विकाश कुमार सोनी

[ २९ ]________________

भूमिका (२) . (द्वितीय संस्करण की भूमिका) ...

इस ग्रंथ के बनाने का भाव हमारे चित्त में कब और कैसे उठा, तथा उसके विषय में अन्य जानने योग्य बातों का उल्लेख हम प्रथम संस्करण की १०४ छकाली .. भूमिका में सविस्तर कर चुके हैं। उन्हें यहाँ पर दोहराने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है और इस संस्करण की भूमिका में हमें विशेष रूप से कुछ कहना भी तादृश अनिवार्य नहीं प्रतीत होता, तथापि ५-७ पृष्ठों में कुछ थोड़ा-सा कथनोपकथन कर देना कदाचित् अनुचित न माना जाय। इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण संवत् १९७० (सन् १९१३) में खंडवा व प्रयाग की "हिंदी-प्रंथ- प्रसारक मंडली" द्वारा प्रयाग के इंडियन-प्रेस में छपवाकर प्रकाशित कराया गया और वह हाथों हाथ बिकने बगा। तथापिग्रंथ भारी होने, तथा कुछ ही समय के पश्चात उक्त मंडली के उत्साही मंत्री श्रीयुत मासिक्यचंद्र जैन की अकाल और शोकजनक मृत्यु हो जाने के कारण उसके प्रचार में बाधाएँ पड़ गई, यहाँ तक कि कभी-कभी उसके नियत मूल्य के और कुछ चालबाज़ पुस्तक-विक्रेताओं ने उसे १०), ११) से २०), २३), तक को बेंचा और भला-चंगा लाभ उठाया । फिर भी अनेक सजनों को ग्रंथ कई साल तक अप्राप्य-सा रहा और इस प्रकार उसके प्रचार में बड़ी अड़चन हो गई, यद्यपि कई विश्वविद्यालयों (यथा कलकत्ता पटना, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली एवं पंजाब.) में वह बी० ए० एवं एम० ए०की परीक्षाओं में पास्व पुस्तक भी समय-समय पर रहा प्रथा अब है । हिंदी विद्वानों तथा जनता ने भी [ ३० ] समका प्रायः प्राशानी आदर करके हमारा उत्साह ज़ब ही बढ़ाया, हिसके लिये हम उनके परम कृतज्ञ हैं, तो भी हमने यह उचित नहीं समझा कि स्वर्गीय बाबू माणिक्यचंद्र जैन के उत्तराधिकारियों के पास उसकी सैकड़ों प्रतियाँ वर्तमान रहते हुए भी हम ग्रंथ का द्वितीय संस्करण कहीं अन्यत्र से प्रकाशित करा दें, यपि अपने प्राचीन नियम के अनुसार हमने जैनमी अथवा मंडली से बिना एक पैसा भी लिए हुए ही उसके प्रथम संस्करण के निकालने का अधिकार उन्हें दे दिया था, जैसे कि अब द्वितीय संस्करण के प्रकाशित करने का अधिकार हमने गंगा-पुस्तकमाला के परमोसाही एवं हिंद-प्रेमी संचालक, तथा प्रसिद्ध मासिक पत्रिका माधुरी के संपादक, पंडित दुलारेकालजी भार्गव को इस बार उसी भाँति दे रक्खा है । अस्तु, इन्हीं सब कारणों से १२ वर्ष तक इस ग्रंथ का द्वितीय संस्खरण प्रकाशित न हो सका जिसके लिये हमारे पास अनेक उपालंभ तक आए । नभी गत अप्रैल मास में हमारे प्राचीन मित्र, विहार सरकार के फाइनांस मेम्बर माननीय मिस्टर ... सचिदानंदसिंह ने हमें (श्यामबिहारी मिश्र को) लिखा कि वे दो वर्ष से अनेक स्थानों को लिखने पर भी "मिश्रबंधु-विनोद" की एक प्रति कहीं से न पा सके। हर्ष का विषय है कि अब तेरहवें वर्ष में इस ग्रंथ के द्वितीय संस्करण के प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। इसकी मांग देखते हुए जान तो यही पड़ता है कि काचित् एक ही दो साल के भीतर तृतीय संस्करण निकालने की प्राकस्थता हो जाय, पर यदि इसके लेखकों की अयोग्यता का विचार भरके हिंदी के विद्वान् इससे मुह मोड़ लें तो बात ही दूसरी है। पिछले संस्करण में १९९३ पृष्ठों के तीन भागों में यह ग्रंथ इया था जिस में ३०१७ लेखकों के विषय में कुछ लिखा गया था। इस बार अनेक अन्य क्षेत्रकों का पता चला है एवं कुछ अन्य नवीन [ ३१ ]________________

