याक़ूती तख़्ती
किशोरीलाल गोस्वामी

काशी: किशोरीलाल गोस्वामी, पृष्ठ ४९ से – ५१ तक

 

सातवां परिच्छेद

समय जब मैं होश में आया उस समय रात थी, पर कितनी थी, यह मैंन जानसका। मैने देखा कि घर के कोने में दीवट पर रक्खा हुआ एक दीया बल रहा है और में एक व्याघ्रचर्म पर पड़ा हुआ है। मेरे कंधे में, जहां पर कि मैंने चोट खाई थी, इतनी पीड़ा होरही है कि जिसके कारण करवट बदलना तो दूर रहा, मैं हिलडोल भी नहीं सकता हूं। मेरे सिरहाने सिर झुकाए हुए एक सुन्दरी बैठी है और बड़ी उत्कंठा से वह मेरे चेहरे को देख रही है! किन्तु वह कौन सुन्दरी थी, यह बात हलके उजाले के कारण मैं एकाएक न जान सका।

एक तो मिटमिट करते हुए दीए का उजाला कम था, दूसरे मेरी आंखों में पहिले की सी ज्योति नहीं बच रही थी, इसलिये प्रथम दर्शन में मैंने उस सुन्दरी को नहीं पहिचाना कि यह कौन है! अस्तु, कुछ देर में मैंने अपनी बिलुप्त स्मृति को धीरे धीरे अपने हृदय में लाकर उस सुन्दरी से दो प्रष्ण किए,-"मैं कहां हूं-और तुम कौन हो?"

मेरे प्रष्ण को सुन और मेरे कान के पास अपना मुहं लाकर उस सुन्दरी ने बहुतही धीरे से कहा,-"आप घबरायं नहीं, क्योंकि आप अपने एक सच्चे दोस्त की हिफाज़त में हैं।"

मैंने फिर कहा,-"तो तुम कौन हो!"

इस पर उस सुन्दरी ने कहा, "मैं आपकी लौंडी हमीदा हूं। बस, अब चुपचाप पड़े रहिए, बोलिए मत; क्योंकि ज़ियादह बोलने में तकलीफ़ घटने के वनिस्वत और भी बढ़ जायगी।"

हमीदा का नाम सुनतेही मेरा मन फड़क उठा और में अपने छिन्नभिन्न स्मृतिसूत्र के जोड़ने में उसी प्रकार यत्म करने लगा, जैसे मकड़ी अपने जाले के तार टूटने पर उसके जोड़ने में प्रयत्न करने लगती है। सो कुछ देर में चित्त को संयत करके मैने पहिले के सारे वृत्तान्त को धीरे धीरे समझा और हमीदा से कहा,-"हमीदा! तुम स्वर्गीया देवी हो, मनुष्यलोक की नारी नहीं हो। अतएव में समझाता हूं कि मुझ जैसे पापी के उद्धार करने के लियेही तुम स्वर्ग से उतर कर इस नरक में आई हो!" मेरी बात सुनकर हमीदा की आंखे फिर लाल होगई, पर उसने अपने उमड़ते हुए क्रोध के बेग को रोक कर कहा, "यह पहाड़ी मुल्क मेरी पैदाइश की जगह है, चुनांचे यह मेरा बिहिश्त है। बस, इसे आप दोजख न कहें। मैं इस पहाड़ी मुल्क के सर्दार मेहरखां की एक नाचीज़ दुख्तर हूं, इसलिये यह मैं नहीं कह सकती कि आप गुनहगार हैं; क्योंकि इस बात का जानने वाला सिर्फ वही पर्वरदिगार है। बस, मैं गुनहगार को नज़ात देने नहीं, बल्कि आपकी नेकियों का बदला चुकाने आई हूं और अबतक भी अपने फर्ज़ को अदा नहीं कर सकी हूं। क्योंकि यह तो तभी हो सकेगा, जबकि मैं आपको खुशी खुशी अफरीदी सिवाने के बाहर कर सकूँगी!"

हमीदा की बातें सुनकर मैंने कहा,-" प्यारी, हमीदा! मैं तो जल्लादों की गोलियां खाकर मर गया था, फिर मैं क्योंकर जी गया?"

