योगिराज श्रीकृष्ण
लाला लाजपत राय, संपादक भवानीलाल भारतीय, अनुवादक हरिद्वार सिंह बेदिल

नई दिल्ली: आर्य प्रकाशन मंडल, पृष्ठ सम्पादकीय से – क्रम तक

 


सम्पादकीय


पाँच हजार वर्ष पूर्व आज की ही तरह विश्व के क्षितिज पर भादों की अँधेरी तमिस्रा अपनी निगूढ़ कालिमा के साथ छा गई थी। तब भी भारत में जन था, धन था, शक्ति थी, साहस था, पर एक अकर्मण्यता भी थी जिससे सब कुछ अभिभूत, मोहाच्छन्न तथा तमतावृत्त हो रहा था। महापुरुष तो इस वसुंधरा पर अनेक हुए है किन्तु लोक, नीति और अध्यात्म को समन्वय के सूत्र में गूँथ कर राजनीति, समाज नीति तथा दर्शन के क्षेत्र में क्रान्ति का शंखनाद करने वाले योगेश्वर कृष्ण ही थे।

परवर्ती काल में कृष्ण के उदात्त तथा महनीय आर्योचित चरित्र को समझने में चाहे लोगो ने अनेक भूलें ही क्यों न की हों, उनके समकालीन तथा अत्यन्त आत्मीय जनों ने उस महाप्राण व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन किया था। सम्राट् युधिष्ठिर उनका सम्मान करते थे तथा उनके परामर्श को सर्वोपरि महत्त्व देते थे। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा कृपाचार्य जैसे प्रतिपक्ष के लोग भी उन्हें भरपूर आदर देते थे। महाभारत के प्रणेता भगवान् कृष्ण द्वैपायन व्यास ने तो उन्हें धर्म का पर्याय बताते हुए घोषणा की थी-

यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जय।


जहाँ कृष्ण हैं वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है वहाँ जय तो निश्चित ही है।

भगवद्गीता के वक्ता महामति संजय ने जो भविष्यवाणी की थी, उसे समसामयिक लोगो की सहमति प्राप्त थी, क्योंकि उसने सत्य ही कहा था--

यत्र योगेश्वरो कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥18/78

आर्य जीवनकला का सर्वागीण विकास हमें कृष्ण के पावन चरित्र में दिखाई देता है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। सर्वत्र उनकी अद्भुत मेधा तथा सर्वग्रासिनी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। वे एक ओर महान् राजनीतिज्ञ, क्रान्तिविधाता, धर्म पर आधारित नवीन साम्राज्य के स्रष्टा राष्ट्रपुरुष के रूप में दिखाई पड़ते है तो दूसरी ओर धर्म, अध्यात्म, दर्शन और नीति के सूक्ष्म चिन्तक, विवेचक तथा प्रचारक भी है। उनके समय में भारत देश सुदूर गांधार से लेकर दक्षिण की सह्याद्रि पर्वतमाला तक क्षत्रियों के छोटे-छोटे, स्वतंत्र किन्तु निरकुश राज्यों में विभक्त हो चुका था। उन्हें एकता के सूत्र में पिरोकर समग्र भरतखण्ड को एक सुदृढ़ राजनीतिक इकाई के रूप में पिरोने वाला कोई नहीं था एक चक्रवर्ती सम्राट् के न होने से विभिन्न माण्डलिक राजा नितान्त स्वेच्छाचारी तथा प्रजापीड़क हो गये थे। मथुरा का कंस, मगध का जरासंध, चेदिदेश का शिशुपाल तथा हस्तिनापुर के दुर्योधन प्रमुख कौरव सभी दुष्ट, विलासी, ऐश्वर्य-मदिरा में प्रमत्त तथा दुराचारी थे। कृष्ण ने अपनी नीतिमत्ता, कूटनीतिक चातुर्य तथा अपूर्व सूझबूझ से इन सभी अनाचारियों का मूलोच्छेद किया तथा धर्मराज कहलाने वाले अजातशत्रु युधिष्ठिर को आर्यावर्त के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर आर्यों के अखण्ड, चक्रवर्ती, सार्वभौम साम्राज्य को साकार किया।

जिस प्रकार वे नवीन साम्राज्य-निर्माता तथा स्वराज्यस्रष्टा युगपुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित हुए उसी प्रकार अध्यात्म तथा तत्त्व-चिन्तन के क्षेत्र में भी उनकी प्रवृत्तियाँ चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी थी। सुख-दुःख को समान समझने वाले, लाभ और हानि, जय और पराजय जैसे द्वन्द्वों को एक-सा मानने वाले, अनुद्विग्न, वीतराग तथा जल में रहने वाले कमल पत्र के समान सर्वथा निर्लेप, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति को यदि हम साकार रूप में देखना चाहें तो वह कृष्ण से भिन्न अन्य कौन-सा होगा? प्रवृत्ति और निवृत्ति, श्रेय और प्रेय, ज्ञान और कर्म, ऐहिक और आमुष्मिक (परलोक विषयक) जैसी आपाततः विरोधी दीखने वाली प्रवृत्तियों में अपूर्व सामंजस्य स्थापित कर उन्हे स्वजीवन में चरितार्थ करना कृष्ण जैसे महामानव के लिए ही सम्भव था। उन्होंने धर्म के दोनो लक्ष्यों--अभ्युदय और निःश्रेयस की उपलब्धि की। अतः यह निरपवाद रूप से कहा जा सकता है कि कृष्ण का जीवन आर्य आदर्शों की चरम परिणति है।

समकालीन सामाजिक दुरवस्था, विषमता तथा नष्टप्राय मूल्यों के प्रति भी वे पूर्ण जागरूक थे। उन्होंने पतनोन्मुख समाज को ऊर्ध्वगामी बनाया। स्त्रियों, शूद्रों, बनवासी जनों तथा पीड़ित एव शोषित वर्ग के प्रति उनके हृदय में अशेष संवेदना तथा सहानुभूति थी। गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि आर्य-कुल ललनाओ को समुचित सम्मान देकर उन्होंने नारी वर्ग की प्रतिष्ठा बढाई। निश्चय ही महाभारत युग में सामाजिक पतन के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे। गुण, कर्म तथा स्वभाव पर आश्रित मानी जाने वाली आर्यों की वर्णाश्रम व्यवस्था जन्मना जाति पर आधारित हो चुकी थी। ब्राह्मण वर्ग अपनी स्वभावगत शुचिता, लोकोपकार भावना, त्याग, सहिष्णुता, सम्मान के प्रति निर्लेपता जैसे सद्गुणों को भुलाकर अनेक प्रकार के दूषित भावो को ग्रहण कर चुका था। आचार्य द्रोण जैसे शस्त्र और शास्त्र दोनों में निष्णात ब्राह्मण स्वाभिमान को तिलांजलि दे बैठे थे तथा सब प्रकार के अपमान को सहन करके भी कुरुवंशी राजकुमारो को शिक्षा देकर उदरपूर्ति कर रहे थे। कहाँ तो गुरुकुलों का वह युग, जिसमें महामहिम सम्राटो के राजकुमार भी शिक्षा ग्रहण करने के लिए आचार्य कुल में जाकर दीर्घकाल तक निवास करते थे और कहाँ महाभारत का यह युग जिसमें कुरुवृद्ध भीष्म के आग्रह (उसे आदेश ही कहना चाहिए) से द्रोणाचार्य ने राजमहल को ही गुरुकुल (अथवा विश्वविद्यालय) का रूप दिया और उसमें शिष्य-शिष्य में भेद उत्पन्न करने वाली जो शिक्षा दी, उसका निकृष्ट फल दुर्योधन के रूप मे प्रकट हुआ। सामाजिक समता के ह्रास के इस युग में क्षत्रिय कुमारों में अपने अभिजात कुलोत्पन्न होने का मिथ्या गर्व पनपा तो उधर तथाकथित हीन कुल में जन्मे कर्ण (वस्तुत: कर्ण तो कुन्ती का कानीन पुत्र था किन्तु उसका पालन अधिरथ नामक एक सारथी (सूत) ने किया था) को अपने पौरुष को प्रख्यापित करने के लिए कहना पड़ा--

सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।

दैवायत्तं कुले जन्मः मदायत्तं तु पौरुषम्॥

मै चाहे सूत हूँ या सूत पुत्र, अथवा अन्य कोई। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो देव के अधीन है, मेरे पास तो मेरा पौरुष और पराक्रम ही है, जिसे मैं अपना कह सकता हूँ।

क्षत्रिय कुमारो के मिथ्या गर्व को संतुष्ट करने के लिए ही एकलव्य जैसे शस्त्र विद्या के जिज्ञासु बनवासी बालक को आचार्य द्रोण ने अपना शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया। उस युग मे धर्माधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, नीति-अनीति का अन्तर प्राय: लुप्त हो चुका था। समाज में अर्थ की प्रधानता थी और जीविका के लिए किसी भी अधर्म को करने के लिए लोग तैयार रहते थे। यह जानते हुए भी कि कौरवों का पक्ष अधर्म, अन्याय और असत्य पर आश्रित है, भीष्म जैसे प्रज्ञापुरुष ने यह कहने में संकोच नहीं किया-

अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।

इति मत्वा महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः॥

हे महाराज, पुरुष तो अर्थ का दास होता है, अर्थ किसी का दास नहीं होता। यही जानकर मै कौरवों के साथ बँधा हूँ।

इन्हीं विषम तथा पीड़ाजनक सामाजिक परिस्थितियों को वासुदेव कृष्ण ने देखा। फलत शोषित, पीड़ित तथा दलित वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति ने सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। ताप-शाप-प्रपीड़ित त्रस्त जनों के प्रति उनकी संवेदना नाना रूपो में प्रकट हुई। तभी तो राजसभा में तिरस्कृत और अपमानित कृष्णा (द्रौपदी) को उन्होंने सखी बनाया तथा दुर्योधन के राजसी आतिथ्य को ठुकराकर दासी पुत्र समझे जाने वाले विदुर के घर का भोजन स्वीकार किया। लोकनीति के ज्ञाता होने के कारण अपने इस आचरण का औचित्य प्रतिपादित करते हुए उन्होने कहा-

सम्प्रीति भोज्यान्ययन्नानि आपद् भोज्यानि वा पुनः।

न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम्॥

उद्योग पर्व 91/25

हे राजन्, भोजन करने मे दो हेतु होते हैं। जिससे प्रीति हो उसके यहाँ भोजन करना उचित है अथवा जो विपत्तिग्रस्त होता है वह दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करता है। आपका और मेरा तो प्रेम भाव भी नहीं है और न मै आपदा का मारा हूँ जो आपका अन्न ग्रहण करूँ।

कृष्ण के इस उदात्त स्वरूप एवं चरित्र को शताब्दियों से भारतीय जनता ने विस्मृत कर रखा था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय जिस महापुरुष की विनम्रता और शालीनता को हमने विद्वंत् वर्ग के चरण-प्रक्षालन जैसे विनयपूर्ण कृत्य में देखा उसे ही यज्ञारम्भ ने सर्वप्रथम अध्य प्रदान कर सम्पूजित होते हुए भी हम देखते हैं अपने युग के सर्वाधिक वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध तथा अनुभववृद्ध भीष्म ने जिसकी चरित्र-प्रशस्ति का गान करते हुए कहा-

वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिक तथा।

नृणां लोके हि कोन्यो ऽस्ति विशिष्टः केशवाट्टते॥

दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्यं हीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमां।

सन्नति श्रोर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियत्ताच्युते॥

ऋत्विग्-गुरुस्तथाऽऽचार्यः स्नातको नृपतिःप्रियः।

सर्वमेतदृहृषी केशस्तस्मादभ्यर्चितोऽच्युत॥

सभापर्व 38/19.20.22


वेद और वेदांगो का उन्हें सम्पूर्ण रीति से ज्ञान है, बल में भी वे किसी से कम नहीं हैं। इस मनुष्यलोक में कृष्ण से भिन्न दूसरा कौन विशिष्ट गुणों का आगार होगा। दान-दाक्षिण्य (शिष्टता), शास्त्रज्ञान, वीरता, लज्जाशीलता, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनम्रता, श्री, धृति (धैर्य); तुष्टि आदि सभी गुण तो अच्युत कृष्ण में हैं। एक साथ ही वे ऋत्विक् (यज्ञकर्ता), गुरु, आचार्य, स्नातक, राजा सदृश हमारे प्रिय हैं। इसीलिए हृषीकेश भगवान् कृष्ण हमारे द्वारा सम्मान के पात्र हैं।

कृष्ण के इस महनीय, निष्पाप तथा निष्कलुष चरित्र की ओर पुन: मानव जाति का ध्यान आकृष्ट करने का श्रेय उन्नीसवीं सदी के महान् धर्माचार्य तथा भारतीय नवजागरण के ज्योतिपुरुष स्वामी दयानन्द को है। उन्होंने स्वरचित ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में कृष्णचरित की श्लाघा करते हुए लिखा--"देखो, श्रीकृष्ण का इतिहास महाभारत मे अत्युत्तम है। उनका गुण-कर्म-स्वभाव आप्त पुरुषों के सदृश है जिसमे कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण ने जन्म से मरण पर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।" स्वामी दयानन्द के ही समकालीन बँगला के साहित्य- सम्राट बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने 1886 में महाभारत आधार बनाकर कृष्णचरित्र शीर्षक एक विवेचनामूलक जीवनचरित लिखा जिसमें भारतोक्त कृष्ण के इतिवृत्त को ही प्रामाणिक तथा विश्वसनीय मानकर पुराणो में वर्णित कृष्ण-प्रसंग को असंगत, बुद्धि तथा युक्ति विरुद्ध फलत. अमान्य ठहराया। कृष्णचरित के समग्र अनुशीलन के पश्चात् बंकिम जिस निष्कर्ष पर पहुँचे है उसे उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किया जाना उचित है--"कृष्ण सर्वगुणसम्पन्न हैं। इनकी सब वृत्तियों का सर्वांग सुन्दर विकास हुआ है। ये सिंहासनासीन होकर भी उदासीन हैं, धनुर्धारी होकर भी धर्मवेत्ता हैं, राजा होकर भी पण्डित है, शक्तिमान् होकर भी प्रेममय हैं। यह वही आदर्श है जिससे युधिष्ठिर ने धर्म सीखा और स्वयं अर्जुन जिसका शिष्य हुआ। जिसके चरित्र के समान महामहिमामण्डित चरित्र मनुष्य-भाषा में कभी वर्णित नहीं हुआ।" (कृष्ण चरित्र, उपक्रमणिका)

