रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ ११७ से – १२९ तक

 


वैषम्य


( १ )

रायबहादुर बाबू श्यामाचरण एक धनाढ्य व्यक्ति हैं। जमींदारी तथा जायदाद से उन्हें पाँच छः हजार रुपये मासिक को आय हो जाते है। नगर में इनकी एक सुन्दर कोठी है---इसी कोठी में इनका निवास है।

बाबू साहब की वयस पचास के लगभग हैं। दो पुत्रा तथा एक पुत्री है, जिनमें से सबसे छोटा अभी अविवाहित है।

संध्या के ७ बज चुके थे। बाबू साहब अपने मित्रों सहित कोठी के सामने घास के लान पर बने हुए गोल चबूतरे पर विराजमान थे। श्वेत मेजपोश से ढकी हुई एक गोल मेज चबूतरे के बीचोबीच लगी थी। इसके चारों ओर कुर्सियाँ लगी हुई थीं---इन्हीं पर सब लोग विराजमान थे।

सहसा बाबू साहब जम्हुवाई लेकर बोले---"अब समय हो गया।"

"हाँ और क्या! मंगवाइये!" ब्रजनन्दन नामक व्यक्ति ने कहा।

बाबू साहब ने किंचित गर्दन घुमाकर कुछ उच्च स्वर से कहा-- "अब लाओ!"

कुछ दूर पर दो बेरा खड़े थे। बाबू साहब की बात सुनकर वे दोनों कोठी के अन्दर चले गये। "आज मौसम बड़ा सुहावना है।"

"क्या बात है। पोने का लुत्फ तो इसी मौसम में है---'जाम ला साकिया फिर घिर के घटा आई है।" "इस मौसम में बड़े बड़ों की तोबा टूट जाती है। ऐसे मौसम में जो तोबा करे सौदाई (पागल) है।" एक ने कहा।

"खूब! अच्छा कहा है।"

"भई, यह चीज तो किसी मौसम में भी त्यागने योग्य नहीं है।"

इन्हीं बातों में बेरा मदिरा-पान का सामान ले आये। दो बोतल हिस्की, सोड़ा, बर्फ। दोनों बेरा ने सबके गिलास बनाकर तैयार किये और कबाब की एक एक प्लेट सब के सामने रख दी। 'गुडलक' के साथ मदिरापान आरम्भ हुआ। बाबू साहब बोले---"बरसात पर कुछ और शेर सुनाओ, तुम्हें तो बहुत याद हैं।"

"क्या कहने हैं! दीवान के दीवान याद हैं इस शख्स को गजब का हाफिजा ( स्मरण शक्ति ) है।" एक कायस्थ एडवोकेट बाबू शंकर-दयाल ने कहा।

"हाँ सुनाओ महेन्द्रसिंह!"

सुनिये---"पीने वाले क्यों न हों सौ दिल सौ जाँ से निसार। दिल को तड़पाती है क्या क्या हर अदा बरसात की।"

"भई, तड़पन-फड़कन का यहां काम नहीं है। यहाँ तो---'हर रोज रोजे ईद है, हर रात शबबरात, सोता हूँ हाथ गर्दने मीना में डाल के।' कृष्ण प्रसाद दर नामक काश्मीरी सज्जन ने कहा।

"मीना महरी? वाह भतीजे!"

"मीना महरी कौन?" रायबहादुर साहब हँसते हुए बोले।

"इनको एक मुंहलगी है, नाम मीना और जात"....कहारिन!"

दर साहब बोले--"इन गंवारों के सामने शेरो-शायरी कहना बिल. कुल बेकार है! मीना शराब की बोतल को कहते हैं, इन्हें कहारिन याद आती है!"

