रसन्न नेत्रों से उसका अनुगमन किया-उसे बड़े चाव से देखा। वे उसे रास्ते में जाते देख देर तक उत्कण्ठापूर्ण दृष्टि से देखा की। स्त्रियों की बात जाने दीजिए देवी-देवताओं तक ने उस पर अपना अनुग्रह दिखाया। वह था भी सर्वथा अनुग्रहणीय। अयोध्या में सैकड़ों बड़े बड़े विशाल मन्दिर थे। उनमें देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित थीं, जिनकी पूजा-अर्चा बड़े भक्ति-भाव से होती थी। वे देवता, राजा अतिथि पर अपना अनुग्रह प्रकट करने के लिए, अपनी अपनी प्रतिमाओं के भीतर उपस्थित होकर वास करने लगे। उन्होंने कहा कि अयोध्या में राजा के पास रहने से, उस पर कृपा करने के बहुत मौके मिलेंगे; दूर रहने से यह बात न होगी। इसी से उन्होंने, अयोध्या में, अपनी मूर्तियों के भीतर ही रहने का कष्ट उठाया।

राजा अतिथि का राज्याभिषेक हुए अभी बहुत दिन न हुए थे। अभी उसके बैठने की वेदी पर पड़ा हुआ अभिषेक का जल भी न सुख पाया था। परन्तु इतने ही थोड़े समय में उसका प्रखर प्रताप समुद्र के किनारे तक
पहुँच कर बेतरह तपने लगा। एक तो कुलगुरु वशिष्ठ के मन्त्र हो,अपने प्रभाव से, उसके सारे काम करने में समर्थ थे। दूसरे, उस धनुषधारी के शरों की शक्ति भी बहुत बढ़ी चढ़ी थी। फिर भला, उन दोनों के एकत्र होने पर, संसार में ऐसी कौन साध्य वस्तु थी जो उसे सिद्ध न हो सकती ?

अतिथि अद्वितीय न्यायी था। धर्मज्ञों का वह हृदय से आदर करता था। धर्मशास्त्र के पारङ्गत पण्डितों के साथ बैठ कर, प्रति दिन, वह स्वय' ही वादियों और प्रतिवादियों के पेचीदा से भी पेचीदा अभियोग सुन कर उनका फैसिला करता था। इस काम में वह आलस्य को अपने पास तक न फटकने देता था।

अपने कर्मचारियों और सेवकों पर भी उसका बड़ा प्रेम था। वे भी उसे भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। जो कुछ उन्हें माँगना होता था, निःसङ्कोच वे माँग लेते थे। उनकी प्रार्थनाओं को प्रसन्नतापूर्वक सुन कर वह इस तरह उनकी पूर्ति करता था कि प्रार्थियों को शीघ्र ही उनका वाञ्छित फल मिल जाता था। अतएव उसके सारे अधिकारी, कर्मचारी और सेवक उसके क्रीतदास से हो गये। यही नहीं, प्रजा भी उस पर अत्यन्त अनुरक्त हो गई। सावन के महीने की बदौलत नदियाँ जैसे बढ़ जाती हैं वैसे ही अतिथि के पिता कुश की बदौलत उसकी प्रजा की बढ़ती हुई थी। परन्तु पिता के अनन्तर जब अतिथि राजा हुआ तब उसके राज्य में, भादों के महीने में नदियों ही की तरह, प्रजा की पहले से भी अधिक बढ़ती हो गई।

जो कुछ उसने एक दफे मुँह से कह दिया वह कभी मिथ्या न हुआ। जो वस्तु जिसे उसने एक दफे दे डाली उसे फिर कभी उससे न ली। जो कह दिया सो कह दिया; जो दे दिया सो दे दिया। हाँ, एक बात में उसने इस नियम का उल्लङ्घन अवश्य किया। वह बात यह थी कि शत्रुओं को उखाड़ कर उन्हें उसने फिर जमा दिया। चाहिए यह था कि जिनको एक दफे वह उखाड़ देता उन्हें फिर न जमने देता। परन्तु, इस सम्बन्ध में, उसने अपने नियम के प्रतिकूल काम करने ही में अपना गौरव समझा। क्योंकि, शत्रु का पराजय करके उसे फिर उसका राज्य दे देना ही अधिक
महत्ता का सूचक है। यौवन, रूप और प्रभुता-इनमें से एक के भी होने से मनुष्य मतवाला हो जाता है; उसमें मद आ जाता है। परन्तु अतिथि में यद्यपि ये तीनों बातें मौजूद थीं तथापि वे सब मिल कर भी उसके मन में मद न उत्पन्न कर सकीं।