नहातें भी श्रादेगी, जिससे प्रतीत होता है कि प्रायः १७००-१८०० से कम पृष्ठ एवं कोई १५०० में कम लेखक न होंगे तथा चार भाग में ग्रंथ निकालना पड़ेगा। मूल्य भी इन्हीं एवं अन्य स्पष्ट कारणों से अवश्य ही कुछ बड़ आया, यद्यपि हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रकाशक महाशय इसमें अपने हिंदी-प्रेम का परिचय देते हए जितना. कम मूल्य हो सकेगा नियत करो। इस बार अँगरेजी भाषा की भूमिका पाने की आवश्यकता नहीं समझी गई। इस संस्करख की दो विशेष ध्यान रखने योग्य बातें नीचे दी जाती हैं (.)पुराने ऋवियों तथा गायकारों के समय में ज्ञान-विस्तार के कारण कभी-कमी हेर-फेर करना पड़ा है। ऐसी दशा में उनके पराने नंबर काटे नहीं गए बरन नवीन नंबर का हवाला वहाँ पर दे दिया गया है। उसका कारण स्पष्ट ही है। जोग अब छहों किसी कवि का हवाला"विनोद" के संबंध में देते है तब प्रायः उसका नंदर ही लिख देते हैं क्योंकि प्रत्येक संस्करण में पृष्ठ-संख्या का हेर-फेर हो जाना अनिवार्य है। इससे यदि नंबरों में भी हेर-फेर कर दिए जायें तो पुरा गड़बड़ मच जाय । इसी कारण आईन ग्रंथों में दनाएँ जैसी की लेखी अनार रखते हैं और यदि कोई दफा मनसून होती है, तो भी उसना नंबर अपने स्थाच पर बना ही रहता है, तथा यदि कोई नई दका बड़ी, तो वह अपने समुचित स्थान पर इस भाँति लिखी जाती है कि दुका १०८ अ, दफा १३५ ब, दफा ३०४ अ, इत्यादि। . इस प्रकार भारतीय दंड-संग्रह ( Indian Penal Code ) को दक्षाओं के पूर्णक (Whole number ) जैसे खॉर्ड मेकाले के समय में थे, वैसे ही आज भी वर्तमान हैं। यद्यपि अनेक दफाएँ मनसख हो चुकी व अनेक नई बन गई हैं। (२) ऊपर लिखे नियम के अनुसार नर-ज्ञात कवियों एवं बेखकों के नंबर उस समय के अन्य ऋवियों व लेखकों के बर के [ ३२ ]________________

मिश्रबंधु-दिलोद बाद उछी नंबर के नीचे बटा लगाकर लिखे गए हैं। यथा नंबर १, स , इत्यादि। इन दोनों नियमों के पालन के कारण "विनोद के किसी दिया लेखक का हवाला केवल नंबर से दिया जा सकता है और उसके अवेकानेक संस्करण हो जाने पर भी कमी किसी प्रकार की गड़बड़ौम पड़ेगी। हम ऊपर लिख आए हैं कि इस ग्रंथ का हिंदी मर्मज्ञों तथा सर्वसाधारण ने अच्छा सम्मान किया, पर इससे यह न समझना चाहिए कि इसकी वंदनालोचना हुई ही नहीं। कईएक सज्जनों ने जी खोद्धपर ऐसा भी दिया, यहाँ तक कि हमें प्रायः गाली-प्रदान का गौरव मोमिल ही गया तथा हँसी-ठट्टा उड़ाने की तो कुछ बात ही नहीं। श्रस्त, हमने ऐसी बातों का उत्तर देना कभी उचित समझा ही नहीं। क्योंकि सस्त मैं-मैं करना हमें रुचिकर नहीं है। हम नहीं कहते कि: विनोद के प्रथम संस्करण में कोई भूले थी ही नहीं अथवा इस हमारे निवेदनों पर ध्यान तक दिए विना उन्हीं बातों के कारण क्रमस करने लगे जिनका पूर्ण उत्तर प्रथम संस्करण की ही भामा मदन था। बाल,दा चार सज्जना ने हमारे शेशी-विभाग के प्रयत पर छिड़कर यह जानने की इच्छा प्रकट की कि हमारे पास ऐसा नक तराजू, था, जिससे हमने कवियों के गुण-दोषों को ऐसा बोल लिया कि उनकी निन-भिन्न ६-७ श्रेणियाँ ही स्थिर कर दी, यदा स्वरत्न की, सेनापति को, दास की, पद्माकर की, तोष की साधास्था एव हीन श्रेणियाँ । हम यह नहीं कह सकते कि हमारा श्रेणीविमान का प्रयत्न नितांत ठीक है अथवा अनेकानेक कवियों को किसी एक श्रेणी में रखने में हमने कोई भूत की हो नहीं, पर क्या कोई सम्बल बाड गबहने का साहस कर सकते हैं कि तुलसीदास और मधु- सुदनदास में कोई अंतर हो नहीं ! इस प्रकार का प्रयत्न हमने पहले [ ३३ ]________________

