रघुवंश/१४—सीता का परित्याग

रघुवंश
कालिदास, अनुवादक महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ २७१ से – २९० तक

 

चौदहवाँ सर्ग।

-::-

सीता का परित्याग।

वहाँ, उस उद्यान में, रामचन्द्र और लक्ष्मण को, एकही साथ, अपनी अपनी माता के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि पति के मरने से उनकी दोनों मातायें, कौशल्या और सुमित्रा, आश्रयदाता वृक्ष के कट जाने से दो लताओं के समान बहुतही शोचनीय दशा को प्राप्त हैं । वैरियों का विनाश करके लौटे हुए परम पराक्रमी राम-लक्ष्मण ने, उनके पैरों पर अपने अपने सिर रख कर, क्रम क्रम से उन्हें प्रणाम किया। चौदह वर्ष के बाद पुत्रों की पुनरपि प्राप्ति होने के कारण उनकी आँखों में आँसू भर आये। अतएव वे राम-लक्ष्मण को अच्छी तरह न देख सकी। परन्तु पुत्र-स्पर्श से जो सुख होता है उसका उन्हें अनुभव था। इससे स्पर्श-सुख होने पर, भूतपूर्व अनुभव द्वारा, उन्होंने अपने अपने पुत्र को पहचान लिया। उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनकी आँखों से आनन्द के शीतल आँसुओं की झड़ी लग गई। उस झड़ी ने उनके शोक के आँसुओं को इस तरह तोड़ दिया जिस तरह कि हिमालय के गले हुए बर्फ की धारा, धूप से तपे हुए गङ्गा और सरयू के जल के प्रवाह को तोड़ देती है। वे अपने शोक को भूल गई । पुत्र-दर्शन से उनका दुःख सुख में बदल गया। वे अपने अपने पुत्र के शरीर पर धीरे धीरे हाथ फेरने, और, उस पर राक्षसों के शस्त्रों के आघात से उत्पन्न हुए घावों के चिह्नों को इस तरह दयार्द्र होकर छूने लगी, मानों वे अभी हाल के लगे हुए टटके घाव हों। क्षत्रिय जाति की स्त्रियों की यह सदाही कामना रहती है कि वे वीरप्रसू कहलावें-उनके पुत्र शूरवीर और योद्धा हो । परन्तु राम-लक्ष्मण के शरीर

पर शस्त्रों के चिह्न देख कर कौशल्या और सुमित्रा ने वीरप्रसू-पदवी की
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आकाङक्षा न की । उन्होंने कहा-हम वीरजननी नहीं कहलाना चाहतीं। हमारे प्यारे पुत्रों को इस प्रकार शस्त्राघात की व्यथा न सहनी पड़ती तो अच्छा होता।

इतने में अपने स्वर्गवासी श्वसुर की दोनों रानियों, अर्थात् कौशल्या और सुमित्रा, को समान भक्ति-भाव से प्रणाम करते हुए सीता ने कहा:-"माँ ! पति को दुःख देनेवाली, आपकी बहू, यह कुल- क्षणी सीता आपकी वन्दना करती है।" यह सुन कर उन दोनों रानियों ने कहा:-"बेटी! उठ । यह तेरेही पवित्र आचरण का प्रभाव है जो इतना बड़ा दुःख झेल कर भाई सहित तेरा पति फिर हमें देखने को मिला ।" इसमें सन्देह नहीं कि सीता जैसी सुलक्षणी और सब की प्यारी बहू के विषय में ऐसे ही प्यारे वचनों का प्रयोग उचित था। कौशल्या और सुमित्रा के ये वचन तो प्यारे होकर सच भी थे। अतएव, उनके प्रयोग के औचित्य का कहना ही क्या ?

रघुकुल-केतु रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक का प्रारम्भ तो उनकी दोनों माताओं के आँसुओं से, पहले ही, हो चुका था। पूर्ति उसकी होने को थी। सो वह सोने के कलशों में तीर्थों से लाये गये जलों से बूढ़े बूढ़े मन्त्रियों के द्वारा हुई। राक्षसों और बन्दरों के नायक चारों तरफ़ दौड़ पड़े। समुद्रों, सरोवरों और नदियों से भर भर कर वे जल ले आये । वह जल-विन्ध्याचल के ऊपर मेघों के जल की तरह-विजयी रामचन्द्र के शीश पर डाला गया । यथाविधि उनका राज्याभिषेक हुआ। तपस्वी का वेश भी जिसका इतना दर्शनीय था उसके राजेन्द्र-रूप की शोभा बहुत ही बढ़ जायगी, इसमें सन्देह करने को जगह ही कहाँ ? वह तो पुनरुक्तदोषा, अर्थात् दुगुनी, हो गई। एक तो रामचन्द्र की स्वाभाविक शोभा, दूसरी राजसी-रूप-रचना की शोभा। फिर भला वह दुगुनी क्यों न हो जाय ?

तदनन्तर मन्त्रियों, राक्षसों और बन्दरों को साथ लिये और तुरहियों के नाद से पुरवासियों के समूह को आनन्दित करते हुए रामचन्द्र ने, तोरणों और बन्दनवारों से सजी हुई, अपने पूर्व-पुरुषों की राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश के समय अयोध्या के ऊँचे ऊँचे मकानों से उन पर खीलों की बेहद वर्षा हुई। लोगों ने देखा कि रामचन्द्रजी रथ पर सवार

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हैं। लक्ष्मण और शत्रुघ्न, दोनों भाई, उन पर मन्द मन्द चमर कर रहे हैं। भरत, पीछे, उन पर छत्र धारण किये हुए खड़े हैं । उस समय देखनेवालों को वे अपने भाइयों सहित, साक्षात् साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों उपायों के समुदाय की तरह मालूम हुए।

रामचन्द्रजी के प्रवेश-समय में, अयोध्या के महलों के ऊपर छाये हुए कालागरु के धुर्वे की ध्वजा, वायु के झोंकों से टूट कर, इधर उधर फैल गई। उसे देख कर ऐसा मालूम हुआ जैसे वन से लौट कर रामचन्द्रजी ने अपनी पुरी की वेणी अपने हाथ से खोल दी हो। जब तक पति परदेश में रहता है तब तक पतिव्रता स्त्रियाँ कंघी-चोटी नहीं करतों; वे अपनी वेणी तक नहीं खोलतों । अपने स्वामी रामचन्द्र के वनवासी होने से अयोध्यापुरी भी, पतिव्रता स्त्री की तरह, मानों अब तक वियोगिनी थी। इसी से रामचन्द्र ने उसकी वेणी खोल कर उसके वियोगीपन का चिह्न दूर कर दिया।

