मेरी आत्मकहानी/४ हिंदी-वैज्ञानिक कोष

मेरी आत्मकहानी
श्यामसुंदर दास

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ४५ से – ६२ तक

 

(४)

हिंदी-वैज्ञानिक कोष

सभा की वार्षिक रिपोर्टों के देखने से यह विदित होगा कि सभा आरंभ से ही वैज्ञानिक ग्रंथों के हिंदी मे बनने की आवश्यकता का अनुभव करती आई है। उसने कई वैज्ञानिक लेखों को अपनी पत्रिका मे छापा भी, पर सबसे बड़ी कठिनाई जो सामने आती थी वह वैज्ञानिक शब्दों के हिंदी-पर्यायो का न मिलना है। भिन्न-भिन्न लेखक अपने अपने विचार के अनुसार शब्द गढ़ते हैं, आगे चल कर इसका यह परिणाम होगा कि एक शब्द के लिये अनेक पर्याय हो जायँगे तब इस स्थिति को सँभालना कठिन हो जायगा और हिंदी के वैज्ञानिक साहित्य में जो गड़बड़ी होगी उससे हिंदी को भारी धक्का पहुॅचने की आशंका है। अतएव सभा ने एक वैज्ञानिक कोप तैयार करने का आयोजन किया। इस काम के लिये एक छोटी कमेटी बनाई गई जिसका सयोजक मैं चुना गया। यहाँ पर इसके पूर्व का कुछ इतिहास दे देना उचित होगा।

भारतवर्ष मे जातीय शिक्षा का प्रश्न भारत-गवर्नमेंट के सामने सदा से रहा है। सन् १७८१ में कलकत्ते में कलकत्ता-मदरसा की और उसके कुछ काल उपरात काशी में सस्कृत-कालेज की स्थापना इस उद्देश्य से की गई जिसमें न्याय-विभाग के लिये हिंदू और मुसलमान न्याय-पद्धति को जाननेवाले उपयुक्त व्यक्ति मिल सके। इसके कुछ वर्षों पीछे इस बात की चर्चा चली कि शिक्षा का माध्यम अँगरेजी हो या देश-भाषाएँ। सन् १८३५ की ७ मार्च को लार्ड विलियम वेनटिंक ने यह आज्ञा घोषित की कि शिक्षा का माध्यम अँगरेजी होगी और पश्चिमीय विद्याओं को प्रमख खान दिया जायगा इसके अनंतर सन् १८५४ में लाई हालीफैलस ने कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स की ओर से उन सिद्धातों को स्पष्ट किया जिसके आधार पर भारतवर्ष में शिक्षा-प्रणाली का आयोजन हुआ। इस आज्ञा-पत्र मे यह स्पष्ट कहा गया कि जन साधारण की शिक्षा का माध्यम अँगरेजी भाषा को बनाने के मार्ग में कई कठिनाइयाँ हैं और भारतीय जन साधारण की शिक्षा उनकी मातृभाषा-द्वारा ही भली भाॅति हो सकती है। उस आज्ञा-पत्र के नीचे लिखे वाक्य बड़े महत्व के हैं―

“It is neither our aim nor desire to substitute the English language for the vernacular dialects of the country. We have always been most sensible of the importance of the use of the languages which alone are understood by the great mass of the population. These languages and not English have been fixed by us in the place of Persian in the administration of justice and in the intercourse between the officers of Government and the people. It is indispensable, therefore, that in any general system of education the study of them should be assiduously attended to and any acquaintance with improved European knowledge which is to be communicated to the great mass of the people-whose circumstances prevent them from acquiring a higher order of education and who cannot be expected to over-come the difficulties of a foreign language―can only be conveyed to them through one or other of these vernacular languages. In any general system of education the English language should be taught where there is a demand for it, but such instructions should always be continued with a careful attention to the study of the vernacular language of the district and with such general instruction as can be conveyed through that language, and while the English langunge continues to be made use of as by far the most perfect medium for the education of those perons who have acquired a sufficient knonledge of it to receive general instruction through it, the vernacular languages must be employed to teach for the larger class who are ignorant of or imperfeetly acquaninted with English This can only be done effectually through the instrumentality of masters and professors who may by themselves knowing English, and thus having full access to the latest improvements in knowledge of every kind. Impart to their fellow countrymen, through the medium of their own mother-tongue, the information which they have thus obtained. At the same time as the importance of the vernacular language becomes more appreciated. the vernacular literature of India will be gradually enriched by translation of European books or by the original composition of men whose minds have been imbued with the spirit of European advancement, so that European knowledge may gradually be placed in this manner within the reach of all classes of the people. We look, therefore, to the English langunge and to the vernacular languages of India together as the media for the diffusion of European knowledge and it is our desire to see them cultivated together in all schools in India of a sufficienly high class to maintain a school master possessing the requisite qualifications.”

