युद्ध और अहिंसा/२/३ बड़े-बड़े राष्ट्रों के लिए अहिंसा

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १२६ से – १२९ तक

 
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बड़े-बड़े राष्ट्रों के लिए अहिंसा

चेकोस्लोवाकिया पर लिखे गये मेरे हाल के लेखोंपर जो आलोचनाऍ हुई, उनमें से एक का जवाब देना है।

कुछ आलोचकों का कहना है कि चेकों को मैंने जो उपाय सुझाया वह तुलनात्मक रूप से कमजोर है; क्योंकि वह चेकोस्लोवाकिया जैसे छोटे राष्ट्रों के लिए ही है, और इंग्लैण्ड, फ्रांस या अमेरिका जैसे बड़े राष्ट्रों के लिए नहीं, तो उसका कोई महत्व भी हो तो भी वह अधिक मूल्यवान नहीं है।

लेकिन मैंने बड़े राष्ट्रों को जो यह बात नहीं सुझाई इसका कारण उन देशों का बड़ा होना, या दूसरे शब्दों में मेरी भीरुता तो है ही, पर इसकी एक और खास वजह है। बात यह है कि वे मुसीबतजदा नहीं थे और इसलिए उन्हें किसी उपाय की भी जरूरत नहीं थी। डाक्टरी भाषा में कहूँ तो वे चेकोस्लोवाकिया की तरह रोगग्रस्त नहीं थे। उनके अस्तित्व को चेकोस्लोवाकिया का कोई खतरा नहीं था। इसलिए महान् राष्ट्रों से मैं कोई बात कहता तो वह भैस के आगे बीन बजाने' जैसा ही निष्फल होता। अनुभव से मुझे यह भी मालूम हुआ कि सद्गुणों के खातिर लोग सद्गुणी मुश्किल से बनते हैं। वे तो आवश्यकतावश सद्गुणी बनते हैं। परिस्थितियों के दबाव से भी कोई व्यक्ति अच्छा बने तो उसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन अच्छाई के लिए अच्छा बनना नेसन्देह उससे श्रेष्ठ है।

चेकों के सामने इसके सिवा कोई उपाय ही न था कि या तो वे शान्ति के साथ जर्मनी की शक्ति के आगे सिर झुका दें या अकेले ही लड़कर निश्चित रूप से विनाश का खतरा उठाएँ। ऐसे अवसर पर ही मुझ जैसो को यह आवश्यक मालूम हुआ कि वह उपाय पेश करूँ जिससे बहुत कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। चेकों से मैने जो कुछ निवेदन किया, मेरी राय में, वह बड़े राष्ट्रों के लिए उतना ही डीचत है।

हाँ मेरे आलोचक यह पूछ सकते हैं कि, जबतक हिन्दुस्तान में, मैं अहिंसा की सौ फीसदी सफलता करके न बद्ला दूँ तबतक किसी पश्चिमी राष्ट्र से उसके न कहने की जो कैद खुद ही अपने ऊपर मैंने लगा रक्खी है उससे बाहर मैं क्यों गया? और खासकर अब्, जबकि मुझे इस बात से गम्भीर सन्देह होने लगा है कि कांग्रेसजन अहिंसा के अपने ध्येय या नीति पर वस्तुतः कायम भी हैं या नहीं? जब मैंने वह लेख लिखा तब कांग्रेस की वर्तमान अश्निश्ति स्थिति और अपनी मर्यादा का मुझे जरूर ध्यान था। लेकिन अहिंसात्मक उपाय में मेरा विश्वास हमेशा की तरह दृढ़ था और मुझे ऐसा लगा कि ऐसे आड़े वक्त चेकों को मैं अहिंसात्मक उपाय प्रहण करने के लिए न कहूँ तो यह मेरी कायरता होगी; क्योंकि ऐसे करोड़ों आदमियों के लिए जो अनुशासन-हीन हैं और अभी हाल में पहले तक उसके आदी नहीं थे, जो बात अन्त में शायद असम्भव साबित हो, वह सम्मिलित रूप से कष्ट-सहन के लायक छोटे और अनुशासनयुक्त राष्ट्र के लिए सम्भव हो सकती है। मुझे ऐसा विश्वास रखने का कोई हक नहीं है कि हिन्दुस्तान के अलावा और कोई राष्ट्र अहिंसात्मक कार्य के उपयुक्त नहीं है। अब मैं जरूर कबूल करूंगा कि मेरा यह विश्वास रहा है और अब भी है कि अहिंसात्मक उपाय द्वारा अपनी स्वतन्त्रता फिर से प्राप्त करने के लिए हिन्दुस्तान ही सबसे उपयुक्त राष्ट्र है। इससे विपरीत आसारों के बावजूद, मुझे इस बात की उम्मीद है कि सारा जनसमुदाय जो कांग्रेस से भी बड़ा है, केवल अहिंसात्मक कार्य को ही अपनायेगा; क्योंकि भूमण्डल के समस्त राष्ट्रों में हमीं ऐसे काम के लिए सबसे अधिक तैयार हैं। लेकिन जब इस उपाय के तत्काल अमल का मामला मेरे सामने आया तो चेकों को उसे स्वीकार करने के लिए कहे बिना मैं न रह सका।

