मेरी आत्मकहानी/५ हिंदी की लेख तथा लिपि-प्रणाली

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ६३ से – ७९ तक

 

(५)

हिंदी की लेख तथा लिपि-प्रणाली

सभा ने सन् १८९८ में एक उप-समिति इसलिये बनाई थी कि वह हिंदी को लेख तथा लिपि-प्रणाली के संबंधध में अनेक प्रश्नो पर विचार कर अपनी सम्मति दे। इसमे ग्यारह सभासद् थे और इसका सयोजक मैं नियत किया गया था। समिति ने आठ प्रश्नो को छपवाकर अनेक विद्वानों के पास सम्मति के लिये भेजा। इस पर ५९ महाशयों ने अपनी सम्मति दी। प्रश्न ये थे―

(१) हिंदी किस प्रणाली की लिखी जानी चाहिए अर्थात सस्कृत-मिश्रित या ठेठ हिंदी या फारसी-मिश्रित और यदि भिन्न-भिन्न प्रकार की हिंदी होनी उचित है तो किन-किन विषयो के लिये कैसी भाषा उपयुक्त होगी?

(२) विभक्ति अलग लिखनी चाहिए या एक साथ मिलाकर तथा संज्ञा और सर्वनाम में एक ही नियम होना चाहिए या अलग-अलग और समस्यमान शब्दो को मिलाकर लिखना चाहिए या अलग?

(३) ‘हुआ', ‘गया' आदि के स्त्री-लिंग, पुंलिग, एकवचन, बहुवचन मे हुआ, हुवा, हुए, हुवे, हुई, गया, गए, गई, गयी आदि मे से क्या लिखना चाहिए और किस नियम से?

