मानसरोवर २/२ खुदाई फौजदार
खुदाई फौजदार
सेठ नानकचन्द को आज फिर वही लिफाफा मिला और वही
लिखावट सामने
आई, तो उनका चेहरा पीला पड़ गया। लिफाफा खोलते हुए हाथ और हृदय-
दोनो काँपने लगे। खत में क्या है, यह उन्हें खूब मालूम था। इसी तरह के दो खत
पहले पा चुके थे। इस तीसरे खत में भी वही धमकियाँ हैं, इसमें उन्हें सन्देह न
था। पत्र हाथ में लिये हुए आकाश की ओर ताकने लगे। वह दिल के मजबूत
आदमी थे, धमकियो से डरना उन्होंने न सीखा था, मुर्दो से भी अपनी रकम वसूल कर
लेते थे। दया या उपकार-जैसी मानवीय दुर्बलताएँ उन्हे छू भी न गई थीं, नहीं महाजन
ही कैसे बनते ! उस पर धर्मनिष्ठ भी थे। हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते
थे। हर मङ्गल को महावीरजी को लड्डु चढाते थे, नित्य-प्रति जमुना में स्नान करते
थे और हर एकादशी को व्रत रखते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। और इधर
जबसे घी मे करारा नफा होने लगा था, एक धर्मशाला बनवाने की फिक्र में थे।
जमीन ठीक कर ली थी। उनके असामियों में सैकड़ो ही थवई और बेलदार थे, जो
केवल सूद मे काम करने को तैयार थे। इन्तजाम यही था कि कोई ईट और चूने-
वाला फॅस जाय और दस-बीस हज़ार का दस्तावेज़ लिखा ले, तो सूद मे ईट और
चूना भी मिल जाय। इस धर्म-निष्ठा ने उनकी आत्मा को और भी शक्ति प्रदान कर
दी थी। देवताओ के आशीर्वाद और प्रताप से उन्हें कभी किसी सौदे में घाटा नहीं
हुआ और भीषण परिस्थितियों में भी वह स्थिरचित्त रहने के आदी थे , किन्तु जब-
से यह धमकियों से भरे हुए पत्र मिलने लगे थे, उन्हे बरबस तरह-तरह की शकाएँ
व्यथित करने लगी थीं। कहीं सचमुच डाकुओं ने छापा मारा, तो कौन उनकी सहा-
यता करेगा। दैवी बाबाओ में तो देवताओं की सहायता पर वह तकिया कर सकते
थे ; पर सिर पर लकपती हुई इस तलवार के सामने वह श्रद्धा कुछ काम न देती थी।
रात को उनके द्वार पर केवल एक चौकीदार रहता है। अगर दस-बीस हथियार-
बन्द आदमी आ जाये, तो वह अकेला क्या कर सकता है । शायद उनकी आहट पाते
ही भाग खड़ा हो । पड़ोसियों में ऐसा कोई नज़र न आता था, जो इस सकट में काम
आवे । यद्यपि सभी उनके असामी थे, या रह चुके थे , लेकिन यह एहसान-फरामोशों
का सम्प्रदाय है, जिस पत्तल में खाता है, उसीमें छेद करता है, जिसके द्वार पर
अवसर पड़ने पर नाक रगड़ता है, उसीका दुश्मन हो जाता है । इनसे कोई आशा नहीं।
हाँ, किवाड़े सुदृढ़ हैं, उन्हें तोड़ना आसान नहीं, फिर अन्दर का दरवाजा भी तो है।
सौ आदमी लग जायँ, तो हिलाये न हिले। और किसी ओर से हमले का खटका
नहीं। इतनी ऊँची सपाट दोबार पर कोई क्या खाके चढ़ेगा। फिर उनके पास
रायफलें भी तो हैं । एक रायफल से वह दरजनों आदमियों को भूनकर रख देंगे,
मगर इतने प्रतिबन्धो के होते हुए भी उनके मन में एक हूक-सी समाई रहती थी।
कौन जाने चौकीदार भी उन्हीं मे मिल गया हो, खिदमतगार भी आस्तीन के साँप हो
गये हों । इसलिए वह अब बहुधा अन्दर ही रहते थे, और जब तक मिलनेवालों का
पता-ठिकाना न पूछ लें , उनसे मिलते न थे। फिर भी दो-चार घण्टे तो चौपाल मे
बैठना ही पड़ता था, नहीं सारा कारोबार मिट्टी में न मिल जाता । जितनी देर बाहर
रहते थे, उनके प्राण जैसे सूली पर टेंगे रहते थे। इधर उनके मिजाज़ में बड़ी तबदीली
हो गई थी। इतने विनम्र और मिष्टभाषी वह कभी न थे । गालियाँ तो क्या, किसी से
तू तकरार भी न करते । सूद की दर भी कुछ घटा दी थी , लेकिन फिर भी चित्त को
शान्ति न मिलती थी। आखिर कई मिनट तक दिल को मजबूत करने के बाद
पत्र खोला, और जैसे गोली लग गई। सिर में चक्कर आ गया और सारी चीजें
नाचती हुई मालूम हुई । साँस फूलने लगा। आँखें फैल गई। लिखा था, तुमने
हमारे दोनों पत्रों पर कुछ भी ध्यान न दिया। शायद तुम समझते होगे कि पुलिस
तुम्हारी रक्षा करेगी , लेकिन यह तुम्हारा भ्रम है। पुलिस उस वक्त आयेगी, जब हम
अपना काम करके सौ कोस निकल गये होगे। तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है,
इसमे हमारा कोई दोष नहीं। हम तुमसे सिर्फ २५ हज़ार रुपये मांगते हैं। इतने
रुपये दे देना तुम्हारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं । हमे पता है कि तुम्हारे पास एक
लाख की मोहर रखी हुई हैं, लेकिन 'विनाशकाले विपरीत-बुद्धि ।' अब हम तुम्हे
और ज्यादा न समझायेंगे । तुमको समझाने की चेष्टा करना ही व्यर्थ है। आज शाम
तक अगर रुपये न आ गये, तो रात को तुम्हारे ऊपर धावा होगा। अपनी हिमायत
के लिए जिसे बुलाना चाहो, बुला लो। जितने आदमी और हथियार जमा करना चाहो,
जमा कर लो। हम ललकारकर आयेंगे और दिन-दहाड़े आयेंगे। हम चोर नहीं हैं,
हम वीर हैं और हमारा विश्वास बाहुबल में है। हम जानते हैं कि लक्ष्मी उसी के
गले में जयमाल डालती है, जो धनुष को तोड़ सकता है, मछली को वेध सकता
है। आदि...
