याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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छठवां परिच्छेद

मैं थोड़ी ही देर तक वहां था, इतनी ही देर में मैंने यह सब देखा फिर पहरेवालों के साथ मैं उसी खोह में लौट आया और जानवरों की तरह उसमें बंद कर दिया गया।

तीन दिन और तीन रात मुझे उसी भयानक कारागारही में बीते। हाय, ये तीन दिन बड़ेही कष्ट से बीते। कहां तो स्वाधीनता, शत्रुओं के खोजने का महाउत्साह, पर्वतस्थली में भ्रमण, पहाड़तोड़ तोपों की गंभीर ध्वनि, श्रेणीवद्ध सौ सौ बंदूकों की बारंबार आवाज़े, तीखी तल्वारों की झनझनाहट, और बीरताव्यंजक प्रतिक्षण नवीनातिनवीन उत्साह; और कहां इस अन्धकारपूर्ण, भयानक पहाड़ी बिल में पशुओं की भांति अकेले समय विताना! हा! उस समय मैंने मनही सन यह समझ लिया था कि भयानक मृत्यु जल्लाद बनकर मेरी परमायु के मस्तक पर झुठाराघात कर रही है। हा! यह कौन जानता था कि मुझे अकालही में दुराचारी अफरीदियों के हाथ पशु की मौत मरना पडेगा, मेरी भरीजवानी इस प्रकार मिट्टी में मिल जायगी, और मेरे सार मनोरथ बिना पूरे हुए ही रह जायंगे! ऐसी मौत से में नहीं मरना चाहता था, पर उस समय मेरा चाराही क्या था! यदि हाथ में तल्वार हो और सामने लड़कर मरना पड़े तो उस मृत्यु को मैं बड़े सुख की मृत्यु समझता हूं, परन्तु उस मृत्यु को स्मरण कर मेरा हृदय रहरह कर कांप उठता था।

ये तीन दिन मैंने तीन युग के समान काटे, क्योंकि इन तीन दिनों में एक दिन भी सुन्दरी हमीदा के दर्शन मुझे नहीं हुए थे। वह क्यों न सुझसे मिली, इसका कारण मुझे पीछे विदित हुआ था कि निज पिता की कड़ाई के कारण वह मेरे पास नहीं आसकी थी, परन्तु इस बात पर मुझे पूरा विश्वास था कि इस भयानक शत्रुपुरी में सिवा उसके मेरी भलाई चाहनेवाला और कोई नहीं है। किन्तु एक निस्सहाया अफरीदी वाला हज़ारों बैरियों की तल्वार से मुझे क्यों कर बचा सकेगी, यह चिन्ता मुझे और भी पागल किए देती थी। किन्तु मेरे प्राण बचने का एक मात्र उपाय था,-धर्म त्याग; अर्थात अपने पवित्र सिक्ख धर्म को छोड़ कर मुसलमानों के काल्पत [ ४४ ]मुहम्मदी धर्म का ग्रहण! किन्तु ऐसा मैं कदापि नहीं कर सकता! अहा! जिस समय गुरु तेगबहादुर ने मुसलमानी धर्म के ग्रहण करने की असम्मति प्रगट की थी और औरंगजेब के हुक्म से वेकत्ल किए गए थे। तो जब जल्लाद की तेज़ तल्वार उनके सिर पर उठी थी, उस समय उन्होंने यही कहा था कि,-"मैंने सिर दिया, परन्तु धर्म न दिया!" आहा! उसी पूजनीय गुरु का शिष्य हो कर मैं प्राण के भय से धर्म त्याग करूंगा! कदापि नहीं। हाय, वह जीवन किस काम का रहेगा, यदि मैं निज धर्म त्याग करके कापुरुष की भांति अपने बैरीसे निज प्राण की भिक्षा मांगूंगा! बस, ऐसे तुच्छ जीवन से मुझे कुछ भी प्रयोजन नहीं है, बरन ऐसे क्षणिक जीवन से मरना कहीं बढ़ कर है। जगदीशबाबू! इस प्रकार मनही मन निश्चय कर के मरने के लिये में तैयार हुआ।