महान् देशभक्त तथा भारत के स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायक लाला लाजपतराय ने विगत शताब्दी के अन्त में कृष्णचरित का विश्लेषण करते हुए एक उपयोगी ग्रन्थ उर्दू मे 'योगिराज महात्मा श्रीकृष्ण का जीवनचरित्र' शीर्षक लिखा था। लालाजी का साहित्य मुख्य रूप से उर्दू तथा अंग्रेजी में ही लिखा गया था, परन्तु उनकी उर्दू अरबी तथा फारसी के क्लिष्ट एवं अप्रचलित शब्दों से लदी नहीं होती थी। उन्होने अपनी इस पुस्तक की भूमिका में उर्दू के उस स्वरूप का समर्थन किया है जो फारसी-अरबी के कठिन शब्दों से बोझिल न हो। ऐसी कठिन उर्दू को उन्होंने मुसलमानी उर्दू की संज्ञा दी थी, जिसका लिखना यद्यपि लालाजी जैसे व्यक्ति के लिए कठिन नहीं था, किन्तु उन्होंने उस गंगा-जमनी (मिली-जुली) उर्दू में ही साहित्य लिखा जो जनसाधारण के लिए बोधगम्य थी। ध्यातव्य है कि पंजाब के आर्यसमाजी लेखकों ने उर्दू की एक ऐसी शैली विकसित कर दी थी जिसमें संस्कृत के तद्भव शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होता है, जिससे उसका हिन्दुई चरित्र उजागर होने लगा था।

प्रस्तुत पुस्तक को लिखने से पहले लालाजी ने कृष्ण विषयक सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्यक् अनुशीलन किया था। महाभारत तो कृष्णचरित का प्रमुख उपादान है ही, इसके अतिरिक्त भागवत, हरिवंश, विष्णुपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण आदि में जहाँ-जहाँ कृष्ण की प्रमुखता से या प्रसगोपात्त स्वल्प चर्चा आई है, लालाजी ने इन सभी ग्रन्थों के प्रासंगिक स्थलो की समुचित पर्यालोचना की थी। उधर अंग्रेजी के कुछ ग्रन्थों से भी उन्होंने सहायता ली जिनका उल्लेख वे ग्रन्थ की प्रस्तावना में करते हैं। मथुरा क्षेत्र की भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक जानकारी के लिए उन्होंने एफ०एस० ग्राउस की 'मथुरा मेमोयर' नामक पुस्तक से सहायता ली। ग्राउस एक हिन्दी-प्रेमी आई०सी०एस० अधिकारी थे जो मथुरा तथा बुलन्दशहर के जिलाधीश रह चुके थे। उन्होंने दो बंगाली लेखकों की अंग्रेजी पुस्तकों से भी सहायता ली है, जिसकी चर्चा वे अपनी प्रस्तावना में करते हैं। सम्भवत: वे बंकिम-रचित कृष्णचरित्र को नहीं देख सके थे। प्रथम तो लालाजी बँगला नहीं जानते थे और तब तक उसका हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ था। तथापि अपने विस्तृत अध्ययन, मौलिक विवेचना कौशल और सर्वोपरि कृष्ण जैसे युगपुरुष के प्रति असामान्य श्रद्धा भाव से ही लालाजी जैसा उत्कृष्ट लेखक इस श्रेष्ठ कृति की रचना कर सका। निश्चय ही कृष्ण के प्रति उनकी यह आस्था, कृष्ण के महामानव होने में उनका प्रगाढ विश्वास तथा पुराण वर्णित कृष्णचरित के प्रति उनकी अनास्था एवं अरुचि का प्रमुख कारण उनके अन्तर्मन में उभरे वे ही विचार थे जो स्वामी दयानन्द की बौद्धिक विरासत ने उन्हें दिये थे। अतः प्रकारान्तर से यही मानना होगा कि कृष्णचरित के अध्ययन और आलोचन में जो सूत्र स्वामी दयानन्द ने दिया था, उसका विस्तार करना ही लालाजी की इस कृति का लक्ष्य रहा है। कालान्तर में आर्यसमाज से जुड़े अन्य लेखकों ने भी कृष्णचरित की विवेचना और मीमांसा उसी शैली में की है जिसे लालाजी ने आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया था। गुरुकुल कांगड़ी के भूतपूर्व आचार्य पं० चमूपति का योगेश्वर कृष्ण 2006 वि० में प्रकाशित हुआ तथा इन पंक्तियो के लेखक की कृति श्रीकृष्णचरित प्रथम बार 1958 में प्रकाशित हुई।

लालाजी ने इस कृति को आज से 95 वर्ष पूर्व 6 नवम्बर, 1900 को पूरा किया था। इस पुस्तक का कालान्तर में हिन्दी अनुवाद गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में अंग्रेजी के अध्यापक मास्टर हरिद्वारीसिह 'बंदिल' ने किया था। मास्टर जी का विस्तृत परिचय तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु जो जानकारी मिलती है उससे पता चलता है कि वे उर्दू में काव्य रचना भी करते थे जो उनके 'बेदिल' उपनाम से प्रकट होता है। उन्होंने प्रसिद्ध रूसी लेखक निकोलस नोटोविच की उस पुस्तक का भी हिन्दी में अनुवाद किया था जिसमें ईसा मसीह की कथित भारत-यात्रा का विवरण दिया गया है। यह पुस्तक 'भारत शिष्य ईसा' नाम से 1914 में प्रकाशित हुई थी। लाला लाजपतराय-रचित कृष्णावरित का यह अनुवाद द्वितीय बार पं० शंकरदन शर्मा द्वारा वैदिक पुस्तकालय मुरादाबाद से 1924 में प्रकाशित हुआ था।

प्रस्तुत संस्करण : लाला लाजपतराय की अमर कृति को एक बार पुनः हिन्दी पाठको के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। आज से लगभग 80 वर्ष पूर्व जब यह अनुवाद हुआ था तो अनुवाद की भाषा में परिष्कार का अभाव था। हमारा प्रयास रहा है कि अनुवाद की भाषा को आद्यन्त परिष्कृत परिमार्जित तथा परिशोधित किया जाये। ऐसा करने से अनुवाद में प्राञ्जलता, प्रासादिकता तथा सहजता आ गई है। किताबघर दिल्ली के संचालक श्री सत्यव्रत शर्मा ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लाला लाजपतराय द्वारा रचित महापुरुषो के कतिपय जीवनचरितों को संशोधित तथा सुसंस्कृत रूप में पुनः हिन्दी पाठकों के समक्ष लाने का पुरुषार्थ किया है, एतदर्थ वे हम सबके साधुवाद के पात्र हैं। आशा है भारतीय धर्म, सस्कृति तथा जीवनदर्शन के महान् प्रेरणास्रोत योगिराज कृष्ण के इस जीवनचरित को पढ़कर हम सबमें कर्तव्यबोध जागृत होगा।


रचनाकार, नन्दन वन, जोधपुर‌‌‌-भवानीलाल भारतीय
कार्तिक अमावस्या (दीपोत्सव)
2054 वि. श्रीयुत परमपूज्य महात्मा हंसराजजी भूतपूर्व प्रिंसिपल डी०ए० वी० कॉलेज के कर-कमलों में श्रीयुत लाला लाजपतरायजी लिखित कृष्णचरित (उर्दू भाषा) का हिन्दी अनुवाद सादर समर्पित करता हूँ। जिस भाँति आप सदा से राष्ट्रभाषा हिन्दी के परम हितैषी रहे हैं, उसी भाँति इस भेंट को भी सानुग्रह स्वीकृत कीजिएगा।


आपका कृपापात्र

हरद्वारीसिंह


प्रस्तावना


परमात्मा का कोट्यानुकोटि धन्यवाद है कि मैने आज अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया, अर्थात् अपने प्रण के पूर्ण करने में इस योग्य हुआ कि इस पुस्तक को अपनी जाति की सेवा में उपस्थित करने में समर्थ हो सका।

पाठक गण ! सन् 1896 ई० में मैने शिवाजी के जीवनचरित्र की भूमिका में कृष्ण महाराज के जीवनचरित्र लिखने का प्रण किया था, उसके पश्चात् सन् 1896 व 97 ई० के भयंकर अकाल ने इस देश को आ घेरा और अनाथरक्षा के काम से मुझे इतना अवकाश भी प्राप्त न हुआ कि मैं इस पुस्तक की तैयारी के लिए पुस्तको का अवलोकन करता। सन् 1897 ई० के सितम्बर में बीमारी ने मुझे आ घेरा और अप्रैल सन् 1898 ई० तक पलंग ही मेरे नसीब में रहा। अपनी बीमारी के अतिरिक्त कई प्रकार के कष्ट और भी आ पडे़, जिससे बहुत काल तक पुस्तकावलोकन का अवसर न मिला तो भी सितम्बर सन् 1898 ई० मे मैंने 'महर्षि स्वामी दयानन्द और उनकी शिक्षा' लिखकर आपकी भेंट की। उसके पश्चात् मैं इस पुस्तक की तैयारी में लगा रहा, सुतराँ आज मै ढाई वर्ष के परिश्रम का फल आपके चरणों में उपस्थित करता हूँ, परन्तु यह नहीं कह सकता कि यह भेंट आपके योग्य है या उस महान् पुरुष की हैसियत और पद के योग्य है जिसका नाम इस पुस्तक के मुखपृष्ट पर लिखा है, तो भी यह कह सकता हूँ कि यदि मेरी इस पुस्तक से आपके चित्त में श्रीकृष्ण की जीवनी के संबंध में खोज की इच्छा उत्पन्न होवे और आप स्वयं स्वतंत्र छान-बीन से कृष्ण महाराज की जीवनी की घटनाओं की खोज करे तो मैं समझूँगा कि मेरा परिश्रम सफल हुआ और यदि इस पुस्तक से किसी आर्य समुदाय को यह निश्चय हो जाए कि जो लांछन श्रीकृष्ण की जीवनी पर लगाये जाते है वह निर्मूल, असत्य और झूठे है तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा।

मैने भूमिका में उन पुस्तको के नाम लिख दिये हैं जिनसे मैंने इस पुस्तक के लिए घटना संबंधी बातों को चुना है। परन्तु उन पुस्तकों के अतिरिक्त मैंने दो बङ्गाली महाशयों द्वारा लिखित पुस्तकों से भी कुछ लाभ उठाया है और इसलिए मेरा कर्तव्य है कि उन्हें धन्यवाद दूँ ! मैने इस पुस्तक के लिखने के लिए (1) बाबू बलराम मलिक की पुस्तक कृष्ण और कृष्णाइज्म (2) बाबू धीरेन्द्रनाथ पाल की 'लाइफ ऑफ श्रीकृष्ण' को पढ़ा और (3) मिस्टर ग्राउज[] साहब की 'मथुरा मेमायर' (Memoir) को भी कहीं-कहीं से देखा है। मेरी पुस्तक का प्रथम अध्याय (अर्थात् कृष्ण महाराज की जन्मभूमि) तो पुस्तक सं० 3 पर अधिकतर निर्भर है। पुस्तक स० 2 से मैंने अधिक सहायता ली है, परन्तु न तो मैंने उसकी प्रणाली का अनुकरण ही किया और न उससे चुनी हुई घटनाओं पर भरोसा ही किया है। साधारणत: मैंने सब घटनाओं को विष्णु पुराण, महाभारत और श्रीमद्भागवत से पड़ताल करके लिखा है। यदि किसी जगह केवल किसी दूसरे लेखक के विश्वास पर कोई घटना का उल्लेख किया है तो फुटनोट में उन महाशय का नाम लिख दिया है। भगवद्गीता के श्लोको के भाष्य के लिए मैंने साधारणतः मिसेज एनी बेसेन्ट के भाष्य से लाभ उठाया है, परन्तु हर एक श्लोक के भाष्य को मैंने असल पुस्तक से मिलान कर लिया है और जहाँ भाष्य मे न्यूनाधिक परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत हुई वहाँ पर किया है।