इस प्रकार उसकी प्रजा का प्रेम, उसके अनुपम गुणों के कारण, प्रति दिन, उस पर बढ़ता ही चला गया। फल यह हुआ कि नया पौधा जैसे अच्छी ज़मीन पाने पर अपनी जड़ जमा लेता है वैसे ही अतिथि ने, नया राज्य पाने पर भी, अपनी प्रजा के हृदय में अपने लिए दृढ़तापूर्वक स्थान प्राप्त कर लिया। फिर क्या था। प्रजा का प्यारा हो जाने से वह शत्रुओं के लिए दुर्जय हो गया।

अतिथि ने बाहरी वैरियों की तादृश परवा न की। उसने सोचा कि बाहरी शत्रु दूर रहते हैं और सदा शत्रुता का व्यवहार नहीं करते। फिर यह भी नहीं कि सभी बाहरी राजा शत्रुवत् व्यवहार करें। अतएव उनको वशीभूत करने की कोई जल्दी नहीं। जल्दी तो आभ्यन्तरिक शत्रुओं को वशीभूत करने की है। क्योंकि वे शरीर के भीतर ही रहते हैं और सब के सबसदा ही शत्रु-सदृश व्यवहार करते हैं। यही समझ कर पहले उसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर नामक इन छः शत्रुओं को जीत लिया।

लक्ष्मी यद्यपि स्वभाव ही से चञ्चल है; वह एक ही जगह बहुत दिन तक नहीं रहती। तथापि सदा प्रसन्न रहने वाले हँसमुख अतिथि का सा मनमाना आश्रय पर-कसौटी पर सोने की रेखा के समान-वह उसके यहाँ अचल हो गई। अतिथि को छोड़ कर उसने और कहीं जाना ही न चाहा।

अतिथि राजनीति का भी उत्तम ज्ञाता था। बिना वीरता दिखाये ही कूट- नीति से काम निकालने को उसने निरी कायरता समझा और बिना नीति का अवलम्बन किये केवल वीरता से कार्यसिद्धि करने को उसने पशुओं का सा व्यवहार समझा। अतएव जब ज़रूरत पड़ी तब उसने इन दोनों ही के संयोग से काम निकाला-वीरता भी दिखाई और नीति को भी न छोड़ा। उसने नगर नगर और गाँव गाँव में अपने गुप्तचर-रूपी किरण छोड़ दिये। फल यह हुआ कि जैसे निरभ्र सूर्य से कोई बात छिपी नहीं रहती वैसे
ही उसके राज्य में उससे भी कोई बात छिपी न रहो। जहाँ कहाँ जो कुछ हुआ सब उसको ज्ञात हो गया।

राजनीति और धर्मशास्त्र में जिस घड़ो जो काम करने की आज्ञा राजाओं को है वह काम उसने उसी घड़ी किया। चाहे रात हो चाहे दिन, जिस समय का जो काम था उसी समय उसने कर डाला। इस नियम मैं कभी उससे त्रुटि न होने पाई।

मन्त्रियों के साथ यद्यपि वह प्रति दिन मन्त्रणा करता था-यद्यपि कोई दिन ऐसा न जाता था कि वह अपने मन्त्रियों के साथ गुप्त विचार न करता हो-तथापि, गुप्त मन्त्रणाओं के सम्बन्ध में प्रति दिन परस्पर विचार और वाद-विवाद होने पर भी, उनका लवलेश भी बाहर के लोगों को न मालुम होता था। बात यह थी कि मन्त्रणाओं के बाहर निकलने के द्वार उसने बड़ी ही दृढ़ता से बन्द कर दिये थे। उसने प्रबन्ध ही ऐसा कर दिया था कि उसकी गुप्त बातें मन्त्रियों के सिवा और किसी को मालूम न हो।

