युद्ध और अहिंसा/२/१० अहिंसा और अतर्राष्ट्रीय मामले

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १६६ से – १७५ तक

 
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अहिंसा और अन्तर्राष्ट्रीय मामले

[मद्रास के पास ताम्बरम् में होनेवाले अन्तर्राष्ट्रीय-पादरी सम्मेलन में भाग लेनेवाले कई प्रसिद्ध व्यक्ति वर्धा आये। उनमें से कुछ सम्मेलन से पहले गांधीजी से बातचीत्त करने का लाभ उठाने के उद्देश्य से से गाँव (सेवाग्राम) आये थे। उनमें अन्तर्राष्ट्रीय मिशनरी कौंसिल के मन्त्री रेवरेण्ड विलियम पैटन, अमेरिका के अग्रणी पादरी श्रीहदेदार रेवटेण्ड लेस्ली मांस और लंदन की देश-विदेशी बाइबल सोसाइटी वाले डा० स्मिथ के नाम उल्लेखनीय हैं।

जिन्हें इस बात की खास तौर से फिक्र थी उसे इन्होंने गांधीजी के सामने इस प्रकार पेश किया :

“आज सारी दुनिया के ऊपर छाई हुई अन्तराष्ट्रीय घटाएँ मानव-जाति को द्वेष और रक्त पात की भयानक होली में होम देने को तैयार हैं, उसमें से मानव जाति को किस तरह बचाया जाये? सभ्यता की आड़ में पशु-बल से काम लेने में अपनी असमर्थता की इतनी प्रतीति थी इससे पहले कभी न हुई होगी” १५८ युद्ध और अहिंसा इस हालत में गांधीजी के अहिंसा-शस्त्र पर अग्रगराय विचारकों का ध्यान स्वभावत: गया है और इस अहिंसा की विचारा- सरणी के पीछे जो श्रद्धा, प्रार्थना तथा आत्मशुद्धि की प्रेरणा है, जो धर्म भावना इस में सम्मिलित है, उससे संबन्ध रखनेवाले उनके प्रश्न उन्होंने किये -सं०] प्रश्न–धार्मिक, सामाजिक अथवा राजनैतिक हरेक क्षेत्र में आप जो कुछ कर रहे हैं उसके पीछे आपका हेतु क्या है? गांधीजी-शुद्ध धार्मिक । यही सवाल एक राजनैतिक प्रतिनिधि-मंडल के साथ मेरे इंगलैंड जाने पर स्वर्गीय भारत-मन्त्री माण्टेग्यू ने भी मुझसे पूछा था । उन्होंने कहा था, तुम्हारे जैसे समाज सुधारक इस मंडल के साथ यहाँ कैसे आये ? मैंने कहा कि मेरी सामाजिक प्रवृत्ति का यही विस्तार मात्र है । सारी मनुष्यजाति के साथ आत्मीयता कायम किये बिना मेरी धर्म-भावना सन्तुष्ट नहीं हो सकती और यह तभी सम्भव है जब कि राजनैतिक मामलों में मैं भाग लू । क्योंकि आजकी दुनिया में मनुष्यों की प्रवृत्ति एक और अभिभाज्य है । उसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शुद्ध धार्मिक ऐसे जुदे-जुदे भाग नहीं किये जा सकते। मानव-हित की प्रवृत्ति से भिन्न धर्म मैं नहीं जानता । ऐसी धर्म-भावना से रहित दूसरी तमाम प्रवृत्तियाँ नैतिकआधार-विहीन हैं और जीवन को खाली ‘अर्थहीन धाँधलेबाजी तथा ‘हल्ले-गुल्लेवाला' कर डालती हैं । प्रश्न-हम देखते हैं कि सर्वसाधारण के ऊपर आपका अजीब
प्रभाव है। यह कार्य के प्रति आपकी निष्ठा का परिणाम है या सर्व-साधारण के प्रति आपके प्रेम का?