महेन्द्रसिह बोला-"पीने वाले सबसे पहले मांगते हैं यह दुआ, मैकदे ( शराबखाने ) पर टूट कर बरसे घटा बरसात की।"

"खूब! अच्छा शेर हैं।"

"आसमाँ से अब शराबे नाव बरसे क्या अजब, आँख में लाती है मस्ती यह घटा बरसात की।"

इसी प्रकार कुछ देर तक शेरख्वानी के साथ मदिरापान होता रहा सब लोग मदिरोन्मत हो गये। सहसा ब्रजनन्दन उठ कर खड़ा होगया। आखें रक्तिम, गाल चढ़े हुए, बाछें खिली हुईं। खड़े होकर वह बोला---"जरा एक शेर इस गुलाम का भी सुनिये।"

"हां जरा इस चिड़ीतन के गुलाम का भी शेर सुनिये।" एडवोकेट साहब हँसते हुए बोले।

“यह चिड़िया का गुलाम नहीं है, हुकुम का गुलाम है।" दर साहब ने कहा।

"अच्छा कह बे, हम हुकम देते हैं।" एडवोकेट साहब ने कहा।

ब्रजनन्दन ने मटक कर भाव बताते हुए कहा---"दुख्तेरिज (द्राक्षनान्दिनी अर्थात शराब) पर क्यों न हू कुर्बान में सौ जान से!" इससे जरा गौर कीजिएगा---किससे? ( बोतल की ओर उंगली उठाकर) इससे! हाँ! यही तो खास बात है—--शीशे में यह शराब नहीं, लालपरी है। हाय! हाय! लालपरी......!"

"अबे दूसरा मिसरा तो कह काले देव!" दर साहब बोले।

"खूब बोला राजा इन्दर ( इन्द्र) का साला। हा! हा! हा!" ब्रजनन्दन पागल की भांँति हंसता हुआ बोला। "राजा हूं मैं कौम का इन्दर मेरा नाम बिन परियों की दीद (दर्शन) के नहीं मुझे आराम।"

"जब से नत्था चिरंजी को मण्डली टूटी तबसे इसकी कद्र जाती रही! वरन इसके भी जमाने थे। लोग इकन्नो-दुवन्नी फेंकते थे, दस-बारह माने तो यह इसी तरह पैदा कर लेता था।"

सबने कहकहा लगाया।

"टुम काला आडमी किस माफिक बोलटा, हम टुमारी बाट समझने नेइ शकटा।" ब्रजनन्दन ने बोखल की भाँति कहा।

"देखिए। क्या क्या बोलियाँ याद हैं---यह भला कभी भूखा रह सकता है?"

"और बरसात में खूब बोलता है।"

रायबहादुर साहब बोले--"अब खाना मँगाया जाय। क्यों?"

"हाँ मंगवाइये!"

( २ )

रायबहादुर साहब की कोठी के निकट ही कुछ क्वार्टर बने हुए थे। इन क्वार्टरों में नौकरी पेशा वाले गरीब लोग रहा करते थे। इन्हीं में एक ठाकुर परिवार रहता था। इस परिवार में चार व्यक्ति थे। एक पचास वर्षीय वृद्ध---नाम श्यामसिंह, उसकी पत्नी और दो सन्तानें जिनमें एक बालिका आयु दस वर्ष, एक बालक आयु पन्द्रह वर्ष! श्यामसिंह एक कारखाने में काम करता था। वेतन पचीस रुपये मासिक मिलता था। इन्हीं पचीस रुपयों में चार प्राणी अपना गुजर करते थे।

इतवार का दिन था। श्यामसिंह दोपहर के समय अपनी पत्नी से वार्तालाप कर रहा था। पत्नी कह रही थी---'अब रामू को कहीं काम में लगाना चाहिए---गुजारा नहीं चलता।"

"मैं चाहता था कि साल दो साल और ठहर जाऊँ, फिर काम में लगाऊँ।"

"क्या बतावें, पढ़ लेता तो अच्छा ही था पर।"

"आज कल पढ़ाई इतनी मँहगी है कि गरीब आदमी तो पढ़ा ही नहीं सकता।"

"कोई ऐसा काम मिल जाय जो इसके लायक हो! ज्यादा मेहनत का काम तो उससे नहीं होगा।"

"देखो कुछ तो करना ही पड़ेगा। कहाँ गया है?"

"कहीं गया होगा।" "इस तरह बेकार फिरने से तो कहीं काम में लग जाय तो अच्छा है। रोटी खा गया?"