इसके अतिरिक्त शायद इस बात की भी आवश्यकता है कि मैं कुछ शब्द अपनी भाषा व लेख के संबंध में कहूँ। मैंने कई बार यह शिकायत सुनी है कि आर्यसामाजिक उर्दू साधारणत और मेरी उर्दू विशेषत: खिचड़ी होती है। एक मुसलमान मित्र ने तो यह कहा कि हमने उर्दू को संयुक्त बना दिया है, परन्तु असल बात यह है कि आर्यसमाज की स्थिति से पहले उर्दू भाषा में हिन्दू धर्म की पुस्तके बहुत थोड़ी थी क्योंकि संस्कृत व हिन्दी जानने वाले हिन्दुओ ने कभी अपनी धार्मिक पुस्तकों को उर्दू में लिखने का उद्योग नहीं किया। यदि किया भी तो केवल उर्दू (फारसी) अक्षरों का प्रयोग किया। आर्यसमाज ने इस आवश्यकता को अनुभव किया कि पंजाब व संयुक्त प्रांत[] की शिक्षितमंडली के लिए अपनी धर्म पुस्तको को उर्दू भाषा मे तैयार करके उर्दू अक्षरों में प्रकाशित किया जाए। मुसलमानों ने उर्दू भाषा में फारसी व अरबी के शब्दो का प्रयोग किया था, क्योंकि साधारणत: उर्दू के लेखक फारसी व अरबी से भिज्ञ थे और उन लोगों को मुसलमानों के धार्मिक विचारों को प्रकट करने के लिए फारसी व अरबी के शब्दों के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती थी, लेकिन जब अँगरेजी सरकार ने पंजाब और संयुक्त प्रांत मे उर्दू अक्षरों को सरकारी अदालतों में प्रचलित किया और शिक्षा का प्रचार भी इन्हीं अक्षरो में प्रचलित हुआ तो इन अक्षरों के जानने वाले हिन्दुओं की आवश्यकता को पूरा करने के लिए यह आवश्यक हुआ कि उन अक्षरों में ऐसी पुस्तकें तैयार की जाएँ, जिनमें हिन्दू धर्म की शिक्षा हो। यें पुस्तकें ऐसे लोगों को बनानी पड़ीं जिन्होंने सरकारी स्कूलों में साधारण उर्दू, फारसी की शिक्षा पाई थी। जब उन्होंने अपने धर्म की छानबीन में या धार्मिक शिक्षा में संस्कृत और हिन्दी की पुस्तकों का अवलोकन किया और उन विषयों पर भाषण या व्याख्यान सुना तो उनकी जुबान पर बहुत-से हिन्दी व संस्कृत के शब्द चढ़ गये, जिसका परिणाम यह हुआ कि वह अपने भाषणो में उन्ही शब्दों का प्रयोग करने लगे। यहाँ तक कि लेख इत्यादि में भी उनके प्रयोग से न रुक सके और उनकी उर्दू एक विशेष प्रकार की उर्दू बन गई जिसमें यदि फारसी व अरबी के शब्द पाये जाते है तो साथ ही हिन्दी व संस्कृत के शब्द भी मिलते है। इसके अतिरिक्त मैं नही समझ सकता कि किसी मनुष्य को इस उर्दू पर क्या आक्षेप हो सकता है? उर्दू वास्तव में भारतवासियों की भाषा का नाम है, बल्कि किसी-किसी अवसर पर उर्दू और हिन्दुस्तानी शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। मुसलमानी राज्य में मुसलमानी साहित्य का जोर था और इसलिए पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों की भाषा में फारसी और अरबी के शब्दों की अधिकता थी। जब कभी उनको गूढ़ विषयों के प्रकट करने के लिए विशेष शब्दों की आवश्यकता पड़ती थी तो वे मुसलमानी साहित्य से सहायता लेते थे। जब अँगरेजी राज्य हुआ तो उस हिन्दुस्तानी भाषा में अँगरेजी के शब्द आने आरम्भ हुए और इसी तरह हिन्दुओं की भाषा में संस्कृत व हिन्दी के शब्दों का प्रचलन बढ़ने लगा। कोई कारण नहीं मालूम होता कि क्यों हिन्दू लोग अपने धार्मिक विचारों को प्रकट करने के लिए अब मुसलमानी साहित्य की भाषा का प्रयोग करें और हिन्दी व संस्कृत के शब्दों के स्थान में फारसी व अरबी के शब्द तलाश करें। भाषा वह है जो बोली जाए। बस, जब समय के हेर-फेर से हिन्दुओं की बोलचाल में अँगरेजी, हिन्दी व संस्कृत के शब्दों का चलन हो गया तो कोई कारण मालूम नहीं होता, कि वे लेख भी उसी भाषा में न लिखे जाएँ जिसको वे बोलते हैं। भेद इतना ही है कि अँगरेजी सरकार फारसी के अक्षरों को हिन्दुस्तानी भाषा में लिखने के लिए प्रयोग करती है और सरकारी स्कूलों में इस हिन्दुस्तानी भाषा की शिक्षा फारसी अक्षरों में दी जाती है। इस कारण लाचारी से उन्हें फारसी अक्षरों का प्रयोग करना पड़ता है। हम प्रामाणिक उर्दू जानने वाले विद्वानो के लेखों में हिन्दी के शब्दों का प्रयोग बता सकते है। तथ्य तो यह है कि हिन्दुओं के विचारों को प्रकट करते हुए हिन्दी शब्दो का प्रयोग आवश्यक है (देखो मौलाना मौलवी अल्ताफ हुसेन हाली की मनाजाते वेवा) बल्कि कुछ विद्वान् तो असल उर्दू उसको कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी शब्द बहुत कम हो या बिलकुल न हों। उर्दू में से फारसी व अरबी के शब्द निकाल दिये जाएँ तो शुद्ध हिन्दी रह जाती है। भेद इतना है कि जो शब्द हिन्दी में साधारणत: प्रयोग में नहीं आते वे मुसलमान महाशयों को बुरे मालूम होते हैं और वे उनको उर्दू नहीं कहते, परन्तु जो शब्द साधारण तौर पर प्रयोग में आते है उनको वह उर्दू समझते है। अतः जो हिन्दू अपने स्वजातीय भाइयो के लिए ऐसी पुस्तकें लिखते है जिनमें उनके धार्मिक या जातीय विचार या अवस्थाओं का उल्लेख है उनमें हिन्दी व संस्कृत के शब्दों का प्रयोग अनुचित नहीं है। कैसे सम्भव है कि कोई हिन्दू हिन्दुओं के लिए पुस्तक लिखता हुआ कृष्ण, अर्जुन व युधिष्ठिर के व्याख्यानों का अनुवाद उर्दू भाषा में करे और क्लिष्ट धार्मिक विचारो के प्रकट करने के लिए फारसी व अरबी के कठिन शब्द तलाश करे। हिन्दू स्त्रियों के व्याख्यानों का अनुवाद करता हुआ फारसी व अरबी के शब्दों का प्रयोग तो बहुत ही बुरा मालूम होता है। ऊपर लिखी बातों से हमारे विचार में हमारी भाषा पर जो आक्षेप किया जाता है वह हमको उपयुक्त नहीं लगता। यदि उद्योग करें तो हम मुसलमानी उर्दू में भी अपने विचारों को प्रकट कर सकते हैं, परन्तु हमें ऐसा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और न इसमे कुछ लाभ ही प्रतीत होता है। वरंच इसके विपरीत यदि हम ऐसा करें तो बहुत-से हिन्दू भाई हमारे लेखों से पूरा लाभ भी न उठा सकेंगे। इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि पुस्तकें लिखना और उनसे द्रव्य कमाना या केवल भाषा का लालित्य दिखाना न तो हमारा पेशा है और न हमारा उद्देश्य है। हम तो अवकाश के समय अपने विचारो को इस अभिप्राय से प्रस्तुत करते हैं कि जिन लोगों तक हम अपने विचारों को व्याख्यानो द्वारा नहीं पहुँचा सकते उन तक अपने विचारों को लेख द्वारा पहुँचाएँ। यदि हम उस समय को जो बहुत कम होता है, उर्दू भाषा के लालित्य तथा उसमें अपनी योग्यता व विद्वत्ता दिखाने में खर्च करें, तो शायद हमसे कुछ भी न बन सकेगा।

तथ्य तो यह है कि भारतवर्ष की तमाम देशी भाषाओं में इस समय परिवर्तन हो रहा है। इनमें नये-नये विचारों को प्रकट किये जाने के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के आश्रय की आवश्यकता है। किसी तरह भी यह नहीं हो सकता कि लोग उर्दू, फारसी की पवित्रता को स्थिर रखने के लिए उस सुगम प्रणाली को हाथ से छोड़ दें और स्वदेशी साहित्य की उन्नति को रोक दे।

इस पुस्तक को जब लिखना आरम्भ किया तो प्रथम यह विचार सामने आया था कि मुहावरे की उर्दू लिखी जाए, परन्तु फिर हमने देखा कि प्रथम तो मुहावरे की उर्दू जानने का दावा हम नहीं कर सकते और दूसरे हमें हिन्दी शब्दों को छोड़ने के लिए बहुत उद्योग करना पड़ेगा, जिसमे हमारा बहुत समय लगेगा। इसलिए हमने इस उद्योग को छोड़ दिया और जो शब्द हमारी लेखनी में आये उन्हें ही लेखबद्ध किया।

अन्त में हम कुछ शब्द अपनी पुस्तक के मूल्य के संबंध में प्रकट कर देना चाहते है, क्योंकि हमारे बहुत-से मित्रों को यह शिकायत रहती है कि हम अपनी साधारण पुस्तकों को बहुत महँगी करके बेचते है। प्रथम तो हम अपने मित्रों को यह बताना चाहते है कि हमारी सब पुस्तको का मूल्य अन्य भाषा अर्थात् बंगाली, अँगरेजी या उर्दू में छपी पुस्तकों से कम है। दूसरे यह कि हमारी अच्छी से अच्छी पुस्तक में अभी तक हमको हानि रही है। पूरी लागत भी अभी वसूल नहीं हो पाई। यद्यपि हमारा विश्वास है कि हमारी पुस्तक को हजारों मनुष्यों ने पढ़ा है तथापि अब तक एक भी संस्करण का समाप्त न होना भी इनके प्रति सर्वसाधारण की कदर को जाहिर करता है। अत: ऐसी अवस्था में यह आशा रखना उचित नहीं है कि समय और मस्तिष्क के परिश्रम के अतिरिक्त हम पुस्तकों के छपाने के लिए अपने पास से धन भी खर्च करे। इस विषय में पंजाब की हिन्दू जनता को बंगाल की जनता या मुसलमान महाशयो से कुछ शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में मैं यह तुच्छ भेट अपनी जाति की सेवा में समर्पित करता हूँ।


लाहौर-लाजपतराय
6-11-1900


भूमिका


संसार में कौन-सी ऐसी जाति है जिसने वीरों की देवता के तुल्य वंदना नहीं की और जिन्हें सृष्टि में एक साधारण जीवधारी विचार कर भी सृष्टिकर्ता का उच्चासन नहीं प्रदान किया। मनुष्य में यह बात स्वाभाविक है कि वह अपने से श्रेष्ठ शक्ति वा कुशलता की ओर झुकता है और जब वह किसी पुरुष-विशेष को अपने से बढ़कर योग्य देखता है और उसकी योग्यता या कुशलता के यथोचित विवेचन करने में अपने को असमर्थ देखता है तथा अपने अंत:करण को उसकी महान् शक्ति से आकर्षित पाता है, तो वह स्वत: उस पुरुष-विशेष को ऐसा आदिपुरुष मानने लगता है, जो अपने गुण और लक्षण में एक है, और जिसका न कोई उत्पन्न करने वाला है और न संहार ही कर सकता है। अन्तर केवल इतना ही है कि शिक्षित और धार्मिक जातियाँ (यद्यपि इनका सत्कार, पूजन के दरजे से कम नहीं होता) इन पुरुषों में और उनके उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर में भेद की सीमा को मिटाने नहीं देती, परन्तु जो जातियाँ अनपढ़ होने के कारण अज्ञानरूपी अंधकार मे फँसी हैं, उन्हें इसका ज्ञान या भेदाभेद का विचार दृष्टिगोचर रखना किसी प्रकार संभव नहीं-यों तो मुख से सब कुछ कह दें और उच्च स्वर से मानव-पूजन की निन्दा करे, परन्तु यथार्थ में कोई भी इस दोष से बचा हुआ प्रतीत नहीं होता। इस सृष्टि की सारी जातियाँ एक न एक प्रकार से मानव-पूजक हैं। संसार की कोई विद्या या शिक्षण-पद्धति ऐसी नहीं जो इस विषय की शिक्षा न देतो हो। इसकी पुष्टि में उन जातियों के सम्मुख बहुत-से दृष्टान्त उपस्थित किये जाते है, जिन्हें इस बात का गर्व है कि हम तो एक परमेश्वर के उपासक है। अँगरेजी भाषा का प्रसिद्ध लेखक मि० कालडिल जिसने लालित्ययुक्त शब्दजटित हार पिरोकर उनमें अपने पवित्र विचारों के अमूल्य नग जड़े है, जिसने शब्द रूपी मोतियों को इस प्रकार लालित्य रूपी संबंध में संगठित किया है कि यह पृथ्वी की तह में से खोदे हुए हीरे और लालों से अधिक मूल्यवान् और प्रकाशमान प्रकट होते हैं, अपने उस सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'हीरो वर्शिप' में लिखता है कि "संसार के महापुरुष वास्तव में उस महान् अग्नि की एक चिंगारी के सदृश है जिसके प्रकाश से यह संसार प्रकाशमान है, और जिसके ताप में खनिज, उद्भिज तथा मनुष्य, पशु आदि समस्त संसार स्थित है। जिसकी दाह मानों दया की वर्षा है और जिसकी ठंडक मानों हृदय में उमंग, उत्तेजना और आकर्षण उत्पन्न करने वाली है।"

