रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ ९१ से – ९९ तक

 


प्रमेला

( १ )

प्रगतिशील साहित्य-संघ के उत्साही मन्त्री बोले---"इस बार होली में कुछ नवीनता होनी चाहिए। युग बीत गये, वही पुराना ढर्रा चला आ रहा है।"

"जी हाँ होली का त्यौहार किंचित मात्र भी प्रगतिशील नहीं है!" एक सदस्य बोला।

"त्योहार कोई भी प्रगतिशील नहीं है। होली में वही पुरानी बातें ---होली जलाओ, रङ्ग चलानो---बस!" दूसरे ने कहा।

"ठीक! अब यह देखना है कि होली में आगे बढ़ना कैसे सम्भव हो सकता है।"

"एक तरीका तो यह हो सकता कि होली का त्यौहार आगे बढ़कर मनाया जाय!"

"क्या मतलब?"

"मतलब यह है कि हम लोग फाल्गुल शुक्ल पूर्णमासी को होली न मनावें, आगे बढ़कर मनावें---अर्थात् चैत की पूर्णमासी अथवा अमावस्या को मनावें।"

परन्तु इसमें तो प्रगतिशीलता न रहेगी, वरन् पुरानी होली की तिथियों के बाद पड़ने से पिछड़ जायेगी।" "पिछड़ कैसे जायगी, आगे बढ़ जायगी।"

"लेकिन लोग तो यही कहेंगे कि पुरानी होली के बाद प्रगतिशील होली मनाई गई, इसलिए प्रगतिशील होली पिछड़ गई।"

"हाँ यह ठीक है। तब क्या पुरानी होली के पहले मनाई जाय?"

"हाँ प्रगतिशीलता के माने तो यही हैं कि पुरानी होली से पहले ही मना ली जाय।"

"इस बार पाँच छः दिन पहले हो जायगी। अगले साल पन्द्रह दिन पूर्व रख ली जायगी।"

"यह ठीक है। तो नोटिस निकाल देना चाहिए।"

"ठहरिये, यह भी तो सोच लीजिए कि होली मनाई कैसे जाय। मनाने में भी तो प्रगतिशीलता होनी चाहिए। अभी तो आपने केवल मनाने के समय में प्रगतिशीलता लाने की बात सोची है।"

"हां जनाब यह बात भी विचारणीय है।"

"तो जल्दी विचारो।"

"देखिये---हूँ, आगे बढ़ना--रंग चलाने में आगे बढ़ना--वह किस प्रकार होगा--हूँ, रंग के आगे क्या है।"

"रंग के आगे अभी कुछ नहीं है।"

"मान लीजिए कि हम रंग से आगे बढ़ना चाहें तो रंग के स्थान में काहे का व्यवहार करेंगे।"

"रंग के स्थान में---वह देखो---भगवान तुम्हारा भला करे।-ऊँह कुछ समझ में नहीं आता।"

"चलाई कितनी चीजें जा सकती हैं।"

"रेल चलाई जाती है, बाइसिकिल....."?

"अरे भाई, रंग के समान कोई चीज बताओ---रेल वेल से क्या मतलब। रंग चलता है, रंग चलाया जाता है---इसी प्रकार और क्या चलाया जाता है?"

एक साहब बोल उठे---"यदि कवि सम्मेलन रक्खा जाय तो कैसा?"

यह सुनते ही एक महाशय उठकर बाहर भागे। लोगों ने उनसे पूछा---"कहाँ चले?"

उन्होंने हाथ के इशारे से कहा--"अभी आता हूँ।"

पाँच मिनट पश्चात् वह लौटकर आये और लम्बे-लम्बे लेटकर बोले---'थोड़ा पानी मंँगाना।"

"क्यों, क्या हुआ।"

"बड़े जोर की कै हो गई।"

"क्यों?"

"यार क्या बताऊँ। कवि सम्मेलन का नाम सुनते ही एकदम से मतली उठी। इसीलिए तो बाहर भागा था।"

"तब तो यार तुम पूरे प्रगतिशील हो ऐसी प्रगतिकिसी ने नहीं की कि कवि सम्मेलन का नाम सुनकर....!"