अनेकों जासूस जो उसने रख छोड़े थे उनमें यह विशेषता थी कि उन्हें एक दूसरे का कुछ भी हाल न मालूम था। उनका काम शत्रुओं की खबर रखनाही न था, मित्रों की भी खबर रखने की उन्हें आज्ञा थी। अतिथि को उनसे शत्रुओं और मित्रों, दोनों, का क्षण क्षण का हाल मालूम हो जाता था। सोने के समय अतिथि प्रानन्द से सोता ज़रूर था; परन्तु उस समय भी वह अपने जासूसों की बदौलत जागा हुआ हो सा रहता था। क्योंकि, उसके सोते समय जो घटनायें होती थीं उनकी भी रिपोर्ट उस तक पहुँच जाती थी।

शत्रुओं पर आक्रमण करने की उसमें यथेष्ट शक्ति थी। वह किसी बात में निर्बल न था। परन्तु, फिर भी, उसने बड़े बड़े दृढ़ किले बनवाये थे। उन्हीं में वह रहता था। इसका कारण भय न था। हाथियों के मस्तक विदीर्ण करनेवाला सिंह क्या भय से थोड़े ही गिरि-गुहा के भीतर सोता है ? वह तो उसका स्वभावही है। इसी तरह किले बनवाना और उनमें रहना अतिथि का स्वभावही था। डर से वह ऐसा न करता था।

जितने काम वह करता था खूब सोच समझ कर करता था। काम भी वह वही करता था जिनसे उसे विश्वास हो जाता था कि सुख, समृद्धि
और कल्याण की प्राप्ति होगी। फिर, किसी काम का प्रारम्भ करके वह उसे देखता रहता था। इससे उसमें कोई विघ्न न आता था। उसके सारे उद्योग-गर्भ में ही पकनेवाले धानों की तरह-भीतरही भीतर परिपक्क होते रहते थे। अच्छी तरह परिपाक हो चुकने पर कहीं उनका पता और लोगों को लगता था। इतना चतुर और इतना ऐश्वर्यवान् होने पर भी उसने कभी कुमार्ग में पैर न रक्खा। सदा सुमार्ग ही का उसने अवलम्ब किया। समुद्र बढ़ता है तब क्या वह मनमानी जगह से थोड़ेही बह निकलता है। बहता है तो नदी के मुहाने से ही बहता है, और कहीं से नहीं।

सुमार्गगामी होने के सिवा अतिथि ने प्रजारजन को भी अपना बहुत बड़ा कर्त्तव्य समझा। प्रजा की अरुचि और अप्रसन्नता दूर करने की यद्यपि उसमें पूर्ण शक्ति थी-यद्यपि वह इतना सामर्थ्यवान् था कि प्रजा के असन्तोष और वैराग्य को तत्कालही दूर कर सकता था- तथापि उसने ऐसा कोई कामही न होने दिया जिससे उसकी प्रजा अप्रसन्न होती और जिसके दुष्परिणाम का उसे प्रतीकार करना पड़ता। ऐसाही उचित भी था। किसी रोग की रामबाण औषध पास होने पर भी उस रोग को न उत्पन्न होने देनाही बुद्धिमानी है।

राजनीतिज्ञ राजा अतिथि यद्यपि बड़ा पराक्रमी और बड़ा शक्तिशाली था, तथापि उसने अपने से कमज़ोरही शत्रु पर चढ़ाइयाँ की। अपने से अधिक बलवान् पर तो क्या, समबल वाले वैरी पर भी उसने कभी चढ़ाई न की। दावानल, पवन की सहायता पाने पर भी, जलाने के लिए पानी को नहीं ढूँढ़ता फिरता। वह चाहे कितनाही प्रज्वलित क्यों न हो, और उसे चाहे कितनेही प्रचण्ड पवन की सहायता क्यों न मिले, पानी को वह नहीं जला सकता। इसी से वह उसे ढूँढ़ कर जलाने की चेष्टा नहीं करता। और, यदि, मूर्खतावश चेष्टा करे भी, तो भी उलटा उसी की हानि हो-पानी स्वयं ही उसे बुझा दे। अतिथि को तो राजनीति का उत्तम ज्ञान था। इससे उसने भी इसी दावानलवाली नीति का अवलम्बन किया।

धर्म्म, अर्थ और काम- इन तीनों को अतिथि ने समदृष्टि से देखा। न किसी पर उसने विशेष अनुरागही प्रकट किया और न किसी पर विशेष विरागही प्रकाशित किया। न उसने अर्थ और काम से धर्म को