(४) संस्कृत के जो शब्द विगड़ कर भाषा में प्रचलित हो गए हैं उन्हें भाषा मे शुद्ध करके सस्कृत-शब्द लिखना चाहिए या अपभ्रंस? जैसे― मेरी भात्मकहानी संस्कृत हस्ती अपभ्रंश हाथी घी मुख वधू बहू कर्ण कान प्राम गांव वीर वीर हाय दुधि दही बधिर बहिरा श्रद्ध आधा मयूर मोर मिष्ठ मोठा इत्यादि। (५) कविता में अपभ्रंश शब्द लिखने चाहिएँ या शुद्ध १ जैसे-यश-जस, यशोदा जसोदा, यमुना-जमुना, कारण- कारन, कुशल-कुसल इत्यादि । गद्य मे ऐसे शब्दों को कैसे लिखना चाहिए १ (६) एक ही अर्यवाची शब्दों के मिन्न-भिन्न रूप को किन स्थानो मे किस रूप मे लिखना चाहिए अर्थात् कहाँ 'और' लिखना चाहिए कहा 'औ', कहाँ 'नहीं', कहाँ 'न' इत्यादि । मेरी भालकहानी (७) नीचे लिखे तथा ऐसे ही दूसरे शब्दों के लिखने की कौन- सी रीति उचित है तथा बिंदु और चंद्रविदु के प्रयोग का क्या नियम होना चाहिए और 'म', 'न' आदि सानुनासिक अनरो पर बिंदु लगाना चाहिए या नहीं। अङ्ग-अंग, ख-रंग, अजन-अजन, सम्भव-संभव, परन्तु-परतु, सकते-सक्ते, उसने-उस्ने, सभी सबही, कमी- कवडी-कधी, आपने ही-आप हो ने, देखें-देखे, सोचे-सोचें, पाई-पाये, श्रावे आएं, होवै-होग, कोषाध्यक्ष-कोशाध्यक्ष, उन्होंने उनने, इन्होने-इनने इत्यादि (८) अंगरेजी के A, E और 0 तथा फारसी के जाल (०), औ(,) आदि विदेशी भाषाओ के जिन जिन अक्षरो के लिखने के कोई चिह अब तक प्रचलित नहीं हैं उनके लिये कैसे चिह्नवनने चाहिए तथा अंगरेजी के विरामचिहो का भापा में व्यवहार होना चाहिए या नहीं? इन प्रश्नों का उत्तर आ जाने पर उन पर विचार किया गया तथा मुझे प्रामा हुई कि इन्हें लेकर मैं समा के विचारार्थ एक रिपोर्ट लिखू। यह रिपोर्ट यथासमय लिखी गई और २४ नवंवर १८९९ को सभा की सेवा में उपस्थित की गई। इस समय मापा के संबंध में जो आंदोलन मच रहा है उससे इस रिपोर्ट मे दी हुई सम्मति से सबध है। अतएव मैं यहाँ उसका अधिकांश उधृत करता हैं। इस रिपोर्ट की प्रतियों अप्राप्त है। इसलिये उसकी मुख्य मुख्य बातों का उल्लेख हो जाना आवश्यक भी है। ऊपर जो प्रश्नावली दी गई है फा०५ ६६ मेरी भालकहानी उसके देखने से प्रकट होगा कि प्रश्न १.४ ओर ५ का संबंध लेख- प्रणाली और शेप प्रनों का संबंध लिपि-प्रणाली से है। अतएव, पहले लेख-प्रणाली के संबंध में उक्त रिपोर्ट से अंश घृत करता हैं। 'हिंदी भाषा के ग्रंथो तथा कवियों का पता एक सहन वर्ष से हले का नहीं लगता, परतु जो पता लगता है उसमे भी प्रयो का वया अभाव है। गद्य के प्राचीन प्रय न देखने में आते हैं और न नने में, और वो कहीं वैद्यक तया धर्मसंबंधी विषयों आदि के प्रयों की टीकाएँ मिल भी जाती हैं तो उनकी मापा टूटी-फूटी हिंदी या जभाषा के अतिरिक्त दूसरी देख नहीं पड़ती। इन्हीं कारणों से नापा-तत्त्ववेत्ताओं ने यह मान लिया है कि वास्तव में वर्तमान हेमोगा लेख-प्रणाली सन् १८००ई० में पंडित लल्लूलाल के प्रेम- सागर से प्रचलित हुई। इसके अनंतर इस प्रणाली का कुछ कुछ प्रचार होता रहा परतु भारतेंदु के समय में यह परिपत और प्रसार- गुण-संपन्न हुई। गद्य की उत्पत्ति होते ही उसके लेखक भी हो गए और उन लोगों ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार हिंदी लिखना प्रारम किया। यह देखकर हिंदी के युरोपीय विद्वानों ने विचार करना प्रारंभ किया कि इस भाषा के लिखने में शब्दों की सहायता फारसी से ली जाय या सस्कृत से। इन विद्वानों में से प्रधान मगशय वीम्स और पाउस ये और ग्रह-विवाद सन १८६९-50