"फिर तुमने उसी कमबख्त का नाम लिया। मैं यहाँ से चला जाऊंगा। उसका नाम सुनते ही पेट मुँह को आने लगता है।"

"अच्छा जाने दो। हाँ तो हम लोग क्या सोच रहे थे?"

"यही कि रंग के स्थान में क्या चलाया जाय।"

"रंग के स्थान में रंगरेज चलाया जाय।”

"रंँगरेज कैसे चलाया जायगा?"

"रंँगरेज तो स्वयं चलता है। उसे चलाने की क्या आवश्यकता है।"

"हाँ यार, क्या उल्लूपन है, जो चीज स्वयं चलती है, उसे चलाने की क्या आवश्यकता है।"

"अच्छा तो अब सब कार्यक्रम निश्चित हो गया। आज नोटिस निकाल देना चाहिए कि परसों प्रगतिशील होली मनायी जायगी।"

रात में प्रगतिशील संघ के सदस्य एक स्थान पर जमा हुए। वहां एक मनुष्याकार पुतला पहिले से ही मौजूद था। इस पुतले की छाती पर लिखा हुअा था 'दकियानूस।' जब सब लोग एकत्र होगये तो संघ के मन्त्री बोले---"सज्जनों, आज हम लोग प्रगतिशील होली मनाने के लिए यहाँ एकत्र हुए हैं। इस समय का कार्यक्रम केवल इतना है कि हम होली के बदले दकियानूस को जलावें। दकियानूस प्रगतिशीलता का विरोधी हैं। इस कारण उसे ही जलाना चाहिए। कल सबेरे से रंगरेज चलेगा।"

"रंगरेज चलेगा?" एक ने प्रश्न किया।

"हाँ, रंग चलाना पुराना ढंग है। इस कारण प्रगतिशीलता की दृष्टि से रंगरेज चलाया जायगा।"

"रंगरेज कैसे चलाया जायगा।"

"वह आप सबको कल मालूम हो जायगा।"

"अच्छा, मेला भी तो कीजियेगा।"

"अरे हाँ, मेले के सम्बन्ध में तो कुछ सोचा ही नहीं गया।"

"सोच लीजिए।"

"पुरानी चाल के मेले में सब लोग परस्पर मिलते हैं। प्रकाशिता में क्या होना चाहिए---अर्थात् सब लोग मिलकर आपस में लात- जूता करें।"

"यह बात गलत है। लड़ाई-भिड़ाई से अपन कोसों दूर रहते हैं।"

"साल भर का त्योहार है, एक दिन लड़ लेना बुरा नहीं।"

"तो जवानी लड़ाई रखिए। हम तैयार हैं। हाथ-पैरों की लड़ाई के लिए हम तैयार नहीं हो सकते।"

"अच्छा, जवानी जमा खर्च सही। इस प्रकार त्योहार भी मन जायगा और किसी को चोट-चपेट भी नहीं आयेगी।"

यह राह सबको पसन्द आ गई।

यह निश्चित हो जाने के पश्चात दकियानूस का पुतला जलाया गया। सब लोग बड़े प्रसन्न थे कि दकियानूस जल रहा है। सब चिल्ला उठे---"दकियानूसी मुर्दाबाद। प्रगतिशीलता जिन्दाबाद!"

पुतला जल जाने के पश्चात् मन्त्री जी ने पुनः व्याख्यान दिया--- "सज्जनों आपने देखा, यह प्रगतिशील होली जलाई गई। कल संध्या--समय इसी स्थान पर प्रगतिशील मेला होगा।"

"मेला नाम न रखिये, कुछ और सोचिए।" एक ने कहा।

"क्यों, क्या इसलिए कि मेला पुराना नाम है । "इसलिए भी और इसलिए भी कि मेला का अर्थ होता है जिसमें सब लोगों का मेला हो---लोग मिलें।"

"लोग एकत्र तो होंगे ही। इसलिए मेला कहने में क्या हर्ज है?"

"तो थोड़ा अन्तर कर दीजिए। अर्थात् प्रमेला कर दीजिए।" सर्वसम्मति से यह नाम निश्चित हो गया।

मन्त्री जी बोले---'सज्जनों, कल यहाँ प्रमेला होगा। आप सब लोगों की उपस्थिति आवश्यक है।

इसके पश्चात् होली की सभा समाप्त हुई।

( २ )

दूसरे दिन सबेरे आठ बजे के लगभग प्रगतिशील संघ के एक सदस्य के यहाँ किसी ने आबाज दी।

सदस्य महोदय ने पूछा---"कौन है?"