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बाधा पहुँचने दी और न धर्म से अर्थ और कामही की हानि होने दी। इसी तरह न उसने अर्थ से काम को और न काम से अर्थ को ही क्षतिग्रस्त होने दिया। तीनों को उसने एक सा समझा; किसी के साथ पक्षपात न किया।

मित्र भी उसने बहुत समझ बूझ कर बनाये। उसने सोचा कि होनों को मित्र बनाने से वे कुछ भी उपकार नहीं कर सकते और बलवानों को मित्र बनाने से वे उपद्रव करने लगते हैं। अतएव मध्यम शक्ति वालों ही को मित्र बनाना चाहिए। यही समझ कर उसने ऐसों को मित्र बनाया जो न तो हीन ही थे और न बलवान ही थे।

यदि किसी पर चढ़ाई करने की आवश्यकता जान पड़ी तो बिना सोचे समझे कभी उसने युद्ध-यात्रा न की। पहले उसने अपनी और अपने शत्र की सेना के बलाबल का विचार किया; फिर देश और काल आदि का। तदनन्तर, यदि उसने सब बातें अपने अनुकूल देखीं और शत्रु उसे अपने से कमज़ोर मालूम हुआ, तो वह उस पर चढ़ गया। अन्यथा चुपचाप अपने घर बैठा रहा।

राजा के लिए खज़ाने की बड़ी ज़रूरत होती है। जिसके पास खज़ाना नहीं वह निर्बल समझा जाता है; अन्य नरेश उससे नहीं डरते और उसका समुचित आदर भी नहीं करते। खज़ाने से राजाही को नहीं, और लोगों को भी बहुत आसरा रहता है। देखिए न, चातक जल भरे मेघही की स्तुति करते हैं, निर्जल मेघ की नहीं। यही सोच कर अतिथि ने ख़ब अर्थ-सञ्चय करके अपना खज़ाना बढ़ाया। लोभ के वशीभूत होकर उसने ऐसा नहीं किया। सिर्फ यह जान कर धनसञ्चय किया कि उससे बहुत काम निकलता है।

अपने वैरियों के उद्योगों पर उसने सदा कड़ी नज़र रक्खी। जहाँ उसने देखा कि कोई उसके प्रतिकूल कुछ उद्योग कर रहा है तहाँ उसके उद्योग को उसने तुरन्तही विफल कर दिया। पर उसने अपने उद्योगों को शत्रुओं के द्वारा ज़रा भी हानि न पहुँचने दी। इसी तरह वह अपनी कमजोरियों को तो छिपाये रहा, पर जिस बात में शत्रुओं को कमज़ोर- देखा उसी को लक्ष्य करके उन पर उसने प्रहार किया।

दण्डधारी राजा अतिथि ने अपनी विपुल सेना को सदाही प्रसन्न
और सन्तुष्ट रक्खा । यहाँ तक कि उसने उसे अपने शरीर के सदृश समझा; जितनी परंवा उसने अपने शरीर की की उतनीहो सेना की भी। सच तो यह है कि उसकी सेना और उसकी देह दोनों तुल्य थीं भी। जिस तरह उसके पिता ने पाल पोस कर उसकी देह को बड़ा किया था उसी तरह उसने सेना की भी नित्य वृद्धि की थी। जिस तरह उसने शस्त्र-विद्या सीखी थी उसी तरह उसकी सेना ने भी सीखी थी। जिस तरह युद्ध करना वह अपना कर्तव्य समझता था उसी तरह सेना भी युद्ध' ही के लिए थी।

सर्प के सिर की मणि पर जैसे कोई हाथ नहीं लगा सकता वैसेही अतिथि की प्रभाव, उत्साह और मन्त्र नामक तीनों शक्तियों पर भी उसके शत्रु हाथ न लगा सके-उन्हें खींच न सके। परन्तु अतिथि ने अपने शत्रुओं की इन तीनों शक्तियों को इस तरह खींच लिया जिस तरह कि चुम्बक लोहे को खींच लेता है।