चौथे दिन बड़े तड़के ही पहरेवाले ने मुझे दरबार में चलने के लिये तैयार होने को कहा! मैं तो और भी पहले से तैयार था, सो चट उसके साथ हो लिया और अपने मामली कामों से छट्टी पा कर दरबार में पहुँचा। मैंने इस बात का सिद्धान्त कर लिया था कि आज का दरबार केवल मेरे प्राण लेने के लियेही किया गया है। आज के दरबार में सैकड़ों अफ़रीदी सरदार नंगी तल्वार लिये बैठे थे, सरदार मेहरखां भी बड़ी शान शौकत से अपने तख्त पर बैठा था और उसके पीछे चालीस सिपाही नंगी तल्वार लिये खड़े थे, दरबार के सामने मैदान में पांच सौ सवार नंगी तत्वार और भाले लिये कतार बांधेखड़े थे और मेरे पीछे सोलह बंदूकधारी जल्लाद खड़े हुए थे। एक बेर हष्टि धुमा कर मैने यह सब देख लिया और फिर परमात्मा का स्मरण कर, तन कर मेहरखां के सामने देखा। मुझे उस प्रकार निडर भाव से खड़े देख कर कदाचित वह मनही मन झल्ला उठा और झंशला कर बोला,

"काफिर कैदी! इन तीन दिनों के अंदर तूने मेरी बात पर बखूबी गौर कर लिया होगा?"

मैंने कहा,-'हां, मैंने उस बात पर भली भांति बिचार कर लिया है।"

मेहरखां ने कहा,-"तो तू झूठे सिक्ख मज़हब को छोड़ कर छीन इस्लाम के कबूल करने के लिये राज़ी है?" यह सुनतेही मैंने मारे क्रोध के जलकर अपनी आंखों से आग [ ४५ ]बरसाते हुए कहा, --नहीं, कभी नहीं! क्योंकि जिस तरह तू मेरे मज़हब को झूठा कह रहा है उसी तरह में भी तो मेरे मज़हब को झूठा समझ रहा हूँ! फिर मैं उसे क्योंकर स्वीकार कर सकता हूं?"

यह बात मैंने बड़े आवेश के साथ कही; क्योंकि जैसे बुझने के समय दीपक एकबार 'दप्प' से जल उठता है, उसी प्रकार मृत्यु को सामने देखकर मेरा हृदय भी उपसित हो उठा और मैंने बड़ी दृढ़ता के साथ ऊपर कहा हुआ वाक्य कहा। मेरी बातें सुनकर मेहरखां ने कहा,-"सुन, बेवकूफ़! मैं तुझे यकीन दिलाता हूं कि अगर तू मुसलमान हो जायगा तो तुझे मैं अपने दरबारी अमीरों में शुमार कर लूंगा और अपनी दुख्तर हमीदा को भी तेरे हवाले करूंगा। इसके अलावे, अगर तू हिन्दुस्तान को जाया चाहेगा, तो अंग्रेज़ों से लड़ाई खतम होने के बाद तुझे खुशी से अपने सिवाने के बाहर पहुंचा दूंगा।"

जगदीशबाबू! यह लालच ऐसे भयंकर हलाहल से मिला हुआ था कि जिसकी कड़वाहट से मेरा सिर घूम गया और मैंने बड़े कड़े शब्दों में कहा,-"छिः! तू क्या बावला हुआ है, जो मुझे लालच दिखला कर मेरे धर्म से मुझे डिगाना चाहता है! अपने दरबारी अमीरों में शुमार करना या हमीदा को देडालना तो दूर रहा, अगर तू मझे अपने सिंहासन के साथ विहिश्त की सारी हूरों को भी मुझे देडाले तब भी मैं अपना धर्म न छोड़ेगा। और यदि कभी मुझे ऐसा अवसर मिला तो मैं तेरी लड़की हमीदा को अपने मज़हब में लाकर तब उससे शादी करूंगा, अन्यथा नहीं। तू क्या नहीं जानता कि अबतक हज़ारों मुसलमान दीन इस्लाम को छोड़ छोड़ कर पवित्र सिक्ख धर्म में दीक्षित हो चुके हैं और एक सिक्ख ने भी मुसलमानी मत को ग्रहण नहीं किया है। इसलिये तू मुझसे ऐसी आशा न रख।”

मेरी बात सुनकर मेहरखां मारे क्रोध के थर्रा उठा और ज़ोर से चिल्ला कर कहने लगा,-"बेवकूफ़ काफ़िर, अब तेरी मौत बिल्कुल तेरे नज़दीक पहुंच गई है। अफ़सोस, तू जानबूझकर अपनी जान देरहा है, वरन मैं यह नहीं चाहता था कि नाहक तेरी जान लूं।"

