रक्षा बंधन/१६—भक्षक-रक्षक

रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ १३० से – १३६ तक

 

भक्षक रक्षक


( १ )

दोपहर का समय था। पं चन्द्रकान्त सर्राफ अपनी दुकान पर बैठे थे। थोड़ी ही दूर पर उनका एक सहकारी भी विराजमान था। एक बगल में उनका एक नौकर भी बैठा था। चन्द्रकान्त की दूकान पर अनेक प्रकार की सोने-चांदी की तैयार वस्तुए बिकती थीं।

पं० चन्द्रकान्त जम्हाई लेकर बोले---"आज बड़ा सन्नाटा है।"

सहकारी बोला---"अब धूप कुछ तेज होने लगी है इसलिए दोपहर में आदमी नहीं निकलते।"

"हाँ यह बात तो है।" चन्द्रकान्त ने कहा। दोनों मौन हो गये। समय काटने के लिए चन्द्रकान्त ने एक बही उठा ली और उसके पन्ने उलटने लगे। कुछ समय इस प्रकार बीतने के पश्चात सामने से स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा आता दिखाई पड़ा। दुकानों की ओर ताकते हुये वे दोनों चन्द्रकान्त की दुकान के सामने आये। दुकान के सन्मुख आकर दोनों ठिठक गये। शो केस में लगे हुये सामान को कुछ देर ध्यान-पूर्वक देखने के पश्चात दोनों ने धीमे स्वर में कुछ बात की। चन्द्रकान्त ने बही पर से दृष्टि उठाकर उनकी ओर देखा। स्त्री की वयस २०, २२ वर्ष के लगभग थी। गोरी चिट्टी नाक-नक्शे से दुरुस्त तथा हृष्ट-पुष्ट।

१३०
पुरुष की वयस चालीस के लगभग होगी---सांवला रंग, कद नाटा, शरीर का पतला, कोट-पेन्ट-कालर-नेकटाई से लैस। स्त्री बैंगनीरङ्ग की बनारसी साड़ी और उसी कपड़े का जम्पर तथा पैरों में सेण्डल पहने थी। पुरुष ने आगे बढ़कर चन्द्रकान्त से पूछा---"साड़ी पिन है?"

"हाँ! ऊपर आजाइये।"

आगे आगे स्त्री और पीछे पुरुष। दोनों दुकान पर चढ़ कर अन्दर आगये। पुरुष तो खड़ा रहा---स्त्री कुर्सी पर बैठ गई। चन्द्रकान्त ने एक बड़ा बक्स खोल कर स्त्री के हाथ में दे दिया। इस बक्स में अनेक डिजाइन तथा मूल्य की साड़ीपिनें लगी हुई थीं। स्त्री कुछ क्षण तक उन्हें देख कर पुरुष से बोली---"जरा देखो!"

"मैं क्या देखूँ जो तुम्हें पसन्द हो वह ले लो।"

"कुछ सलाह तो दो।"

"पसन्द में सलाह का क्या काम!” यह कह कर पुरुष चन्द्रकान्त की ओर देख कर किञ्चित मुस्कराया। चन्द्रकान्त भी मुस्करा दिये और बोले---"ठीक कहा आपने।"

स्त्री एक पिन की ओर संकेत करके पुरुष से बोली---"यह पिन अच्छी है?"

पुरुष पिन की ओर देख कर बोला---"मुझे तो सभी अच्छी लगती हैं।"

स्त्री ने चन्द्रकान्त से पूछा---"इसके क्या दाम हैं?"

चन्द्रकान्त ने पिन में लगा हुआ छोटा सा टिकिट देख कर कहा---"पचीस रुपया।"

"गिनी गोल्ड का है?" पुरुष ने पूछा।

"हाँ बीच में जो सफेद नगीना है वह पुखराज है।"

"पुखराज तो पीला होता है" स्त्री ने कहा।

चन्द्रकान्त शिष्टता--पूर्वक हँसकर बोले---"पीला भी होता है और सफेद भी।"

"मैं तो हीरा समझी थी।" स्त्री ने कहा। "इतना बड़ा हीरा होता तो इस पिन के दाम दो सौ रुपये होते।"

"अच्छा तो इसे ही निकाल दीजिये। यही ले लिया।" अन्तिम वाक्य स्त्री ने पुरुष की ओर देख कर कहा।

"ठीक है!" चन्द्रकान्त से वह बोला---'दाम कुछ कम कर दीजिये।"

"बिल्कुल एक दाम हैं। हमारे यहाँ मोलतोल नहीं होता।" चन्द्रकान्त ने पिन निकाल कर एक छोटी डिब्बी में रखते हुए कहा।

पुरुष ने जेब से मनी बेग निकाला और पचीस रुपये गिन कर चन्द्रकान्त को दिये। चन्द्रकान्त ने रसीद दी।