"न कहीं! उसका कोई समय है, कभी दो बजे आयगा तब खायगा, कभी तीन चार भी बज जाते हैं। सबेरे गुड़ खा के निकल जाता है।"

"आज मैं उससे बात करूंँगा।"

बातें करते करते श्यामसिंह सो गया। तीन बजे के लगभग वह जाग पड़ा। जागते ही उसने देखा कि रामू बैठा भोजन कर रहा है।

"बड़ी देर कर देता है, कहां घूमा करता है?" श्यामसिंह ने पूछा।

"कहीं नहीं!"

"कहीं नहीं? घर में नहीं रहता तो कहीं तो जाता ही होगा?"

पिता की बात का उत्तर न देकर रामू बोला--"चाचा, हम खोंचा लगायँगे, हमें एक थाल और दो चार कटोरे और बाँट-तराजू ला दो।"

"काहे का खोञ्चा लगायगा?"

"यही फसल की चीजें! पट्टी-रेवड़ी, मूंगफली, धनिये के आलू। कभी कुछ कभी कुछ!"

श्यामसिंह 'हुँ' कहकर विचार में पड़ गया। थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् बोला--"काम तो बुरा नहीं है, पर तुम से होगा?"

"होगा क्यों नहीं।"

"खूब सोच-समझ लेओ। ऐसा न हो कि मुझे तुम्हारी खबर लेना पड़े।"

"नहीं चाचा! हमारा एक साथी यही काम करता है। हमने कई दिन उसके साथ घूम के देखा है।"

"अच्छी बात है। थाल तो चाहे घर में ही निकल आवे। एक थाल पड़ा तो था। रामू की मांँ---थाल है कोई?"

"हाँ एक है तो, साफ करना पड़ेगा।" "तो साफ कर दो---तराजू-बाँट आज ले आऊँगा। और क्या चाहिए?"

"बस! एक-दो कटोरे या कूड़ियाँ हों।"

"कूँड़ियाँ मिट्टी की ले आना।"

"हाँ! मट्टी को भी काम दे जायँगी।"

"और"

"और एक पाँच-छः रुपये।"

"क्या लगायगा?"

"अभी तो पट्टी लगाऊँगा। पाँच रुपये जमा करने पड़ेंगे। रोज पट्टी ले आया करूंगा।"

"अच्छी बात है। लेकिन यह याद रखना कि अगर तुमने ठीक से काम न किया तो मैं बुरी तरह पेश आऊँगा।"

"नहीं चाचा! देखना तो कैसे करता हूँ।"

"कितनी बचत हो जाया करेगी।"

"रुपये बारह पाने की बचत होगी।"

"हूँ! अच्छा आज तुम अपना सब ठीक-ठीक कर लो। मैं बाँट लाये देता हूँ।"

श्यामसिंह ने अपने एक परिचित से दस रुपये लेकर रामसिंह का सामान दुरुस्त कर दिया।

पहले दिन रामू ने पाठ आने पैदा किये। दूसरे दिन बारह आने! इस प्रकार नित्य ही आठ आने से लेकर एक रुपए तक की आय होने लगी। रामू के माता-पिता बहुत प्रसन्न थे।

एक दिन श्यामसिंह पत्नी से बोला---"रामू भगवान चाहे तो दिन दिन तरक्की करेगा। दो रुपये रोज लाने लगे तो मैं नौकरी छोड़ दू---अब मुझ से काम नहीं होता। बड़ी थकावट आ जाती है।"

"देखो! भगवान की मरजी होगी तो पैदा ही करने लगेगा।"

"इसका ब्याह भी हो जाय। बस अपना कमाय-खाय।" "लड़की भी तो हैं सामने।"

"हाँ! लड़की का भी ब्याह करना होगा। तब तक भगवान कुछ न कुछ उपाय कर ही देंगे।"

"हाँ, हम गरीबों को तो उन्हीं का भरोसा है।"

( ३ )

रायबहादुर साहब के यहाँ संध्या-समय नित्य की भांति मिन-मंडली जमा थी। दौर चल रहा था। सहसा रायबहादुर की मण्डली का विदूषक ब्रजनन्दन बोला---"आपकी कितनी उम्र है बाबू जी!"