अतिथि के राज्य में व्यापार-वाणिज्य की बड़ी वृद्धि हुई। वणिकलोग बड़ी बड़ी नदियों को बावलियों की तरह और बड़े बड़े दुर्गम वनों को उपवनों की तरह पार कर जाने लगे। ऊँचे ऊँचे पर्वतों पर वे घर की तरह बेखटके घूमने लगे। चोरों, लुटेरों और डाकुओं का कहीं नामोनिशान तक न रह गया। चोरों से प्रजा के धन-धान्य की और विनों से तपस्वियों के तप की उसने इस तरह रक्षा की कि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जितने वर्ण और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि जितने आश्रम थे सब ने उसे अपनी अपनी सम्पत्ति और तपस्या का छठा अंश प्रसन्नतापूर्वक दे दिया।

पृथ्वी तक ने उसका अंश उसे देने में आना कानी न की। वह था पृथ्वी का रक्षक। अतएव रक्षा के बदले पृथ्वी से उसे ज़रूर कुछ मिलना चाहिए था। इसी से पृथ्वी ने खानों से उसे रत्न दिये, खेतों से अनाज दिया और वनों से हाथी दिये। इस प्रकार पृथ्वी ने अतिथि का वेतन कौड़ी कौड़ी चुका दिया।

सन्धि, विग्रह आदि छः प्रकार के गुण हैं और मूल, भृत्य प्रादि छः प्रकार के बल भी हैं। कात्तिकेय के समान पराक्रमी राजा अतिथि को इन गुणों और इन बलों के प्रयोग का उत्तम ज्ञान था। अपनी अभीष्ट-सिद्धि
के लिए जिस समय जिस गुण या जिस बल के प्रयोग की आवश्यकता होती थी उस समय उसी का वह प्रयोग करता था। इस कारण उसे सदा ही सफलता होती थी। गुणों और बलों की तरह साम, दान आदि चार प्रकार की राजनीतियों की प्रयोग-विधि का भी वह उत्तम ज्ञाता था। मन्त्री, सेनापति, कोशाध्यक्ष आदि अट्ठारह प्रकार के कर्मचारियों में से जिसके साथ जिस नीति का अवलम्बन करने से वह कार्य-सिद्धि की विशेष "सम्भावना समझता था उसी को काम में लाता था। फल यह होता था कि जिस उद्देश से जो काम वह करता था उसमें कभी विन्न न आता था।

राजा अतिथि युद्ध-विद्या में भी बहुत निपुण था। वह कूट-युद्ध और धर्म-युद्ध दोनों की रीतियाँ जानता था। परन्तु महाधार्मिक होने के कारण उसने कभी कूट-युद्ध न किया; जब किया तब धर्म-युद्ध ही किया। जीत भी सदा उसी की हुई। बात यह है कि जीत वीर-गामिनी है। जो वीर होता है उसके पास वह-अभिसारिका नायिका की तरह-आपकी चली जाती है। अतिथि तो बड़ा ही शूरवीर था। अतएव, हर युद्ध में, जीत स्वयं ही जा जा कर उसके गले पड़ी। परन्तु जीत को बहुत दफ़ उसके पास जाने का कष्ट ही न उठाना पड़ा। राजा अतिथि का प्रताप-वृत्तान्त सुन कर ही उसके शत्रुओं का सारा उत्साह भन्न हो गया। अतएव अतिथि को उनके साथ युद्ध करने की बहुत ही कम आवश्यकता पड़ी। युद्ध उसे प्रायः दुर्लभ सा होगया। मद की उग्र गन्ध के कारण मतवाले हाथी से और हाथी जैसे दूर भागते हैं वैसे ही अतिथि के शत्रु भी उसके प्रतापपुञ्ज की प्रखरता के कारण सदा उससे दूर ही रहे। उन्होंने उसका मुकाबला ही न किया।

बहुत बढ़ती होने पर सागर और शशाङ्क दोनों को क्षीणता प्राप्त होती है। उनकी बढ़ती सदा ही एक सी नहीं बनी रहती। परन्तु राजा अतिथि की बढ़ती सदा एक रस ही रही। चन्द्रमा और महासागर की वृद्धि का तो उसने अनुकरण किया; पर उनकी क्षीणता का अनुकरण न किया। वह बढ़ कर कभी क्षीण न हुआ।