जिस समय कीरथ नाम के एक छोटे से सुसज्जित रथ पर सवार हुई सीताजी ने पुरी में प्रवेश किया उस समय अयोध्या की स्त्रियों ने, अपने अपने मकानों की खिड़कियों से, दोनों हाथ जोड़ जोड़ कर, उन्हें इस तरह खुल कर प्रणाम किया कि उनके हाथों की अँजुलियाँ बाहर वालों को भी साफ दिखाई दी। सीताजी का उस समय का वेश बड़ा ही सुन्दर था। उनकी दोनों सासुओं ने, अपने हाथ से उनका श्रृंगार करके, उन्हें अच्छे अच्छे कपड़े और गहने पहनाये थे । अनसूया का दिया हुआ उबटन उनके बदन पर लगा हुआ था । वह कान्तिमान उक्टन कभी खराब होनेबाला न था। उससे प्रभा का मण्डल निकल रहा था । सीताजी के चारों ओर फैले हुए उस प्रभा-मण्डल को देख कर यह मालूम होता था मानों रामचन्द्र ने उन्हें फिर आग के बीच में खड़ा करके अयोध्या को यह दिखाया है कि सीताजी सर्वथा शुद्ध हैं। अतएव, उनको ग्रहण करके मैंने कोई अनुचित काम नहीं किया।

रामचन्द्रजी मित्रों का सत्कार करना खूब जानते थे। सौहार्द के तो

वे सागरही थे। विभीषण, सुग्रीव और जाम्बुवान आदि अपने मित्रों को, अच्छे अच्छे सजे हुए मकानों में ठहरा कर, और, उनके आराम का उत्तम प्रबन्ध करके वे.पिता के पूजाघर में गये। वहाँ पिता के तो दर्शन उन्हें हुए
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नहीं। उनकी पूजा की सामग्रो और चित्रमात्र वहाँ उन्हें देख पड़ा। घर के भीतर घुसते ही रामचन्द्र की आँखों से आँसू टपक पड़े। सामने कैकेयी को देख कर उन्होंने बड़ेही विनीत-भाव से कहा:-"माता! सत्य पर स्थिर रहने का फल स्वर्ग की प्राप्ति है। ऐसे कल्याणकारी सत्य से जो पिता नहीं डिगे, यह तुम्हारे ही पुण्य का प्रताप है। बार बार सोचने पर भी मुझे, तुम्हारे पुण्य के सिवा इसका और कोई कारण नहीं देख पड़ता। तुम्हारी ही कृपा से उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई है।" रामचन्द्रजी के मुँह से यह सुन कर भरत की माता का सारा सङ्कोच दूर हो गया। अब तक कैकेयी अपनी करतूत पर लज्जित थी। पर रामचन्द्रजी के उदार वचन सुन कर उसकी सारी लज्जा जाती रही।

रामचन्द्र ने सुग्रीव और विभीषण आदि की सेवा-शुश्रूषा में ज़रा भी कसर न पड़ने दी। उन्होंने नाना प्रकार की कृत्रिम वस्तुओं से उनका खूबही सत्कार किया। उनके मन में भी जिस वस्तु की इच्छा उत्पन्न हुई वह तुरन्तही उन्हें प्राप्त हो गई । माँगने की उन्हें ज़रूरतही न पड़ी। उनके मन तक की बात ताड़ कर, रामचन्द्र के सेवकों ने, तत्कालही, उसकी पृत्ति कर दी । मुँह से किसी को कुछ कहने की उन्होंने नौबतही न आने दी । रामचन्द्रजी का ऐसा अच्छा प्रबन्ध और उनके नौकरों की इतनी दक्षता देख कर विभीषण आदि को बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

रामचन्द्रजी से मिलने और उनका अभिनन्दन करने के लिए अगस्त्य आदि कितने ही दिव्य ऋषि और मुनि भी अयोध्या आये। रामचन्द्र ने उन सबका अच्छा आदर सत्कार किया। उन्होंने रामचन्द्र के हाथ से मारे गये उनके शत्रु रावण का वृत्तान्त, जन्म से प्रारम्भ करके मृत्यु-पर्यन्त, रामचन्द्र को सुनाया। इस वृत्तान्त से रामचन्द्र के पराक्रम का और भी अधिक गौरव सूचित हुआ। रामचन्द्र की स्तुति और प्रशंसा करके वे लोग अपने अपने स्थान को लौट गये।

राक्षसों और बन्दरों के स्वामियों को अयोध्या आये पन्द्रह दिन हो

गये। परन्तु उन्हें रामचन्द्र ने इतने सुख से रक्खा कि उन्हें मालूम ही न हुआ कि इतने दिन कैसे बीत गये। उनका एक एक दिन एक एक घंटे की तरह कट गया। उनको सब तरह सन्तुष्ट करके रामचन्द्र ने उन्हें घर
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जाने की आज्ञा दी । उस समय सीताजी ने स्वयं अपने हाथ से बहुमूल्य भेटें देकर उन्हें बिदा किया।

जिस पुष्पक विमान पर बैठ कर रामचन्द्रजी लङ्का से आये थे वह कुवेर का था। रावण उसे कुवेर से छीन लाया था। अतएव रावण के मारे जाने पर वह रामचन्द्र का हो गया था। अथवा यह कहना चाहिए कि रावण के प्राणों के साथ उसे भी रामचन्द्र ने ले लिया था। वह विमान क्या था आकाश का फूल था । आकाश में वह फूल के सदृश शोभा पाता था। रामचन्द्र ने उससे कहा- "जाव, तुम फिर कुवेर की सवारी का काम दो। जिस समय मैं तुम्हारी याद करूँ, आ जाना।"