2. वैदिक महापुरुष


उन्नीसवीं शताब्दी के इस अँगरेजी विद्वान् ने जो भाव इस पुस्तक में प्रकट किये हैं, वे लाखो वर्ष पूर्व आर्यावर्त में आर्य ऋषियों द्वारा उनकी पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके है-संस्कृत भाषा के प्राचीन ग्रन्थों में 'अग्नि' शब्द का प्रयोग (जिसका प्रयोग वैदिक ग्रन्थों में अद्वैत परमात्मा के लिए हुआ है) विद्वान् ऋषि, मुनि, आप्त पुरुषों और महात्माओं के लिए हुआ है। यह भाव ऐसा सर्वव्यापक है मानों प्रत्येक भाषा और प्रत्येक देशवासी इसी रंग में रँगा है। संस्कृत भाषा में देव या देवता परमात्मा के लिए आता है। परन्तु महान् पुरुषों के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है। अँगरेजी में गॉड के अर्थ परमेश्वर के है; परन्तु उसी 'गॉड' शब्द का बहुवचन 'गॉड्स' देवताओं के लिए आता है। मुसलमान मतावलम्बी हजरत मुहम्मद को नूरे इलाही कहते है। उधर ईसाई हजरत मसीह को 'खुदा का बेटा' मानते हैं। बौद्धमत वाले महात्मा बुद्ध को 'लार्ड' कहके पुकारते हैं। इसी प्रकार आर्यगण श्रीराम और श्रीकृष्ण को अवतार कहते है। हिन्दुओं में आप्त पुरुष, ऋषि, मुनि और विद्वानों के आदर और पूजन की परिपाटी वैदिक समय से चली आती है। वेदमंत्रों में स्थान-स्थान पर आज्ञा दी गई है कि तुम धर्मात्मा, और आप्त पुरुषों का सत्कार करो और उनकी पूजा को अपना परम धर्म समझो। आर्य लोगों के नित्य कर्म में भी विद्वानों और आप्त पुरुषों के पूजन को एक मुख्य कर्तव्य कहा है और हर एक यज्ञ और उत्सव पर इसका करना आवश्यक समझा है। ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद् और दूसरे आर्य ग्रंथों में इस विषय को पूरी-पूरी विवेचना की गई है। पर किसी वैदिक ग्रंथ में किसी महात्मा या आप्त पुरुष को परमात्मा का पद नहीं दिया है।

3. अवतारों की यथार्थता


आर्यावर्त में सबसे पहले बौद्ध धर्म वालों की शिक्षा से लोगों को परमात्मा के अस्तित्व में महान् शंका उत्पन्न हुई और इस पवित्र भूमि के रहने वाले परमात्मा की उपासना के उच्चासन से गिरकर मानव-पूजन के अंधकार रूपी पाश में आ फँसे। उपासना की यह परिपाटी जनसाधारण में ऐसी प्रचलित हुई कि वैदिक धर्मोपदेशकों ने भी बौद्ध धर्मानुयायी बनना अपने लिए हितावह विचारा। ब्राह्मणो ने महात्मा बुद्ध के स्थान में श्रीरामचंद्र और श्रीकृष्ण को देवता बनाकर अवतारो की पदवी दी। धीरे-धीरे इस भाव ने यहाँ तक जोर पकड़ा कि कुछ काल पश्चात् पौराणिक भाषा के समस्त ग्रंथो में इसी की चर्चा दिखाई देने लगी और चारों ओर अवतार ही अवतार प्रकट होने लगे। कवियों ने जो महान् पुरुषों के जीवन लिखने में अपने उच्च विचारों को प्रकट किया था और खगोल विद्या पढ़कर तथा सब प्राकृतिक दृश्यों को देखकर काव्यबद्ध करने मे जो समय व्यतीत किया था, उन कविजनों के परिश्रम और संस्कृत विद्या को पौराणिक समय के धार्मिक ग्रंथ रचयिताओं ने समयानुकूल परिवर्तित कर दिया।

बस फिर क्या था, विद्या तथा धर्म के तत्त्ववेत्ताओं ने इस परिपाटी की ऐसी चाल चला दी कि लोक-परलोक के प्रायः सभी सिद्धान्त चाहे अच्छे हों या बुरे, परमेश्वरकृत कार्यो में सम्मिलित कर लिए गये और जनसाधारण को कारण और कर्ता में भेदाभेद का विचार न रहा। महान् पुरुषों के जीवनचरित इस साँचे में ढाले गये, कि दूसरी जाति वाले उनको मिथ्या,

बनावटी और अपवित्र समझने लगे।

4. श्रीकृष्ण


कवियों के आत्यन्तिक प्रेम की उमंग से उत्पन्न मानसिक भावों की चंचलता और विश्वास की निर्बलता ने जो अपमान और अन्याय श्रीकृष्ण महाराज के साथ किया है उसका दूसरा दृष्टान्त किसी भाषा में नहीं दिखाई देता-यद्यपि श्री तुलसीदासजी ने अपनी भक्ति की तरंग मे श्रीरामचंद्रजी पर भी वैसे ही आक्षेप किये है, परन्तु उन्होने उनको उस दर्जे तक नहीं पहुँचाया है जहाँ तक पौराणिक साहित्य वालों ने श्रीकृष्ण को पहुँचा दिया है। इसका कारण यह जान पड़ता है कि श्रीरामचंद्र को श्रीकृष्ण के समान उपदेशक की उपाधि नहीं दी गई। श्रीराम को उनकी विमाता कैकेयी ने अपनी ईर्ष्या और द्वेष से वर बना दिया। इसलिए कवियों ने भी पितृभक्ति और भ्रातृस्नेह का मुकुट उनके माथे पर रख दिया। परन्तु यह मुकुट उसके मस्तक पर अधिक शोभायमान होता है जो प्रत्येक प्रकार से धार्मिक जीवन का आदर्श हो। अर्थात् शेष वस्त्र भी ऐसे उपयुक्त होने चाहिए जिससे मुकुट का सौंदर्य भली प्रकार से प्रकाशित हो। श्रीराम का धार्मिक जीवन यद्यपि एक आदर्श स्वरूप है, किन्तु इनके और श्रीकृष्ण के धार्मिक जीवन में बहुत अन्तर है। श्रीकृष्ण जैसे सच्चे प्रेम, रसिकता और वीरता में आदर्श माने जाते है वैसे ही सच्चे धर्मोपदेशक भी। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जब वैदिक धर्म का बेड़ा मिध्या वैराग्य और दर्शन के भँवर में घूमता हुआ एक ओर बहा जा रहा था। धर्म अपने यथोचित स्थान से गिरा दीख पड़ता था, कभी मिथ्या वैराग्य और कभी शुष्क भ्रांतिमय दर्शन का पलड़ा भारी हो जाता था। इनको ऐसे समय में धर्मोपदेश करना पड़ा था, अतएव इनका जीवन धर्मोपदेशक का एक उच्च आदर्श था और इसलिए हम देखते है कि भारतवर्ष में कदाचित् एक भी पुरुष ऐसा नहीं, जिस पर श्रीकृष्ण की शिक्षा या उपदेश का कुछ असर न पड़ा हो-सभी श्रीकृष्ण के नाम की दुहाई देते हैं और उनके वचन को प्रमाण मानते हैं। हमारा यह कथन अत्युक्ति नहीं है कि भारत का धार्मिक आकाश इस समय भी श्रीकृष्ण के धर्मोपदेशो से प्रकाशमय दीख रहा है।

5. बीस वर्ष पहले श्रीकृष्ण के बारे में लोग क्या विचारते थे?


अभी बीस वर्ष नहीं बीते जब हम सरकारी पाठशालाओं में शिक्षा पाते थे, उस समय श्रीकृष्ण उन तमाम अपवित्र बातों का कर्ता माने जाते थे जो कृष्णलीला या रासलीला में दिखाई जाती है। उस समय श्रीकृष्ण हमारी दृष्टि में तमाशबीन, विषयी, और धूर्त दीख पड़ते थे और हम विचारते थे कि भारतवासी मात्र की सामाजिक निर्बलता इन्हीं की अश्लील शिक्षा का फल है। आर्य धर्म के विपक्षियों ने श्रीकृष्ण के विषय में ऐसी-ऐसी गप्पें उड़ा रखी थीं जिससे हमारे हृदय में उनके लिए सम्मान के भाव का उदय होना तो दूर रहा हम उनके नाम से दूसरों के सम्मुख अपने को लज्जित अनुभव करते थे और भीतर ही भीतर उस पवित्रात्मा के नाम से घृणा करने लग गये थे। परन्तु जब पाठशाला से छुट्टी मिली, मुल्लाओं के पजे से जान बची, सकीर्ण और अंधकारमय कोठरी से निकलकर प्रकाशमय मैदान में आये तथा वहाँ ज्ञान रूपी वायु का

झोका लगा तो दिमाग में एक विलक्षण परिवर्तन का संचार होने लगा

6. मानसिक भावों में परिवर्तन


इस संकीर्णता से निकलकर बाहर मैदान में आते ही मानसिक शक्तियाँ कुछ ऐसी विस्तृत हुईं कि वे गूढ़ और तात्त्विक विषयों के मनन की ओर झुकने लगी और झट मेरे कान मे भनक पडी-अरे, एक ओर तो श्रीकृष्णचंद्र के नाम के साथ ऐसी अश्लील बाते जोड़ी जाती हैं, उधर उन्ही को उस जगत्प्रसिद्ध ग्रंथ 'गीता' का रचयिता कहा जाता है। यह पुस्तक अपने विषय की गूढ़ता, सच्चे उपदेश, भाषा की सरलता, भक्ति और प्रेम की दृष्टि से संसार के मनुष्यकृत ग्रथो में अद्वितीय है, जिसकी अलौकिक लेखप्रणाली अपना आदर्श आप ही कही जा सकती है। कानों में यह भनक पड़नी थी कि साथ ही किसी ने उत्तर दिया-जो नीति और आध्यात्मिक विद्या का ऐसा उपदेशक हो वह ऐसा तमाशबीन, विषयी और धूर्त नहीं हो सकता जैसा लोग कृष्णलीला में दर्शाते है। हमारे हृदय में अभी इस भाव का अंकुर मात्र ही था और अभी भली भाँति जड़ नहीं पकड़ सका था कि एक दूसरी भनक सुनाई दी और वह यह थी कि श्रीकृष्णचन्द्र पर विषयी होने का जो कलंक लगाते हैं वह केवल कवियों का हस्तक्षेप है। इनको किसी प्रकार वास्तविक घटना नहीं कह सकते। फिर ऐसे प्रमाण पाये जाते है जिससे सिद्ध होता है कि इन लोगों (कवियों) ने अपनी इच्छानुकूल उन्हे अपना लक्ष्य बना लिया है। निदान यह भाव ऐसे परिपक्व होते गये कि कुछ कालोपरान्त उनके हृदय पर श्रीकृष्ण की बुद्धिमत्ता और नीति ने अपना पूर्ण अधिकार जमा लिया।

अब वह समय आ पहुँचा है जब कोई शिक्षित मनुष्य इस बात पर विश्वास नहीं करता कि श्रीकृष्ण के आचरण वास्तव में वैसे ही थे, जैसा कृष्णलीला में दिखलाते हैं। धर्म-विषयक चाहे परस्पर कितना ही विरोध हो, पर शिक्षित मण्डली में अब एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं रहा जो उनके नाम के साथ उन निर्लज्ज बातो को मिश्रित समझता हो, जो अशिक्षित मण्डली अब तक उनके माथे मँढ़ती है। पुरानी फैशन के पौराणिक धर्मनिष्ठा वाले भी इस यत्न में है कि श्रीमद्भागवत में से प्रेम और भक्ति का निचोड़ निकाले और उससे यह सिद्ध करें कि उनकी मोटी बातों की तह मे पवित्र प्रेम और अमृत रूपी भक्ति के अमूल्य रत्न दबे पड़े हैं।

इस प्रकार हरएक पुरुष इस अनुसन्धान में लगा है कि उसकी तह से दुर्लभ और अमूल्य रत्न खोज निकालें और उस महात्मा के जीवन की घटनाओ को इधर-उधर से एकत्र करके जीवनचरित के रूप में प्रकाशित करे। यह बात प्रमाणित है कि पूर्व काल में जीवनचरित लिखने की परिपाटी न थी इसी से श्रीकृष्ण का कोई जीवनवृत्तान्त हमारे साहित्य में मौजूद नहीं है। इसलिए उनके जीवन की कहानी क्रमानुसार लिखना मानो उन कवियों के हस्तक्षेपों और विश्वासो के संग्रह से उन वास्तविक घटनाओं का सार निकालकर अलग करना है, जिनको हम युक्तिसंगत कह सकें और जिनके क्रमानुसार संग्रह को हम जीवनचरित की पदवी दे सके।

7. पुराणों की प्राचीनता


श्रीकृष्ण के नाम से जितनी घटनाएँ जनसाधारण में प्रचलित है उन सबके कारण पुराण हैं और हिन्दू धर्म ने इन्हेें उनके ही प्रमाण के अनुसार सच्चा मान लिया है इसलिए सबसे पहले यह अनुसन्धान करना उचित होगा कि इन पुराणों को कहाँ तक ऐतिहासिक होने का गौरव प्राप्त है या उनके लेख कहाँ तक विश्वास-योग्य है?