  • नवीन अनुसंधानों ने सदन मिश्र, स्याउल्ला खां तथा सदानुखराय

आदि प्राचीन गद्य-लेखकों का भी पता लगा है जिनमें सदासुखराप उबले पुराने और सर्वश्रेष्ठ शत होते हैं। मेरी आत्मकहानी ६७ मे हुआ था। वीम्स इस मत के पक्षपावी थे कि फारसी और अरवी के शब्दो का हिंदी में प्रयोग हो और पाउस इस मत के समर्थक थे कि हिंदी में फारसी और अरबी के उन सब शब्दो का प्रयोग न किया जाय जो हिंदीवत् नहीं हो गए है और यदि हिंदी के कोष मे उपयुक्त शब्द न मिले और दूसरी मापायो से शब्द लेने की आवश्यकता हो तो संस्कृत भाषा का ही पाश्मय लिया जाय । दोनो विद्वानों में इस विषय पर बहुत दिनो तक विवाद चला और अत में यही निश्चय हुआ कि इस विषय का निश्चय हिदी के उत्तम लेखक ही स्वयं कर सकते हैं। इस बात को ३० ( अव तो ६५) वर्ष से अधिक हो गया और अब यह समय आ गया है कि हिंदी की लेख-प्रणाली का निश्चय किया जाय । "किसी भाषा के लिखने की प्रणाली एक-सी नहीं हो सकती। विपयमेद तथा रुचिमेद से भापा का भेद है। पृथ्वी पर जितनी भापाएँ हैं, सभी में कठिन और सरल लेख लिखने की रीति चली पाती है। कहाँ कैसी भापा लिखनी चाहिए, यह लेखक ओर विषय पर निर्भर है। इसके लिये कोई नियम नहीं बन सकता। यदि लेखक की यह इच्छा है कि भाषा कठिन हो तो उसे निस्संदेह संस्कृत के शब्दो का प्रयोग करना होगा और यदि उसकी यह इच्छा है कि भापा सबके सममाने योग्य हो तो उसे हिंदी के सीधे शब्दों को काम में लाना पडेगा। परतु यह वात केवल लेखक पर ही निर्भर नहीं है, विषय पर भी बहुत कुछ निर्भर है। यदि कोई महाशय संस्कृत-दर्शनशास्त्र पर कोई लेख या लिख रहे हैं तो निश्चय ६८ मंगनालकहानी उनी भाषा में सामन पं. शानभाग र माया कटनगी। बैंमही यदि म मागयल या अन्य मानते जिना युरोपीय लोगों के गण इस रंग में प्रगर या तो उन्हें अवश्यमंत्र युरोपीय भाषाओं के मेन गुन लेना पड़ेगा और यदि उनसे विदशीव गमति नो उनी भाग सी होगी कि जिम मममन नि पाठक उसी में पान होगा। "इति म मम यान की पूर्णतया सिंह रग्ना है कि मार में मय जातियां री भाषा और नन्नान पर उन 'न्य जाति का पूर्ण प्रभाव पा