अतिथि की दानशीलता भी अद्वितीय थी। कोई भी साक्षर सज्जन, चाहे वह कितना ही दरिद्री क्यों न हो, यदि उसके पास याचक बन कर
गया तो उस ऐश्वर्यशाली ने उसे इतना धन दिया कि वह याचक स्वयं ही दाता बन गया-उसका आचरण मेघों का सा हो गया। मेघ जैसे पहले तो समुद्र के पास याचक बन कर जल लेने जाते हैं, पर पीछे से उसी जल का दान वे दूसरों को देते हैं, वैसे ही अतिथि के याचक भी उससे अनन्त धनराशि पा कर और उसे औरों को देकर दाता बन गये।

अतिथि ने जितने काम किये सब स्तुतियोग्य ही किये। कभी उसने कोई काम ऐसा न किया जो प्रशंसायोग्य न हो। परन्तु, सर्वथा प्रशंसनीय होने पर भी, यदि कोई उसकी स्तुति करता तो वह लज्जित होकर अपना सिर नीचा कर लेता। वह प्रशंसा चाहता ही न था। प्रशंसकों और स्तुतिकर्ताओं से वह हादिक द्वष रखता था। तिस पर भी उसका यश कम होने के बदले दिन पर दिन बढ़ता ही गया। उदित हुए सूर्य की तरह अपने दर्शन से प्रजा के पाप, और तत्त्वज्ञान के उपदेश से प्रजा के अज्ञानरूपी तम, को दूर करके उसने अपने प्रजा-वर्ग को सदा के लिए अपने अधीन कर लिया। उसके गुणों पर उसके शत्रु तक मोहित हो गये। कलाधर की किरणें कमलों के भीतर, और दिनकर की किरणे कुमुद-कोशों के भीतर, नहीं प्रवेश पा सकतौं। परन्तु अतिथि जैसे महागुणी के गुणों ने उसके वैरियों के हृदयों तक में प्रवेश पा लिया।

अतिथि ने साधारण राजाओं के लिए अति दुष्कर अश्वमेध-यज्ञ भी कर डाला। इस कारण उसे दिग्विजय करना पड़ा। यद्यपि नीति में लिखा है कि छल से भी वैरी को जीतना चाहिए। अश्वमेध जैसे कार्य के निमित्त युद्ध करने में इस नीति के अनुसार काम करना तो और भी अधिक युक्तिसङ्गत था। तथापि राजा अतिथि ने धर्म के अनुकूल ही युद्ध करके दिग्विजय किया। अधर्म और अन्याय का उसने एक बार भी अव- लम्बन न किया।

इस प्रकार सदा ही शास्त्रसम्मत मार्ग पर चलने के कारण अतिथि का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह-देवताओं के देवता इन्द्र के समान- राजाओं का भी राजा हो गया।

राजा अतिथि को इन्द्र आदि चार दिक्पालों, पृथ्वी आदि पाँच महा- भूतों और महेन्द्र प्रादि सात कुल-पर्वतों के सदृश ही काम करते देख,
साधर्म्य के कारण, सब लोग अतिथि को पाँचबाँ दिकपाल, छठा महाभूत और आठवाँ कुल-पर्वत कहने लगे।

राजा अतिथि के प्रताप और प्रभाव का सर्वत्र सिक्का बैठ गया। देवता लोग जैसे देवेन्द्र की आज्ञा को सिर झुका कर मानते हैं वैसे ही शासनपत्रों में दी गई राजा अतिथि की आज्ञा को, देश-देशान्तरों तक के भूपाल, अपने छत्रहीन सिर झुका झुका कर, मानने लगे। अश्वमेध-यज्ञ में उसने ऋत्विजों को इतना धन देकर उनका सम्मान किया कि वह भी कुवेर कहा जाने लगा---उसके और कुवेर के काम में कुछ भी अन्तर न रह गया।

राजा अतिथि के राजत्व-काल में इन्द्र ने यथासमय जल बरसाया। रोगों की वृद्धि रोक कर यम ने अकालमृत्यु को दूर कर दिया। जहाज़ों और नावों पर आने जाने वालों के सुभीते के लिए वरुण ने जलमागों को हर तरह सुखकर और सुरक्षित बना दिया। अतिथि के पूर्वजों के लिहाज़ से कुवेर ने भी उसके ख़ज़ाने को खूब भर दिया। अतएव यह कहना चाहिए कि दिकपालों ने-दण्ड के डर से अतिथि के वशीभूत हुए लोगों के सदृश ही-उसके साथ व्यवहार किया। अर्थात् वे भी उसके अधीन से होकर उसके काम करने लगे।