(अ) प्राचीन आर्य जाति ऐतिहासिक विद्या से अनभिज्ञ नहीं थी


अपनी सम्मति स्पष्ट रूप से प्रकट करने से पूर्व एक बात कह देना आवश्यक है। हम इस बात के मानने वाले नहीं हैं कि प्राचीन काल में यद्यपि आर्य जाति विद्या, सभ्यता और दर्शन- शास्त्र में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी और सब शिल्प विद्या आदि का वर्णन संस्कृत साहित्य में अब तक पाया जाता है, परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी वह ऐतिहासिक विद्या से पूर्ण अनभिज्ञ थी और उसमे न इतिहास पढ़ने की रुचि थी और न लिखने की परिपाटी।

वास्तविक बात यह है कि संस्कृत साहित्य की वर्तमान दशा को देखकर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन आर्य लोग अमुक-अमुक विद्या और शास्त्र में निपुण थे, पर निर्णयपूर्वक यह नहीं कह सकते कि वे उनके अतिरिक्त अमुक विद्या से निरे अनभिज्ञ थे। प्राचीन आर्य सभ्यता को इतना अधिक समय व्यतीत हो गया है कि उसका यथार्थ अनुमान करना असम्भव नही तो कठिन अवश्य है। फिर इसी अन्तर में यहाँ बहुत से परिवर्तन हुए हैं इसलिए किसी विद्या-विशेष के ग्रंथों के न मिलने से यह परिणाम निकाल लेना कि पुराने आर्य लोग उस विद्या से अनभिज्ञ थे, युक्तिसंगत नहीं। परमेश्वर जाने कितने अमूल्य रत्न पुरानी इमारतों के खंडहरो में दबे पड़े है और कितने तो भूमि में ऐसे समा गये हैं कि अब उनके अवशेषो के रूप में दर्शन होना दुर्लभ है और शायद अभी बहुत से ऐसे भी है जो ब्राह्मणों के बस्तों में पड़े सड रहे है। उन बेचारों को यह भी ज्ञात नहीं कि इन फटे-पुराने जीर्ण ग्रंथों में विद्यमान कैसे उच्चतम भाव नष्ट हो रहे हैं, जिनको जानने के लिए आधुनिक शिक्षित संसार लाखों रुपये खर्च करने के लिए उद्यत है। प्राचीन आर्य सभ्यता के विषय में अनुसंधान आरंभ हो गया है और लोग इन सब रत्नों को खोदकर निकाल रहे हैं। ऐसी अवस्था में निर्णय सहित यह कहना असम्भव प्रतीत होता है कि प्राचीन आर्य जाति अमुक विद्या से अनभिज्ञ थी। इसलिए हम पुन: यही कहते है कि वर्तमान साहित्य को देखकर कभी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि प्राचीन आर्य इतिहास विद्या से अनभिज्ञ थे। हमारे साहित्य में अभी ऐसे प्रमाण मौजूद हैं जिनसे यह परिणाम निकाल सकते हैं कि प्राचीन समय में इतिहास का पढ़ना और लिखना विशेष रूप से गौरव की दृष्टि से देखा जाता था और विद्यारसिको की एक विशेष मण्डली का यही काम था कि राजा और महाराजाओं के दरबार में प्राचीन कथाओ को सुनाया करें।

प्राचीन ग्रंथों, ब्राह्मण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत और पौराणिक समय के साहित्य मे इस विषय के अनेक प्रमाण उपस्थित है। वैदिक साहित्य में भी जहाँ-जहाँ भिन्न-भिन्न विद्याओं और शास्त्रों का वर्णन किया है वहाँ पुराण और इतिहास शब्द भी मिलता है।[] इससे यह परिणाम निकलता है कि उस समय पुराण और इतिहास एक पृथक् लेखन विधा का नाम था जिसे आजकल ऐतिहासिक साहित्य कहते है। प्रमाण के लिए हम यहाँ कुछ वाक्य उद्धृत करते है। छान्दोग्योपनिषद् में, जो दस उपनिषदों के अन्तर्गत है और जिसे श्री स्वामी शंकराचार्य, श्री स्वामी दयानन्द और अन्य विद्वानों ने प्राचीन माना है, एक स्थान पर भिन्न-भिन्न विद्याओ का वर्णन करते हुए इस प्रकार का लेख है--

स होवाच। ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं

सामवेदमाथर्वणचतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमम्।[]

(1) अर्थात् हे भगवन् ! मैं ऋग्, यजुः, साम और अथर्व को जानता हूँ और इसके अतिरिक्त इतिहास और पुराण से भी भिज्ञ हूँ।

(2) एक स्थान पर शतपथ ब्राह्मण (14-6-10-6) में कहा गया है-

ऋग्वेदो यजुर्वेदो सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोका सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यातानि॥

अर्थ-ऋग, यजुः, साम अथर्ववेद, इतिहास-पुराण, उपनिषद्, सूत्र, श्लोक और उनके व्याख्यान आदि।

(3) तैत्तिरीय आरण्यक में दूसरे आरण्यक के नवें श्लोक में लिखा है--

ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नारांशसीः।

अर्थात्--वेद, इतिहास, पुराण, गाथा आदि।

(4) इसी प्रकार मनुस्मृति में तीसरे अध्याय के 232वें श्लोक[] में भी आख्यान, इतिहास और पुराण शब्द कई स्थान पर आये है। रामायण, महाभारत और पुराणों के पढ़ने से विदित होता है कि पुराकाल में इतिहासवेत्ताओं और इतिहासलेखकों के अतिरिक्त एक ऐसी मंडली होती थी जिनका कर्तव्य यही होता था कि वे राजदरबार में प्राचीन घटनाओ और राजा-महाराजाओ तथा वीर योद्धागणों के चरित्र सुनाया करें। महाभारत में स्थान-स्थान पर आया है कि सूत महाराज ने अमुक अमुक वृत्तान्त वर्णन किया।

(5) संस्कृत का प्रसिद्ध कोशप्रणेता अमरसिंह पुराण शब्द की व्याख्या करता हुआ कहता है कि पुराण के पाँच लक्षण हैं। यो कहिये कि पुराणों में पाँच प्रकार के विषय होते हैं।

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।

वंशानुचरितञ्चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्॥

अर्थात्-सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन, सृष्टि-विशेष का वृत्तान्त, प्रसिद्ध घरानों का इतिहास भिन्न-भिन्न समय का वर्णन और महापुरुषों के जीवनचरित।

(6) विष्णुपुराण के तीसरे खण्ड के 6ठे अध्याय के 16वें श्लोक में इतिहास को चार भाग में विभाजित किया है।

आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्प सिद्धिभि पुराण संहिताञ्चके पुराणार्थ विशारदः॥

अथर्ववेद वक्ता व्यास ने एक पुराण संहिता लिखी है, जिसमे चार प्रकार के विषय थे अर्थात् 1. आख्यान, 2. उपाख्यान, 3. गाथा और 4. कल्पसिद्धि।

1. आख्यान उसको कहते हैं जिसे वर्णन करने वाले ने निज नेत्रों से देखा हो।

2. उपाख्यान उन घटनाओं को कहते हैं जिन्हें वर्णन करने वाले ने अन्य मनुष्यों से सुनकर लिपिबद्ध किया हो।

3. गाथा उन गीतों का नाम है जो पूर्व जनों के बारे में गाये जाते हों।

4. कल्पसिद्धि उस परिपाटी का नाम है जो श्राद्ध के समय में की जाती है।

उपर्युक्त प्रमाणों के होते हुए निश्चित रूप से यह कहना कि प्राचीन आर्य लोगो को इतिहास मालूम न था और उनके समय में इतिहास-लेखकों का कुछ मान न था, इस प्रकार का कथन है जिसको स्वीकार करने के लिए हम कदापि उद्यत नहीं। हम ऊपर कह आये है कि समय के परिवर्तन से यदि संस्कृत भाषा में किसी शास्त्र-विशेष का लोप हो गया तो उससे यह परिणाम निकालना कि उस भाषा (संस्कृत) में उस शास्त्र का कभी अस्तित्व ही न था, सर्वथैव मिथ्या है। हमारे पास इस तथ्य के लिए बहुत प्रमाण हैं कि प्राचीन साहित्य की बहुत-सी पुस्तको का कुछ पता नहीं। आर्यो की धर्म पुस्तकें (अर्थात् ब्राह्मण, सूत्र और स्मृतियाँ) भी काल के हस्तक्षेप से रक्षित नहीं रही हैं, ऐसी दशा में पुराणों और इतिहासों का लोप हो जाना और इस समय न मिलना आश्चर्यजनक नहीं। अतएव हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि प्राचीन आर्यों के समय में इतिहास और जीवनचरित विद्यमान थे और उनको इतिहास और गाथा कहते थे। अब यह प्रश्न उठता है कि जो पुस्तकें वर्तमान काल में संस्कृत में पुराणों के नाम से प्रसिद्ध है उन्हें ऐतिहासिक गौरव प्राप्त है या नहीं? यदि नहीं तो इसका कारण क्या है?


(आ) पुराणों का ऐतिहासिक गौरव

हम निःशंक यह कहने को उद्यत है कि वर्तमान पुराणों को ऐतिहासिक गौरव प्राप्त नही हे। स्वयं उन्हीं पुराणों में इस बात का प्रमाण मिलता है कि वह प्राचीन साहित्य के पुराण और इतिहास नहीं है वरंच परवर्ती आर्य जाति के समय में रचे गए हैं और उनमें से बहुत से तो उस समय लिखे गए है जब आर्य जाति अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को खो बैठी थी और अपने धर्म और कर्म को नष्ट कर 'हिन्दू' के कलंकित नाम से पुकारी जाती थी। जब उसको अपने आपको, अपने धर्म को, अपनी मानमर्यादा तथा अपनी स्त्रियों के सतीत्व को संरक्षित रखने के लिए अपने प्राचीन आचार-व्यवहारों को त्याग करना पड़ा जिससे उनका प्राचीन धर्म-कर्म ऐसा दब गया कि उसके चिह्न भी शेष न रहते यदि अंग्रेजी राज्य के आगमन के साथ उस पर प्रकाश की आभा न पड़ती और उसके ऊपर के को उठा देने का उहें (आर्य जाति को) अवसर न मिलता।

प्रत्येक सुशिक्षित आर्य जानता है कि पुराण 18 हैं परन्तु इनके अतिरिक्त बहुत-सी ऐसी पुस्तके पाई जाती हैं जो उपपुराण के नाम से प्रसिद्ध हैं जो ऐसे किस्से-कहानियों से भरी है कि कोई भी मनुष्य उन्हें पढ़कर सत्य या वास्तविक नहीं कह सकता। उनका अधिकांश भाग तो एसी बातों से परिपूर्ण है जो बुद्धि और प्रकृति दोनों के विरुद्ध है और उनका अनुमान होना भी असम्भव है।

कुछ अंग्रेज तथा अनेक आर्य विद्वानों ने सहमत होकर यह व्यवस्था दी है कि वर्तमान पुराण वह पुराण नहीं है जिनका वर्णन उपनिषदों या अन्य प्राचीन ग्रंथों में पाया जाता है। उन अंग्रेज पुराणतत्ववेत्ताओ ने वर्तमान पुराणों का समय निश्चय किया है जिसके मानने से यह परिणाम नहीं निकलता कि वर्तमान काल में से कोई भी विक्रम संवत् बहुत पहले के है। इनमे से बहुत-से पुराणों का समय तो 14वीं या 15वीं शताब्दी ईस्वी तक निश्चित किया गया हे। इसके अतिरिक्त पुराणों में बहुत से ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि प्राचीन पुराण तो लुप्त हो गए और वर्तमान पुराण आधुनिक समय में बनाये गये हैं।

(1) मत्स्यपुराण में ब्रह्मवैवर्तपुराण का वर्णन करते हुए लिखा हैः

1

अर्थ-"वह पुराण जिसको सूतजी ने नारद के सामने वर्णन किया और जिसमें कृष्ण का महत्त्व, रथन्तर कल्प के समाचार और ब्रह्म वराह चरित्र वर्णित है अठारह हजार श्लोकों में है और उसका नाम ब्रह्मवैवर्त पुराण है।"

अब यदि हम उस पुराण को देखें जो आजकल ब्रह्मवैवर्त पुराण के नाम से प्रसिद्ध है तो हमको ज्ञात होगा कि इसमें न ब्रह्म वराह चरित्र है, न रथन्तर कल्प के समाचार हैं और न उसमे इस बात का ही कही पता लगता है कि इस पुराण को सूतजी ने नारद के सामने वर्णन किया था।

2

विष्णु पुराण के तीसरे खंड के छठे अध्याय के 16 से 19 श्लोक तक यों लिखा है

वेदव्यास ने (जो पुराणों की विद्या में पूर्ण थे) एक संहिता बनाई थी जिसमें आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पसिद्धि थी। उन्होंने फिर यह पुराण अपने प्रसिद्ध शिष्य लोमहर्षण को दे दिया। सूत लोमहर्षण के 6 शिष्य हुए-सावर्णि, अग्निवर्त, मित्रायु, वैशम्पायन, अकृत व्रण और हारीत। इनमें से कश्यप, हारीत और वैशम्पायन ने एक-एक पुराण संहिता लिखी परन्तु सबका मूल वही संहिता थी जिसका नाम लोमहर्षण संहिता था और जिसको लोमहर्षण ने रचा था।

(3) अग्नि पुराण में भी यही लिखी है

3

अर्थ-लोमहर्षण सूत रचयिता ने व्यास से पुराण प्राप्त किया और सूतजी उसके शिष्य हुए। लोमहर्षण सूत और दूसरों ने पुराण संहिताओं को रचा।

(4) इसकी पुष्टि भागवत पुराण के दसवें स्कन्ध के तीसरे अध्याय के श्लोकों से होती है।

4

अर्थ-आरुणि, कश्यप, हारीत, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हृतमेय ये 6 पौराणिक थे। उन्होंने मेरे पिता से पुराण सीखे जो स्वयं व्यास के शिष्य थे और मूल पुराण संहिता का अध्ययन करके उन्होंने एक-एक पुराण रचा।

(5) भागवत के 12वें स्कन्ध 7वें अध्याय के 5वें श्लोक पर टीका करते हुए पं० श्रीधर यह लिखते है :

5

अर्थ-प्रथम व्यास ने संहिता लिखी और उसे मेरे पिता लोमहर्षण को सिखाया। उनसे आरुणि और दूसरों ने एक संहिता पढ़ी और उनका शिष्य मै हूँ।

