युद्ध और अहिंसा/१/२ हेर हिटलर से अपील

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १८ से – १९ तक

 
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हेर हिटलर से अपील

“गत २४ अगस्त को लन्दन से एक बहिन ने मुझे यह तार दिया-‘कृपा करके कुछ कीजिए। दुनिया आपकी रहनुमाई की राह देख रही है।' लन्दन से एक दूसरी बहिन का यह तार आज मुझे मिला-‘मैं आप से अनुरोध करती हूँ कि आपकी पशुबल में न होकर विवेक में जो अचल श्रद्धा है उसे शासकों और प्रजा के सामने अविलम्ब प्रकट करने का विचार करें।’

मैं इस सिर पर मँडरा रहे विश्व-संकट के बारे में कुछ कहने में हिचकिचा रहा था, जिसका कुछ राष्ट्रों के ही नहीं बल्कि सारी मानव-जाति के हित पर असर पड़ेगा। मेरा ऐसा खयाल है कि मेरे शब्दों का उन लोगों पर कोई प्रभाव न पड़ेगा, जिनपर लड़ाई का छिड़ना या शान्ति का कायम रहना निर्भर है। मैं जानता हूँ कि पश्चिम के बहुत-से लोग समझते हैं कि मेरे शब्दों की वहाँ प्रतिष्ठा है। मैं चाहता हूँ कि मैं भी ऐसा समझता। क्युंकि मैं ऐसा नहीं समझता, इसलिए मैं चुपचाप ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि वह हमें युद्ध के संकट से बचाये। लेकिन यह घोषणा करने में मुझे जरा भी हिचकिचाहट नहीं मालूम होती कि मेरा विवेक में विश्वास है। अन्याय के दमन के लिए या झगड़ों के निपटारे के लिए अहिंसा का दूसरा नाम ही विवेक है। विवेक का अर्थ मध्यस्थ का किया हुआ किसी झगड़े का बाध्यकारी निर्णय अथवा युद्ध नहीं है । मैं अपने विश्वास पर सबसे अधिक ज़ोर यही कहकर दे सकता हूँ कि यदि मेरे देश को हिंसा के द्वारा स्वतन्त्रता मिलना सम्भव हो, तो भी मैं स्वयं उसे हिंसा से प्राप्त न करूंगा । ‘तलवार से जो मिलता है वह तलवार से हार भी लिया जाता है’-इस बुद्धिमानी के बचन में मेरा विश्वास कभी नष्ट नहीं हो सकता । मेरी यह कितनी प्रबल इच्छा है कि हेर हिटलर संयुक्त राष्ट्र के राष्ट्रपति की अपील को सुनें और अपने दावे को जाँच मध्यस्थों द्वारा होने दें, जिनके चुनने में उनका उतना ही हाथ रहेगा जितना कि उन लोगों का जो उनके दावे को ठीक नहीं समझते ।”x



x २९ अगस्त १९३९ को दिया गया वक्तव्य ।