गांधीजी-सर्वसाधारण के प्रति प्रेम का। सर्वसाधारण के प्रति अपने प्रेम की ही वजह से मैंने अपने जीवान में अस्पृश्यता-निवारण का सवाल उठाया है। मेरी माँ ने कहा, 'तू इस लड़के को मत छू, यह अस्पृश्य है।' मैंने कहा-क्यों नहीं छुऊँ? और उसी दिन से मेरा विद्रोह शुरू हो गया।

प्रश्न-यूरोप के शान्तिवादियों की वृत्ति, जिसे कि हम यूरोपवाले अभी बहुत सफलतापूर्वक ग्रहण नहीं कर सके, आपको अपनी अहिंसावाद की दृष्टि से कैसी लगती है?

गांधीजी - मेरी धारणा के अनुसार अहिंसा किसी भी रूप या किसी भी अर्थ में निष्क्रिय वृत्ति है ही नहीं। अहिंसा को जिस तरह मैं समझता हूँ, उसके अनुसार तो दुनिया की यह सबसे बड़ी सक्रिय शक्ति है, इसलिए भौतिकवाद हो या दूसरा कोई भी वाद, यदि अहिंसा उसे नष्ट न कर सकती हो, तो मैं यही कहूँगा कि वह अहिंसा ही नहीं है। अथवा दूसरे शब्दों में कहूँ कि अगर आप मेरे सामने कुछ ऐसी समस्याएँ लायें कि जिनका मैं हल न बता सँकू, तो मैं तो यही कहूँगा कि मेरी अहिंसा अपूर्ण है। अहिंसा एक सार्वभौम नियम है। अपने आधी शताब्दी के अनुभव में मूझे एक भी ऐसा संयोग या स्थिति याद नहीं आती कि जिसमें मुझे यह कहना पड़ा हो कि मैं लाचार हूँ, मेरे पास अहिंसा के अनुसार कुछ उपाय
रहा नहीं है।

यहूदियों का सवाल लीजिए। इस प्रश्न मैंने अभी मैंने 'हरिजन' में लिखा है। मेरी दृष्टि से अगर वे अहिंसा का मार्ग स्वीकार करलें तो किसी भी यहूदी को विवशता अनुभव करने की जरूरत नहीं। एक मित्र ने मुझे पत्र लिखकर यह आपत्ति उठाई है कि मैंने अपने लेख में यह मान लिया है कि यहूदी हिंसक हैं। यह सही है कि यहूदियों ने अपने व्यक्तिगत बर्ताव में सक्रिय हिंसा नहीं की है। पर उन्होंने अपने जर्मन विरोधियों पर सारी दुनिया को उजाड़ने का प्रयत्न किया है। उन्होंने अमेरिका तथा इंग्लैड को लड़ाई में कूद पड़ने के लिए सिफ़ारिश की है। अगर मैं अपने विरोधी पर प्रहार करता हूँ, तब तो मैं हिंसा करता ही हूँ। पर अगर मैं सच्चा अहिंसक हूँ, तो जब वह मेरे ऊपर प्रहार कर रहा हो तब भी मुझे उसपर प्रेम करना है, और उसका क्ल्याण चाहता है, उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी है। यहूदी सक्रिय अहिंसक नहीं बने हैं। नहीं तो वे अपने विरोधी अधिनायकों के दुष्कृत्यों को क्षमा करते हुए कहते : 'हम उनका प्रहार सहन करेंगे, पर जिस तरह वे अपने प्रहार सहन करना चाहते हैं, उस तरह हम कभी सहन नहीं करेंगे। अगर ऐसा करनेवाला एक यहूदी भी निकल आये, तो यह तमाम अत्याचारो को सहन करते हुए भी अपना स्वाभिमान अखंडित रख सकता है। और वह अपने पीछे एक ऐसा उदाहरण छोड़ जायगा कि जिससे दुनिया के तमाम यहूदियों का अहिंसा और अन्तर्राष्ट्रीय मामले १६१ उद्धार हो सकता है, और सारी मानव जाति के लिए भी वह एक बहुमूल्य विरासत दे जायगा ।

     आप पूछंगे कि चीन के बारे में आप क्या कहते हैं ? 