मगर बड़े-बड़े राष्ट्र चाहें, तो चाहे जिस दिन इसको अपनाकर गौरव ही नहीं बल्कि भावी पीढ़ियों की शाश्वत कृतज्ञता भी प्राप्त कर सकते हैं। अगर वे या उनमें कोई विनाश के भय को छोड़कर नि:शस्त्र हो जायें तो बाकी सबके फिर से अक्लमन्द बनने में वे अपने आप सहायक होंगे। लेकिन उस हालत में इन बड़े-बड़े राष्ट्रों को साम्राज्यवादी महत्वकांक्षात्रों तथा भूमण्डल के असभ्य या अर्द्ध सभ्य कहे जानेवाले राष्ट्रों के शोषण को छोड़कर अपने जीवनक्रम को सुधारना पड़ेगा। इसका अर्थ हुआ पूर्ण क्रान्ति। पर बड़े-बड़े राष्ट्र साधारण रूप में विजय-पर-विजय प्राप्त करने की अपनी धारणाओं को छोड़कर जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे विपरीत रास्ते पर वे एकदम नहीं चल सकते। लेकिन चमत्कार पहले भी हुए हैं और इस बिल्कुल नीरस जमाने में भी हो सकते हैं। गलती को सुधारने की ईश्वर की शक्ति को भला कौन सीमित कर सकता है! एक बात निश्चित है। शस्त्रास्त्र बढ़ाने की यह उन्मत्त दौड़ अगर जारी रही, तो उसके फलस्वरूप ऐसा जनसंहार होना लाजिमी है जैसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। कोई विजयी बाकी रहा तो जो राष्ट्र विजयी होगा उसकी विजय ही जीते-जी उसकी मृत्यु बन जायगी। इस निश्चित विनाश से बचने का सिवा इसके कोई रास्ता नहीं है कि अहिंसात्मक उपाय को उसके समस्त फलितार्थों के साथ साहसपूर्वक स्वीकार कर लिया जाय। प्रजातंत्र और हिंसा का मेल नहीं बैठ सकता। जो राज्य आज नाम के लिए प्रजातन्त्री हैं उन्हें या तो स्पष्ट रूप से तानाशाही का हामी हो जाना चाहिए, या अगर उन्हें सचमुच प्रजातन्त्री बनना है तो उन्हें साहस के साथ अहिं. सक बन जाना चाहिए। यह कहना बिल्कुल वाहियात है कि अहिंसा का पालन केवल व्यक्ति ही कर सकते हैं, और राष्ट्र हर्गिज नहीं, जो व्यक्तियों से ही बने हैं।

'हरिजन-सेवक' : १२ नवम्बर, १९३८