यह सुनकर हमीदा मुस्कुराने लगी और उसने मेरी ओर प्रेमपूर्वक देखकर कहा,-"आप मरे न थे, क्योंकि मरने पर क्या कभी कोई जी सकता है! आप सिर्फ बेहोश होगए थे, पर इस जगह आप क्योंकर आए, यह बात फिर कभी मैं आपसे कहूंगी, क्योंकि इस वक्त आप इतने काहिल होरहे हैं कि ज्याद: बात चीत करने से आपको फिर बेहोशी दबा लेगी।"

मैंने घबरा कर कहा,- अच्छा, तो मुझे यहां आए कैदिन हुए?"

हमीदा ने कहा,-"आज पूरे पांच दिन।"

मैंने कहा,-"पांच दिन! अस्तु, तो अभी मुझे कबतक यहां इस तरह पड़ा रहना पड़ेगा?"

हमीदा ने कहा,-"जबतक आप बखूबी भलेचंगें न होजांयगे। क्योंकि यह सारा अफरीदी जज़ीरा आपका दुश्मन हो रहा है, इसलिए जबतक आपके जिस्म में बखूबी ताकत न आले, मैं हर्गिज़ आपको यहां से जाने न दूंगी।"

मैंने कहा,-" तो क्या यह जगह तुम्हारे महल के अन्दर है?"

हमीदा,-"नहीं, लेकिन इसका मिलान मेरे महल से जरूर है। मगर खैर, आप घबराय नहीं, क्योंकि अब आप ऐसे मुकाम पर हैं कि जहांपर सिवाय मेरे और मेरी बहिन के, और कोई तीसरा शाल आही नहीं सकता।"

इसके बाद मैं फिर कुछ न बोला, क्योंकि इतनी ही बातचीत करने से मुझे सुस्ती ने आघेरा, जिसं जान कर हमीदा ने मुझे कोई दवा पिलाई, जिसके पीतही मैं गहरी नीद में लो गया। यद्यपि में गहरी नींद में सो गया, पर तौ भी मुझे यह जान पड़ने लगा कि मानो किसी सुन्दरी ने मेरे सिर को अपनी अत्यन्त कोमल गोद में रख लिया है और अपने अत्यन्त कोमल हाथ को मेरे बदन पर फेरना प्रारंभ किया है! जब तक मैं साया रहा, ऐसाही सपना बराबर देखता रहा, बरन मुझे तो ऐसा भी जान पड़ता था कि मानो कोई प्रेममयी सुन्दरी मेरे लिये आंसू बहाती थी, जिसकी कई बूदें मेरे बदन पर भी गिर पड़ी थीं। कितनी देर में में जागा, यह मैं नहीं कह सकता, पर जब मैं जागा तो वहां पर मैंने किसी कोभी न पाया, पर कई बूदें जिन्हें मैने सपने में गिरते देखा था, अबतक मेरे बदन पर मौजूद थीं, और सूखी न थीं। मैंने देखाकि उस पाषाणमय गृह में, जिसमें में पड़ा था, किसी ओर कोई द्वार न था, पर ऊपर बने हुए छेदों में ले उजाला आ रहा था, इस लिये मैंने जाना कि दिन का समय है।

इतने ही में मैंने क्या देखा कि एकाएक हलकी आवाज़ के साथ एक ओर की दीवार का एक पत्थर ज़मीन के अन्दर घुस गया और उस राह से हाथ में खाने का सामान लिए हुए हमीदा आपहुंची। उसे देखतेही मैं उठने लगा, पर मुझसे उठा न गया। मुझे उठने की चेष्टा करते हुए देख कर हमादाने कहा,-"आप उठने की कोशिश न करें, तकलीफ़ होगी।"

मैंने कहा,-"हमीदा! तुमने तो मुझे एक विचित्र गृह में रक्खा है!"

उस सुन्दरी ने कहा,-"जी! मैं हमीदा नहीं हूं: बल्कि उसकी बहिन 'कुसीदा हूं!"

यह बिचित्र उत्तर सुन कर मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न रही! क्योंकि कुसीदा बिल्कुल हम दा सी ही थी और उन दोनों की सरत शकल में कुछ भी अन्तर न था। यह बात मझसे हमीदा कह चुकी कि,-'इस जगह पर मैं और मेरी बहिन के सिवाय और कोई नहीं आसकता; और इसके पहिले भी हमीदा ने एक बार अपनी एक बहिन का होना बतलाया था। इसलिये उस सुन्दरी के कहने को मैने झूठ न समझा, परन्तु मुझे इस बात का बड़ा अचरज था कि क्या एक साथ पैदा होनेवाले-लड़की या लड़के-दिल्कल एकही से होते हैं, और उनकी सूरत शकल में कुछ भी अन्तर नहीं होता?

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