युद्ध और अहिंसा/३/१ लड़ाई में भाग

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १७६ से – १८२ तक

 

                             : ३ :


पिछला महायुद्ध और अहिन्सा

१. लडाई में भाग २. धर्म की समस्या ३. युद्ध के विरोध में युद्ध ४. युद्ध और अहिंसा ५. युद्ध के प्रति मेरे भाव ६. कौन्सा मार्ग श्रेष्ट है? ७. अहिन्सक की विडम्बना ८. विरोधाभास ९. व्यवसाय में श्रहिंसा :१:

                       लड़ाई में भाग


   विलायत पहुँचने पर खबर मिली कि गोखले तो पेरिस में रह गये हैं, पेरिस के साथ श्रावागमन का सम्बन्ध बन्द हो गया है, और यह नहीं कहा जा सकता कि वह कब श्रायेंगे । गोखले श्रपने स्वास्थ्य-सुधार के लिए फ्रांस गये थे; किन्तु बीच में ही युद्ध छिड़ जाने से वहीं श्रटक रहे । उनसे मिले बिना मुझे देश जाना नहीं था; श्रोर वह कब श्रावेंगे, यह कोई कह नहीं सकता था ।
   
   श्रब सवाल यह खड़ा हुश्रा कि इस दरमियान करें क्या ? इस लड़ाई के सम्बन्ध में मेरा धर्म क्‍या है ? जेल के मेरे साथी और सत्याग्रही सोराबजी श्रडाजणिया विलायत में बैरिस्टरी का श्रध्ययन कर रहे थे । सोराबजी को एक श्रेष्ठ सत्याग्रही के तौरपर इंग्लैण्ड में बैरिस्टरी की तालीम के लिए भेजा था कि जिससे दक्तिण श्राफ्रिका में श्राकर मेरा स्थान ले लें । उनका खर्च डाक्टर प्राणजीवनदास मेहता देते थे। उनके और उनके मार्फत डाक्टर जीवराज मेहता इत्यादि के साथ, जो विलायत में पढ़ रहे थे, इस 
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 विषय पर सलाह-मशविरा किया । विलायत में उस समय जो हिन्दुस्तानी लोग रहते थे उनकी एक सभा बुलाई गई और उनके सामने मैंने अपने विचार उपस्थित किये । मेरा यह मत हुश्रा कि विलायत में रहनेवाले हिन्दुस्तानियों को इस लड़ाई में अपना हिस्सा देना चाहिए । अंग्रेज़-विद्यार्थी लड़ाई में सेवा करने का अपना निश्चय प्रकट कर चुके हैं। हम हिन्दुस्तानियों को भी इससे कम सहयोग न देना चाहिए । मेरी इस बात के विरोध में इस सभा में बहुतेरी दलीलें पेश की गईं । कहा गया कि हमारी और अंग्रेजों की परिस्थिति में हाथी घोड़े का अन्तर है- एक गुलाम दूसरा सरदार । ऐसी स्थिति में गुलाम अपने प्रभु की विपत्ति में उसे स्वेच्छापूर्वक कैसे मदद कर सकता है ? फिर जो गुलाम अपनी गुलामी में से छूटना चाहता है, उसका धर्म क्या यह नहीं है कि प्रभु की विपत्ति से लाभ उठाकर अपना छुटकारा कर लेने की कोशिश करे ? पर वह दलील मुझे उस समय कैसे पट सकती थी ? यध्यपि मैं दोनों की स्थिति का महान् अन्तर समझ सका था, फिर भी मुझे हमरी स्थिति बिलकुल गुलाम की स्थिति नहीं मालूम होती थी । उस समय मैं यह समझे हुए था कि अग्र जी शासन-पद्धति की अपेक्शा कितने ही अप्रजी अधिकारियों का दोष अधिक था और उस दोष को हम प्रेम से दूर कर सकते हैं । मेरा यह खयाल था कि यदि अप्रजो के द्वारा श्रार उनकी सहायता से हम अपनी स्थिति का सुधार चाहते हों तो हमें उनकी विपत्ति के समय सहायता पहुँचाकर                         
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 अपनि स्थिति सुधारनी चाहिए । ब्रिटिश शासन-पद्धति को मैं दोषमय तो मानता था, परन्तु आज की तरह वह उस समय असह्य नहीं मालूम होती थी । अतएव आज जिस प्रकार वर्तमान शासन-पद्धति पर से मेरा विश्वास उठ गया है और आज मैं अंग्रेज़ी राज्य की सहायता नहीं कर सकता, इसी तरह उस समय जिन लोगों का विश्वास इस पद्धति पर से ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी अधिकारियों पर से भी उठ चुका था, वे मदद करने के लिए कैसे तैयार हो सकते थे ?
   उन्होंने इस समय की प्रजा की माँगें ज़ोर के साथ पेश करने और शासन में सुधार कराने की आवज उठाने के लिए बहुत अनुकूल पाया । मैंने इसे अंग्रेज़ो की आपत्ति का समय समप्त कर माँगें पेश करना उचित न समजा और जबतक लड़ाई चल रही है तबतक हक़ माँगना मुल्तवी रखने के संयम में सभ्यता और दीर्घ-दृष्टि समझी । इसलिए मैं अपनी सलाह पर मज़बूत बना रहा और कहा कि जिन्हें स्वयंसेवकों में नाम लिखाना हो वे लिखा दें। नाम अच्छी संख्या में आये। उनमें लगभग सब प्रान्तों और सब धर्मों के लोगों के नाम थे ।
  फिर लार्ड क्रू के नाम एक पत्र भेजा गया । उसमें हम लोगों ने अपनी यह इच्छा और तैयारी प्रकट की कि हम हिन्दुस्तानियों के लिए घायल सिपाहियों की सेवा-शुश्रूषा करने की तालीम की यदि आवश्यकता दिखाई दे तो उसके लिए तैयार हैं। कुछ सलाह-मशविरा करने के बाद लार्ड क्र ने हम लोगों का प्रस्ताव  १७२                      युद्ध श्रीर श्रहिंसा