"बाबूजी तुम्हारे बाप लगते हैं क्या?" दर महाशय ने हंसते हुए कहा।

"हाँ मामा, तुम ऐसा ही समझो।"

रायबहादुर ने हंसते हुए पूछा---"क्यों, उम्र क्या करोगे पूछ के?"

"आपका ब्याह करायगा।" महेन्द्रसिंह बोला।

"खैर हम कुछ करेंगे---आप बताइये तो।"

“पचास में एक महीना कम है।"

"बस बन गई बात।"

"क्या बन गई, अपनी बुढ़िया भेड़ेगा क्या?"

"तुमने जो अपनी अम्मा को निकाल दिया है---अनाथालय में पड़ी है। उसी के लिए बात चीत है। समझे चिरंजीव!" ब्रजनन्दन ने गम्भीरतापूर्वक कहा।

रायबहादुर साहब बोले---"खैर, मजाक न करो, बात बताओ-- उम्र क्यों पूछो! बीमा-एजेण्ट बन गये क्या।"

"अजी यह बीमाँ-एजेण्ट है, बीमा-एजेण्ट नहीं है।"

"हम आपका 'गोल्डेन जुबली' मनायगा।"

यह बात सुनते ही सबके कान खड़े हुए। एडवोकेट साहब उठकर खड़े हो गये और बोले---"भई क्या बात कही है तुमने ब्रजनन्दन! जी खुश कर दिया। वाकई इनकी 'गोल्डेन जुबली' मनाई जानी चाहिए।"

"बात तो दूर की सोची इसने है---इसे बौखल तो क्या हुआ।"

"बड़ा बना हुआ है---इसे बौखल मत समझना।"

ब्रजनन्दन बोला---"तो क्या राय है आप लोगों की।"

"राय पक्की है, तैयारी शुरू हो जानी चाहिए। एक महीना काफी है।"

रायबहादुर साहब मन ही मन प्रसन्न होकर बोले---"मेरी सुवर्ण जुबली क्या मनाओगे।"

"आप मत बोलिये। यह हम लोगों का प्रोग्राम है।"

"अच्छा भई, अब न बोलूँगा, जो तुम लोगों की इच्छा हो करो।"

"कितना रुपया खर्च होगा।"

"यह तो अपनी समाई की बात है जितना चाहो खर्च कर दो।"

"कोई चिन्ता नहीं, हम लोग आपस में चन्दा कर लेंगे।"

रायबहादुर साहब बोल उठे---"यह बात गलत है जनाब! रुपया तो मेरा ही खर्च होगा। प्रबन्ध आप लोगों का।"

"वह सब हो जायगा।" दर साहब ने कहा।

"कितना रुपया खच होगा?" एडवोकेट महाशय ने पूछा।

"यह तो अपनी समाई की बात है, चाहे जितना खर्च कर दो।"

रायबहादुर साहब बोले---"पाँच हजार खर्च होगा?"

"पाँच हजार में बहुत बढ़िया हो जायगी।"

"तो मैं पाँच हजार का बजट स्वीकार करता हूँ।"

"वाह वा! फिर क्या है मजे ही मजे हैं।"

"भई काम बाँट लेना चाहिए।" ब्रजनन्दन ने कहा।

"हम लोग काम बाँट लेंगे। आप को अभी से एक काम सौंपा जाता है।"

"वह कौन सा?"

"रंडियाँ ठीक करना। जलसा भी तो होगा।"

"जलसा तो अवश्य होगा, परन्तु रंडियाँ ठीक करने का काम दर साहब को दिया जाता तो अच्छा था, बरसों हुसनाबाई के साथ मंजीरे बजा चुके हैं।"

इस पर सब ने अट्टहास किया।

"और यह भी अफवाह थी कि दर साहब की हुसना से कुछ रिश्तेदारी भी है---यह उसके सौतेले भाई हैं शायद!"

