युद्ध और अहिंसा/२/४ यहूदियों का सवाल

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १३० से – १३८ तक

 
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यहूदियों का सवाल

मेरे पास ऐसे कई पत्र आये हैं, जिनमें फ़िलस्तीन के अरबयहूदी प्रश्न पर तथा जर्मनी में यहूदियों पर होनेवाले जुल्म के बारे में मुझसे अपने विचार प्रकट करने के लिए कहा गया है। बड़ी मिमक के साथ मैं इस पेचीदा मवाल पर अपने विचार प्रकट करने का साहस करता हूँ।

यहूदियों से मेरी सहानुभूति है। दक्षिण अफ्रीका में उनके साथ मेरा निकट का सम्बन्ध रहा है। उनमें से कुछ तो मेरे जिन्दगीभर के साथी ही बन गये। इन मित्रों के द्वारा ही मुझे उन जुल्म-ज्यादतियों का बहुत-कुछ पता लगा, जो लम्बे अर्से से इन लोगों को मेलनी पड़ रही हैं। ये तो ईसाइयों में अकृत बने हुए हैं। ईसाइयों के द्वारा इनके साथ होनेवाला बर्ताव बहुत कुछ उसी तरह का है जैसा कि सवर्ण हिन्दू अस्पृश्यों के साथ करते हैं। धर्म का सहारा, इस अमानुषिक बर्ताव के लिए, दोनों ही जगह लिया गया है। इसलिए यहूदियों के प्रति मेरी सहानुभूति का कारण उस मित्रता के अलावा यह एक सामान्य बात भी है। लेकिन अपनी इस सहानुभूति के कारण, जो कुछ न्याय है उसकी तरफ से मैं आँख नही मूँद सकता। यहूदियों के लिए 'राष्ट्रीय गृह' की पुकार मुझे कुछ बहुत आकर्पित नहीं करती। बाइबल के उल्लेख भीर फिलस्तीन लौटने के बाद यहूदियों को जिस तरह भटकना पड़ा है उसके कारण यह की जाती है। लेकिन दुनियाँ के अन्य लोगों की तरह, जिस देश में जनमें और परवरिश पायें उसीको वे अपना घर क्यों नहीं बना लेते?

फिलस्तीन तो उसी तरह अरबों का है जिस तरह कि इंग्लैण्ड अंग्रेजों का या फ्राँस फॉसीसियों का है। अरबों पर यहूदियों को लादना अनुचित और अमानुषिक है। सच तो यह है कि फिलस्तीन में आज जो कुछ हो रहा है उसका किसी नैतिक नियम से समर्थन नहीं किया जा सकता। जहाँ तक मैण्डेटों का सवाल है, वे तो पिछले महायुद्ध ही का परिणाम है। गर्वीले अरबों का बल इस प्रकार कम कर देना कि फिलस्तीन को आंशिक या पूरे रूप में यहूदियों का राष्ट्रीय गृह बनाया जा सके, मानवता के प्रति एक अपराध कहा जायगा।

अच्छा तो यही होगा कि यहूदी जहां कहीं पैदा होकर परवरिश पायें वहीं उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार होने पर जोर दिया जाये; क्योंकि फ्रांस में पैदा होने वाले यहूदी भी ठीक उसी तरह फाँसीसी हैं, जैसे कि फ्रांस में पैदा होनेवाले ईसाई फांसीसी हैं। अगर यहूदियों का फिलस्तीन के सिवा और कोई अपना घर न हो, तो क्या वे इस बात को पसन्द करेंगे कि  दुनिया के जिन अन्य भागों में वे बसे हुए हैं उनसे उन्हें जबरदस्ती हटा दिया जाय? या वे दुहरा घर चाहते हैं, जहाँ कि वे अपनी इच्छानुसार रह सकें? सच तो यह है कि राष्ट्रीय गृह की इस आवाज से यहूदियों के जर्मनी से निकाले जाने का किसी-न-किसी रूप में ओचित्य ही सिद्ध हो जाता है।