जिनमे किली नदिमी गति में नरा युद्ध घनिष्ठ सय जाता है। या सत्रय प्राय दो मा मना- एक तो जब क जाति दूनगे जाति को पजन फ उन देश फा शामन काने लगती है. दून जब दी जानियों में पाम व्यापार का सयध हो जाता है। इन प्रसा के मयधनने पर परम्पर शो का हेरफेर होने लगता है जो प्राकृतिक नियमानुसार पेशन गाल पार अपना रूप सिंचित परिवर्तित करके वय उस भाषा में मिल जाते जो उसके शब्द माने जाते हैं. यद्यपि उनकी उत्पनि के विषय मे यही कहा जाता है कि ये शब्द अमुक भाषा के हैं। इस प्रकार से जिस भाषा में शव मिल जाते हैं उम भापा की कुछ अप्रतिष्ठा नहीं मानी जावी। भारतवर्ष के इतिहास पर ध्यान देने से यह मस्ट होता है कि बहुत प्राचीन काल से यई हिदुओं का राज्य था। फिर मुसलमानों ने अपना पातक जमाया और उनके पोट अंगरेजों ने इस देश को अपने अधीन किया। यद्यपि बीच बीच में अन्य जातियों ने भी इस देश के किसी किसी अंश पर राज्य किया, पर विशेष कर इन्हीं तीन मुख्य जातियों के अधीन यह देश रहा। इससे यह बहुत संभव है कि उन अन्य जातियों के अतिरिक्त जो इस देश की सीमा में थी अथवा जिनसे और किसी प्रकार से इस देश से सबंध हो गया है, मुसलमान और अँगरेज जाति का प्रभाव इस देश के प्राचीन निवासी हिंदुओं पर, उनकी भाषा और उनके रहन-सहन तथा विचारों पर अधिक पड़ा हो। आजकल जो अवस्था भारतवर्ष की है उस पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में यह बात ऐसी ही है। हमारा संबंध विशेष कर भाषा से है। अतएव, अपने प्रयोजन के लिये इतना ही देख लेना उचित होगा कि किस प्रकार से दूसरी भाषाओं के शब्द हमारी भाषा में मिल गए। यह बात सर्वसम्मत है कि यहाँ की प्राचीन भाषा सस्कृत है जो जगत् के परिवर्तनशील गुण के अनुसार विगड़ कर आधुनिक हिंदी हो गई। यह भाषा अज दिन भारतवर्ष के उत्तर-खंड मे बोली और लिखी जाती है। उस पर ध्यान देने से यह देख पड़ेगा कि इसमे युरोपीय भाषाओं के बहुत-से शब्द मिले हैं, जिनका अब हिदी के अच्छे अच्छे लेखक प्रयोग करते हैं और जो अब हिंदी के शब्द माने जाते हैं, जैसे फीता, पादरी, गिर्जा, पिस्तौल, कप्तान, थेटर, गोदाम, टेबुल, बेंच, वक्स, रेल, लालटेन, लंप, स्कूल, स्टेशन, हस्पताल, आदि शब्द अब इस प्रकार से हिंदी में मिल गए हैं कि सब लोग उन्हें भली-भाँति समझते हैं। अब यदि ७० मेरी पालकहानी इन शब्दो के चारए पर ध्यान दिया जाय तो यह देना पड़ेगा कि अधिश शन्दों का जो उचारण मुख्य मापा में था उसने हिंदी में इन बदल गया है जैस ल्यानहने का लालटन और लन ग लंप। बहुत-से शबासे भी हैं जिनके मान्य में क्व भी भेटनी पड़ा अथवा नाम मात्र को हुआ है जमे चम्म रेल यादि । डनी प्रकार से फारसी और अरवी के बहुत से शद्ध हिंदी में मिल गए है जिनमें से कुछ न तो रूप बदल गया है और कुछ ज्यों के त्यो वर्तमान हैं। इसलिये जो लोग यह रखते हैं रिहिंदी में अन्धी फारसी के स्निी शब्द का प्रयोग न हो उन्हें इन धन पर ध्यान देना चाहिए किन्यों अरवी फारसी पर ही यह रोक लगाई जाय। न्यों न यह नियम कर दिया जाय कि जितने शब्द नरसव के अतिरिक्त क्सिी दूनर्ग भाषा से आ गम हैं वे सब निकाल दिए जायें ? हन लोगों का यह मत है शितो शब्द अरवी फारमी या अन्य मापात्रों के हिदीवन् गए हैं तथा जिनका पूर्ण प्रचार है वे हिंदी के शशब्द माने नावें और उनका प्रयोग दूषित न नमन जाय । इसमें यह 'वात न स्मझी जाय कि जितनी पुत्त नाग घरों में एपी हैं वे सब रियो माषा की हैं, क्योंकि आज-कल बहुत सी ऐसी पुस्तकें देखने में घाती हैं जिनके प्रदर तो नागरी हैं पर मापा के । "हिंदी-लेखों और हितपियों में एक दल ऐसा है जो इस मत स पोषक है कि हिंदी में हिंदी के शब्द रहे. संस्कृत के शब्दों का प्रयोग नहो । यह सम्मति युक्ति-संगत नहीं जान पड़ती। दिदी कावन्म संस्कृत से हुआ है. इसलिये वह उतनी माता के स्थान पर हुई। अब यदि आवश्यकता पड़ने पर हिंदी अपनी माता से सहायता न ले तो और कहाँ से ले सकती है। अतएव यह उद्योग कि हिंदी से सस्कृत के वे सब शब्द निकाल दिए जायें जो हिंदीवत्न हीं हो गए हैं, सर्वथा निष्फल और असभव है। संस्कृत के शब्दो से अवश्यमेव सहायता ली जायगी, पर इस बात पर अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ शुद्ध हिंदी के शब्द से काम चल जाय और भाषा मे किसी प्रकार का दोष न आता हो, वहाँ संस्कृत के शब्दो की वृथा भरती न की जाय। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि संस्कृत के शब्दो का ही अधिक प्रयोग हो। विदेशी भाषा के सरल शब्द के स्थान पर भी यदि संस्कृत के एक कठिन शब्द से काम चल सके तो सस्कृत-शब्द ही काम में लाया जाय, विदेशी भाषा का शब्द निकाल दिया जाय। इन महाशयो के मत से भाषा ऐसी कठिन हो जायगी कि उसका समझना सब लोगों का काम न होगा। हिंदी भाषा मे विशेष गुण यह है कि वह सरलता और सुगमता से समझ में आती है और इसी लिये वह भारतवासी मात्र की मातृभाषा मानी जाती है। संस्कृत-शब्दो के अधिक प्रचार से यह गुण जाता रहेगा। हाँ, यह बात बहुत आवश्यक है कि भाषा सव श्रेणी के लोगों के पढ़ने योग्य हो। पर क्या सस्कृत के कठिन शब्दो के बिना यह नही हो सकता?