"इस समय तो ब्रजनन्दन ने दर साहब को दाब लिया।" महेन्द्रसिंह हंसते हुए बोला।

दर महाशय बोले--"हाँ इस समय तो इसकी चढ़ बनी हैं।"

"अच्छा जलसा होगा, दावत होगी--और?" एडवोकेट साहब ने पूछा।

"और रोशनी होगी। कोठी बिजली की रोशनी से जगमगा उठेगी।"

"और"

"और क्या होता है। नौकर-चाकरों को इनाम-इकराम बटेगा।"

"ब्रजनन्दन के लिए चाँदी के कड़े बनवा दीजिएगा।" दर साहब बोले।

"अबे सोने के बनवाने की सिफारिश कर, अन्त को तेरी बहिन के ही पास जायँगे। मैं तो बेच-बाच कर उसी को खिला दूँ।"

इस पर पुनः हँसी हुई।

"आज तो ब्रजनन्दन बहुत चर्ब बैठ रहा है।"

इसी प्रकार के हंसी-मजाक के साथ-साथ जयन्ती का प्रोग्राम बनता रहा।

( ४ )

रायबहादुर साहब की सुवर्ण-जयन्ती की तैयारयिाँ हो रही थीं।

रामू अपने पिता से बोला--"चाचा, कल से हम खोंचा नहीं लगायंगे।" "क्यों?"

"कल से हम बाबू श्यामाचरण के यहाँ काम करेंगे।"

"क्या नौकरी?"

"उनके यहाँ कुछ है---जयन्ती कहते हैं उसे! उसकी तैयारी हो रही है। बड़े बड़े जलसे होंगे, दावत होगी, कोठी सजाई जायगी।"

"हाँ! हाँ! फिर?"

"उसके लिए कुछ आदमियों की जरूरत है। हम से भी पूछा गया था, हमने मंजूर कर लिया।"

"क्या मिलेगा?"

"खाना और एक रुपया रोज!"

"कितने दिन का काम है?"

"आठ-दस दिन का है। उसके बाद फिर खोंचा लगाने लगूँगा।"

"ठीक है!"

रात में राम को माँ बोली---"भगवान रामू को चिरंजीव रक्खे बड़ी मदद मिली इससे!"

"हाँ लड़का होनहार है।"

"इसका ब्याह कर देना चाहिए।"

"सो तो करना ही पड़ेगा।"

"हमारा बुढ़ापे का सहारा तो यही है।"

"और क्या, और हमारा कौन बैठा है।"

दूसरे दिन से रामू कोठी में काम करने लगा। कागज की झण्डियाँ तथा फूलों से कोठी खूब सजाई गई। बिजली की रोशनी के लिए कोठी पर असंख्य बत्तियाँ लगाई गईं।

जयन्ती का दिन आ पहुँचा कोठी के द्वार पर शहनाई बजने लगी। सबेरे बाबू साहब की पत्नी ने बाबू साहब से पूछा---"औरतों को खिलाने का प्रवन्ध किसके सिपुर्द रहेगा?"

"औरतों को खिलाने का प्रबन्ध तुम करोगी! यह काम तुम्हारा है, मेरा नहीं।" संध्या समय बिजली की रोशनी से कोठी जगमगा उठी। ब्रजनंदन, दर साहब, महेन्द्रसिंह तथा बाबू साहब के अन्य लोग प्रबन्ध में व्यस्त थे। बड़े धूम से दावत हुई जिसमें नगर के बड़े-छोटे हाकिम-हुक्काम सम्मिलित हुए। रंडियों के चार डेरे और एक मण्डली भाँड़ों की थी।

एक कमरा प्राइवेट रक्खा गया जिसमें पीने का सामान था। इस प्रकार बड़ी धूमधाम तथा हर्षोल्लास हो रहा था।

नशे में ब्रजनन्दन खूब उछलता फिर रहा था। थोड़ी थोड़ी देर बाद प्राइवेट रूम में जाकर एक-दो पेग जमा आता।

रामू भी बड़े उत्साह से दौड़ा दौड़ा फिर रहा था। उसे पहनने के लिये नये कपड़े मिले थे।

सहसा ब्रजनन्दन ने कोठी पर लगी हुई बत्तियों की और देख कर कहा---"यह बीच की चार पांच बत्तियाँ कैसे बुझ गई?"