सन् १८५४ के आज्ञा-पत्र से ऊपर जो अश उद्धृत किया गया है उसमे प्रतिपादित सिद्धांतों के अनुसार यदि भारतवर्ष के अँगरेज शासक अपनी नीति को काम में लाते तो इन ९० वर्षों में भारतीय भाषाओं को विशेष उन्नति हो गई होती। पर इस ओर गवर्नमेट का सदा उपेक्षा का भाव रहा। उसने कभी सचाई से इस बात का उद्योग नहीं किया कि देशी भाषाओं के भाडार की पूर्ति हो। उसे तो सदा इस बात का भय रहा कि इन भाषाओं की उन्नति से कही अँगरेजी को धक्का न पहुॅचे। भाषा ही एक ऐसा अन्न है जिसके द्वारा किसी जाति का भाव बदला जा सकता है। जब से हमारे देशी लोगों के हाथ में शिक्षा का प्रबंध आया है तब से इस भाव मे परिवर्तन हो गया। अब वो यह लक्ष्य सामने रखा गया है कि सब प्रकार की शिक्षा मातृभाषा-द्वारा दी जाय। इस लक्ष्य को

फा०४ सामने रखकर पहले पहल सर आशुतोष मुकर्जी ने कलकत्ता-विश्व- विद्यालय में अनेक देशी भाषाओं की उच्चतम शिक्षा का प्रबंध किया। इसके अनंतर काशी-विश्वविद्यालय में इसका आयोजन किया गया और तब नागपुर-विश्वविद्यालय, इलाहावाद-विश्वविद्यालय, आगरा-विश्वविद्यालय तथा लखनऊ-विश्वविद्यालय में इसका प्रवध क्यिा गया है। यह सब होते हुए भी अभी तक हिंदी में वैज्ञानिक ग्रंथो का प्रकाशन नाम-मात्र का है। जैसा कि मैं पहले कह आया हूॅ, इसका मुख्य कारण पारिभाषिक शब्दों के पर्यायो की अनिश्चितता है। इस त्रुटि का अनुभव पहले पहल बड़ौदा के महाराज सर सयाजी राव ने किया। उन्होने अपने कलाभवन से प्रोफेसर टी० के० गज्जर के तत्वावधान मे मराठी और गुजराती भाषाओं में वैज्ञानिक ग्रंथों के निर्माण और प्रकाशन का आयोजन किया। वहाँ भी प्रोफेसर गब्बर को पारिभाषिक शब्दों के अभाव ने व्यस्त किया। सन् १८९१-९२ की कलामवन बड़ौदा की वार्षिक रिपोर्ट में प्रोफेसर गब्बर अपनी कठिनाई का उल्लेख इस प्रकार करते हैं―