इस प्रकार, अपने पिता की आज्ञा से चौदह वर्ष वनवास करने के अनन्तर, रामचन्द्रजी को अयोध्या का राज्य प्राप्त हुआ। राजा होने पर जिस तरह उन्होंने धर्म, अर्थ और काम के साथ, पक्षपात छोड़ कर, एक सा व्यवहार किया उसी तरह उन्होंने अपने तीनों छोटे भाइयों के साथ भी व्यवहार किया। सब को उन्होंने तुल्य समझा। अपने व्यवहार में उन्होंने ज़रा भी विषमता नहीं आने दी। माताओं के साथ भी उन्होंने एक ही सा व्यवहार किया। उसकी प्रीति सब पर समान होने के कारण किसी के भी आदर में उन्होंने न्यूनाधिकता नहीं होने दी। छः मुखों से दूध पी गई कृत्तिकाओं पर स्वामिकार्तिक के समान, तीनों माताओं पर रामचन्द्र ने एक सी वत्सलता प्रकट की।

रामचन्द्र ने अपनी प्रजा का पालन बहुत ही अच्छी तरह किया । लालच उनको छू तक न गया; इससे उनकी प्रजा धनाढ्य हो गई। विघ्नों से उत्पन्न हुए भय का नाश करने में उन्होंने सदा तत्परता दिखाई; इससे उनकी प्रजा धार्मिक हो गई-घर घर धर्मानुष्ठान होने लगे। नीति का अवलम्बन करके उन्होंने किसी को ज़रा भी सुमार्ग से न हटने दिया; इससे उनकी प्रजा उन्हें अपना पिता समझने लगी । प्रजा का दुख-दर्द दूर करके सबको उन्होंने सुखी कर दिया। इससे प्रजा उन्हें पुत्रवत् प्यार करने लगी। सारांश यह कि रामचन्द्र की प्रजा उन्हीं से धनवती, उन्हीं से क्रियावती, उन्हीं से पितृवती और उन्हीं से पुत्रवती हुई।

पुरवासियों का जो काम जिस समय करने को होता उसे रामचन्द्र
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उसी समय कर डालते । समय को वे कभी व्यर्थ न खेाते। राज्य के काम काज करके जो समय बचता उसे वे सीता के साथ, एकान्त में बैठ कर, व्यतीत करते । सीता के रूप-लावण्य आदि की प्रशंसा नहीं हो सकती । रामचन्द्रजी के समागम का सुख लूटने के लिए, सीता का सुन्दर रूप धारण करके, मानों स्वयं लक्ष्मी ही उनके पास आ गई थी। रामचन्द्रजी के महल उत्तमोत्तम चित्रों से सजे हुए थे । दण्डकारण्य के प्राकृतिक दृश्यों और मुख्य मुख्य स्थानों के भी चित्र वहाँ थे । उन चित्रों को देख कर सीता के साथ बैठे हुए रामचन्द्र को दण्डक-वन की दुःखदायक बातें भी याद आ जाती थी। परन्तु उनसे उन्हें दुःख के बदले सुख ही होता था।

प्रजा के काम से छुट्टी पाने पर, रामचन्द्रजी, सीता के साथ, इच्छापूर्वक, इन्द्रियों के विषय भोग करने लगे। इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने पर सीता के मुख पर शर-नामक घास के रङ्ग का पीलापन दिखाई दिया। उनके नेत्र पहले से भी अधिक पानीदार, अतएव और भी सुन्दर, हो गये। सीता ने इन चिह्नों से, बिना मुँह से कहे ही, अपने गर्भवती होने की सूचना रामचन्द्र को कर दी । रामचन्द्र को सीता का हाल मालूम हो गया । अतएव उन्हें बड़ी खुशी हुई । वह रूप, उस समय, उनको बहुत हो अच्छा मालूम हुआ। धीरे धीरे सीता का शरीर बहुत कृश हो गया । गर्भधारण के चिह्न और भी स्पष्ट दिखाई देने लगे। अतएव उन्हें रामचन्द्रजी के सामने होने अथवा उनके पास बैठने में लज्जा मालूम होने लगी। परन्तु उनकी सलज्जता और गर्भ-स्थितिसूचक उनका शरीर देख कर रामचन्द्र को प्रसन्नता होती थी।

एक दिन सीताजी को अपने पास बिठा कर रमणशील रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक उनसे पूछा :-

"प्रिये वैदेहि ! तेरा मन, इस समय, किसी वस्तु-विशेष की इच्छा तो नहीं रखता? तुझे अपने मन का अभिलाष, सङ्कोच छोड़ कर, मुझ पर प्रकट करना चाहिए।"

इस पर सीताजी ने कहा :-

"भागीरथी के तीरवर्ती तपोवनों का फिर एक बार मैं दर्शन करना

चाहती हूँ। मेरा जी चाहता है कि मैं फिर कुछ दिन वहाँ जाकर रहूँ।
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आहा ! वे कैसे मनोहारी तपोवन हैं। कुश वहाँ बहुत होते हैं; उनसे उन तपोवनों की भूमि हरी दिखाई देती है। जङ्गल के हिंस्र पशु, मांस खाना छोड़ कर, मुनियों के बलि-वैश्वदेव-कार्य में उपयोग किये जाने वाले साँवा, कोदों और धान आदि जङ्गली धान्य, वहाँ, आनन्द से खाया करते हैं। वहाँ रहने वाले मुनियों की कितनी ही कन्यकाओं से मेरी मैत्री भी है। अतएव, मेरे मनोविनोद का बहुत कुछ सामान वहाँ है। इसीसे मेरा मन वहाँ जाने को ललचाता है।"

रामचन्द्र ने कहा :-

"बहुत अच्छा । मैं तेरी इच्छा पूर्ण कर दूंगा।"

सीता का मनोरथ सफल कर देने का वचन देकर रामचन्द्रजी, एक सेवक को साथ लिये हुए, अयोध्या का दृश्य देखने के इरादे से, अपने मेघस्पर्शी महल की छत पर चढ़ गये । उन्होंने देखा कि अयोध्या में सर्वत्र ही प्रसन्नता के चिह्न वर्तमान हैं। राज मार्ग की दूकानों में लाखों रुपये का माल भरा हुआ है; सरयू में बड़ी बड़ी नावें चल रही हैं; नगर के समीपवर्ती उपवनों और बागीचों में बैठे हुए विलासी पुरुष आनन्द कर रहे हैं।

इस दृश्य को देख कर शेषनाग के समान लम्बी भुजाओं वाले और विश्व-विख्यात शत्रु का संहार करनेवाले, विशुद्ध-चरित, रामचन्द्रजी बहुत ही प्रसन्न हुए। मौज में प्राकर, उस समय, वे भद्र नामक अपने विश्वस्त सेवक से अयोध्या का हाल पूछने लगे। उन्होंने कहा :-

"भद्र ! कहो, क्या खबर है ? मेरे विषय में लोग क्या कहते हैं ? आज कल नगर में क्या चर्चा हो रही है ?". .