“विदेशी भाषा के शब्दो के विषय मे इतना कहना और रह गया है कि जिन शब्दो का भाषा में प्रचार हो गया है उनके छोड़ने या निकालने का उद्योग अब निष्फल, निष्पयोजन और असमव है। मेरी मामपानी हौ, भविष्यत में विदेशी भाषा नान गरी मना रग्ने समय इस यात पर पूर्णतया पान चा वार रिन पिगी नहीं का हिंदी में प्रयोग ना जिन जिय दिनी या मगन में और यही अर्थवाचक शब्द हैं। मय पनी पर ध्यान करान लोगों मिद्धात यह कि हिदी लिग्न में जीना धामी 'ग्यो तया और विशी भापात्रा नमानीपा प्रगंगन दिया गय जिनके स्थान पर हिंदी फे रवा माल के मुगम र प्रालिन मह उपस्थित हैं पर विरंगी भाराना मिशगुनया प्रचलित होगा हैं और जिन स्थान पर हिंदी में मत ना श्रम जिनके स्थान पर मन्थन के गद गरी में स्टार्य पर से सभावना है, उनका प्रयोग ना चाहिए। मागश या मिस पहला स्थान शुद्ध हिदी फ गदा स.पी. सकन नगम और प्रचलित शब्दों की सनक पी. फार जानि विदेशी भापानी के नाधारण और प्रचलित शब्दों को और सबसे पी संस्कृत के अप्रचलित शब्दों को स्थान दिया जाय । फारसी आदि विदेशी भाषाओं के कठिन शब्दों स प्रयोग कदापि न हो। "मिन भिन्न विपयो तया प्रथमग के निमिन भिन्न-भिन्न प्रणाली आवश्यक है। जो प्रथ या लेस इस प्रयोजन में लिख जाय कि सर्वसाधारण उन्हें समझ न उनी भाषा ऐनी सग्ल सेनी चाहिए कि मर्व-बोधगम्य हो। न तक सीवे माये मरल शब्दों का प्रयोग हो, फारसी और अग्बी के अप्रचलित शब्दों का प्रचार न हो। उच्च श्रेणी के पाठकों के लिये जो ग्रंथ लिखे आयें और जिनके द्वारा लेखक साहित्य की उच्चतम शब्द-छटा दिखलाना चाहता हो उसमे निस्संदेह संस्कृत के शब्द आवें, पर फिर भी जहाँ तक सभव हो कठिनतर शब्दों का प्रयोग न हो। जैसा कि हम लोग ऊपर लिख चुके हैं, भाषा मे गंभीरता सस्कृत के कठोर शब्दों के प्रयोग से नहीं आ सकती। सुदर शब्द-योजना और मुहाविरा ही भाषा का मुख्य भूपण है। जैसे यदि किसी प्राकृतिक दृश्य का वर्णन दिया जाय तो उसमे इस प्रकार की भाषा सर्वथा अनुचित है―

“अहा!। यह कैसी ‘अपूर्व और विचित्र वर्षा-ऋतु साप्रत प्राप्त हुई है और चतुर्दिक् कुज्झटिकापात से नेत्र की गति स्तिमित हो गई है, प्रतिक्षण पत्र में चंचला पुश्चली स्त्री की भाँति नर्तन करती है और वैसे ही बकावली उड्डीयमाना होकर इतस्तत भ्रमण कर रही है। मयूरादि अनेक पक्षीगण प्रफुल्लित चित्त से रव कर रहे हैं और वैसे ही दर्दुरगण भी पकाभिषेक करके कुकवियों की भाँति कर्णवेधक टक्कझकार-सा भयानक शब्द करते हैं।”