दोनों बिदा हुये।

( २ )

पं० चन्द्रकान्त जवान आदमी है। वयस ३०, ३२ वर्ष के लगभग है। चन्द्रकान्त, उन्हीं जैसे चरित्र के लोगों में रंगीली तबियत के आदमी प्रसिद्ध हैं। शरीफाना ढंग से परस्त्री तथा वेश्यागमन करने वाले को कुछ लोग रंगीली तबियत का आदमी कहते हैं। पं० चन्द्रकान्त इसी ढंग के रंगीले आदमी हैं।

सन्ध्या का समय था। पं० चन्द्रकान्त अपनी दुकान पर विराजमान थे। इसी समय उनके एक घनिष्ट मित्र जो उन्हीं के समान रंगीले थे आये। चन्द्रकान्त मुस्कराकर बोले---"आओ रजनी गन्धा।"

चन्द्रकान्त ने इनका नाम रजनी गन्धा रख दिया था। अपने घनिष्ट मित्रों में यह महाशय इसी नाम से पुकारे जाते थे। रजनीगन्धा नाम इस कारण पड़ा कि यह महाशय रात में ही निकलते थे। सन्ध्या को स्नान करके, अच्छे वस्त्र पहन कर तथा इत्र-सेन्ट से सुवासित होकर घूमने निकलते थे और ग्यारह-बारह बजे घर वापिस जाते थे। घर के रईस तथा धनाढ्य थे।

रजनी गन्धा महाशय बैठ कर बोले---"क्या हो रहा है।" "बस यहाँ तो वही नित्य के पापड़ बेलना---आप अपनी कहिये! आज कार नहीं लाये?"

"ऐसे ही टहलता हुआ चला आया। कार लड़के-बच्चों को सिनेमा ले गई है।"

"यह कहो! और क्या खबर है?"

"खबर यह है कि कल लखनऊ चलते हो?"

"लखनऊ! हाँ काम तो है। तुम क्यों जा रहे हो?"

"ऐसे ही घूमने-फिरने! बहुत दिनों से कहीं गया नहीं इस कारण तबियत मचल रही है।"

"हूँ तबियत मचल रही है--मैं सब समझता हूँ।" चन्द्रकान्त ने मुस्कराकर सिर हिलाते हुये कहा।

रजनीगन्धा महाशय भी मुस्करा दिये और बोले---"चलोगे?"

"चलो! मुझे तो जाना ही है। रेल से चलोगे या कार से!"

"कार ले चलेंगे। कल सबेरे चलो। दिन भर घूमें फिरें, तुम अपना काम कर लेना। रात को होटल में ठहर जाँयेंगे।"

"वह तो तू ठहरेगा ही---रजनीगन्धा जो ठहरा रात को ही मह-केगा।" चन्द्रकान्त ने मुस्कराते हुये रहस्यपूर्ण दृष्टि से कहा।

"हाँ तो बोलो---पक्का रहा।"

"अभी बताता हूँ।"

यह कह कर चंद्रकान्त ने अपने सहकारी से कहा---"जरा वह लिस्ट तो निकालना-देखें कौन कौन चीज लानी हैं।"

सहकारी ने सूची निकाल कर दी। चन्द्रकान्त उसे ध्यान-पूर्वक देख कर सहकारी से बोले---"इतनी सब चीज आवेंगी?"

"हाँ आना तो सभी चाहिये!"

"देखो! कल दिन भर में काम हो जायगा तो आजाँयगी।"

"तो परसों भी ठहर जाँयगे--शाम तक काम हो जायगा बस उसी समय चल देंगे।" रजनीगन्धा ने कहा।

"हाँ! हाँ! अच्छा पक्का रहा।"

( ३ )

दूसरे दिन पं० चंद्रकान्त तथा रजनीगन्धा कार द्वारा लखनऊ पहुँचे। दिन भर इधर उधर घूमने के पश्चात सन्ध्या समय ये दोनों अपने परिचित होटल में पहुँच गये। होटल के मैनेजर ने मुस्कराते हुये इनका स्वागत किया। रजनीगन्धा ने पूछा--"हमारा रूम खाली है?"