लेकिन जर्मनी में यहूदियों को जिस तरह सताया जा रहा है वह इतिहास में बेजोड़ है। पहले के जालिम इतनी हदतक नहीं गये, जहाँतक कि हिटलर चला गया मालूम पड़ता है। फिर लुत्फ यह है कि वह मजहबी जोश के साथ यह सब पागलपन कर रहा है, क्योंकि वह निरंकुश और उग्र राष्ट्रीयता के एक नये राष्ट्र-धर्म का प्रतिपादन कर रहा है जिसके नाम पर कोई भी निर्दयता इहलोक और परलोक में स्तुत्य बन जाती है! एक ऐसे युवक के अपराध का जोकि स्पष्टतया पागल और दुस्साहसी था ऐसी भयानकता के साथ उसकी सारी जाति से बदला लिया जा रहा है जिस पर विश्वास करना भी मुश्किल है। सच तो यह है कि मानवता के नाम पर और उसके लिए न्यायपूर्वक अगर कभी भी कोई युद्ध किया जा सकता है तो एक जाति का अबाधरूप से सताया जाना रोकने के लिए जर्मनी के साथ युद्ध छेड़ना सर्वथा न्यायसंगत है। लेकिन मैं तो किसी भी युद्ध में विश्वास नहीं करता। इसलिए ऐसे युद्ध के फलाफल पर विचार करना मेरा काम नहीं है।

लेकिन यहूदियों के साथ जो कुछ किया जा रहा है ऐसे अपराध के लिए भी अगर जर्मनी के साथ युद्ध नहीं छेड़ा जा सकता, तो भी जर्मनी के साथ कोई सन्धि या मेलजोल तो निश्चय ही नहीं हो सकता। जो राष्ट्र न्याय और प्रजातंत्र की हिमायत का दावा करता है उसका भला उस राष्ट्र के साथ कैसे मेल हो सकता है जो इन दोनों का साफ़ दुश्मन है? या फिर इंग्लैण्ड इस तरह के सशस्त्र अधिनायकत्व की ओर्, उसके पूरे अर्थों में, भुक रहा है?

जर्मनी संसार को दिखला रहा है कि हिंसा पर जब किसी धूर्तता या दया-मया की कमजोरी का कोई बाधक आवरण न हो तो वह कितनी कारगर हो सकती है। साथ ही, वह यह भी बतला रहा है कि अपने नंगे रूप में यह कितनी कुरूप, भयानक और विकराल मालूम पड़ती है।

क्या यहूदी इस संगठित और निर्लज्ज अत्याचार का प्रतिरोध कर सकते हैं? क्या कोई ऐसा रास्ता है जिससे वे अपने को असहाय, उपेक्तित और् कमजोर महसूस किये बगैर अपने स्वाभिमान को कायम रख सकें? मैं कहता हूँ कि हाँ, है। ईश्वर में अटल विश्वास रखनेवाले किसी व्यक्ति को अपने की असहाय या लाचार समझने की आवश्कता नहीं है। यहूदियों का अधिक सगुण और वत्सल है, हालाँकि मूलतः वह भी उन सब के समान अद्वितीय और वर्णनातीत है। लेकिन यहूदी ईश्वर को सगुण व्यक्ति मानते हैं और उनका विश्वास है कि उनके सब कामों की वह देख-भाल रखता है, तो उन्हें अपने को असहाय नहीं समझना चाहिए। मैं अगर यहूदी होता और जर्मनी भ मेरा जन्म हुआ होता और वहीं मैं अपनी रोजी कमाता होता, तो मैं उसी तरह जर्मनी को अपना स्वदेश मानने का दावा करता जैसे कि कोई बड़े-से-बड़ा जर्मन कर सकता है और गोली से उड़ाये जाने या कालकोठरी में दफना दिये जाने का खतरा मोल लेकर भी मैं वहाँ से निकलने से इन्कार कर देता और अपने साथ भेदभाव का बताँव होने देना स्वीकार करता, और ऐसा करने के लिए मैं इस बात का इन्तजार न करता कि दूसरे यहूदी भी सविनय अवज्ञा में मेरा साथ दें, बल्कि यह विश्वास रखता कि दूसरे मेरे उदाहरण का अनुसरण अपने-आप करेंगे। मैंने जो यह नुसखा बतलाया है इसे एक या सब यहूदी स्वीकार करलें, तो उसकी या उनकी अब से ज्यादा बदतर हालत नहीं होगी। बल्कि स्वेच्छापूर्वक कष्ट-सहन से उनमें एक ऐसा आन्त्ररिक बल और आनन्द पैदा होगा जो जर्मनी के बाहर दुनियाभर में सहानुभूति के चाहे जितने प्रस्ताव पास होने से भी पैदा नहीं हो सकता। यह आन्तरिक बल और आन्तरिक आनन्द तो जर्मनी के खिलाफ़ ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका युद्ध-घोषणा करर्दे तब भी पैदा नहीं हो सकता, यह निश्चित है। बल्कि ऐसे युद्ध की घोपणा के जवाब में हिटलर की नापी-जोखी हुई हिंसा के फलस्वरूप सबसे पहले कहीं यहूदियों का कत्लेआम न कर दिया जाय। लेकिन अगर यहूदियों का मस्तिष्क स्वेच्छा  पूर्वक कष्ट-सहन के लिए तैयार हो सके तो ऐसा हत्याकाण्ड भी इस तरह के अभिनंदन और आनन्द का दिन बन सकता है कि यहोवा ने अपनी जाति को मोच्त प्रदान कर दिया, फिर वह चाहे जालिम के ही हाथों कयों न हो। ईश्वर से डरनेवालों के लिए मौत का भय नहीं होता। यह तो ऐसी आनन्दपूर्ण निद्रा है, जिसके अन्त में उत्साहप्रद जागरण ही होता है।