उसकी यह बात सुनकर मैं ज़ोर से हंसपड़ा और कहने लगा, "मुझे यह बात पहिले नहीं मालूम थी कि तुझमें रहमदिली कूट कूट कर भरी हुई है। अस्तु, सदार मेहरखां! तू इस बात की फ़िक्र न कर और मेरे लिये अपना दिली अफ़सोस जाहिर मत कर। तू निश्चय जान [ ४६ ]कि सिक्खवीर मौत से नहीं डरते।"

मेरी बात सुनकर मेहरवां और भी भभक उठा और ज़ोर से बोला,"बेवकूफ, काफिर मैंने समझ लिया कि तेरी मौत तेरे सरपर आपहंची है! तो खर, ऐसाही हो! मैं तुझे कत्ल का हुक्म सुनाता हूं, इसलिये अब तू मरने के लिये तैयार होजा। आज शाम को अफरीदी जल्लाद तुझे कत्ल करेगा।'

बस, इतना कह कर उसने मुझे पुनः जेल में लेजाने के लिये अपने सिपाहियों को हुक्म दिया और मैं फिर उसी भीषण कारागार में पहुंचा दिया गया।

जगदीश बाबू! जबकि मैंने अपनी मौत को आपही बुलाया था तो फिर मैं मरने से भयभीत क्यों होने लगा था! अस्तु, कारागार में आनेके समय मैने भगवान भास्कर को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया, क्योंकि फिर मुझे दूसरे दिन के सूर्य का दर्शन कब संभव था! यद्यपि इस नश्वर संसार में जो जन्मा है, वह एक न एक दिन अवश्य मरेगा, यह बात सभी जानते हैं; परन्तु 'तुम आज मरोगे,' ऐसा सुनकर कौन धार धर सकता है! हाय, इस महा त्रासदायक मृत्यु के समाचार को मुज कर कौन विकंपित नहीं होता! परन्तु तुम सच जानो कि, जबकि में स्वयं जान देने के लिये तैयार हुआ था तो फिर मुझे उस ( मृत्यु ) से भय क्यों लगने लगा था! अतएव मैं स्वस्थ होकर कारागार में परमेश्वर का चिन्तन करने लगा। किन्तु उस ईश्वर के भजन में रह रह कर व्याघात होने लगा और प्यारी हमीदा का ध्यान मुझे विचलित करने लगा। यद्यपि फिर हमीदा सुझसे नहीं मिली थी, यह बात मैं कह आया हूं, परन्तु वह उसी प्रहरी के हाथ मेरे लिये बराबर भोजन भेज दिया करती थी, जिसे मैं बड़ी रुचि के साथ खाता था, परन्तु आज के भोजन को मैंने छुआ तक नहीं, और यही इच्छा मनही मन करने लगा कि किसी प्रकार मरने से पहिले एक बेर हमीदा का दर्शन होजाय! परन्तु यह मेरी इच्छा मेरे मनमें ही रही और इस विषय में मैंने उस पहरेदार से इसलिये कुछ कहना उचित न समझा कि कहीं मेरे कारण उस बेचारी पर कोई आपदा न आजावे, क्योंकि इस बात को में भली भांति समझता था कि यदि वह मेरे पास तक आसकेगी, तो मरने से पहिले वह मुझे अवश्य अपना ही दर्शन देगी। निदान, इन्हीं सब जंजालों में फंसकर मैं शान्तिपूर्वक ईश्वराराधन [ ४७ ]भी नहीं करने पाया था कि भगवान भास्कर अस्ताचल पर पहुंच गए और साथही तीन अफरीदी सिपाही आकर मुझे उस जगह पर ले गए, जहांपर मुझ जैसे अभागों की जाने ली जाती थीं।

वह जगह बस्ती से कुछ दूर, पहाड़ की चोटी पर थी और वह इतनी सूनसान और मनहल थी कि वहां पहुंचने पर एक देर मेरा हृदय कांप उठा। परन्तु तुरंत ही मैंने गुरु गोविन्द सिंह का नाम लेकर अपने हृदय को दृढ़ किया और घातकों से कहा कि,- वे अपना काम करें।"

उस समय अस्त होते हुए सूर्य की लाल प्रभा से उस पर्वतस्थली की कैली प्राकृतिक शोभा थी, इसके अनुभव करने का मुझे अक्सर न था, क्योंकि मेरी मृत्यु मेरे बहुत ही समीप पहुंच गई थी। अस्तु, मैंने एक बार घूमकर चारो ओर इसलिये दृष्टि फेरी कि यदि कदाचित हमीदा कहीं पर खड़ी हो तो उसे एक बार देखलूं, परन्तु हा! उस समय वह थी कहां!