"खाली है सरकार! आप का रूम तो मैं अधिकतर खाली ही रखता हूँ कि न जाने कब सरकार तशरीफ ले आवें।"

"बड़ी मेहरबानी है।"

होटल के गेराज में कार खड़ी कर के दोनों अपने कमरे में पहुँचे। कमरा काफी बड़ा था। एक ओर दो पलङ्ग बराबर एक दूसरे से सटे हुये बिछे थे। पलंग पर विस्तर भी लगे हुये थे। दूसरी ओर एक सिंगार मेज लगी थी एक ओर कपड़े टाँगने की अल्मारी थी--दीवार पर भी खूँटियाँ थीं। बीच में एक छोटी सी गोल मेज के चारों ओर चार कुर्सियाँ बिछी थीं। एक ओर गुसलखाने में जाने का द्वार था। दो बत्तियां तया पङ्खा भी था। रजनीगन्धा ने पङ्खा खोलते हुये कहा---"अब गर्मी पड़ने लगी।"

दोनों ने कोट उतार कर टाँग दिए और कुर्सियों पर बैठ कर हवा खाने लगे। थोड़ी ही देर बाद एक ब्वाय आया और उसने पूछा---"खाना कब खाइयेगा।"

"खाना! नौ बजे! अभी तो जरा नहाना है।"

"बहुत अच्छा!" कह कर ब्वाय जाने लगा। रजनी गन्धा ने उसे रोक कर कहा---"जरा सुनना। वह अल्लहरक्खू कहाँ है।"

"है। बुलवाऊं?"

"हाँ"

ब्वाय चला गया। चन्द्रकान्त मुस्कराकर बोले--"क्या मजाल जो चूक जाय! अबे कभी कभी तो भूल जाया कर।"

"भूलने वाले की ऐसी-तैसी! और मैं भूल जाऊँ तो तुम कैसे होकर का माला छोड़ कर मनका माला जपते हो बच्चा! बगुला हो---देखने में बड़े शान्त और गम्भीर परन्तु ध्यान मछली की ही ओर रहता है।"

इस समय अल्लहरक्खू आ गया। उसने आते ही फराशी सलाम किया। अल्लहरक्खू की वयस पचास के लगभग! गाल में पान की गिलौरी दबी हुई है।

"कहो मियाँ अच्छे हो?"

"हुजूर के इकबाल से सब बखैरियत! क्या हुक्म है।"

"क्या बताना पड़ेगा?"

"बस आपका इशारा ही काफी है।"

"हमारी पसन्द तो जानते ही हो।"

"नई चीज लीजिए! इन्शाअल्लाह देख कर फड़क जाइयेगा।"

यह कहकर अल्लहरक्खू चला गया।

"अच्छा मै जरा नहा डालूँ।"

"हाँ माँग चोटो से लैस हो जाऊँ।"

"बको मत!" कह कर रजनीगन्धा गुसलखाने में चला गया।

जिस समय रजनीगन्धा गुसलखाने से निकल कर बाहर आया और सिंगार मेज के आइने के सामने बैठकर बाल संवार रहा था उसी समय अल्लहरक्खू आगया। उसके पीछे एक स्त्री थी। अल्लहरक्खू उससे बोला-"चली आओ।" स्त्री सकुचाती हुई आकर कुर्सी पर बैठ गई। परन्तु ज्यों ही उसकी दृष्टि चन्द्रकान्त पर पड़ी वह चौंक उठी। चंद्रकान्त ने भी उसे ध्यानपूर्वक देखा सहसा वह भी चौंके। यह स्त्री वही थी जो एक मास पूर्व पचीस रुपये की साड़ी पिन ले गई थी!

स्त्री तुरन्त उठ खड़ी हुई और अल्लह से बोली---"चलो!"

"क्यों! क्यों! बैठो शरीफ आदमी हैं।"

चन्द्रकान्त बोल उठा---"बैठो! कोई डरने की बात नहीं है। अल्लहरक्खू तुम जाओ।" अल्लहरवखू चला गया। रजनीगन्धा चुपचाप देख रहा था। चन्द्र कान्त ने पूछा---"तुम कौन हो सच बताओ।"

स्त्री रोने लगी। कुछ देर बाद जब वह शान्त हुई तो बोली--- "आप विश्वास नहीं करेंगे।"

"विश्वास क्यों नहीं करेंगे---कहो।"

स्त्री ने अपना वृतान्त सुनाया। वह एक भले घर की लड़की थी। पड़ोस के एक युवक के प्रेम में फंँस कर उसके साथ भाग खड़ी हुई थी। उस युवक ने कुछ दिनों बाद उसे उस व्यक्ति को सौंप दिया जिसके साथ अब वह रहती है और जो उस दिन उसके साथ चन्द्रकान्त की दुकान पर गया था। वह पुरुष उससे यह पेशा करवाता है।

चन्द्रकान्त ने कहा---"तुम उसका कहना क्यों मानती हो?"

"वह जल्लाद है! उसकी बात न मानू तो जान से मार दे।"

चन्द्रकान्त रजनीगन्धा से परामर्श कर के स्त्री से बोला--"तुम हमारे साथ चलो तो हम किसी भले आदमी से तुम्हारा विवाह कर दे।"

"मैं तैयार हूँ। मेरा उद्धार कीजिए। आपका जन्म भर एहसान मानूँगा।"

चन्द्रकान्त उस स्त्री को अपने साथ ले आये और एक युवक के साथ उसका विवाह करवा दिया।

कभी कभी भक्षक भी रक्षक हो जाता है।