“इसमें संस्कृत के शब्द कूट कूट कर भर दिए गए हैं। चाहे कैसा ही ग्रंथ क्यो न लिखा जाय उसमें इस प्रकार की भाषा न लिखनी चाहिए। इससे यदि सस्कृत ही लिखी जाय तो श्रेय है। भाषा का दूसरा उदाहरण लीजिए―

“सब विदेशी लोग घर फिर आए और व्यापारियों ने नौका लादना छोड़ दिया, पुल टूट गए, बाँध खुल गए, पंक से पृथ्वी भर गई, पहाडी नदियो ने अपने बल दिखलाएं, बहुत-से वृक्ष कूलसमेत तोड गिराए, सर्प थिलो से बाहर निकले, महानदियों ने मर्यादा भग कर दी और स्वतंत्र स्त्रीयों की भाँति उमड चलीं।’

“इसमे भी सस्कृत के शब्द हैं पर वे इतने सामान्य और सरल हैं कि उनका प्रयोग अप्राह्म नहीं। ऐसी ही भाषा हम लोगों का आदर्श होनी चाहिए। भाषा के दो अग हैं― साहित्य और दूसरा व्यवहार। साहित्य की भाषा सर्वदा उच्च होनी चाहिए इसका ढग सर्वया प्रथकर्ता के अधीन है। वह अपनी रुचि तया विषय के अनुसार उसे हिप्ट या सरल लिख सकता है। संस्कृत या विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी उसी की इच्छा पर निर्मर है। इसमें बाधा डालकर प्रयकर्त्ता की बुद्धि के बेग को रोक कर उसे सीमावद्व कर देने का अधिकार क्सिी की नहीं है। परंतु, व्यवहार-संबधी लेखों में अवश्य वही भाषा रहनी चाहिए जो सबकी समझ में आ सके उसमें किसी भाषा के प्रचलित शब्द प्रयुक्त किए जा सक्ते हैं। अदालत के सब काम, नित्य की व्यवहार-संबधी लिखा-पढ़ी, सर्वसाधारण में वितरण करने योग्य लेख या पुस्तकें, समाचार-पत्रादि जितने विषय कि सर्वसाधारण के साथ संबंध रखते हैं, उनमें ऐसी सरल बोल-चाल की भाषा आनी चाहिए जो सबकी समझ में आ जाय, उसके लिये उच्च हिंदी होनी आवश्यक नहीं है। वह ऐसी होनी चाहिए जिसे ऐसा मनुष्य भी जो केवल नागरी अक्षर पढ़ सकता हो समझ ले। पाठशालाओं में पढ़ने का क्रम ऐसा होना चाहिए जिसमें सब प्रकार की भाषा समझने की योग्यता बालक को हो जाय। प्रारंमिक पुस्तके अत्यंत ही सरल होनी चाहिएँ, उनमे उच्च हिंदी का विचार आवश्यक नहीं, फिर क्रम-क्रम से भाषा कठिन होनी चाहिए जिसमे कठिन से कठिन भाषा-ग्रंथों के समझने की योग्यता हो जाय। व्यावहारिक लेखो की भाषा पाठशालाओ मे सिखलाना व्यर्थ है, क्योकि उसे तो केवल अक्षर पहचान लेने ही से इस देश के निवासी समझ लेंगे।”

चौथे प्रश्न का विवेचन करते हुए यह लिखा गया था―“हिंदी मे अपभ्रंश शब्द मुख्य दो प्रकार के हैं―एक तो वे जिनका रूप पूर्णतया बदल गया है जैसे हाथी, घी, दही आदि, दूसरे इस प्रकार के हैं जिनके उच्चारण मे ही केवल भेद पड़ गया है जैसे कारन, जसोदा, कुसल आदि। प्रथम प्रश्न के उत्तर मे जो कुछ हम लोग लिख चुके है, उसके अनुसार यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदी में शुद्ध संस्कृत-शब्दो का प्रचार हो अथवा अपभ्रश का। यह बात लेखक की लिखावट पर निर्भर है। जैसे―