| . भूमिका ( ३ ) बद्ध किया और संभव है कि ऐसा करने में हमने अनेक भूलें की हो, पर इमारी समझ में यह बिल्कुल नहीं आता कि इसमें हमने पवित्र कम क्या काम किया ! *"तावा” के विध्य में हम यही कहना चाहते हैं कि उसकी विचन प्रथम संस्करण की भूमिका के अंतर्गत 44अंर्ण-विभाग और “ऋम्यिोङ्कर्ष का परखना.शीर्षक दो प्रबंधैं में पृष्ठ ३७ से १६ तुक्क हमनें कुछ विस्तार के साथ की है। यदि इसे देखे बिना ही कोई इन्हीं प्रश्नों के उत्तर हमसे माँगने लगे तो हम की क्यः सकते हैं ? हाँ, यह अवश्य संभव है कि हैररनु हुर हम यही सोचने लगे कि मदता ससपवनें ॥ ॐ सुअता गहि भूमि में डारन है।' यही हाल उस आलोचकों का है ॐ “भाषासंॐ धी विचार-शीर्षक भूमिकांश १ पृष्ठ ६४ से ६४ तळ ) देखे विना ही इमारी इस बिषयक अनेक प्रकार की अशुद्धियाँ भिवालने दौड़ते हैं। निदान ऐसी आलोचनश्र इत्तर दैनः स्यर्थ ही प्रतीत होता है और इस से हम उनके उत्तर देने में प्रायः असमर्थ रहा करतें हैं। कुछ छौचना कें इत्तर कभी-अभी दिए भी परेर श्री कृतिय बातों को ठीक्क पाकर हृमने इनसे लाभ भी उठाया । अथम संस्करण झी ऐसी भूलें इस संस्करण से यथासँभय निमछ दी गई हैं। इमर्ने सुशः है कि हिंदी के एक 'लेकुर” महाशय ‘ने कई बार यह यि प्रकट की है कि विनोंद” हिंदी-कवियों एवं लेखक श्री इक नामावजी { Catalogue } मात्र है। यदि सच्चे. हृदय से उनकी यही राय है तो इस लैक्चरर महाशय की वास्वव में बड़े ही साहसकर्ता कहने से रुक नहीं सवै । यदि एक-एक कवि का काम-मात्र दस-दस बार-बारह पृष्ठों तक लिखा जा सकता हों, यदि केवल ३०१२ कवियों की कैटलॉग ( सुची } अना देने • के लिये प्रायः १५०० पृष्ठों की आवश्यकता पड़ जाती हौं, यदि दश इस्ता ही चाही प्रसिद्ध कहावत अब वास्तव में क्ष [ ३४ ]________________