सेठजी ने तुरन्त बही-खाते बन्द कर दिये और रोकड़ सँभालकर तिजोरी में रख दिया और सामने का द्वार भीतर से बन्द करके मरे हुए-से केसर के पास आकर बोले-आज फिर वही खत आया केसर ! सब आज ही आ रहे हैं।
केसर दोहरे बदन की स्त्री थी, यौवन बीत जाने पर भी युवती, शौक-सिंगार में लिप्त रहनेवाली, उस फलहीन वृक्ष को तरह, जो पतझड़ में भी हरी-भरी पत्तियों से लदा रहता है। सन्तान को विफल कामना में जीवन का बड़ा भाग बिता चुकने के बाद, अब उसे अपनी संचित माया को भोगने की धुन सवार रहती थी। मालूम नहीं कब आँखें बन्द हो जायें, फिर यह थाती किसके हाथ लगेगी, कौन जाने ? इसलिए उसे सबसे अधिक भय बीमारी का था, जिसे वह मौत का पैगाम समझती थी और नित्य ही कोई-न-कोई दवा खातो रहती थी। काया के इस वस्त्र को उस समय तक उतारना न चाहती थी, जब तक उसमें एक तार भी बाकी रहे । वाल-बच्चे होते तो वह मृत्यु का स्वागत करती , लेकिन अब तो उसके जीवन ही के साथ अन्त था, फिर क्यों न वह अधिक-से-अधिक समय तक जिये। हो, वह जीवन निरानन्द अवश्य था, उस मधुर ग्रास की भांति जिसे हम इसलिए खा जाते हैं कि रख-रखे सड़ जायगा।
उसने घबराकर कहा-मै तुमसे कबसे कह रही हूँ कि दो-चार महीनों के लिए - यहाँ से कहीं भाग चलो , लेकिन तुम सुनते ही नहीं । आखिर क्या करने पर तुले हुए हो ?
सेठजी सशङ्क तो थे, और यह स्वाभाविक था। ऐसी दशा में कौन शान्त रह
सकता था; लेकिन वह कायर नहीं थे। उन्हें अब भी विश्वास था कि अगर कोई सकट
आ पड़े, तो वह पीछे क़दम न हटायेंगे। जो कुछ कमजोरी आ गई थी, वह संकट
को सिर पर मॅडराते देखकर भाग गई थी। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर
शिकारी पर चोट कर बैठता है। कभी-कभी नहीं, अकसर सकट पड़ने पर ही आदमी
के जौहर खुलते हैं। इतनो देर में सेठजी ने एक तरह से भावी विपत्ति का सामना
करने का पक्का इरादा कर लिया था। डरें, क्यों, जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा।
अपनु रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, मरना-जीना विधि के हाथ में है । सेठानोजी
को दिलासा देते हुए बोले--तुम नाहक इतना डरतो हो केसर ! आखिर वह सब भी
तो आदमी हैं ! अपनी जान का मोह उन्हें भी है, नहीं यह कुकर्म ही क्यों करते ?