चीन की तो दूसरे किसी देश पर नजर नहीं है । उसे दूसरों के देश पर कब्जा नहीं करना है । यह शायद सच है कि चीन इस प्रकार की आक्रमणनिती के लिए तैयार नहीं । आज जो उसका शान्तिवाद जैसा दिखाई देता है वह शायद निरा प्रमाद ही हो । चाहे जो हो तो भी चीन की वृत्ति सक्रिय अहिंसा की तो है ही नहीं । फिर जापान के आक्रमण से जो वह वीरता पूर्वक अपना बचाव कर रहा है वह भी इस चीज का प्रमाण है कि चीन की वृत्ति सोद्देश्य अहिंसक नहीं है। उस पर आक्रमण हुआ है और वह बचाव कर रहा है यह कोई अहिंसा की दृष्टि से जवाब नहीं है । इसलिए सक्रिय अहिंसा की परीच्ता का समय आने पर वह हीन ही ठहरा । यह मैं चीन की कोई टीका नहीं कर रहा हूँ । मैं चीन की विजय चाहता हूँ । पहले से चली आई परंपरा से देखा जाय तो उसका यह बताव बिलकुल उचित ही है । पर जब हम अहिंसा की दृष्टि से देखने बैठेगे, तब तो मैं यही कहूँगा कि चालीस करोड़ की प्रजा-जापान की जितनी ही सभ्य और संस्कारी प्रजा-जापान के आक्रमण का सामना इस प्रकार करने के लिए निकले, यह आशोभनीय बात है । चीनियों में यदि मेरी धारणा के अनुसार अहिंसा हो, तो जापानियों के पास जो आधुनिक से आधुनिक प्रकार की हिंसक शस्त्र-सामग्री है उसका उन्हें कुछ भी १६२ युद्ध और अहिंसा उपयोग न रहे। चीनी तब जापानियों से यह कहें-‘अपनी सारी शस्त्र-सामग्री ले आओ । अपनी आधी जन-संख्या हम उसके भेंट करते हैं । पर बाकी के जो बीस करोड़ बचेंगे वे किसी भी बात में तुम्हारे सामने घुटने नहीं टेकेंगे ।’ अगर चीनी यह कर सकें, तो जापान को चीन का बन्दी बनकर रहना पड़े ।