(१) उस उत्तंग गिरिश्रृंग पर हस्तियो की श्रेणी से सघन घनमाला का भ्रंम होता है।

(२) उस सूनसान वन में वनैले हाथियो की चिवाड़ सुनाई पड़ती थी।

(३) घृत आहुति।

(४) घी में चमाचम।

(५) मुंह थामे लेता था।

(६) चंद्रमुख इत्यादि। JE मेरी आत्मकहानी "भव यदि दूसरे प्रकार के शब्दो के विषय में यह सम्मति दी गई कि इनका प्रयोग साधारणत कविता में मार्जनीय है पर गद्य में इनका प्रयोग उचित नहीं है। कवि निरंकुश होते हैं। उनको नियमबद्ध करना उचित नहीं है। इस बात का निर्णय उनके रसगत भाव और योजना पर निर्भर है।" यहाँ तक लेख-प्रणाली के विषय में विचार किया गया। लपि-प्रणाली के संबंध में विचार कर यह सम्मति दी गई कि विम- क्तियां समा शब्दो से अलग और सर्वनाम शब्दो से मिलाकर लिखनी चाहिएँ। इस विषय का विवेचन मैंने किंचित् विस्तार के साय अपने "भापा-विज्ञान" नामक प्रथ में किया है। अतएन उसके संबंध में मेरे विचारों का बान उस प्रथ को देखने से हो सकता है। 'औ' और 'और आदि शब्दो के विषय में यह कहा गया कि 'औ'. सयोजन तथा 'और' सयोजक और सर्वनाम दोनों है। पहल का प्रयोग पद्य मे होना चाहिए और दूसरे का गद्य और पद्य दोनो में। पामवर्ण के विषय में यह बात उचित ससमी- गई कि जहाँ तक समव हो, विंदु से पचम वर्ण का काम लिया जाय, पर पंचम वणे का प्रयाग भी व्याकरण-विरुद्ध नहीं है। तुम्हारा, सपने. उसने, सभी, कभी, हुए, हुआ, हुई, उन्हाने, इन्होने आदि लिखना ठीक है, दृमरा रूप ठीक नहीं।. पद्रविदु का प्रयोग उच्चारण पर ध्यान देकर अवश्य करना चाहिए। विरामचिहों के विषय में यह मत दिया गया कि कोलन () को छोड़ कर अन्य विरामचिहों का प्रयोग किया जाय । अँगरेजी, फारसी भाषा के शब्दो को नागरी अक्षरों में मेरी आत्मकहानी लिखने के लिये कई संकेतो की कल्पना की गई। पर इस संबंध में मेरे मत में अव परिवर्तन हो गया है। देवनागरी अक्षर भारतीय आर्य-भाषाओं के लिखने के लिये हैं। यद्यपि सकेत-चिहो को लगाकर दूसरी भाषा के शब्द मी लिखे जा सकते है पर इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि देवनागरी-सी वैज्ञानिक और सुंदर लिपि ससार में दूसरी नहीं है। वह यहाँ के निवामियों के नाद-यंत्र की बनावट को ध्यान में रखकर रची गई है। उनमे पतद्देशीय लोगो के उच्चारण के लिये सब चिह वर्तमान हैं, न किसो चिह्न का अभाव है और न किसी का श्राविक्य । प्रताण्व इसमे अधिक चिहो को जोड़कर इसे जटिल बनाना उचित नहीं है। हाँ, ख, घ, घ, म, म. ण के चिह्नो मे किंचित् नाम-मान का परिवर्जन वांछनीय हो सकता है जिसमें लिखावट मे उनी सदिग्धता दूर हो जाय । मनुष्य खाद्य पदार्थों का भोजन करता है और उसका पाचन यन्त्र उसे मथकर उसमें से जो अंश शुक्र, रक्त, मन्जा, मांस, अस्थि आदि के लिये आवश्यक होता है उसे ग्रहण कर वाकी को फेंक कर बाहर निकाल देता है। इसी से उसके प्रत्येक अवयव की पुष्टि तथा पृद्धि होती है । जब उसकी पाचन शक्ति क्षीण हो जाती है तब उसका शरीर जर्जरित होने लगता और अंत मे नष्ट हो जाता है । भापा को पाचन शक्ति भी ऐसी ही है। उसके अंग की पुष्टि और वृद्धि तथा मांडार की पूर्ति के लिये उसको शों की आवश्यकता होती है। उन्हे जहाँ से प्राप्त हो सके ले लेना चाहिए। पर इस बात का पूरा पूरा ध्यान रखना चाहिए कि इन शब्दों को हम अपना रूप दे, उनकी शुद्धि करके तब उनों अपने भाषा-भंडार में सम्मिलित करें। सारांश यह है कि भाषा में यह शक्ति होनी चाहिए कि वह विदेशी शब्दों को हजम कर सके―पचा सके। उसकी इस पाचन-शकि का हास नहीं होना चाहिए। नहीं तो उसका शरीर जर्जरित होकर मानव-शरीर की भाँति नष्ट हो जायगा। इस काम के लिये भाषा-तत्व वेत्ताओं ने तीन नियम बनाए हैं, जो ये हैं―