'मैं हूँ रंगरेज।'

सदस्य महोदय ऊपर से पाकर बोले----"क्या रंग डालने आये हो?"

"जी नहीं, प्रगतिशील संघ की आज्ञा के अनुसार मैं आपके कुछ कपड़े रंँगने आया हूँ। जो कपड़े रंगवाने हों, जल्दी से निकाल दीजिए।"

यह सुनते ही सदस्य महोदय अपनी पत्नी से बोले---"तुम्हें कपड़े रंँगवाने हैं?"

"रँगवाई क्या लेगा?' पत्नी ने पूछा।

"मुफ्त। प्रगतिशील संघ की ओर से आया है।"

यह सुनते ही पत्नी ने आधा दर्शन इकलाइयाँ निकालकर दीं और कहा---'इन्हें रँगवा दो। एक हरी, एक नीली, एक गुलाबी, एक फालसई और एक बसन्ती।"

सदस्य महोदय ने इकलाइयांँ लाकर रंँगरेज के सामने धर दीं और रंग बता दिए। रंँगरेज बोला---"देखिए मुझे सबके यहां जाना है। रंग भी महँगा है। इस कारण केवल दो कपड़े रंगने का हुक्म मिला है।"

पत्नी बोली---"अच्छा, दो ही रंगवा लो।"

सदस्य ने दो इकलाइयाँ लाकर दीं। रंगरेज बोला---"एक मर्दाना कपड़ा और एक जनाना दोनों एक तरह के नहीं रँगे जावेंगे।"

"और जो मर्दाना कपड़ा न रंँगना चाहे?"

"तो केवल एक जनाना रंँगवा लें।"

सदस्य महोदय ने पुनः पत्नी से परामर्श किया। बोले--"कोई फालतू कपड़ा पड़ा हो तो दे दो। उसे गेरुपा रंँगालें।"

"गेरुआ, यह क्यों?" पत्नी ने भ्रकुटी चढ़ाकर पूछा।

"तो मैं और क्या रँगऊँ गेरुआ कपड़ा रंगा घरा रहेगा। कभी सन्यास वन्यास लेना पड़ा तो काम दे जायगा।"

यह सुनते ही पत्नी आग हो गई। बोली---"हमें नहीं रँगाना है। वाह, अच्छा असुगुन मनाने आया।"

"अच्छा, जाने दो। तुम अपनी एक साड़ी रंगवा लो।"

"हम कुछ नहीं रँगावेंगे। इससे कह दो, सीधी तरह चला जाय। नहीं तो चेलों से खबर लूंगी।"

रंगरेज ने भी यह बात सुनी। वह तुरन्त ही वहाँ से नौ-दो ग्यारह हुमा।

( ३ )

एक दूसरे सदस्य के यहांँ पहुंँचकर उनसे भी दो कपड़े रंगाने लिए कहा। सदस्य के बृद्ध पिता ने जो सुना कि रंगरेज हाजिर है और मुफ्त कपड़े रंगने को तैयार है तो पुत्र से बोले---"बेटा, हमारा साफा रंगा लो।"

पुत्र ने साफा लाकर रंगरेज को दिया। रंगरेज ने देखा---पूरे बारह गज का साफा है।

रंगरेज बोला----"इसमें तो बहुत देर लगेगी। रंग भी बहुत खर्च होगा। कोई छोटा कपड़ा लाइए।" यह सुनकर सदस्य का बृद्ध पिता बिगड़ उठा। बोला--"अबे ओ गधे, मर्दों का भी कहीं छोटा कपड़ा होता है! छोटा कपड़ा औरतों का होता है। चला बड़ा रंगरेज को दुम बनकर। बात कहने का भी सलीका नहीं है।"

रंगरेज बोला----"साहब, आप तो खामखाह बिगड़ते हैं। मर्दों का छोटा कपड़ा है लंगोटी। कोई लंँगोटी दे दीजिए तो रंग दूं।"

"अबे जायगा यहाँ से या कुछ लेगा। लंगोटी रंँगेगा। रंगी लंगोटी कौन देखेगा। तेरी...!"