यह कहने की तो शायद ही जरूरत हो कि मेरे नुसखे पर चलना चेकों की बनिस्बत यहूदियों के लिए कहीं आसान है। दचितण अफ्रीका के भारतीय सत्याग्रह-आन्दोलन का उदाहरण भी उनके सामने है, जो कि बिलकुल इसी तरह का था। वहां भारतीयों की लगभग वही स्थिति थी जो जर्मनी में आज् यहूदियों की है। उस अत्याचार को कुछ मजहबी रंग भी दिया हुआ था। प्रेसिडेण्ट क्रूगर अक्सर यह कहा करते थे कि गोरे ईसाई ईश्वर की चुनी हुई श्रेष्ट कृति हैं और भारतीय उनसे नीचे दर्जे के हैं जिनकी उत्पत्ति गोरों की सेवा के ही लिए हुई है। ट्रांसवाल के शासन-विधान में एक बुनियादी धारा यह थी कि गोरों और रंगीन जातियों में, जिनमें कि एशियाई भी शामिल हैं, कोई समानता नहीं होनी चाहिए। वहाँ भी भारतीयों को अलग बस्तियों में बसाया गया था। दूसरी असुविधाएँ भी क़रीब-करीब वैसी ही थीं जैसी कि जर्मनी में यहूदियों को हैं। भारतीयों ने, जिनकी तादाद मुट्ठीभर ही थी, बाहरी दुनिया या भारतीय सरकार के किसी सहारे के बिना उसके बिरुद्ध सत्याग्रह किया। ब्रिटिश अधिकारियों ने निस्संदेह सत्याग्रहियों को अपने निश्चय से हटाने की कोशिश की। संसार को लोकमत और भारत सरकार तो आठ बरस की लड़ाई के बाद उनके सहायक हुए-और, तब भी लड़ाई की कोई धमकी न देकर ग्वाली राजनैतिक दबाव ही डाला गया।

दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की बनिस्बत जर्मनी के यहूदियों के लिए सत्याग्रह करने का वातावरण कहीं ज्यादा अनुकूल है क्योंकि जर्मनी में यहूदियों की एक ही समानजाति है, दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की बनिस्बत वे कहीं अधिक योग्य हैं और उनके पीछे संसार का संगठित लोकमत है। मुझे इस बात का इतमीनान है कि उनमें से कोई साहस और दूरदर्शिता के साथ अहिंसात्मक आन्दोलन नेतृत्व करने के लिए उठ खड़ा हो तो जनकी वर्तमान निराशा जल्दी ही आशा में परिणत हो सकती है। और आज जो मनुष्यों का बुरी तरह शिकार हो रहा है वह ऐसे स्त्री-पुरुषों के शान्त किंतु दृढ़ मुकाबले का रूप धारण कर लेगा जो हारेंगे तो निरस्त्र, पर जिनके पीछे यहोवा की दी हुई कष्टसहन को शक्ति होगी। मानवता से ही मनुष्यों के राक्षसी अत्याचार के खिलाफ तब यह एक सच्चा धार्मिक प्रतिरोध होगा। जर्मनी के यहूदी जर्मनी पर इस रूप में स्थायी विजय प्राप्त करेंगे कि जर्मनी के अनायों को वे मानवीय प्रतिष्ठा की कद्र करना सिखला देगे। वे अपने साथी जर्मनों की सेवा करेंगे और यह सिद्ध कर देंगे कि असली जर्मन वे हैं, न कि वे जो चाहे अन जाने ही पर आज जर्मन नाम पर धब्बा लगा रहे हैं। एक शब्द फ़िलस्तीन में रहनेवाले यहूदियों से भी। वे गलत रास्ते पर जा रहे हैं, इसमें मुफे कोई शक नहीं। बाइबल में जिस फिलस्तीन की कल्पना है वह कोई भौगोलिक प्रदेश नहीं है। वह तो उनके दिलों में बसा हुआ है। लेकिन अगर भौगोलिक फिलस्तीन को ही अपना राष्ट्रीय घर समझना आवश्यक हो, तो भी ब्रिटिश तोपों के संरक्षण में उसमें प्रवेश करना ठीक नहीं है। क्योंकि बम या संगीनों की मदद से कोई धार्मिक कार्य नहीं किया जा सकता। फिलस्तीन में अगर उन्हें बसना है तो केवल अरबों की सद्भावना पर ही वे वहाँ बस सकते हैं। अतः अरबों का हृदय-परिवर्तन करने की उन्हें कोशिश करनी चाहिए। अरबों के हृदय में भी वही ईश्वर निवास करता है, जो कि यह दियों के हृदय में बस रहा है। अरबों के आगे वे सत्याग्रह कर सकते हैं। उनके खिलाफ कोई अँगुली भी उठाये बगैर, उनके द्वारा गोली से मार डाले जाने या मृतसमुद्र में फेंक दिये जाने को वे तैयार रहें। ऐसा हुआ तो वे देखेंगे कि संसार का लोकमत उनकी धार्मिक आकांक्षा के भो पक्ष में हो जायगा। ब्रिटिश संगीनों की मदद का आश्रय छोड़ दिया जाय, तो अरबों से तर्क-वितर्क करने के, दलीलों से उन्हें समझाने-बुझाने के, सैकड़ों तरीके हैं। इस समय तो वे ब्रिटिशों के साथ उस प्रजा को मिटाने में साझीदार हो रहे हैं जिसने उनके साथ कोई बुराई नहीं की है।

अरबों द्वारा की जानेवाली ज्यादतियों की मैं हिमायत नहीं करता। जिसको वे अपने देश की स्वतंत्रता में अनुचित हस्तक्षेप समझते हैं उसके प्रतिरोध के लिए उन्होंने अहिंसा का रास्ता चुना होता तो क्या अच्छा होता! लेकिन सही और गलत के स्वीकृत अर्थों में, बहुत-सी विरोधी बातों के बावजूद, अरबप्रतिरोध के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा सकता।

यहूदी अपने को ईश्वर की चुनी हुई जाति कहते हैं। उन्हें चाहिए कि दुनिया में अपनी स्थिति की रक्षा के लिए अहिंसा के रास्ते को पसन्द करके अपने विशेषण को सही साबित करें। हरेक देश, यहांतक कि फिलस्तीन भी, उनका घर है, लेकिन आक्रमण द्वारा नहीं बल्कि प्रेमपूर्ण सेवा के द्वारा। एक यहूदी मित्र ने सेसिल रॉथ की लिखी किताब 'जगत् की सभ्यता में यहूदियों की देन' मेरे पास भेजी है। संसार के साहित्य, कला, संगीत, नाटक, विज्ञान, वैद्यक, कृषि इत्यादि को समद्ध करने के लिए यहूदियों ने क्या-क्या किया है, यह सब इसमें बतलाया गया है। यहूदी चाहें तो पश्चिम के अस्पृश्य बनने से, दूसरों से संरक्षण और हिकारत पाने से इन्कार कर सकते हैं। पशुबल के आगे तेजी से खत्म और ईश्वर से परित्यक्त होते हुए मनुष्यों के बजाय ईश्वर की चुनी हुई कृतिवाले मनुष्य बनकर वे संसार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं और सम्मान भी प्राप्त कर सकते हैं। यही नहीं, अपनी अनेक देनों में वे अहिंसात्मक कार्य की अपनी सबसे बड़ी देन भी शामिल कर सकते हैं।

'हरिजन-सेवक' : ३ दिसम्बर, १९३८