इन प्रमामों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि वर्तमान पुराणों के रचयिता के विचार में वेदव्यास की बनाई हुई पुराण संहिता वास्तव में एक ही थी और फिर उससे 6 सहिताएँ हुईं। वे 6 संहिता कौन-सी थीं और फिर उनका क्या हुआ, इसका कुछ पता नहीं चलता। मि० रमेशचन्द्रदत्त, प्रोफेसर मैक्समूलर तथा अन्य यूरोपीय पुरातत्ववेत्तागण भी इस विषय में सहमत हैं कि प्राचीन पुराणों का कुछ पता नही चलता और वे लुप्त हो गए। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यास जी की बनाई पुराण संहिता (यदि वास्तव में व्यास जी ने कोई इस नाम की पुस्तक रची थी) तो बौद्ध के समय में नष्ट हो गई और पौराणिक समय में दन्तकथाओं अथवा अन्य लेख प्रमाणों के आधार पर वर्तमान पुराणों की रचना हुई। उस समय से आज पर्यन्त इनमें बराबर कुछ-न-कुछ काट-छाँट होती चली आई है और समय-समय पर कुछ पंडित महाशय अपने वाक्चातुर्य या बुद्धि का परिचय देने के लिए टिप्पणी के तौर पर नवीन श्लोक इनमें बढ़ाते रहे है। इन पंडितों के वंश वालो ने अपना कर्तव्य समझा कि पुराणो पर कुछ-न-कुछ अपनी बुद्धि लड़ावें और दासत्व के समय के दुर्बल विचारों के सम्मिलित करके उनको एक अनोखी खिचड़ी बना दिया। यहाँ तक कि वर्तमान पौराणिक साहित्य विविध प्रसंगों का एक ऐसा संग्रह बन गया है जिसमें से वास्तविक तथा कल्पित रचनाओं को पृथक् करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव हो चला है। सम्भव है कि इस संग्रह में सच्ची घटनाएँ और उत्तम विचारों के मोती भी दबे पड़े हो।

परन्तु इस समय भी उनकी अवस्था ऐसी शोचनीय है कि उनमें से यथाक्रम किसी घटना को निकालना दुर्लभ प्रतीत होता है। प्राचीन आर्य सभ्यता का विद्यार्थी जिसने उपनिषदो की अद्वितीय विद्या तथा दर्शनों का अध्ययन करके प्राचीन आर्यो की सभ्यता के उत्कर्ष का विचार किया है, वह जब पौराणिक साहित्य तक पहुँचता है तो यकायक उसके भीतर से ठंडी साँस निकलती है। यदि उसका आर्यों के नाम से कोई संबंध है या उसके देह में उन्हीं प्राचीन आर्यो का रक्त है, जिन्होंने रामायण और महाभारत काल में प्रसिद्धि पाई थी तो स्वत: ही उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह निकलती है और वह चिल्ला उठता है 'हाय ! हम कहाँ थे और कहाँ आ गये। वैदिक ऋषियों की सन्तान ! जिन्होंने दर्शनशास्त्रो की रचना की थी, उनकी ही सन्तान फिर पुराणों और तंत्रों की रचयिता बनी है !!'

कदाचित् आपके मन में यह प्रश्न उपस्थित हो कि श्रीकृष्ण के जीवनचरित का पौराणिक विषय के वादानुवादो से क्या प्रयोजन हैं, तो हमारा उत्तर यह है कि दुर्भाग्यवश श्रीकृष्ण का वह जीवन-वृत्तान्त जो कुछ लोगों को विदित है, अथवा हो सकता है, उस सबका आधार पौराणिक साहित्य ही है। पुराणों ने जातीयता को नष्ट कर मानुषी जीवन को निर्बल बनाने और उसे नीति तथा आध्यात्मिक स्थिति से गिराने में जो काम किया है वह सबसे अधिक उसी महान् पवित्रात्मा से संबंध रखता है, जिनकी संक्षिप्त जीवनी लिखने के हेतु हमने आज लेखनी उठाई है।

श्रीकृष्ण पर पुराणों ने क्या-क्या अत्याचार नही किये है? यहाँ तक कि संसार के एक महापुरुष को अपने क्षुद्र भावो के तीरो से ऐसा बेधित किया कि उसकी सूरत ही बदल गई है। इन्ही पुराणों के कृपाकटाक्ष से अधिकांश आर्य जनों का मन श्रीकृष्ण की ओर से ऐसा फिर गया है और वे उन्हें विषयी और अपवित्र समझने लगे हैं। उसी पौराणिक शिक्षा के कारण बहुत से आर्य शिक्षा पाकर मुसलमान और ईसाइयों के जाल मे जा फँसे। कई बार अच्छे-अच्छे सुशिक्षित पुरुषों के मुख से सुना गया है कि इस धर्मभूमि की समस्त अवनति और आपदाओ के मूल में श्रीकृष्ण ही हैं जिन्होंने अपनी निकृष्ट शिक्षा से महाभारत का युद्ध कराया और देश को अस्तव्यस्त किया। जब हम किसी आर्य सन्तान के मुख से महात्मा कृष्ण के विषय में ऐसे अपमानसूचक शब्द सुनते हैं, हमारा कलेजा मुँह को आ जाता है। परन्तु इन बिचारे नई सभ्यता वालों का क्या अपराध है। पौराणिक गप्पों ने उन्हें इस प्रकार चक्कर में डाल दिया है जिससे उनके लिए अपने जातीय साहित्य से सत्य और असत्य को पृथक् करना असम्भव प्रतीत होता है। हमारे इस कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि पुराणों में सत्य का लेश भी नहीं। हमारा तो मत है कि हमारी जाति का इतिहास कदाचित् कुछ पुराणों में भी मिल सके। परन्तु उपमा आदि अलंकार, यार लोगो की मनघड़न्त और हर पीढ़ी के पंडितों के स्वेच्छाचार का इस साहित्य पर इतना अधिकार है कि उसमें से सच्ची घटनाओं का निकालना यदि असम्भव नहीं तो बहुत ही कठिन है।

यों तो लगभग प्रत्येक पुराण में श्रीकृष्ण के जीवन के कुछ-न-कुछ वृत्त अवश्य मिलते है, परन्तु जिनमें यथाक्रम या सविस्तार वर्णन किया गया है, उनके नाम ये हैं--ब्रह्मवैवर्त, भागवत, विष्णुपुराण, ब्रह्मपुराण। इनके अतिरिक्त 'हरिवंश' नामक पुस्तक में भी श्रीकृष्ण के वृत्तान्त बहुत पाये जाते हैं और महाभारत में भी प्राय: कृष्ण का वर्णन आता है। साधारणत: तो पुरातत्ववेत्ताओ का यह मत है कि इन पुराणों में विष्णुपुराण और महाभारत सबसे प्राचीन जान पड़ते हैं, परन्तु इनके विषय में भी यह निर्णय करना कठिन है कि इनका कौन-सा भाग पुराना और कौन-सा नया है।

प्रोफेसर विल्सन (जिन्होंने विष्णुपुराण का अंग्रेजी अनुवाद किया है) का मत है कि विष्णुपुराण में इस बात के बहुतेरे प्रमाण मौजूद हैं कि उसमें दसवी शताब्दी ईस्वी तक के वृत्तान्त पाये जाते हैं। तथापि भागवत तथा अन्य पुराणों की अपेक्षा विष्णुपुराण अधिक प्राचीन है। भागवत के विषय में तो यह विवाद चला आता है, कि कौन-सी भागवत अठारह पुराणो में गिनती करने योग्य है? श्रीमद्भागवत या देवी भागवत? वैष्णव अपनी भागवत को वास्तविक पुराण बतलाते है, और शाक्त अपनी पुस्तक को। यूरोपीय विद्वानों का मत है कि श्रीमद्भागवत तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में लिखी गई है। जो कुछ हो विद्वानों की दृष्टि में भागवत से विष्णुपुराण अधिक प्राचीन है, तथा उसमें अलंकार का मिश्रण भी कम होने से उसकी बाते अधिक विश्वसनीय मानी जाती हैं।

इसके अतिरिक्त औरों की अपेक्षा विष्णुपुराण इस योग्य है कि घटनाओं के अनुसंधान की नींव उसी पर रखी जाये। रचना-काल की दृष्टि से हरिवंश, ब्रह्मवैवर्त और ब्रह्मपुराण भी विष्णुपुराण से पश्चात् के माने जाते हैं। प्रोफेसर विल्सन की सम्मति है कि ब्रह्मवैवर्त गोकुलिए गोसाइयों की रचना है और 15वीं शताब्दी ईस्वी से पीछे की लिखी हुई है। अब रहा महाभारत सो उसके विषय में याद रखना चाहिए कि वर्तमान महाभारत असली महाभारत नहीं है। या यो कहो कि कोई यह नहीं बता सकता कि वर्तमान महाभारत में कितने श्लोक असली हैं और कितने प्रक्षिप्त अर्थात् बाद में मिलाये गए हैं। जैसे पुराणो के विषय में साधारणत: यह कहा जाता है कि वे वेदव्यास जी के बनाए हुए है वैसे ही महाभारत के विषय में भी यही कहा जाता है। परन्तु जैसा हम ऊपर कह आये है कि कम-से-कम वर्तमान पुराण व्यास के रचे हुए नहीं हैं वैसे ही हमारे पास इस बात के भी बहुत-से प्रमाण हैं कि आधुनिक महाभारत का कुल अंश व्यास जी का लिखा हुआ नहीं है। स्वयं महाभारत के आदिपर्व से प्रतीत होता है कि व्यास जी ने असल महाभारत रचकर वैशम्पायन को सुनाया, जिसने लोमहर्षण को उसकी शिक्षा दी और जिससे उसके पुत्र उग्रश्रवा ने उसे सीखा। आधुनिक महाभारत के पहले दो श्लोको में ग्रन्थकर्त्ता (जो अपना नाम नहीं प्रकट करता) लिखता है कि वह उस महाभारत को लिखता है जो उग्रश्रवा ने कुलपति शौनक के यज्ञ (बारह वर्ष के यज्ञ) में ऋषियो के सम्मुख सुनाई थी।

आदिपर्व प्रथम अध्याय के आठवें श्लोक से प्रकट होता है कि स्वयं उग्रश्रवा को भी आठ हजार श्लोक याद थे और उस समय भी यह विवाद था कि वास्तविक महाभारत कौन-से श्लोक से प्रारम्भ होता है।

आदिपर्व के निम्न श्लोक से प्रकट होता है कि व्यास जी ने असल में केवल चौबीस हजार श्लोक बनाए थे और फिर डेढ़ सौ श्लोकों में उन 24 हजार का संक्षिप्त आशव वर्णन कर दिया था।

श्लोकार्थ-व्यास ने असल में 24 हजार श्लोकों में भारत वनाई, विद्वान् उसी को असल महाभारत कहते है।[] परन्तु आधुनिक महाभारत में 1 लाख 7 हजार 3 सौ 90 श्लोक है ओर 268 श्लोकों में तो केवल सूचीपत्र लिखा गया है। इससे यह परिणाम निकलता है कि आधुनिक भारत मे कितनी वृद्धि हुई है और इसी से उसकी ऐतिहासिक स्थिति कितनी कम हो गई है। अनेक हस्तलिखित प्रतियों में तो आटि के कई अध्याय ही लुप्त है जिससे प्रोफेसर भैक्समूलर मि० रमेशचन्द्र दत्त रचित कविताबद्ध महाभारत की भूमिका से यह परिणाम निकालते हैं कि यह सारा अध्याय पीछे से बढ़ा दिया गया है। सारांश यह कि वर्तमान महाभारत में बहुत कुछ मिलावट है। फिर भी कृष्ण विषयक जो कुछ हम जानना चाहते हैं वह हमको इन्हीं दोनों ग्रंथो से विदित हो सकता है : (1) विष्णुपुराण (2) महाभारत। अतएव हमारे देशवासियों को चाहिए कि कृष्ण के चरित को जानने के लिए इन दोनों पुस्तकों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें और फिर निष्पक्ष भाव से परिणाम निकालें कि क्या कवि की अत्युक्ति है और क्या वास्तविक है।

(8) वास्तविक तथ्यों तथा मिलावट का बोध कैसे हो सकता है? हम सब इस बात को मानते हैं कि बौद्ध धर्म ने श्रीकृष्ण के पश्चात् जन्म लिया है। हिन्दू श्रीकृष्ण को द्वापर युग का अवतार मानते है और महाभारत की लड़ाई से कलियुग का आरम्भ बताते है। यूरोपीय विद्वान् प्राचीन तत्त्ववेत्ता कृष्ण का समय हजरत मसीह से हजार वर्ष पहले ठहराते हैं। यह बात अनुसन्धान द्वारा मालूम होती है कि महात्मा बुद्ध का जन्म हजरत मसीह से पाँच सौ वर्ष पहले हुआ है अतएव यह परिणाम निकलता है कि विष्णुपुराण और महाभारत में जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म की शिक्षा के चिह्न पाये जाते है वे भाग (महाभारत के) बौद्ध काल के पश्चात् के है, अतः विश्वसनीय नहीं हो सकते। इस प्रकार संस्कृत साहित्य का अध्ययन हमें बताता है कि बौद्ध धर्म से पहले इस देश में मूर्तिपूजा प्रचलित नहीं थी और न मूर्तियों के लिए मन्दिर बनाने की परिपाटी थी।