इस प्रकार रामचन्द्र के आग्रहपूर्वक बार बार पूछने पर भद्र बोला:- 'हे नरदेव, अयोध्या के निवासी आपके सभी कामों की प्रशंसा करते हैं। वे आपके चरित को बहुत ही प्रशंसनीय समझते हैं। हाँ, एक बात को वे अच्छा नहीं कहते-राक्षस के घर में रही हुई रानी को ग्रहण कर लेना वे बुरा समझते हैं। बस, आपके इसी एक काम की निन्दा हो रही है।"

यह सुन कर वैदेही-वल्लभ रामचन्द्रजी के हृदय पर कड़ी चोट लगी। पुत्री सम्बन्धिनी इस निन्दा को उन्होंने अपने लिए बहुत बड़े अपयश का
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कारण समझा। उससे उनका ह्रदय-लोहे के घोर घन के आघात से तपे हुए लोहे के समान-विदीर्ण हो गया । वे गहरे विचार में मग्न हो गये। वे सोचने लगेः—यह जो मुझ पर कलङ्क लगाया जाता है उसकी बात मैं सुनी अनसुनी करदूँ या निर्दोष पत्नी को छोड़ दूँ ? क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता ? कुछ देर तक, इन दोनों बातों में से एक का भी निश्चय उनसे न हो सका । उनका चित्त झूले की तरह चलायमान होकर कभी एक की तरफ चला गया कभी दूसरी की तरफ़ । अन्त में उन्होंने स्थिर किया कि यह कलङ्क और किसी तरह नहीं मिट सकता। इसे दूर करने के लिए पत्नी-त्याग के सिवा और कोई इलाज ही नहीं। अतएव उन्होंने सीता का परित्याग कर देना ही निश्चित किया। सच तो यह है कि जो लोग यश को ही सब धनों से श्रेष्ठ समझते हैं उन्हें अपने शरीर से भी यश अधिक प्यारा होता है। धन-सम्पत्ति, भोगविलास और स्त्री-पुत्र आदि से भी वह अधिक प्यारा होगा, इसके कहने को तो आवश्यकता ही नहीं।

रामचन्द्र पर इस घटना का बहुत बुरा असर हुआ। उनका तेज क्षीण हो गया। उनके चेहरे पर उदासीनता छा गई। उन्होंने अपने तीनों भाइयों को बुला भेजा। वे आये तो उन्होंने रामचन्द्रजी की बुरी दशा देखी । अतएव वे घबरा गये। उनसे रामचन्द्र ने अपनी निन्दा का वृत्तान्त वर्णन करके कहा:-

"भाई ! जिस वंश के हम लोग अंकुर हैं वह सूर्य से उत्पन्न हुए

राजर्षियों का वंश है । उसी पर इस कलङ्क का आरोप हुआ है। यह तो तुमसे छिपा ही नहीं कि मेरा आचरण सर्वथा शुद्ध है। तथापि मुँह की भीगो हुई वायु के कारण उत्पन्न हुए स्वच्छ दर्पण के धब्बे की तरह--मेरे कारण इस उज्ज्वल वंश पर कलङ्क का यह टीका लग रहा है। पानी की लहरों में तेल की बूँद की तरह, यह पुरवासियों में फैलता ही चला जा रहा है । आज तक, इस वंश पर, इस तरह का कलङ्क कभी न लगा था। यह पहला ही मौक़ा है। अतएव, हाथी जैसे अपने बन्धनस्तम्भ को नहीं सह सकता वैसे ही मैं भी इसे नहीं सह सकता। मुझे यह अत्यन्त असह्य है। इसे मेटने के लिए--इससे बचने के लिए--मैं जनक- सुता को उसी तरह त्याग दूंगा जिस तरह कि पिता की आज्ञा से, आगे, मैंने पृथ्वी त्याग दी
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थी। जानकी में यद्यपि शीघ्र ही फलोत्पत्ति होने वाली है-यद्यपि उनका प्रसूति-काल समीप आ गया है-तथापि मैं इस बात की भी कुछ परवा न करूँगा। मैं जानता हूँ कि जानकी सर्वथा निर्दोष है। अतएव, पुरवासी उसके विषय में जो सन्देह करते हैं वह सच नहीं। परन्तु मेरे मत में लोकापवाद बहुत प्रबल वस्तु है; उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। देखो न, चन्द्रमा में कलङ्क का नाम नहीं । वह सर्वथा शुद्ध और निर्मल है। परन्तु उस पर पृथ्वी की जो छाया पड़ती है उसी को लोगों ने कलङ्कमान रक्खा है। तुम शायद यह कहो कि जानकी को जो घर से निकालना ही था तो रावण पर चढ़ाई करके उसे मारने का परिश्रम व्यर्थ ही क्यों मैंने उठाया। परन्तु, रावण को मारने में मुझे जो प्रयास पड़ा उसे मैं व्यर्थ नहीं समझता! उससे वैर का बदला लेना मेरा कर्तव्य था । और, इस तरह का बदला किसी लाभ की आशा से थोड़े ही लिया जाता है। पैर से दबा देने वाले को साँप, क्रोध में आकर, जो काट खाता है वह क्या उसका लोहू पीने की आकांक्षा से थोड़े ही काटता है। साँप कभी रुधिर नहीं पीता । वह तो केवल बदला लेने ही के लिए काटता है। अतएव, तिर्यक-योनि में उत्पन्न साँप तक जब अपने वैरी से वैर का बदला लेता है तब मैं क्यों न लूं ? इसमें सन्देह नहीं कि मेरा निश्चय सुन कर तुमको जानकी पर दया आवेगी--तुम्हारा हृदय करुणा से द्रवीभूत हो उठेगा। परन्तु, यदि तुम चाहते हो कि इस कलङ्करूपी पैने बाण से छिदे हुए अपने प्राण मैं कुछ दिन तक और धारण किये रहूँ तो तुम्हें जानकी का परित्याग करने से मुझे न रोकना चाहिए।"