एक व्यक्ति देख कर बोला --"जान पड़ता है फ्यूज हो गई।"

"पंक्ति टूटी हुई बुरी मालूम होती है। बिजली-मिस्त्री कहाँ है, उससे कही बत्तियाँ बदल दे। अभी फौरन बदले।"

कुछ क्षण पश्चात् वह व्यक्ति आकर बोला---"मिस्त्री तो अभी अभी चला गया है---आध घंटे के लिए।"

"वह क्यों गया, उसको यहीं हाजिर रहना था।"

पास ही रामू खड़ा था, वह बोला--"पूछ गया है। कहता था जरा हो आऊँ फिर रात भर यहीं रहूँगा।"

"बत्ती तो हमारे पास है, कोई लगाने वाला चाहिए।" ब्रजनन्दन बोला।

रामू बोल उठा---"लाइये, मैं लगा दूंँगा।"

"तू जानता है?"

"हां! उसमें बात ही कौन सी है।"

"तो लगा तो दे बेटा झट-पट, शाबास! लेकिन ऊंँचा बहुत है।"

"बिजली वाले की सीढ़ी तो रक्खी है।" "तो बस बन गया काम। सीढ़ी लगवानो मैं बतियाँ लाता हूँ।"

ब्रजनन्दन बतियाँ ले आया, इधर आदमियों ने सीढ़ी लगा दी।

रामू बतियाँ लेकर सीढ़ी पर चढ़ने लगा।

"सीढ़ी थामे रहना, ऐसा न हो फिसल जाय।" रामू ने कहा।

सीढ़ी लगाने वाले बोले--"हाँ, हम साधे हैं---बेखौफ चढ़ जाओ।"

रामू ऊपर पहुँच गया। कंधे के बल दीवार से टिक कर वह बत्तियाँ बदलने लगा। परन्तु ज्यों ही उसने होल्डर पकड़ा त्यों ही एक जोर का झटका लगा--रामू उस झटके से पीछे की ओर झुका--उसने सधने की चेष्टा की परन्तु सध न सका। और सिर के बल नीचे पक्के फर्श पर आ गिरा।

बाबू साहब जलसा देख रहे थे। भांड़ों की नकल हो रही थी खूब कह कहे लग रहे थे। उसी समय एक आदमी घबराया हुआ आकर बोला---"एक आदमी मर गया सरकार!"

बाबू साहब नशे में झूमते हुए बोले--"तो उठवा कर फेंकवा दो साले को।"

"आप पर से न्योछावर हो गया अब आप बहुत दिन जीवित रहेंगे।" एक महाशय बोले।

"दारोगा जी आप जरा चले चलिए!"

"क्यों मजे में खलल डालते हो। पड़ा रहने दो, अभी उठाकर पंचायत नामा कर लेंगे। कैसे मर गया?"

"बत्तियां बदलने चढ़ा था, सीढ़ी से पर गिर पड़ा। उसके बाप को खबर दी है वह आता ही होगा।"

"आने दो साले को! क्या कर सकता है। किसी ने मार थोड़े ही डाला है।"

श्यामसिंह ने आकर पुत्र की लाश देखी बेहोश होकर लाश पर गिर पड़ा।

इधर तो श्यामसिंह के लिए संसार अन्धकारपूर्ण हो गया। उसकी सारी आशाओं पर वज्रपात हो गया। वृद्धापे के लिए उसने जो हवाई किले बना रक्खे थे वे सब शून्य में विलीन हो गये और निराशा का भयानक समुद्र सन्मुख लहराने लगा और उधर---अट्टहास, हर्षोल्लास, नवीन उत्साह, उज्ज्वल भविष्य।

राम मर गया, अपने माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा, उनकी जन्म भर की थाती।

इधर श्यामसिंह और उनकी पत्नी का अत्यन्त करुणापूर्ण रुदन, जिसे सुनकर पत्थर भी द्रवित हुआ था, हो रहा था---और उधर जलसे में कोकिल कंठ का गान---तबले की थाप के साथ हंसी-मजाक का अट्ट हास चल रहा था।

और लोग इसी को संसार कहते हैं।