अत: यह कहना युक्तियुक्त ही है कि महाभारत और विष्णुपुराण के जिन भागों मे मूर्तिपूजा और मन्दिरों का वर्णन है वे पीछे से मिलाये हुए हैं। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म से पहले के साहित्य में ईश्वर के अवतार लेने का कहीं वर्णन नहीं है और न उस समय तक हिन्दुओं में (तसलीस) त्रिमूर्ति (विष्णु, शिव और ब्रह्मा) की पूजा का प्रचार था, वरन् उस समय तक जाति के बंधन भी ऐसे प्रबल न थे जैसे कुछ काल पश्चात् हो गए। इन बातो का विचार करके विष्णुपुराण तथा महाभारत में से भी बहुत कुछ सत्य निकल सकता है। जातिबंधन के विषय में इतना कह देना पर्याप्त होगा कि स्वयं व्यास महाराज (जो महाभारत के रचयिता है) जन्म से शूद्र थे[] जिससे सिद्ध होता है कि उस समय (जब व्यास जी ने भारत लिखी है) जाति का कुछ अधिक विचार न था। यदि यह मान लें (और इसके मानने में संकोच भी न होना चाहिए) तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि श्रीकृष्ण का जन्म उस समय हुआ जब देश में वैदिक धर्म अपनी वास्तविक पवित्रता में था। जाति का विचार जन्म से न था। मनुष्य को परमात्मा का पद नहीं मिलता था। अवतारों की अभी उत्पत्ति नहीं हुई थी, मूर्तिपूजा का नाम-निशान नहीं था और हिन्दुओं की त्रिमूर्ति अभी स्थापित नहीं हुई थी। वैदिक कर्मकांड की प्रथा प्रचलित थी, बौद्ध धर्म का जन्म नहीं हुआ था, पर अनेक दर्शनो ने लोगों का विश्वास निर्बल कर दिया था और उन्हें धर्म से अश्रद्धा होने लग गई थी। इन बातो को सम्मुख रखकर और कवि वर्णित अलंकारादि का विचार करके यदि हम महाभारत तथा विष्णुपुराण में से कुछ यथार्थ बातें निकालना चाहें तो निष्फलता कदापि संभव नहीं। तथापि यह याद रखना चाहिए कि ये बातें बड़ी कठिनाई तथा अनुसन्धान द्वारा मालूम हो सकती हैं, क्योंकि वास्तविक इतिहास का मिलना असंभव है।

उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् अब हम यह दिखलायेंगे कि क्या कृष्ण के जीवन-काल का निर्णय करना वास्तव में असंभव है या इसकी कुछ सम्भावना है।

(9) कृष्ण तथा महाभारत का समय। महाभारत के समय का निर्णय करना तनिक कठिन है क्योंकि उस समय का कोई यथाक्रम इतिहास मौजूद नहीं, परन्तु इस विषय मे अनुसंधान द्वारा जो-जो बातें अब तक जानी गई है उन्हें हम पाठकों के सूचनार्थ लिखते है।

(अ) यह बात हिन्दुओं में साधारणतः प्रसिद्ध है कि महाभारत के युद्ध से कलियुग का आरम्भ हुआ है और कृष्ण का जन्म द्वापर में हुआ है। कलियुग को आरम्भ हुए लगभग 5000 वर्ष माने जाते हैं। गणितशास्त्र वाले भी कलियुग का आरम्भ 4996 वर्ष से निश्चय करते है।

(क) काश्मीर के इतिहास 'राजतरंगिणी' का लेखक कल्हण लिखता है कि कलियुग के 653वे वर्ष में गौड़ नामक राजा काश्मीर में वर्तमान था और युधिष्ठिर तथा कौरव वन मे थे। गौड़ ने लगभग 65 वर्ष राज्य किया जिससे युधिष्ठिर का समय लगभग 2400 वर्ष मसीह से पूर्व स्थिर होता है अर्थात् आज से 4300 वर्ष होते है।

(ख) विष्णुपुराण से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर का पोता परीक्षित राजा नन्द से 1015 वर्ष पहले हुआ। पहला राजा नन्द चन्द्रगुप्त से 100 वर्ष पूर्व हुआ। चन्द्रगुप्त ने मसीह से 3015 वर्ष पहले राज्य पाया जिससे परीक्षित का समय 1430 वर्ष मसीह पूर्व स्थिर होता है।

(ग) एक दूसरे स्थान पर विष्णुपुराण, परीक्षित का समय 1200 वर्ष कलियुगी ठहराता है जिससे परीक्षित का काल लगभग 1900 वर्ष मसीह पूर्व सिद्ध होता है।

(घ) महाभारत के पढ़ने से विदित होता है कि जिस समय महाभारत की लड़ाई हुई थी उस समय सबसे छोटा दिन और सबसे बड़ी रात माघ महीने में हुआ करती थी क्योंकि भीष्मपितामह सूर्य के (खने उस्तवा) दक्षिण मे चले जाने पर मृत्यु को प्राप्त हुए। परन्तु अब 24 दिसम्बर को सबसे बड़ी रात और सबसे छोटा दिन होता है। ज्योतिषविद्या के जानने वाले बताते है कि इस परिवर्तन को हुए कम-से-कम 3426 वर्ष हुए है जिससे यह परिणाम निकलता है कि महाभारत को भी 3426 वर्ष से कम नहीं हुए, अधिक चाहे कुछ और हों।

(च) ज्योतिषविद्या की सहायता से जो यह परिणाम निकलता है उसके विषय में मि० बाल गंगाधर तिलक ने 'ओरियन' नामक अपने ग्रंथ मे बहुत कुछ तर्क-वितर्क करने के पश्चात् लिखा है कि वह समय जब माघ मास में सूर्य उत्तरायण में होता था बहुत प्राचीन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन संस्कृत साहित्य में महाभारत के प्राय: सभी वीरों का वर्णन आता है, जिससे यूरोपीय पुरातत्वज्ञ सिद्ध करते है कि महाभारत की असली लड़ाई इन ग्रंथों के रचे जाने से बहुत पहले हो चुकी थी।

(10) प्राचीन संस्कृत साहित्य में कृष्ण तथा अन्य वीरों का वर्णन।

पाणिनि ऋषि कृत अष्टाध्यायी के सूत्रों में युधिष्ठिर, कुन्ती तथा वासुदेव और अर्जुन के नाम आते हैं जैसे आठवें अध्याय के तीसरे पाद के 95वें सूत्र में युधिष्ठिर (शब्द) आया है।[] इसी प्रकार चौथे अध्याय के पहले पाद के 174वें सूत्र में कुन्ती शब्द का प्रयोग हुआ है[] फिर इसी अध्याय के तीसरे पाद के 98वें सूत्र में वासुदेव तथा अर्जुन का नाम आता है।[१०]

प्रोफेसर गोल्डस्टकर की सम्मति है कि पाणिनि मुनि ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदो से भी बहुत पहले हुए हैं। श्री स्वामी दयानन्द की भी यही सम्मति है। ब्राह्मण ग्रंथों मे ऐतरेय और शतपथ में परीक्षित और जनमेजय का वर्णन आया है। जनमेजय पाण्डवों के प्रपौत्र का नाम था जिसके दरबार में प्रथम महाभारत सुनाई गई। इसके अतिरिक्त तैत्तिरीय आरण्यक में श्रीकृष्ण का नाम आता है। छान्दोग्य उपनिषद् में 'देवकी के पुत्र कृष्ण' का वर्णन है। आश्वलायन गृह्य सूत्र मे भी महाभारत के युद्ध का वर्णन आया है। इसी तरह महर्षि पतंजलि के भाष्य में कई जगह आया है कि कृष्ण वासुदेव ने अपने मामा कंस को मारा इत्यादि। यह भी याद रखना चाहिए कि छः दर्शनकारों में सबसे अन्तिम दर्शनकार व्यास हुए हैं। व्यास को वेदान्त दर्शन का कर्ता मानते हैं। अब इन बातों के रहते यह निर्णय करना बड़ा कठिन है कि महाभारत का युद्ध क्ब हुआ, महाभारत ग्रंथ कब रचा गया और कौन-से व्यास ने उसको बनाया।

तथापि यह परिणाम निकला कि महाभारत के युद्ध को बहुत काल बीता है और असल महाभारत ग्रंथ युद्ध से कुछ काल पीछे लिखा गया परन्तु कालान्तर में उसमें परिवर्तन होते रहे। यहाँ तक कि आज यह सब कुछ अस्पष्ट हो गया है और हमारे लिए महाभारत के युद्ध तथा महाभारत नामक ग्रंथ के रचे जाने के समय का निर्णय करना भी असम्भव हो गया है।

यदि वास्तव में महाभारत का युद्ध उपनिषद् तथा सूत्रों के समय से पहले हुआ और असल ग्रंथ भी उससे पहले बना तो फिर इसमे संदेह नहीं कि वर्तमान महाभारत में जितनी बातें उस समय के धर्म से विरुद्ध पाई जाती है वह सब कालांतर में मिला दी गई थीं और वास्तविक ग्रंथकर्ता की लेखनी से नही निकली है।

(11) क्या यह कथा कल्पित है?

बहुत-से पुरातत्त्वज्ञों ने यह सम्मति स्थिर की है कि महाभारत की कथा कल्पित है और इसकी घटनाएँ यथार्थ नहीं हैं। बहुत-से विद्वान् इस युद्ध को तो यथार्थ पर उसके नायको को कल्पित मानते है।[११] हमारी राय में ये दोनों कथन मिथ्या हैं, जिसके प्रमाण ये है--

(1) कृष्ण और अर्जुन की वंशावली का पूरा-पूरा पता चलता है। उनके वंश में अनेक राजा-महाराजा हुए हैं जिन्होंने ऐतिहासिक समय में राज्य किया है।

(2) सारे संस्कृत साहित्य का प्रमाण उपर्युक्त कथन का खण्डन करता है। (जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है)

(3) कथा और कथा से संबंध रखने वालों के नाम सर्वसाधारण में प्रसिद्ध हैं तथा देश के उन प्रान्तों में भी विदित हैं जहाँ सहस्रों वर्ष से पढ़ने-लिखने का चिह्न नहीं पाया जाता। फिर कथा संबंधी पुरुषों के नाम से प्राय: स्थानों के भी नाम मिलते हैं। यदि नाम कल्पित होते तो ऐसा कदापि संभव न था।

(4) महाभारत कथा के जो अनेक संदर्भ संस्कृत साहित्य में पाये जाते है उनसे भी कथा की बहुत-सी घटनाओं की पुष्टि होती है।

(5) यदि इस कथा को यथार्थ माने तो कथा संबंधी नामों को कल्पित मानने का कोई विशेष कारण नहीं दीख पडता, तथा उसमें यह भी प्रश्न उठता है, कि यदि ये नाम कल्पित हैं तो कथा के यथार्थ नायकों के नाम क्या थे?

(6) कृष्ण को अवतार के तुल्य माना जाना इस बात की पुष्टि करता है कि कृष्ण किसी कल्पित व्यक्ति का नाम नहीं था।

(7) हमारे विपक्षी अपने इस कथन के समर्थन में कोई प्रमाण नहीं देते। कोई ग्रंथकार तो इस बात का सहारा लेते है कि प्राचीन आर्यावर्त में एक स्त्री के कई पति होने की प्रथा न थी एवं द्रौपदी का पाँच पाण्डवों से विवाह करना एक अत्युक्ति है जो यथार्थ घटना नहीं है। परन्तु महाभारत के पढ़ने वालों को मालूम है कि ग्रंथकार ने इस घटना को अपवाद (Exception) के रूप में वर्णन किया है और इसके लिए कारण विशेष दिखलाया है।[१२] पुन ऐसे प्रबल प्रमाणों के उपस्थित रहते हुए कुछ महानुभावों की यह राय प्रमाणित नहीं कही जा सकती और न हम कृष्ण तथा अर्जुन प्रभृति नामों को कल्पित मान सकते हैं।

(12) क्या कृष्ण परमात्मा के अवतार थे?

इस पुस्तक में कृष्ण विषयक जो घटनाएँ हमने एकत्र की हैं उनके पढ़ने से पाठकों को यह विदित हो जाएगा कि कृष्ण महाराज का अवतार मानना कहाँ तक सत्य है। हमारी राय है कि कृष्णचन्द्र ने कभी स्वयं इस बात का दावा नहीं किया और न उनके समय में किसी ने उनको यह पदवी ही दी। ये बातें नई गढ़न्त है और बौद्ध समय के पश्चात् प्रचलित हुई है।

समस्त वैदिक साहित्य अवतार सिद्धान्त के विरुद्ध है। वेद पुकार-पुकारकर कहता है कि परमेश्वर कभी देह धारण नहीं करता।[१३] यूरोपीय विद्वान् भी इस बात में हमसे सहमत हैं और कहते हैं कि अवतारों का सिद्धान्त बौद्धमन के पश्चात् प्रचलित हुआ। इससे पहले भारतवर्षष में मूर्तिपूजा या अवतारों के सिद्धान्त का मानने वाला कोई भी नहीं था। हम इस पुस्तक के अन्तिम भाग में इस बात पर विचार करेंगे कि कृष्ण का चरित हमारे इस मन्तव्य की कहाँ तक पुष्टि करता है तथा पाठक भी इसके अध्ययन से उपयुक्त सम्मति स्थिर कर सकेंगे।