The reason why but few books were received at the end of the academie year seems to be the want of suitable words―the difficulty of coming appropriate technical terms I have found that the task I have undertaken is one of very great difficulty, and I behave, it will be years before I can successfully accomplish it The transference of European knowledge to this country involves the search and creation of adequate words to signify all kinds of European ideas. Language is said only to grow; but here is a question of making it on a large scale During the year under report I began to prepare a vernacular Thesaurus on the model of Roget's well-known work I found that the casting Anglo-Sanskrit and Anglo-Vernacular dictionaries did but meagre justice to scientific subjects I saw in them all a want of precision and a want of that convenience which words must have before they can be used with profit The lexicographer did not seem to have always borne in mind that words were but though-tgerms and must have certain qualities before they can prove frutful, that they must be easily portable, i e, neither staff nor cumbruous, and very easy to pronounce, if they were meant to be extensively used and that as far as possible they should convey their technical meaning by their structure Upto the end of the academic year the scarch and coinage of words continued, when experience suggested an improvement in the system. I say the importance of giving the authorities with the words selected (in an abbreviated form), and found that the works, written on different मेरी आत्मकहानी subjects, in different parts of India is different mint at differnt lames of 1111 l, soul retri n Inrge sumber of rondly-suindo erorils which will make the task of scretion for trull than it 111 परतु प्रोफेमर गनर की या फाम उनना माल ना नान हुआ जितना कि उन्होंने श्रागा की थी। अगले वर्ष (१८९:५३) की रिपोर्ट में वे अपने अनुभव का वर्णन म प्रकार परत - In thr last year's report, I duele at sonr length or the importancı nu diffinition of finding cul suntable lochmeal l'11134 to be used in the vernacular scientific treatise Lwent proccol llits difficulty to be elin greater then it was al fint imagined Enuncnt speciales, some of whom were well-known Sanshritists, could not send their works for want of words, soint could inl begin at all I had therefore to expedite the search and coinage of words Thr Thesaurus attempt had to be laid aside for a tinc and the musling dictionaries of the prinupal languages in Inwa, DIE, Gujrati, Marathi, Bengal, Ilindustanu, begacs Sanskrit and Pirinn, had in bc ind under contribution The Manjurj Departnicnt took up Webster's International diclionory, posted up the sacntific mords on large folios printed for thic purpose and wrote out the corresponding words in the above-mentioned languages opposite to them As mentioned in the last report, the standard works in the principal languages of India were also utilized But though this research work continued rapidly and though existing works in Sanskrit and other languages gave a large collection of useful words for different sciences, a greater number remained to be coined and that work was not easy.

इसके थोड़े दिनो पीछे प्रोफेसर गब्बर का संबंध बडौदा के कलाभवन से छूट गया और यह वैज्ञानिक शब्दचयन का कार्य अधूरा रह गया। फिर उसके पूरा करने का कोई उद्योग नहीं हुआ।

इसके अनंतर वगीय साहित्य-परिपद् ने इस काम को अपने हाथ में लिया और कई विज्ञानो के पारिभाषिक शब्दो का संग्रह परिपद्-पत्रिका में प्रकाशित हुआ। पर आपस मे मतभेद हो जाने तथा वगीय साहित्य-सभा नामक एक नई सस्था के स्थापित हो जाने से यह काम यहीं रुक गया।

तीसरा सगठित उद्योग काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने सन् १८९८ मे आरंभ किया। उसने वैज्ञानिक शब्दो का एक कोष बनाने के लिये एक उपसमिति बनाई। इस समिति ने यह निश्चय किया कि आरंभ में भूगोल, गणित, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, पदार्थ-विज्ञान, रसायन-शास्त्र तथा दर्शन के शब्दो का संग्रह वेबस्टर की डिक्शनरी से किया जाय। इस संग्रह के प्रस्तुत हो जाने और सातो विषयों के शब्दों की अलग अलग सूची लिखकर तैयार हो जाने पर प्रत्येक शब्द के लिये हिंदी-शब्द चुनने का काम भिन्न भिन्न व्यक्तियों को दिया गया। इस प्रकार शब्द-संग्रह हो जाने पर वे अलग अलग पुस्ताकार छापे गए और विचार तथा विवेचन के लिये भिन्न भिन्न विद्वानों के पास भेजे गए। इसके अनतर पंडित माधवराव सप्रे बम्बई तथा पूना की पोर ओर और मैं कलकत्ते की ओर गया। इन तीनों स्थानों के विशिष्ट विशिष्ट विद्वानों से मिलकर परामर्श किया गया और उनकी समति तथा सहानुभूति प्राप्त की गई। जब मानों शास्त्री के शब्दो का संग्रह छप गया तब उनके दोहराने के लिये आयोजन किया गया। मध्य प्रदेश विहार सयुक्त प्रदेश तथा पंजाब के शिक्षा-विभागों से सहायता माँगी गई। उन सबने दोहराने के काम के लिये अपने अपने प्रतिनिधि भेजने का वचन दिया और एक समिति इस काम को करने के लिये नियत हुई। इसका अधिवेशन २१ सितम्बर १९०३ पो काशी में आंरभ हुआ। इसमें निम्न- लिखित महाशय समिलित हुए―पंडित विनायकराव―जबलपुर, लाला खुशीराम―लाहौर लाला भगवतीसहाय―बाँकीपुर, पंडित माधवराव सप्रे―नागपुर, महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी―काशी, बाबू गोविंददास―काशी बाबू भगवानदास―काशी, बाबू दुर्गाप्रसाद―काशी और मैं। इस समिति के अधिवेशन २९ सितंबर तक होते रहे। समिति ने इस कार्य के लिये निम्नलिखित सिद्धात स्थिर किए।