रामचन्द्र को जानकीजी के साथ ऐसा क्रूर और कठोर व्यवहार करने का ठान ठाने देख, उनके तीनों भाई-लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न-सहसा सहम गये। उनमें से किसी के भी मुँह से 'हाँ' या 'नहीं' न निकला । न उन्होंने वैसा व्यवहार करने से रामचन्द्र को मना ही किया और न उनकी इच्छा के अनुकूल सलाह ही दी । सन्नाटे में आकर सब चुपचाप बैठे रह गये ।

यह दशा देख कर सदा सत्यवादी और तीनों लोकों में विख्यात-कीर्ति रामचन्द्र ने अपने परम आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण की तरफ़ देखा और उन्हें अलग एकान्त में ले गये । वहाँ उनसे बे बोले:
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"हे सौम्य ! तुम्हारी भौजाई मुनियों के तपोवनों में जाना चाहती है। गर्भवती होने के कारण, उसके मन में, वहाँ जाने की इच्छा, आपही आप, उत्पन्न हुई है। और, उसे यहाँ से हटा देना मैं चाहता भी हूँ। अतएव, इसी बहाने, रथ पर सवार होकर तुम उसे वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आओ । इससे उसकी इच्छा भी पूर्ण हो जायगी और मेरा अभीष्ट भी सिद्ध हो जायगा।"

पिता की आज्ञा से परशुराम ने अपनी माता के साथ शत्रुवत् व्यवहार करके उसका सिर काट लिया था—यह बात लक्ष्मण अच्छी तरह जानते थे। अतएव, उन्होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा मान ली। बात यह है कि बड़ों की आज्ञा का पालन, बिना किसी सोच-विचार के, करना ही चाहिए। वे जो कहें, चाहे वह भला हो चाहे बुरा, उसे चुपचाप कर डालना ही मनुष्य का धर्म है।

लक्ष्मण ने जानकीजी से जाकर कहा कि बड़े भाई ने तुम्हें तपोवन को ले जाने की आज्ञा दी है। वे तो यह चाहती ही थीं। अतएव, बहुत प्रसन्न हुई। सुमन्त ने ज़रा भी न भड़कनेवाले घोड़े रथ में जोत दिये। उसने मन में कहा-सधे हुए ही घोड़े जोतने चाहिए; चञ्चल घोड़े जोतने से, सम्भव है, जानकीजी को कष्ट हो । रथ तैयार होने पर, सुमन्त ने घोड़ों की रास हाथ में ली और लक्ष्मण ने जानकीजी को उस पर बिठा कर अयोध्या से प्रस्थान कर दिया । बड़े ही अच्छे मार्ग से सुमन्त ने रथ हाँका । मनोहारी दृश्यों और स्थानों को देखती हुई जानकीजी चलीं । मन में यह सोच कर वे बहुत प्रसन्न हुई कि मेरा पति मेरा इतना प्यार करता है कि मेरी इच्छा होते ही उन्होंने मुझे तपोवन का फिर दर्शन करने के लिए भेज दिया। हाय ! उन्हें यह खबर ही न थी कि उनके पति ने उनके विषय में कल्पवृक्ष के स्वभाव को छोड़ कर असिपत्र -वृक्ष के स्वभाव को ग्रहण किया है ! रामचन्द्रजी अब तक तो जानकी के लिए कल्पवृक्ष अवश्य थे; परन्तु अब वे नरक के असिपत्र नामक उस पेड़ के सदृश हो गये थे जिसके.पत्त तलवार की धार के सदृश काट करते हैं।

रास्ते में भी लक्ष्मण ने सीताजी से असल बात न बताई । परन्तु जिस दुःसह भावी दुःख को उन्होंने छिपा रक्खा उसे सीताजी की दाहनी

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आँख ने फड़क कर बता ही दिया । सीताजी की आँखों के लिए रामचन्द्र का दर्शन बहुत ही प्यारा था। उन्हें देख कर उनकी आँखों को परमानन्द होता था। उस आनन्द से वे,और उनके द्वारा स्वयं सीताजी,चिरकाल के लिए वञ्चित होनेवाली थीं। इसी से उनकी दाहनी आँख से न रहा गया । फड़क कर उसने उस भावी दुःख की सूचना कर ही दी। इस बुरे शकुन ने सीताजी को विकल कर दिया । उनका मुखारविन्द कुम्हला गया। उस पर बेतरह उदासीनता छा गई । मुँह से तो उन्होंने कुछ न कहा। पर अन्तःकरण से वे परमेश्वर की प्रार्थना करने लगी। उन्होंने मन ही मन कहा:"भाइयों सहित राजा का भगवान कल्याण करे !"

मार्ग में आगे बहती हुई गङ्गाजी मिलीं । बड़े भाई की आज्ञा से, वन में छोड़ आने के लिए,उनकी पतिव्रता और सुशीला पत्नी को,ले जाते देख,गङ्गा ने अपने तरङ्गरूपी हाथ उठा कर लक्ष्मण से मानों यह कहा कि खबरदार,ऐसा काम न करना ! इन्हें छोड़ना मत ! गङ्गा के किनारे सुमन्त ने रथ खड़ा कर दिया और लक्ष्मण ने रथ से उतर कर अपनी भावज को भी उतार लिया । तब तक उस घाट का मल्लाह एक सुन्दर नाव ले आया। सत्यप्रतिज्ञ लक्ष्मण उसी पर सीताजी को चढ़ा कर गङ्गा के पार उतर गये । पार क्या उतर गये,मानों बड़े भाई की आज्ञा से, सीताजी को वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आने के लिए उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसके वे पार हो गये। उन्होंने उसकी पूर्ति सी कर दी।