सहृदय पाठक ! हम इन पृष्ठों में आपके सम्मुख एक महापुरुष का जीवन पेश करते है। श्रीकृष्ण यद्यपि अवतार न थे, मनुष्य थे, परन्तु मनुष्यो की सूची में ऐसे श्रेष्ठतम आचरण के मनुष्य थे जिनको संस्कृत विद्वानों ने 'मर्यादा पुरुषोत्तम' की पदवी दी है। वह अपने समय के महान् शिक्षक थे, योद्धा तथा विद्यासम्पन्न थे। उनकी जीवनी हमारे लिए आदर्श रूप है। हम उनकी शिक्षा से बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। हमारी राय में आधुनिक छात्रमण्डली को उनकी जीवनी ध्यानपूर्वक पढ़नी चाहिए, क्योंकि यूरोप का नास्तिक दर्शन बहुत-से हिन्दू युवकों के चित्त को चलायमान करके उनको हिन्दू धर्म के यथार्थ तत्त्व से पराङ्मुख कर रहा है और इनके दल के दल यूरोपियन जीवन-दर्शन के पीछे भागे जा रहे हैं। उनकी दृष्टि में अच्छे स्वादिष्ट पकवान खाने, सुन्दर वस्त्र-भूषण पहनने तथा फैशनेबल सवारियों में बैठकर सुख भोग से दिन काटने के अतिरिक्त जीवन का कुछ और उद्देश्य नहीं। आत्मा को वे कोई चीज नहीं समझते, धर्म को वे घृणा की दृष्टि से देखते है तथा यावत् सांसारिक आपत्तियों को इसी का कारण समझते हैं। वे इसी में भारतवर्ष का हित समझते है कि इसका सर्वनाश कर दिया जाय और जनसाधारण के हितार्थ एक लोकपालित राज्य स्थापित करके एक 'कामनवेल्थ' खड़ा किया जाय जिसमें कोई किसी से यह न पूछे कि तेरा धर्म क्या है? और तू कोई धर्म रखता है या नहीं? उनको सम्मति में धर्म संबंधी सब पुस्तकें समुद्र में फेंक दी जाएँ तथा धर्मसभाओ को देशनिकाला दे दिया जाय। उनकी राय है कि ऐसा न करने से देश का उद्धार नही हो सकता। भारतवर्ष का राजनीतिक हित भी इसी पर निर्भर है कि किसी को दूसरे के आचरण पर प्रश्न करने का अधिकार न हो। हर एक मनुष्य को पूरी स्वाधीनता हो कि जो चाहे खाए, पीए और जो चाहे सो करे। वे यही चाहते है कि केवल शासन में उन्हें भाग मिल जाए और बडे़-बडे़ पद भी उन्हें मिलने लगें। सरकार उनसे सलाह लेने लग जाये, टैक्स लगाने और उठाने मेें उनकी पूछ हो और उन्हें हर प्रकार के धार्मिक या सामाजिक बंधन से छुटकारा मिल जाय। हिन्दू युवकों की एक मंडली आजकल इसी सिद्धान्त को मानने वाली हो रही है। परन्तु दूसरी ओर जिस मंडली को आध्यात्मिक उन्नति का ध्यान है, जिसको धार्मिक शिक्षा या धार्मिक दर्शन से घृणा नहीं, वे वैराग्य, वेदान्त, योग और संन्यास को ही अपना मंतव्य समझते है। उनके विचार में यह संसार स्वप्नवत् और सांसारिक सुख सब घृणित वस्तु हैं। उन्हें सांसारिक उन्नति की परवाह नहीं, वह अपनी धुन में एकदम ब्रह्म या एकदम परमयोगी बनने के अभिलाषी दीख पड़ते हैं। उनकी समझ में वे लोग पागल हैं जो आत्मोन्नति को छोड़कर भौतिक उन्नति के लिए तत्पर हो रहे है। आजकल नवशिक्षित मंडली साधारणत: इन्ही दो में से एक मत की अनुयायी हो रही है। परन्तु इनके अतिरिक्त बीच का एक और दल है, जिसे उपर्युक्त दोनों मडलियाँ तुच्छ दृष्टि से देखती हैं। यह दल चाहता है कि हिन्दू अपने प्राचीन शास्त्रोक्त धर्म पर स्थिर होकर उसी धार्मिक शिक्षा के अनुसार उन्नति करें। यह शिक्षित मंडली जैसे एक ओर जाति को नवीन वेदान्त तथा वैराग्य से बचाने का प्रयत्न करती है वैसे ही दूसरी ओर यूरोप के भौतिक (Material) दर्शन से बचने की चेतावनी भी देती है, परन्तु मनुष्य में यह दोष है कि वह सदा अति की ओर झुकता है, जिसे संस्कृत में अति दोष कहते है। हमारी जाति मेें यह दोष इस समय प्रबल हो रहा है और इसी से हमारे नवशिक्षित युवकगण अपने आचरण को मध्यम श्रेणी में नहीं रख सकते। ऐसे मनुष्यों के लिए श्रीकृष्ण की जीवनी तथा उनका दर्शन बड़ा उपयोगी और लाभकारी होगा। परन्तु खेद है कि गीता और महाभारत को पढ़कर लोग कृष्ण की शिक्षा के भाव को समझने में गलती करते है। उससे वैराग्य, योग तथा नवीन वेदान्त की सिद्धि करके लोक-परलोक को लात मार, बाल-बच्चों को छोड़ वस्त्र रँगा लेते हैं। हाय ! वह यह नहीं समझते कि जिस कृष्ण ने अर्जुन को लड़ने पर तत्पर किया, जिसने लड़ाई की समाप्ति पर युधिष्ठिर को (उसकी इच्छा के प्रतिकूल) राज्य करने पर मजबूर किया, जिसने स्वयं विवाह किया और बाल-बच्चे उत्पन्न किये और अपने जीवन का अधिकांश भाग सांसारिक व्यवसाय में व्यतीत किया, जिसने अपने शत्रुओं से बदला लिया, जिसने दुष्ट पापात्माओं का नाश किया और जिसने दीन-दुखियों की सहायता की, जो स्वयं संसार में रहकर सांसारिक धर्म का पालन करता हुआ उत्तम श्रेणी की आत्मोन्नति को प्राप्त हुआ था, उसकी शिक्षा से हम केसे यह भावार्थ निकाल सकते हैं कि हमारे लिए यही कल्याणकारी है कि हम अपने बाल-बच्चों तथा माता-पिता को त्यागकर वन में चले जायें या अपना सांसारिक धर्म पालन किए बिना योगसाधन में लग जायें? कृष्ण की शिक्षा का एकमात्र सांराश यह है कि मनुष्य अपने कर्तव्य को (चाहे वे सांसारिक हों या धार्मिक) सचाई, दृढ़ता तथा शुद्धाचरण से पालन करें। इसी से उसे सत्य ज्ञान मिलेगा। इसी से परम मोक्ष भी प्राप्त होगा। कृष्ण ने युद्ध-क्षेत्र में बैठकर अर्जुन के लिए यह बात परम कर्तव्य ठहराई कि वह अपने क्षात्रधर्म के पालन हेतु अपने हाथों से लाखो जीवों का बध करे, वरंच प्रयोजन पड़ने पर अपने वंश वालों का भी शिर छेदन करे। उसने अपने हाथो से बहुत-सी लड़ाइयो में शस्त्र चलाये और रक्त बहाया। ऐसा व्यक्ति क्या इस बात की शिक्षा दे सकता है कि बीसवीं शताब्दी के पतित हिन्दू (जो अपने कर्म से न पूर्ण ब्राह्मण है और न पूर्ण क्षत्रिय) अपने बाल-बच्चों को अनाथ छोड़ और जातीय कर्तव्यों पर पदाघात कर बिना ब्रह्मचर्य पालन किए, बिना गृहस्थ आश्रम को निबाहे, बिना यथाक्रम वेदशास्त्र को पढ़े और बिना अपने वर्णाश्रम के कर्तव्य का पालन किए, योगसाधन में तत्पर हो जायें तथा स्वयं ब्रह्म बनने की उत्कट कामना में वन का रास्ता ले? कृष्ण की शिक्षा के अनुसार प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि जब तक उसे ब्राह्मण पदवी का अधिकार प्राप्त न हो तब तक वह अपने शत्रुओं के साथ युद्ध करे। यदि धर्म, कर्म, न्याय, सत्यता, इत्यादि के लिए दूसरों के सर कुचलने का अवसर आ पड़े तो अपनी जान जोखिम में डालकर भी उससे मुख न मोड़े। हम कर्तव्य के पालन करने में मिथ्या दया या वैराग्य को पास तक न फटकने दे। यदि प्रत्येक पीड़ित मनुष्य अपनी पीड़ा के हेतु दया का भाव दिखावे और वैराग्य को काम मे लावे तो एक दिन संसार से न्याय बिलकुल ही उठ जाएगा। ऐसे अवसर पर दया या वैराग्य का भाव दिखाना एक प्रकार की कायरता है। ऐसे अवसर पर किसी का यह कहना कि जब कुछ न बन पड़ा तो वैराग्य का आश्रय ले लिया, बहुत उचित जान पड़ता है। प्रायः लोग ईसाई धर्म की इसीलिए प्रशंसा करते है कि यदि कोई तेरे एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा भी उसकी ओर फेर दे, किन्तु उनसे पूछो कि इस पर कभी किसी ने अमल भी किया है अथवा स्वयं ईसाई मतावलम्बी भी इसका कहाँ तक आचरण करते हैं? प्रकृति इसके विरुद्ध शिक्षा देती है। ये बातें केवल कहने की हैं, कोई सामर्थ्य वाला पुरुष इस कायरता की क्रिया में नहीं जा सकता। जो लोग कृष्ण की शिक्षा पर अनुचित समालोचना करके उसको महाभारत के युद्ध तथा उससे जो हानि पहुँची है उसका उत्तरदाता ठहराते हैं, वे तनिक विचारें तो सही कि उनके दर्शन का क्या अर्थ है। यदि उनके घर में कोई चोर या डाकू आ घुसे, तो क्या वे इस अवसर पर दया का भाव दिखावेंगे, या कोई विचारशील दयावान उस चोर को अपना माल ले जाने की आज्ञा देगा, अथवा स्वहित का विचार कर उस व्यवहार विरुद्ध कार्य के लिए उसे हानि पहुँचाने में तत्पर हो जाएगा? क्या धर्म की यही आज्ञा थी कि अर्जुन रणक्षेत्र से भाग खड़ा होता और इस प्रकार उन सब कर्तव्यों पर पानी फेर देता, जिन पर आशा करके युधिष्ठिर तथा अन्य महाराज सेना सहित सम्मिलित हुए थे? क्या उस समय कृष्ण का यही कर्तव्य था कि अर्जुन को भागता देख खुद भी उसके साथ भाग जाते? हम नहीं समझते कि जो लोग कृष्ण की इस प्रकार की अयोग्य आलोचना करते है वे धर्म के रक्षक या प्रचारक कैसे कहला सकते हैं। उनका धर्म केवल मौखिक है। उन्हे इस बात की परवाह नहीं कि उनका धर्म मनुष्य समाज के उपयुक्त है या नहीं। उन्हें इसी से मतलब है कि उनका व्याख्यान सुनने वालों को वह रसपूर्ण प्रतीत हो। हमारा तो विश्वास है कि दया तथा वैराग्य के इस झूठे विचार ने ही हिन्दुओं का सर्वनाश कर दिया है और उनकी श्रेष्ठता को मिट्टी में मिला दिया। न उनको इस लोक का छोड़ा न परलोक का। यदि अब भी भारतवासी इन विश्वासों के पंजे से निकलना न चाहें जबकि आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा तथा गीता उनको इस बात की शिक्षा देती है, तो ऐसी हालत में उनकी उन्नति का विचार एक भ्रम ही है जिसका पूरा होना कदापि संभव नही। इन बातों पर विश्वास रखने वाले न लौकिक उन्नति कर सकते है न पारलौकिक। कारण कि आध्यात्मिक संसार में भी उसी की पहुँच है जो मनुष्य उस लोक में हर परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आध्यात्मिक उन्नति के सोपान पर पैर रखता है। आध्यात्मिक संसार में इन लोगों की पहुँच नहीं हो सकती जो इस संसार के नियमों और परीक्षाओं पर लात मारते है, किन्तु सफलता उन्हें मिलती है जो नियमानुसार अनेक साधनाओं से अपनी आत्मा को इस योग्य बनाते हैं जिससे यह सद्विचार तथा पवित्रता से उस परब्रह्म के चरण-कमलो में स्वयं को समर्पित करते हैं।

इन पृष्ठों में हम एक पवित्रात्मा महान् पुरुष का जीवन-वृत्तान्त लिखते हैं जिसने अपने जीवन-काल में धर्म का पालन किया है और धर्म ही के अनुसार धर्म और न्याय के शत्रुओ का नाश किया है। रहा यह कि क्या कृष्ण ने अद्वैत की शिक्षा दी या द्वैत की (अर्थात् कृष्ण के मतानुसार आत्मा और परमात्मा एक है या भिन्न) यह ऐसा प्रश्न है जिस पर हम इस पुस्तक के दूसरे भाग मे विचार करेंगे।


नवम्बर 900 ई  

 

क्रम

अध्याय
1. कृष्ण की जन्मभूमि 45
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 70
9. मथुरा पर मगध देश के राजा जरासंध का आक्रमण 72
10. कृष्ण का विवाह 74
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 75
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रो से भेंट 76
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 78
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 81
15. राजसूय यज्ञ 84
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी मे आगमन 88
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 91
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 94
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 95
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 98

  1. पूरा नाम एफ० एस० ग्राउस--मथुरा के जिलाधीश थे। हिन्दी प्रेमी इस विदेशी विद्वान् ने रामचरितमानस का हिन्दी अनुवाद किया है
  2. वर्तमान उत्तर प्रदेश
  3. अथर्ववेद 156/4
  4. छान्दोग्योपनिषद् 7/1/2
  5. स्वाध्यायं श्रावयेत्पिञ्चे धर्यशारयणि चैब हि। पुुुराणननि स्विस्प्रनि च
  6. चतुर्विशति साहस्री चके भारत संहिताम्।
    उपारसवानैर्विन्त व्रक्त फरतं प्रौच्यतै बुधै आदि पर्व 1/102
  7. व्यास का जन्म महर्षि पराशर और नषाद पुत्री सत्यवती से हुआ
  8. गवि युधिभ्या स्थिरः। 8/3/95
  9. स्त्रियाभवन्तिकुन्निकुरुभ्यश्च। 4/1/174
  10. वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन्। 4/3/98
  11. वेयर, मोनियर विलियम्स तथा रमेशचन्द्र दत्त की यही धारणा थी।
  12. अनेक विद्वानो ने महाभारत के अन्त:साक्ष्य से ही द्रौपदी के बहुपतित्व का निराकरण किया है। द्रष्टव्य-कौन कहता है द्रौपदी के पाँच पति थे?--अमर स्वामी सरस्वती।
  13. वेदों में ईश्वर को अब अकाय अचण अदि विशेषणे ने सम्बोधित किया गया है।