(१) पारिभाषिक शब्दों को चुनने के लिये उपयुक्त हिंदी-शब्दों को पहला स्थान दिया जाय। (२) इन शब्दों के अभाव में मराठी, गुजराती, बँगला और उर्दू के उपयुक्त शब्द ग्रहण किए जायें।

(३) इनके अभाव मे पहले संस्कृत के शब्द ग्रहण किए जायें, तब आँगरेजी के शब्द रखे जायँ और अंत में संस्कृत के आधार पर नए शब्द निर्माण किए जायँ।

इन सिद्धांतो को सामने रखकर भूगोल, गणित, ज्योतिष और अर्थशास्त्र के शब्द दोहरा कर ठीक किए गए। दार्शनिक शब्दो को दोहरा कर ठीक करने के लिये बाबू भगवानदास, बाबू इंद्रनारायण-सिंह, बाबू वनमाली चक्रवर्ती तथा पंडित रामावतार पांडे की एक उपसमिति बनाई गई और अर्थशास्त्र के बचे शब्दो को दुहराने के लिये पंडित माधवराव सप्रे, बाबू गोविंददास और मेरी एक उप-समिति बनाई गई।

इन सब कामो के हो जाने पर बड़ी समिति का दूसरा अधिवेशन २७ दिसम्बर १९०३ को आरंभ हुआ और वह ८ जनवरी सन् १९०४ तक चलता रहा। इसमे निम्नलिखित महाशय संमिलित हुए―प्रोफेसर टी० के० गब्बर-बंबई, प्रोफेसर अभयचरण सान्याल―काशी, प्रोफेसर एन० वी० रानाडे―बंबई, लाला खुशी― राम―लाहौर, बाबू भगवानदास―काशी, महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी―काशी, बाबू वनमाली चक्रवर्ती ―कलकत्ता, पंडित रामावतार पांडे―काशी, बाबू भगवतीसहाय―बॉकीपुर, बाबू ठाकुरप्रसाद―काशी, बाबू दुर्गाप्रसाद―काशी और मैं। इन अधिवेशनों में दोहराने का काम समाप्त हुआ और जो थोड़ा-सा मंगपागपाती यच ना उन 12 समिति ATTA ममितिया में अपना अपना मा गारिया नगर हुप्रा कि मर मामी टीri Hir from प्रफ निम्नलिग्नि मार्ग पागोगर्य। वार भगानगम, पार गगानीमाय मा दुर्गाग. पदित गंगानाथ मा, गाना गुगोगम, मी० गा.पा मगर हिवर्ग, पानू ठापुरममाः, पनि रिनायक गारमा या राम मी तगरिया गया और न १ को जारर मा ८ वगैरेनिग्नर गनर पnि विद्वानों के माध्योग में पूर्णतया मपराया। श्रय या भिन्न भिन्न विज्ञानी मंशन मिसिय में कुछ काना है। (१) भूगोल-मम ११ अंगरेजी गटार कतिी. पर्याय थे। इन मन नगार रिया का। (२) ज्योतिप-ने मामापा गाय पनि मुगग hि ने तयार रिया था। उगन ८१३ अंगनी पीर दीगा। (3) अर्थशास्त्र म पटित मारगर म ने मार ग्यिा और इसके दुगने में उन मायरा गारिन्दाम और मैं। उममे १,३७० अंगरेजी श्रीर,१५ दिी के गल थे। (४) रसायनशास्त्र-बांबू टार'माद ने या गर्नेह नहर त्रिवेदी की पॅगलाशब्दावली के आधार पर इमे तैयार रिया था। इसमें १,३३८ अंगरेजी और २.२१२ दिदी के शब्द थे। मेरी आत्मकहानी (५) गणितशास्त्र-इसे महामहोपाध्याय पडित सुधाकर द्विवेदी ने वनाया था। इसमे १,२४० अंगरेजी और १,५८० हिंदी के शब्द थे। (६) भौतिक विज्ञान-इसे चाबू ठाकुरप्रसाद ने तैयार किया था। इसमे १,३२७ अंगरेजी और १,५४१ हिदी के शब्द थे। (७) दर्शनशास्त्र-इसे तैयार करने का भार पहले बाबू इंद्रनारायण- सिंह ने लिया था पर अस्वस्थता के कारण वे इसे न कर सके। तव रायवहादुर वावू प्रमदादास मित्र को यह भार दिया गया पर उनकी मृत्यु हो जाने के कारण वे इसे न कर सके । इस अवस्था मे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अत्यंत उदारतापूर्वक इस काम को अपने हाथ में लिया और बहुत शीघ्र उसे पूरा कर दिया। इसको दोहरा कर ठीक करने में सबसे अधिक परिश्रम बाबू भगवानदास ने किया। इसमे ३,५११ अँगरेजी और ७,१९८ हिंदी के शब्द है। इस प्रकार यह कोप दोहराकर ठीक हो जाने पर सन् १९०८ में छपकर प्रकाशित हुआ । विचारणीय सस्करण मे सब मिलाकर ७,४८३ अंगरेजी और ११,४७२ हिंदी के शब्द थे पर