गङ्गा के उस पार पहुँचने पर जब रामचन्द्र की आज्ञा सुनाने का

कठिन प्रसङ्ग उपस्थित हुआ तब लक्ष्मण की आँखें डब डबा आई । उनका कण्ठ सँध गया। कुछ देर तक उनके मुँह से शब्द ही न निकला। खैर,हृदय को कड़ा करके,किसी तरह,उन्होंने,उत्पात मचानेवाले मेघ से पत्थरों की वृष्टि के समान,अपने मुँह से राजा की वह दारुण आज्ञा उगल दी। उसे सुनते ही तिरस्कार- रूपी तीव्र लू की मारी सीताजी,लता की तरह,अपनी जन्मदात्री धरणी पर धड़ाम से गिर गई और उनके प्राभरणरूपी फूल उनके शरीर से टपक पड़े । विपत्ति में स्त्रियों को माता ही याद आती है। चाहे वह उनका दुःख दूर कर सके चाहे न कर सके, सहारा उसका ही स्त्रियों को लेना पड़ता है। हाय ! माता धरणी ने
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सीता का दुःख दूर न किया । वह फटती तो उसके भीतर सीवा- जी प्रवेश कर जाती । पर वह न फटी । उसे अपनी सुता के परित्याग में सन्देह सा हो आया। उसने अपने मन में मानों कहा:-"तेरे पति का आचरण बहुत ही शुद्ध है; वह बड़ा ही साधुचरित है। वह महाकुलीन भी है, क्योंकि इक्ष्वाकु के वंश में उसने जन्म पाया है। फिर भला, इस तरह, अकस्मात् बिना किसी कारण के, वह तुझे कैसे छोड़ सकता है ! मुझे इस आज्ञा पर विश्वास नहीं । इससे मैं तुझे अपने भीतर नहीं बिठा सकती।"

जब तक जानकीजी मूर्च्छित पड़ी रहीं तब तक उन्हें दुःख से छुटकारा रहा। ज्ञानेन्द्रियों का व्यापार नष्ट हो जाने से दुःख का भी उन्हें ज्ञान न हुआ । लक्ष्मणजी ने उनके मुख पर पानी छिड़क कर और पंखा झल कर उन्हें जब फिर सचेत किया तब उनका हृदय दुःखाग्नि से बेतरह जल उठा। सचेत होना उन्हें मूर्च्छित होने से भी अधिक दुःखदायक हुआ। आहा! जानकीजी की सुशीलता का वर्णन नहीं हो सकता। यद्यपि उनके पति ने उन्हें, निरपराध होने पर भी, घर से निकाल दिया, तथापि, उनके मुँह से, पति के विषय में, एक भी दुर्वचन न निकला। उन्होंने बार बार अपने ही को धिक्कारा; बार बार अपनीही निन्दा की; बार बार जन्म के दुखिया अपने ही जीवन का तिरस्कार किया।

लक्ष्मण ने महासती सीताजी को बहुत कुछ आसा-भरोसा देकर और बहुत कुछ समझा बुझा कर वाल्मीकि मुनि के आश्रम का रास्ता बता दिया और वहीं जाकर रहने की सलाह दी। फिर उन्होंने सीताजी के पैरों पर गिर कर उनसे प्रार्थना कीः-

"हे देवी ! मैं पराधीन हूँ। पराधीनता ही ने मुझसे ऐसा क्रूर कर्म कराया है। स्वामी की आज्ञा से मैंने आपके साथ जो ऐसा कठोर व्यवहार किया है उसके लिए आप मुझे क्षमा करें । मैं, अत्यन्त नम्र होकर, आपसे तमा की भिक्षा माँगता हूँ।"

सीताजी ने लक्ष्मण को झट पट उठा कर उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया:-

"हे सौम्य ! तुम बड़े सुशील हो । मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम

चिरञ्जीव हो ! तुम्हारा इसमें कोई दोष नहीं । तुम तो अपने जेठे भाई के
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रघुवंश।

उसी तरह अधीन हो जिस तरह कि विष्णु इन्द्र के अधीन हैं । और, स्वामी की आज्ञा का पालन करना अधीन का कर्तव्य ही है।

"मेरी सब सासुओं से मेरा यथाक्रम प्रणाम कहना और कहना कि मेरी कोख में तुम्हारे पुत्र का गर्भ है। हृदय से तुम उसकी कुशल-कामना करो; आशीष दो कि उसका मङ्गल हो।

"और, उस राजा से मेरी तरफ़ से कहना कि मैंने तो तुम्हारी आँख के सामने ही आग में कूद कर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी। फिर भी जो तुमने पुरवासियों की की हुई अलीक चर्चा सुन कर ही मुझे छोड़ दिया, वह क्या तुमने अपने कुल के अनुरूप काम किया अथवा शास्त्र के अनुरूप ? रघु के उज्ज्वल वंश में जन्म ले कर और सारे शास्त्रों का मर्म जान कर भी क्या तुम्हें मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार करना उचित था ! अथवा तुम्हें मैं क्यों दोष दूँ। तुम तो सदा ही दूसरों का कल्याण चाहते हो; कभी भी किसी का जी नहीं दुखाते । अतएव, मैं यह नहीं कह सकती कि तुमने अपने ही मन से मेरा परित्याग किया है। यह परित्याग मेरे ही जन्म-जन्मान्तरों के पापों का फल है। उसमें तुम्हारा क्या अपराध ? जान पड़ता है, यह करतूत तुम्हारी राज-लक्ष्मी की है। वह तुम्हें प्राप्त होती थी। परन्तु उसका तो तुमने तिरस्कार किया और मेरा आदर । उसे तो तुमने छोड़ दिया और मुझे अपने साथ लेकर वन को चले गये। इसीसे जब मैं तुम्हारे घर में आदरपूर्वक रहने लगी तब, मत्सर के कारण, उससे मेरा रहना न सहा गया। क्रुद्ध हुई उसी राज-लक्ष्मी की प्रेरणा का यह परिणाम मालूम होता है। हाय! मेंरे वे दिन कहाँ गये जब मैं राक्षसों से सताये गये सैकड़ों तपस्वियों की पत्नियों को, तुम्हारी बदौलत, शरण देती थी। पर, अब, मुझे ही औरों की शरण