स्वीकार किया श्रौर इस बात के लिए हमारा श्रहसान माना कि हमने ऐसे मौके पर साम्राज्य की सहायता करने की तैयारी दिखाई।

जिन-जिन लोगों ने श्रपने नाम लिखाये थे, उन्होंने प्रसिद्ध डाक्टर केन्टली की देख-रेख में घायलों की शुश्रूषा करने की प्राथमिक तालीम शुरू की। छः सप्ताह का छोटा-सा शिक्षा-क्रम रक्खा गया था श्रौर इतने समय में घायलों को प्राथमिक सहायता करने की सारी विधियाँ सिखाई दी जाती थीं। हम कोई ८० स्वयंसेवक इस शिक्षा-क्रम में सम्मिलित हुए। छः सप्ताह के बाद परीक्षा ली गई तो उसमें सिर्फ एक ही शख्स फेल हुश्रा। जो लोग पास हो गये उनके लिए सरकार की श्रोर से क्रवायद वगैरा सिखाने का प्रबन्ध हुश्रा। क्रवायद सिखाने का भार कर्नल बैंकर को सौंपा गया श्रौर वह इस टुकड़ी के मुखिया बनाये गये।

इस समय विलायत का दृश्य देखने लायक़ था। युद्ध से लोग घबराते नहीं थे, बल्कि सब उसमें यथाशक्ति मदद करने के लिए जुट पड़े। जिनका शरीर हट्टा-कट्टा था, ऐसे नवयुवक सैनिक शिक्षा ग्रहण करने लगे। परन्तु श्रशक्त, बूढ़े श्रौर स्त्री श्रदि भी खाली हाथ न बैठे रहे। उनके लिए काम तो था ही । वे युद्ध में घायल सैनिकों के लिए कपड़ा इत्यादि सीने-काटने का काम करने लगीं। वहाँ स्त्रियों का ‘लाइसियन' नामक एक क्लब है। उसके सभ्यों ने सैनिक-विभाग के लिए श्रावश्यक कपड़े यथाशक्ति बनाने का ज़िम्मा ले लिया। सरोजनीदेवी भी इसकी सदस्या थीं। लड़ाई में भाग १७३ उन्होंने इसमें खूब दिलचस्पी ली थी। उनके साथ मेरा वह प्रथम ही परिचय था। उन्होंने कपड़े को ब्योंत कर मेरे सामने एक ढेर रख दिया और कहा कि जितने सिला सको, उतने सिलाकर मुझे दे देना! मैंने उनकी इच्छा का स्वागत करते हुए घायलों की शुश्रूषा की तालीम के दिनों में जितने कपड़े तैयार हो सके, उतने करके उनको दे दिये।


आत्मकथा: भाग ४, अध्याय ३८