यह सुनकर रंगरेज वहाँ से भी भागा और सीधा मन्त्री के पास पहुँचा मन्त्री जी ने पूछा---"क्या सबके यहाँ हो आये!

"अरे साहब, आपने भी अच्छा काम बताया। पहली जगह औरत बिगड़ उठी। मैं वहाँ से भाग न पाऊँ तो चैला लेकर जुट पड़े। दूसरी जगह एक बुड्ढा बिगड़ उठा। उसने भी मारने की धमकी दी और गाली दी सो घाते में। मुझसे यह काम न होगा। किसी दूसरे को बुला लीजिए।"

यह कहकर रंगरेज चल दिया। मन्त्री जी अपना सा मुंह लेकर खड़े रहे गये।

सन्ध्या समय जब प्रमेले के स्थान पर सब लोग जमा हुए तो एक सदस्य बिगड़ कर बोले---"वह आपका रंगरेज नहीं चला। हम तो प्रतीक्षा ही करते रहे।"

मन्त्री जी बोले---"रंगरेज चला था और दो जगह गया भी था, परन्तु वहाँ वह पिटते पिटते बचा। इस कारण फिर वह कहीं नहीं गया।"

"किसके यहाँ पिटते-पिटते बचा?"

मन्त्री जी ने दोनों सदस्यों के नाम बताए। नाम सुनते ही अन्य सदस्यगण उन दोनों सदस्यों से बोले---"क्यों जी, आपको क्या अधिकार था कि सङ्घ के भेजे हुए आदमी को पीटने के लिये तैयार हो गये।"

"भाई साहब, मैं क्यों तैयार हो गया मेरी पत्नी ने वैसे ही कह दिया था।"

"और मेरे पिता से उस कमबख्त रंगरेज ने एक ऐसी बात कह दी कि उन्हें बुरी लगी।"

"क्या बात कही, बताइये।"

सदस्य ने बता दी। इस पर कुछ सदस्य ने रंगरेज का पक्ष लिया, कुछ ने सदस्य के पिता का व्यवहार ठीक बताया। इस मसले को लेकर काफी वाद-विवाद हुआ।---यहाँ तक के गाली गलौज की नौबत पहुँच गई। दोनों दलों में खूब कहा सुनी हुई। जब मन्त्री जी ने देखा कि मामला बढ़ रहा है और मारपीट हो जाने की सम्भावना है तब वह चिल्ला कर बोले---'सज्जनो, रंग की जगह रंगरेज चलाने का कार्य कुछ ठीक नहीं रहा। अतः अगले साल कोई दूसरी युक्ति सोची जायगी।"

"अरे साहब, आप इनको कुछ नहीं कहते जिन्होंने सब काम बिगाड़ दिए। मुफ्त में हमारी पत्नी की धोती रग जाती।"

मन्त्री जी बोले--"खैर अब जो हो गया सो हो गया। यदि आपका ऐसा ही खयाल है तो सङ्घ फिर रंगरेज को भेज कर धोतियाँ रंगवा देगा अच्छा अब प्रमेले का कार्यक्रम होना चाहिए।"

"प्रमेले का कार्यक्रम तो स्वतः ही हो गया।" एक सदस्य ने कहा।

"हाँ, यह तो आपका कहना ठीक है। मारपीट तक की नौबत आ गई। इस कारण यह समझ लिया जाय कि प्रमेला भी हो गया।"

"बेशक, और खूब हुआ। साल भर का त्योहार आनन्दपूर्वक समाप्त हुआ। इसके लिए मन्त्री जी को बधाई देना चाहिए।"

मन्त्री जी बोले---"साथ ही जितने प्रगतिशील सङ्घ अन्य-अन्य नगरों में हैं, उन सबको सूचना दे दी जाय कि हम लोगों ने प्रगतिशील होली बहुत ही सुन्दर ढङ्ग से मनाई है।"

"बेशक यह अवश्य होना चाहिए।"

इसके पश्चात् 'प्रगतिशील जिन्दाबाद, 'दकियानूसी मुरदाबाद!' के नारों के साथ प्रमेला समाप्त हुआ।