जाना पड़ेगा ! तुम्हारे जीते, यह मुझसे कैसे हो सकेगा ? तुम्हारे वियोग में मेरे ये पापी प्राण बिलकुल ही निकम्मे हैं। बिना तुम्हारे मैं अपने जीवन को व्यर्थ समझती हूँ। वह मेरे किसी काम का नहीं। यदि तुम्हारा तेज मेरी कोख में न विद्यमान होता तो मैं अपने तुच्छ जीवन का एक पल में नाश कर देती। परन्तु तुमसे जो गर्भ मुझ में रह गया है वह मेरी इस इच्छा की सफलता में विघ्न डाल रहा है। यदि मैं आत्महत्या कर लूँ तो उसका भी नाश हो जायगा । और, यह मैं नहीं चाहती । गर्भ की रक्षा करना ही
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मैं अपना धर्म समझती हूँ। इसीसे मुझे मरने से वञ्चित रहना पड़ता है। अच्छा, कुछ हर्ज नहीं । शिशु-जन्म के बाद, सूर्य की तरफ़ एकटक देखती हुई, मैं ऐसी तपस्या करूँगी जिससे जन्मा- न्तर में भी तुम्हीं मेरे पति हो; और, फिर, तुमसे कभी मेरा वियोग न हो । तुम से मेरो एक प्रार्थना है। वह यह कि मनु ने वर्णाश्रमों का पालन करना ही राजा का सबसे बड़ा धर्म बतलाया है। यह तुम अवश्य ही जानते होगे । अतएव, यद्यपि, तुमने मुझे अपने घर से निकाल दिया है, तथापि, फिर भी, मैं तुम्हारी दया का पात्र हूँ। इस दशा को प्राप्त होने पर मुझे तुम पत्नी समझ कर नहीं, किन्तु एक साधारण तपस्विनी समझ कर ही मुझ पर कृपा करना। प्रजा की देख भाल रखना और उसकी रक्षा करना राजा का कर्तव्य है ही । अतएव, तुम्हारे राज्य में रहने- वाली मुझ तपस्विनी को भी अपनी प्रजा समझ कर ही मुझ पर कृपादृष्टि रखना । पत्नी की हैसियत से न सही, प्रजा की हैसियत से ही मुझ पर अपना स्वामित्व बना रहने देना । मुझसे बिलकुल ही नाता न तोड़ देना।"

लक्ष्मण ने कहा:-“देवी ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा। माताओं और बड़े भाई से आपका सन्देश में यथावत् कह दूंगा।"

यह कह कर लक्ष्मणजी बिदा हो गये । जब तक वे आँखों की ओट नहीं हुए तब तक सीताजी उन्हें टकटकी लगाये बराबर देखती रहीं। दृष्टि के बाहर लक्ष्मण के निकल जाने पर सीताजी दुःखा- तिरेक से व्याकुल हो उठी और कण्ठ खोल कर, डरी हुई कुररी की तरह, चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा । उनका रोना और विल- खना सुन कर वन में भी सर्वत्र रोना-धोना शुरू हो गया। पशु और पक्षी तक सीताजी के दुःख से दुःखी होकर विकल हो गये । मोरों ने नाच छोड़ दिया; पेड़ों ने डालियों से फूल फेंक दिय; हरिणियों ने मुँह में लिये हुए भी कुश के ग्रास उगल दिये । चारों ओर हा-हाकार मच गया।

व्याध के बाण से छिदे हुए क्रौञ्च नाम के पक्षी को देख कर जिनके हृदय का शोक, श्लोक के रूप में, बाहर निकल आया था वे अर्थात् आदिकवि वाल्मीकिजी-इस समय, कुश और ईंधन लेने के लिए, वन में विचर रहे थे । अकस्मात उन्हें रोने की आवाज़ सुनाई दी । अतएव, उसका पता
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लगाने के लिए, जिधर से वह आ रही थी उधर ही को वे चल दिये और कुछ देर में सीताजी के सामने जाकर उपस्थित हुए। उन्हें देख कर सीताजी ने विलाप करना बन्द कर दिया और आँखों का अवरोध करने वाले आँसू पोंछ कर मुनिवर को प्रणाम किया । वाल्मीकि ने चिह्नों से जान लिया कि सीताजी गर्भवती हैं । अतएव, उन्होंने-"तेरे सुपुत्र हो"-यह कह कर आशीर्वाद दिया। फिर वे बोले :-

"मैंने ध्यान से जान लिया है कि झूठे लोकापवाद से कुपित होकर तेरे पति ने तुझे छोड़ दिया है। वैदेहि ! तू सोच मत कर । तू ऐसा समझ कि तू अपने पिता ही के घर आई है। मेरा आश्रम दूसरी जगह है तो क्या हुआ; वह तेरे पिता ही के घर के सदृश है । यद्यपि, भरत के बड़े भाई ने तीनों लोकों के कण्टकरूपी रावण को मारा है; यद्यपि वह की हुई प्रतिज्ञा से चावल भर भी नहीं हटता-उसे पूरी करके ही छोड़ता है; और, यद्यपि अपने मुँह से वह कभी घमण्ड की बात नहीं निकालता-कभी अपने मुँह अपनी बड़ाई नहीं करता- तथापि यह मैं निःसन्देह कह सकता हूँ कि उसने तुझ पर अन्याय किया है । अतएव, मैं उसे पर अवश्य ही अप्रसन्न हूँ। तेरे यशस्वी ससुर से मेरी मित्रता थी । तेरा तत्त्व-ज्ञानी पिता, सदुपदेश-द्वारा, पण्डितों के भी सांसारिक आवागमन का मिटाने वाला है। और, स्वयतू पतिव्रता स्त्रियों की शिरोमणि है। अतएव, सब तरह तू मेरी कृपा का पात्र है । तेरे ससुर में, तेरे पिता में, और स्वयं तुझ में, एक भी बात ऐसी नहीं जिसके कारण मुझे, तुझ पर दया दिखाने में, सङ्कोच हो सके । तू मेरी सर्वथा दयनीय है। अतएव, तू मेरे तपोवन में आनन्द से रह । तपस्वियों के सत्सङ्ग से वहाँ के हिंसक पशुओं तक ने सुशीलता