संशोधित संस्करण मे अंगरेजी-शब्दो की संख्या १०,३३० और हिंदी शब्दो की संख्या १६,२६९ हो गई। इन श्रॉकड़ो से इसकी महत्ता प्रकट होती है, फिर भी मैं एक विशेष बात पर ध्यान दिलाता हूँ। रसायनशास्त्र मे भिन्न भिन्न उपसर्गों और प्रत्ययो के लगाने से शब्दो के अर्थों में बड़ा अंतर हो जाता है । इस कठिनाई को कैसे दूर किया गया यह आगे की दी हुई सूची से स्पष्ट हो जायगामेरी पासकहानी उपसर्ग .11 = अ या अन, जैसे Anhyorde=अनाई An B} = 8, ấà Besulphate, Disulphate Hepta -सप्त.जैसे Heptaralent=सप्रशक्तिक Hexa = पट जैसे Hesaralent =पटशक्तिक Hypo =उप, जैसे Haporulphate = उपगपायित Meta = मित, जैसे Metaphosphate = मिनस्फुरित Mono =एक. जैसे Monoxide =एकाम्लजित Octo=90, de Octovalent = soft Ortho= ऋजु,जैसे Orthophosphate = ऋजुसरित Pente=पंच, जैसे Pentasulphnde =पंचगघिठ Per=परि. जैसे Persulphate= परिगधित Poly=बहु, जैसे Polkatonmc=वहणिक Proto = प्रति जैसे Protosulphate = प्रतिगंधित Piro: = मध्य, जैसे Py rophosphate= मध्यस्फुरित Seequr = एकार्य जैसे Sesquoude= एकार्कीम्लजिट Sub= अधि. जैसे Subchloride अधिहरिद Super = अति जैसे Superoxide = अत्यम्लजिद Tetri = चतुर , जैसे Tetraoxide = चतुरम्लजिद Tri=fa, sa Troside = 54 प्रत्यय te=ga sem Carbonate= चनित Ition=770 Oudition=SFITTO मेरी बामफहानी ५९ Et=एत, जैने Sulphinet=गत Ir=#7157, h Intimonic=stalak Ide=50, t Bromide af Inc=इन, जैसे .Imnes अमीन Ile='प्रायित, जैसे irrente= तालायित anl इल, जैस Chromyl==ोमिल Onlोट या कल्प, जैसे Alkalond = क्षारोद Ouv=सया प्रम, जैसे Ferous = लोहस प्राजक्ल मातृ भाषा-द्वारा शिक्षा देने का आयोजन हो रहा है और यह प्रस्ताव हो रहा है कि उनतम वैज्ञानिक शिना भी यथासमय मातृभाषा ही के द्वाग दी जाय । मेरी समझ में नहीं आता कि यह नाम कैसे हो सकता है जब तक पारिभाषिक शब्दों की एक प्रेमी सूची न घना ली जाय जो सर्वपार हो। हिंदी, गुजराती, मराठी और अंगला में समान शब्दों के प्रयोग में कोई बाधा नहीं है। ऊपर जिम प्रणाली का वर्णन किया गया है वह कितनी कुशलता से बनाई गई है इसका अनुभव थोड़ा विचार करने से ही हो सकता है। यदि इस काश को आधार मानकर आगे का काम किया आय और इसकी त्रुटियो को दूर कर दिया जाय तो काम बड़ी सुगमता से हो सकता है और उसका प्रचार देश भर में हो सकता है। इस वैनानिक कोश को प्रस्तावना में मैने सब विवरण देकर अंत में यह लिखा था- Patanjalı says in his 'Mahâbhâsya': "No onc goes to the house of thic grammarian and says ‘make words, I will use them’. But the present needs of India compel the Indians to falsify the statement of their much respected sage. The literary public has now come to the Nagari-Prachari Sabha and has said “Make words, we will use them to revivee and enrich other moribund and poor Vernacular literature and make it powerful for the service of the Indian people by translation reproduction and adaptation from the valuable works ard ideas of the rising western nations”. This glossary is the result. Some have criticied this action of the Sabha rather adversely. They say that we are practically placing the cast before the horse by beginning at the wrong end. True it is that a language cannot be created It creates itself. But we