(१) जब एक भाषा किसी दूसरी भाषा से कोई शब्द ग्रहण करती है, तब उस शब्द के रूप में ऐसा परिवर्चन हो जाता जिससे वह शब्द दूसरी भाषा में सुगमता से अंतर्लीन हो जाता है। इस सिद्धांत का मूल आधार नाद-यत्र से संबंध रखता है और उसी के अनुसार शब्दों के रूप में परिवर्तन हो जाता है।

(२) जब एक भाषा से दूसरी भाषा में कोई शब्द आता है, तब वह शब्द उस ग्राहक भाषा के अनुरूप उच्चारण के शब्द या निकटतम मित्राक्षर शब्द से जो उस भाषा में पहले से वर्त्तमान रहता है, प्रभावित होकर कुछ अक्षरों या मात्राओं का लोप करके अथवा कुछ नये अक्षरों या मात्राओं के मेल से उसके अनुकूल रूप धारण करता है।

(३) जब एक भाषा से दूसरी भाषा में कोई शब्द आता है, तब उस ग्राहक भाषा के व्याकरण के नियमो के अनुसार उस आगत शब्द का, उस भाषा में पूर्वस्थित अनुरूप शब्दों की भाँति अनुशासन होता है; अथवा उस ग्राहक भाषा की प्रकृति के अनुसार उसका व्याकरण-संबंधी रूप स्थिर होता है।

इस बात का उद्योग करना कि हमारी देवनागरी-लिपि संसारव्यापिनी होकर अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग में आवेगी, विडंबना-मात्र है और इस मृगमरीचिका के पीछे दौड़ कर कहीं हम अपनी चिर-अर्जित संपत्ति को भी नष्ट-भ्रष्ट न कर दें, इस बात की बड़ी आशंका है।


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हस्तलिखित हिंदी-पुस्तकों की खोज

सन् १८६८ ई० में भारत-सरकार ने लाहौरनिवासी पंडित राधाकृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकृत कर भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रांतो में हस्तलिखित संस्कृत-पुस्तकों की खोज का काम आरंभ करना निश्चित किया और इस निश्चय के अनुसार अब तक संस्कृतपुस्तकों की खोज का काम सरकार की ओर से बंगाल की रायल एशियाटिक सुसाइटी, बंबई और मदरास की गवर्मेंटो तथा अन्य अनेक संस्थाओं और विद्वानों द्वारा निरंतर होता आ रहा है। इस खोज का जो परिणाम आज तक हुआ है और इससे भारतवर्ष की जिन-जिन साहित्यिक तथा ऐतिहासिक बातों का पता चला है, वे पंडित राधाकृष्ण की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता तथा भारत-गवर्मेंट की कार्यतत्परता और विद्या प्रेम के प्रत्यक्ष और ज्वलंत प्रमाण हैं। संस्कृत-पुस्तको की खोज-संबंधी डाक्टर कीलहाने, बूलर, पीटर्सन, भाडारकर और वर्नेल आदि की रिपोर्टों के आधार पर डाक्टर