सीख ली है । वे भी हिल गये हैं । उन तक से तुझे कोई कष्ट न पहुँचेगा। तू निडर होकर वहाँ रह सकती है । बिना किसी विघ्न बाधा के, सुखपूर्वक प्रसूति होने के अनन्तर, तेरी सन्तान के जातकर्म आदि सारे संस्कार, विधिवत्, किये जायेंगे । उनमें ज़रा भी त्रुटि न होने पावेगी। पुण्यतोया तमसा नदी मेरे आश्रम के पास ही बहती है। उसमें स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप छूट जाते हैं। इसीसे, कुटियाँ निर्माण करके, उसके किनारे किनारे, कितने ही ऋषि-मुनि रहते हैं। तू भी उसमें नित्य स्नान करके,
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उसके वालुका-पूर्ण तट पर, देवताओं की पूजा-अर्चा किया करना । इससे तुझे बहुत कुछ शान्ति मिलेगी और तेरे चित्त की उदासी- नता जाती रहेगी। तुझे वहाँ अकेली न रहना पड़ेगा। आश्रमों में अनेक मुनि-कन्याय भी हैं । वे तेरा मनोविनोद किया करेंगी। जिस ऋतु में जो फल-फूल होते हैं उन्हें वे वन से लाया करती हैं। विना जोते बोये उत्पन्न होने वाले अन्न भी वे पूजा के लिए लाती हैं । वे सब बड़ी ही मधुरभाषिणी और शीलवती हैं। उनके साथ रहने और उनसे बात-चीत करने से तुझे अवश्य ही शान्ति मिलेगी । मीठी मीठी बाते करके, तुझ पर पड़े हुए इस नये दुःख को वे बहुत कुछ कम कर देंगी। तेरा जी चाहे तो अपनी शक्ति के अनुसार तू आश्रम के छोटे छोटे पौधों को घड़ों से पानी दिया करना। इससे पुत्रोत्पत्ति के पहले ही तुझे यह मालूम हो जायगा कि सन्तान पर माता की कितनी ममता होती है । मेरी बातों को तू सच समझ । उनमें तुझे ज़रा भी सन्देह न करना चाहिए।"

दयार्दहृदय वाल्मीकि के इन आश्वासनपूर्ण वचनों को सुन कर सीता -जी ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की। मुनिवर के इस दयालुतादर्शक बरताव की उन्होंने बड़ी बड़ाई की और उन्हें बहुत धन्यवाद दिया। सायङ्काल वाल्मीकिजी उन्हें अपने आश्रम में ले आये । उस समय कितने ही हरिण, आश्रम की वेदी को चारों ओर से घेरे, बैठे हुए थे और जंगली पशु, वहाँ, शान्तभाव से आनन्दपूर्वक घूम रहे थे। आश्रम के प्रभाव से हिंसक जीव भी, अपनी हिंसक-वृत्ति छोड़ कर, एक दूसरे के साथ वहाँ मित्रवत्व्य वहार करते थे।

जिस समय सीताजी आश्रम में पहुँची उस समय वहाँ की तपखिनी स्त्रियाँ बहुत ही प्रसन्न हुई। अमावास्या का दिन जिस तरह, पितरों के द्वारा सारा सार खींच लिये गये चन्द्रमा की अन्तिम कला को, ओषधियों को सौंप देता है उसी तरह वाल्मीकिजी ने उस दीन-दुखिया और शोक-विह्वला सीता को उन तपस्विनियों के सुपुर्द कर दिया।

तपस्वियों की पत्नियों ने सीताजी को बड़े सादर-सत्कार से लिया । उन्होंने पूजा के उपरान्त, कुछ रात बीतने पर, उन्हें रहने के लिए एक पर्णशाला दी । उसमें उन्होंने इंगुदी के तेल का एक दीपक जला दिया और
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सोने के लिए एक पवित्र मृगचर्म बिछा दिया। तब से सीताजी वहीं रहने और अन्यान्य तपस्विनी स्त्रियों के सदृश काम करने लगी। नित्य, प्रात:-काल, पवित्र सलिला तमसा में स्नान करके, आश्रम में आये हुए अतिथियों का वे विधिपूर्वक सत्कार करने लगीं। पेड़ों की छाल के ही वस्त्र धारण करके और जङ्गली कन्द-मूल तथा फल-फूल खाकर ही किसी तरह उन्होंने, अपने पति के वंश की रक्षा करने के लिए, अपने शरीर को जीवित रखने का निश्चय किया।

उधर मेघनाद का मर्दन करने वाले लक्ष्मणजी अयोध्या लौट गये। उन्होंने मन में कहा, भगवान् करे रामचन्द्र जी को अपने कृत्य पर अब भी पछतावा आवे। यह सोच कर वे बहुत ही उत्सुक हो उठे और बड़े भाई की आज्ञा पूर्ण करने का सारा वृत्तान्त,सीता- जी के रोने-धोने और विलाप करने तक, उन्होंने उनको एक एक करके कह सुनाया। उसे सुन कर रामचन्द्रजी को महा दुःख हुआ। ओस बरसाने वाले पूस के चन्द्रमा के समान वे अथपूर्ण हो गये। उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली । बात यह थी कि रामचन्द्रजी ने मन से सीताजी को घर से न निकाला था; किन्तु लोकापवाद के डर से उन्होंने ऐसा किया था । बुद्धिमान् और समझदार होने के कारण किसी तरह उन्होंने अपने शोक को, बिना किसी के समझाये बुझाये, आप ही अपने काबू में कर लिया। स्वस्थ होने पर, सजग होकर वे फिर वर्णाश्रम की रक्षा करने और रजोगुण को अपने मन से दूर करके राज्य के शासन में चित्त देने लगे । परन्तु उस उतने बड़े और समृद्धिशाली राज्य का उपभोग उन्होंने अकेले ही न किया। भाइयों का भी उसमें हिस्सा समझ कर उन्होंने उन्हें भी, अपने ही सदृश, उसका उपभोग करने दिया।

राज-लक्ष्मी की अब बन आई। अपनी अकेली एक, सो भी महा- पतिव्रता, पत्नी को, लोकापवाद के डर से, छोड़ देने वाले राजा रामचन्द्र के हृदय में वह अत्यन्त सुख से रहने लगी। रामचन्द्र ने सीता को क्या निकाला, मानों लक्ष्मी को बिना सौत का कर दिया। फिर भला क्यों न वह बड़े सुख से रहे और क्यों न उसकी दीप्ति की नित नई बढ़ती हो। .

सीता का परित्याग करके रावण के वैरी रामचन्द्र ने दूसरा विवाह न
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किया। यज्ञों के अनुष्ठान के समय जब जब पत्नी की उपस्थिति की आवश्यकता हुई तब तब उन्होंने सीता की ही मूर्ति अपने पास रख कर सारी धार्मिक क्रियायें निपटाई। सीताजी पर यह उनकी कृपा ही समझनी चाहिए। क्योंकि, यह बात जब सीताजी के कान तक पहुँची तब उनका शोक कुछ कम हो गया और अपने दुःसह परित्याग-दुःख को उन्होंने किसी तरह सह लिया । यदि रामचन्द्रजी उनपर इतनी भी दया न दिखाते तो दुःखाधिक्य से दबी हुई सीता की न मालूम क्या दशा होती !