had to assinulate and bring into our Language all the scientific ideas of the west and we could not very well begin where they began in the history of their scicntific literature Thes built it up by slow degrees and if we were to follow the same process the should always be lagging centuries bebind. And then too, our scientific vocabulary would be teeming with imperfections and redundancies, which are so dangerous to the expression of scientific ideas. To look ahead and to avoid all this difficulty the work was undertaken, and thanks to the co-operation and selfsacrifice of so many scholars the work has becn successfully accomplished. That this glossary is not perfect, that it has imperfections, great imperfections, no one will deny, but this was inevitable under the circumstances. No two words in the same language are exact equivalents. The same word in the mouths of two men has not infrequently two different shades of meaning, much more so, then, when we have to deal with different languages and to find equivalents to express one idea, for the very ideas are moulded by the line of development of the race―and as the line of development diverges so do the ideas, even those connected with identical objects become separate, distinct and perhaps opposed To provide real equivalents for the words of one language out of words of another, is, therefore, very difficult. But anyone who pays close attention to what has been achicved in the glossary will, I am sure, readily admit that every one connected with this work has done his best under the peculiar circumstances, whatever shortcomings, omissions, iedundanctes are notable in this work being due to the circumstances noted above As & literature on the subject gradually evolves in Hindi these defects. will naturally find their remedy in new editions or in entirely new works. This is the only roughest pioneer's work and future genera-tions will no doubt knock off all superfluous knobs and everseenees and smooth, prepare and polish the rough materials in due course.

इस ग्रंथ की चारो ओर प्रशंसा हुई। यहाँ तक कि इँगलैंड के वैज्ञानिक पत्रो में भी इस कृति का सुदर शब्दों में उल्लेख हुआ। मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि जिन पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने दार्शनिक शब्दावली के प्रस्तुत करने में इतना उन्माह और अध्यनसाय दिखाया वे ही इस ग्रंथ के परिमार्जित और सशोधित रूप में प्रकाशित होने पर सतुष्ट न हुए। उन्होंने सरस्वती पत्रिका में इसकी जो समालोचना की उसमे इस क्थन की पुष्टि हो जायगी। कदाचित् इसका कारण यह हो सकता है कि दार्शनिक शब्दावली के दोहराने में उनका सहयोग नहीं मान किया गया। इसका मुख्य कारण यह था कि जिन लोगों के हाथ में इमके दोहराने का काम दिया गया था वे सब काशी के रहनेवाले थे और यह भी इसलिये किया गया कि जिसमे परस्पर परामर्श करने में सुगमता हो। द्विवेदी जी का महीनो तक काशी में इस काम के लिये रहना असंभव था। इस एक घटना को छोडकर और कार्ड दुखद बात इस रचना के संबंध में नहीं हुई।