मित्रर्वधु-विनोंद तार्थ होने लगी हो, तो लेक्चरर महाशय की बात भी अवश्य ही ठीक माननी पडेगी। निदान ऐसी बे-सिर-पैर की श्रालोचनाओं का उत्तर देने से कोई लान नहीं ! इस मर्तबा हमें बहुत सा नया मसाला मिला है, जिससे हिंदी की यापकता, और टसका भारतीय राष्ट्र-भाषा होना भली भाँति सिद्ध होता है । भारतवर्ष के सभी प्रांतों में हिंदी के कवि और लेखक पाए मार हैं कहाँ तक कि मदरास भी खाली नहीं रहने पाया। कम-से-कम सात-अाठ सौ नवज्ञात कवियों और लेखकों का पता इस बार दया है। चंदबरदाई तक से पहले के एक सरलवि "सुवाल" का पता "हिंदी-हस्त लिखित पुस्तकों की खोम" में लगा है जिसने संवत् १००० में श्रीमद् भगवद्गीता का हिंदी पत्र में अनुवाद किया था, जो अब सका वर्तमान है। इसका हाल इस संस्करण के पृष्ठ १८-१६० पर मिळे । अन्य अनेक अच्छे प्रतिभाशाली वि भी दिदित हुए हैं। हम प्रथम संस्कार में भी लिख चुके हैं कि लोगों के नाम के आगे पंडित, चाय, मुंशी, इत्यादि सम्मान-सूचक शब्द हमने नहीं लिखे है, परत कुछ महाशम इस पर भी अप्रसन्न-से हुए। उनसे हमारा पुरः निवेदन है कि ग्रंथों में ऐसी ही रीति बरती जाती है। पंडित तुलसीदास, अबू सूरदास, शेन कबीरदास, इत्यादि कभी नहीं लिखा जाता । कभी-कमी गोस्वामी, महात्मा इत्यादि बहुत बड़े महानुभावों के नाम के पहले लगा दिया जाता है, पर यह भी सदा प्रथया सभी टौर नहीं। फिर सब लोग ऐसे महात्माओं के जोड़ के होने भी नहीं। इससे हमने बहुत ही कम स्थानों को छोड़कर ये सम्मान सूरक शब्द कहीं भी नहीं लगाए हैं, यहाँ तक कि महा- . माओं के नाम के पहले भी बाबा, महात्मा इत्यादि शब्द तक प्रायः ही जोड़े हैं। प्राशा है कि वाचकवृंद हमारी इस कार्यवाही [ ३५ ]________________

भूमिका (२) . अब हम उन सज्जनों को धन्यवाद देकर इस भूमिका को नहीं पर समाप्त करेंगे जिन्होंने हमें इस द्धितीय संस्करस के ठीक करने एवं वर्तमान काल तक खाने में अच्छी सहायता दी है। हमारे प्राचीन मिन और हिंदी-अगत् के सुपरिचित स्वर्गीय कवि गोविंदगिल्लामाईशी ने काठियावाड़ से कवियों और गद्य-लेखकों की विवेचना-सहित एक वृहत् सूची भेजी जिससे प्रायः ५०० अज्ञात लोगों का हमें पता चला । श्रीयुत भास्कर रामचंद्र भालेराव ग्वालियरनिवासी ने गुजरात, महाराष्ट्र, बुंदेलखंड इत्यादि प्रांतों के १००-१५० कवियों के विषय में बड़े असल्य लेख भेजने की कृपा की। वृंदाचन के नीहित रूपलाल गोस्वामीजी ने उस प्रांत के कवियों के संबंध में बड़ी सहायता दी एवं ४०.१० नए नाम विवेचना-साहित दिए। श्रीभवानीशंकर याज्ञिक से अनेक कवियों के समय स्थिर . करने तथा एक ही कवि का दो-तीन बार दोहराकर नाम श्रा जाने से बचने में विशेष सहायता मिली। अन्य अनेक महाशयों में भी थोड़ी बहुत सहायता दी। हम इन सभी महानुभावों के विशेप ऋषी हैं और उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं। अंत में यह भी लिख देना उचित है कि प्रिय दुलारेलाल भार्गव एवं चिरंजीव कृप्स्यविहारी मिश्र ने इस संस्करण के संपादन में बड़ी योग्यता एवं परिश्रम से काम किया और कर रहे हैं जिसका साधुवाद देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। यदि यह संस्करण हिंदी-मर्मज्ञों को कुछ भी . रुचिकर हुआ तो हम अपने को बड़ा भाग्यशाली समझेंगे । गणेशविहारी मिश्र लखनऊ . मार्गशीर्ष, कृष्ण १३ श्यामविहारी मिश्र शकदेवविहारी मिश्र संवत् १६८३ "मिश्रबंध"