       यह आपत्ति भी उठाई गई है कि यहूदियों के बारे में तो 

अहिंसा की हिमायत ठीक है । कारण कि उनके उदाहरण में तो अत्याचार सहनेवाले और अत्याचारी के बीच में व्यक्तिगत व्यवहार का सम्बन्ध है। लेकिन चीन में तो जापान दूर से गोला- बारी करनेवाली तोपों और हवाई जहाजों से हमला कर रहा है । अन्तरिक्ष में से विध्वंसक विमानारुढ़ शायद ही यह देख और जान पाते हैं कि खुद उन्हें किसने मारा और उन्होंने किनको मारा । ऐसे हवाई जहाजी युद्ध का सामना अहिंसा किस तरह कर सकती है ? जवाब इसका यह है कि हवाई जहाजों से जो संहारक बम बरसाये जाते हैं, उन्हें बरसानेवाले मनुष्य के ही तो हाथ हैं और उन हाथों को जो हुक्म देता है वह भी मानव- हृदय है। फिर इस सारी संहारक बम-वर्षा के पीछे मनुष्य का हिसाब भी है पर्याप्त परिमाण में ऐसे संहारक बम बरसाने से आवश्यक परिणाम होगा । मतलब यह है कि शत्रु आत्म- समर्पण कर देगा और हम उससे जो चाहते हैं वह करालेंगे । पर मान लीजिए कि एक सारी प्रजा ने ऐसा निश्चय कर लिया है कि हम किसी भी तरह अत्याचारी के आधीन नहीं होंगे अहिंसा और अन्तर्राष्ट्रीय मामले १६३ तथा उसकी पद्धति से उसका सामना भी नहीं करेंगे, तो इस स्थिति में अत्याचारी को उस प्रजा पर संहारक बम बरसाना पुसा नहीं सकता। अगर अत्याचारी के आगे अनाप-शनाप भोजन रख दिया जाय, तो एक समय ऐसा आयगा कि जब उसका पेट और ज़्यादा भोजन ठूसने से इन्कार कर देगा। अगर दुनिया के सारे चूहे कान्फ्रन्स करके यह निश्चय कर लें कि बिल्ली से डरेंगे नहीं। बल्कि सब के सब सामने जाकर बिल्ली के मुँह में चले जायँगे, तो सचमुच ही सचमुच ही मूषक जाति का उद्धार हो जाय। मैंने एक बिल्ली को चूहे के साथ खिलवाड़ करते हुए देखा था, चूहे को मार न डालकर उसे उसने जबड़े में पकड़ रक्खा था। बाद में छोड़ दिया और जब यह देखकर कि वह भागा जा रहा है उसे फिर छलाँग मारकर पकड़ लिया। अन्त में उस चूहे ने निरे डर के मारे ही प्राण छोड़ दिये। अगर चूहे ने भागने का प्रयत्न न किया होता, तो बिल्ली को उससे कुछ मज़ा न मिलता। ।

प्रश्न-आप हिटलर और मुसोलिनी को जानते नहीं हैं। उनपर किसी भी तरह का नैतिक असर पड़ ही नहीं सकता। अन्तःकरण नाम की चीज़ ही उनके पास नहीं है और दुनिया के लोकमत की उन्हें ज़रा भी परवाह नहीं है। आपकी सलाई के अनुसार चेक प्रजा अहिंसा से उसका सामना करने जाय, तो उसे इन अधिनायकों का सीधा शिकार ही बनना पड़े। मूलतः अधिनायकता की व्याख्या से ही नीति की कक्षा बाहर हे। फिर नैतिक हृदय-परिवर्तन का नियम लागू ही कैसे हो सकता है?

गांधीजी-अपनी इस दलील में आप यह मान लेते हैं कि १६४ युद्ध और अहिंसा हिटलर या मुसोलिनी जैसे आदमियों का उद्धार हो ही नहीं सकता। लेकिन अहिंसा में विश्वास रखनेवालों की आस्था ही इस आधार पर है कि मानव-स्वभाव मूलतः एक ही है और उस पर प्रेम के बर्ताव का ज़रूर ही प्रभाव पड़ता है। इतने काल से मनुष्य हिंसा का ही प्रयास करता आया है और उसका प्रतिघोष हमेशा उल्टा है। यह कह सकते हैं कि संगठित अहिंसात्मक मुकाबले का प्रयोग अभी मनुष्य ने कहीं भी योग्य पैमाने पर नहीं देखा। इसलिए यह लाजिमी है कि जब वह यह प्रयोग देखेगा, तब इस की श्रेष्ठता स्वीकार कर लेगा। फिर मैंने जिस अहिंसात्मक प्रयोग की तजवीज चेक प्रजा के सामने रखी थी, उसकी सफलता अधिनायकों के सद्भाव पर निर्भर नहीं करती, कारण कि सत्याग्रही तो केवल ईश्वर के बलपर ही लड़ता है और पहाड़ जैसी दीख पड़नेवाली कठिनाइयों के बीच वह ईश्वर-अद्धा के बल पर टिका रहता है।