निदान फिर तो जल्लादों ने मेरे हाथ पैर और आंखों के बांधने की इच्छा प्रगट की, जिले सुनकर मैंने कहा,-"आह! मरने के पूर्व तो अब तम लोग मुझे बंधन में न डालो और मरते मरते मुझे इन आंखों से इस प्राकृतिक शोभा को देख लेने दो। फिर मरने के बाद न जाने मैं किस लोक में जाऊंगा और वहां पर न जाने किस प्रकार के सुख वा दुःख को पाऊंगा।"

मरने के समय की मेरी इस बात को जल्लादों ने मान लिया और मैं मरने के लिये तैयार हो गया। उस समय एकाएक मेरी दृष्टि सामनेवाली एक पहाड़ी चोटी पर जो गई तो मैंने देखा कि सफ़ेद साड़ी पहने हुए कोई स्वर्गीया सुन्दरी अचल-प्रतिमा की भांति खड़ी है! यद्यपि सूर्यास्त हो जाने के कारण मैं यह स्पष्ट न जान सका कि वह हमीदा ही थी; या कोई और थी, पर मेरे चित्त ने मुझ स्ले बार बार यही कहाकि यह हमीदा ही है। आह! यह जानते ही मैं मारे प्रसन्नता के अपनी मृत्यु को क्षण भर के लिये भूल गया, परन्तु तुरंत ही जल्लादों के संकेत करने से मैं सावधान हो गया, पर मेरी दृष्टि उस अचल-प्रतिमा ( हमीदा ) ही की ओर लगी रही।

अहा, प्रेम! तू धन्य है! सामने मृत्यु, सिरपर घासक, बगल में काल और चारो ओर ले निराश की फांसी, तिलपर भी प्रेम! अतएव [ ४८ ]कहते हैं कि प्रेम तू धन्य है! क्षणमात्रही का जीवन अब रहगया है, दीपक बुझने में अब कोई सन्देह नहीं है। आशा एक दम से शून्य में मिल गई है और दुराशा ने भी एक प्रकार से साथ छोड़ दिया है, तथापि प्रेम! तथापि प्रेमका यह महामोहप्रद उत्पात!!!

मेरी दृष्टि उसी अस्पष्टमूर्ति की ओर, जिसे मैने हमीदा समझ रक्खा था, लगगई थी और उसकी ओर निहारते निहारते मुझे आशा और निराशा ने बेतरह झकझोर डाला था। यद्यपि मैं अपने जीवन से सब तरह निराश होहीचुका था, किन्तु उस अस्पष्ट-हमीदा मूर्ति के देखते ही मुझे न जाने, आशा कैसी कैसी आशा देने लगी और न जाने मेरे मनमें कैसी कैसी तरंगें उठने लगीं। उस समय, मुझे यही जान पड़ने लगा कि मानो मैं किसी कल्पनातीत दिव्य राज्य में हमीदा के साथ बिचरण कर रहा हूं, और मुझे चारो ओर से अनेक दिव्यमूर्तियों ने घेर रक्खा है।

जगदीशबाबू! उन जल्लादों में तीसरा व्यक्ति वही कमीना अबदुल था, जो मेरे उपकार का प्रत्युपकार करने आया था। सो उसने मुझे अन्तिम बार सावधान होने के लिये कहा, जिसके उत्तर में मैंने गरज कर कहा कि,-'तू अपना काम कर, मैं सावधान हूं।

निदान, 'गुड़ गुड़ गुडुम्' करके तीनों बंदूकें छूट गई और कंधे में चोट खा, मुर्छित हो कर मैं वहीं गिर गया। फिर मुझे चारों ओर अंधकारही अंधकार दिखलाई देने लगा और यह नहीं जान पड़ा कि फिर क्या हुआ!

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