प्रश्न-लेकिन ये यूरोप के अधिनायक प्रत्यक्ष रीति से बल-प्रयोग तो करते नहीं। वे तो जो चाहते हैं उसपर सीधा ही कब्जा करलेते हैं। ऐसी स्थिति में अहिंसात्मक लड़ाई लड़ने वाले को क्या करना चाहिए? गांधीजी-मान लीजिए ये लोग आकर चेक प्रजा की कानों, कारखानों और दूसरी प्राकृतिक सम्पत्ति के साधनों पर कब्जा करलें, तो फिर इतने परिणाम आयेंगे:- (1) चेक प्रजा के सविनय अवज्ञा करने के आधार पर भार डाला जाय। अगर ऐसा हुआ, तो वह चेक राष्ट्र की महान् विजय और जर्मनी के अहिंसा और अन्तर्राष्ट्रीय मामले १६५ पतन का प्रारम्भ समझा जायेगा । (२) अपार पशुबल के सामने प्रजा हिम्मत हार जाये । ऐसा सभी युद्धों में होता है । पर अगर ऐसी भीरुता प्रजा में आजाये, तो यह अहिंसा के कारण नहीं बल्कि अहिंसा के अभाव से, अथवा पर्याप्त मात्रा में सक्रिय अहिंसा न होने के कारण, होगा । (३) तीसरे, यह हो कि जर्मनी जीते हुए देश में अपनी अतिरिक्त जन- संख्या को ले जाकर बसाये । इसे भी हिंसात्मक सामना करके रोक नहीं सकते । क्योंकि हमने यह मान लिया है कि ऐसा मुकाबला अशक्य है, इसलिए अहिंसात्मक मुकाबला ही सब प्रकार की परिस्थितियों में प्रतिकार का एक मात्र अचूक तरीक़ा है ।

 और में यह भी नहीं मानता कि हिटलर तथा मुसोलिनी 

दुनिया के लोकमत की सर्वथा उपेक्षा कर सकते हैं । आज बेशक वे वैसा करके सन्तोप मान सकते हैं, क्योंकि तथाकथित बड़े- बड़े राष्ट्रों में से कोई भी साफ़ हाथों नहीं आता और इन बड़े- बड़े राष्ट्रों ने उनके साथ पहले जो अन्याय किया था वह उन्हें खटक रहा है। थोड़े दिनों की बात है कि एक अंग्रेज़ मित्र ने मेरे सामने यह स्वीकार किया था कि “ आज का नाज़ी जर्मनी इंग्लैण्ड के पाप का फल है और वर्साई की संधि ने ही हिटलर को पैदा किया है । प्रश्न-बहैसियत एक ईसाई के, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के काम में मैं किस तरह योग दे सकता हूँ ? किस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय अंधाधुंधी को १६६ युद्ध और अहिंसा नष्ट कर शान्ति-स्थापन के लिए अहिंसा प्रभावकारी साबित हो सकती है ? पराधीन राष्ट्रों को एक तरफ रखदें, तो भी बड़े-बड़े राष्ट्रो की अझसर प्रजाओं से किस तरह नि:शस्त्रीकरण कराया जा सकता है ? एक ईसाई के रूप में आप अपना योग अहिंसात्मक सामना करके दे सकते हैं; फिर भले ही ऐसा मुकाबला करते हुए आपको अपना सर्वस्व होम देना पड़े। जबतक बड़े-बड़े राष्ट्र अपना नि:शस्त्रीकरण करने का साहसपूर्वक निर्णय नहीं करेंगे, तबतक शांति स्थापित होने की नहीं । मुझे ऐसा लगता है कि हाल के अनुभवों के बाद यह चीज बड़े-बड़े राष्ट्रों को स्पष्ट हो जानी चाहिए । मेरे हृदय में तो आधी सदी के निरन्तर अनुभव और प्रयोग के बाद पहले कभी ऐसा विश्वास नहीं हुआ, जैसाकि आज है, कि केवल अहिंसा में ही मानव-जाति का उद्धार निहित है। बाइबल की शिक्षा भी, जैसा कि मैं उसे समझता हूँ, मुस्न्यत: यही है । 'हरिजन-सेवक' : १४ जनवरी, १९३९