मैं खिड़की की आड़ से दस-बीस आदमियों को गिरा सकता हूँ। पुलिस को इत्तला
देने भी जा रहा हूँ। पुलिस का कर्तव्य है कि हमारी रक्षा करे। हम दस हज़ार
सालाना टैक्स देते हैं, किसलिए ? मैं अभी दारोगाजी के पास जाता हूँ। जब सरकार
हमसे टैक्स लेती है, तो हमारी मदद करना उसका धर्म हो जाता है।
राजनीति का यह तत्व उसकी समझ में न आया। वह तो किसी तरह उस भय से मुक्त होना चाहती थी, जो उसके दिल मे साँप की भांति बैठा फुफकार रहा था। पुलिस का उसे जो अनुभव था, उससे चित्त को सन्तोष न होता था। बोली-पुलिस- वालों को बहुत देख चुकी। वारदात के समय तो उनको सूरत नही दिखाई देती। जब वारदात हो चुकती है, तब अलबत्ता शान के साथ आकर रोब जमाने लगते हैं।
'पुलिस तो सरकार का राज चला रही है, तुम क्या जानो।'
में तो कहती हूँ, यो अगर कल वारदात होनेवाली होगी, तो पुलिस को खबर देने से आज ही हो जायगो । लूट के माल में इनका भो साझा होता है।
'जानता हूँ, देख चुका हूँ और रोज देखता हूँ, लेकिन मैं सरकार को दस हजार सालाना टैक्स देता हूँ। पुलिसवालो का आदर-सत्कार भी करता रहता हूँ। अभी जाड़ो से सुपरिटेंडेंट साहब आये थे, तो मैंने कितनी रसद पहुँचाई थी। एक पूरा कनस्तर धी और एक शकर की पूरी बोरो भेज दी थी। यह सब खिलाना- पिलाना किस दिन काम आयेगा ? हाँ, आदमी को सोलहो आने दूसरों के भरोसे न बैठना चाहिए , इसलिए मैंने सोचा है, तुम्हे भी बन्दूक चलाना सिखा दू । हम दोनों बन्दूकें छोड़ना शुरू करेंगे, तो डाकुओं की क्या मजाल है कि अन्दर कदम रख सकें।
प्रस्ताव हास्यजनक था। केसर ने मुस्कराकर कहा-हाँ, और क्या अब आज मैं बन्दूक चलाना सीखूँगी । तुमको जव देखो, हॅसी ही सूझती है।
'इसमे हँसो की क्या बात है ? आजकल तो औरतों को फोजे बन रही हैं।
सपाहियों की तरह ओरतें भी कवायद करती हैं, बन्दूक चलाती हैं, मैदानों में खेलती
हैं। ओरतों के घर में बैठने का जमाना अब नहीं है।'
'विलायत की औरतें बन्दूक चलाती होंगी, यहाँ की औरते क्या चलायेंगी। हां,
हाथ-भर की जवान चाहे चला लें।'
'यहाँ की औरतों ने वहादुरी के जो-जो काम किये हैं, उनसे इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। आज भी दुनिया उन वृत्तान्तों को पढ़कर चकित हो जाती है।'
'पुराने जमाने की बातें छोडो। तब औरतें बहादुर रही होंगी। आज कौन बहादुरी कर रही है ?
'वाह ! अभी हज़ारों औरतें घर-बार छोड़कर हँसते-हँसते जेल चली गई, यह बहादुरी नही थी ? अभी पंजाब मे हरनाम कुँवर ने अकेले चार सशस्त्र डाकुओ को गिरफ्तार किया और लाटसाहब तक ने उसकी प्रशसा की।' .
क्या जाने वह कैसी औरतें हैं। में तो, डाकुओं को देखते ही चक्कर गवाकर गिर पड़ूंगी।'
उसी वक्त नौकर ने आकर कहा--सरकार, थाने से चार कानिस्टिबिल आये हैं, आपको बुला रहे हैं।
सेठजी प्रसन्न होकर बोले--थानेदार भी है ?
'नहीं सरकार, अकेले कानिस्टिबिल हैं।'
'थानेदार क्यों नहीं आया ?'--यह कहते हुए सेठजी ने पान खाया और बाहर निकले।
( २ )
सेठजी को देखते ही चारों कान्सटेविलों ने झुककर सलाम किया, बिलकुल अँगरेजी कायदे से, मानो अपने किसी अफसर को सेल्यूट कर रहे हों। सेठजी ने उन्हे बेचों पर बैठाया और बोले-दारोगाजी का मिजाज तो अच्छा है ? मैं तो उनके पास आनेवाला था।
चारों में जो सबसे प्रौढ था और जिसको आस्तीन पर कई बिल्ले लगे हुए थे, बोला--आप क्यों तकलीफ करते, वह तो खुद ही आ रहे थे ; पर एक बड़ी जरूरी तहकीकात आ गई, इससे रुक गये। कल आपसे मिलेंगे। जबसे यहाँ डाकुओं की खबरें आई हैं, बेचारे बहुत घबराये हुए हैं । आपकी तरफ हमेशा उनका ध्यान रहता है। कई बार कह चुके हैं कि मुझे सबसे ज्यादा फिकर सेठजी की है । गुमनाम खत तो आपके पास भी आये होंगे ? सेठजी ने लापरवाही दिखाकर कहा--अजी, ऐसी चिट्ठियां आती ही रहती हैं, इनकी कौन परवाह करता है। मेरे पास तो तीन खत आ चुके हैं, मैंने किसी से ज़िक्र भी नहीं किया।
कान्सटेबिल हंसा-दारोगाजी को खबर मिली थी।
'सच ।
'हाँ साहब । रत्तो-रतो खबर मिलती रहती है। यहाँ तक मालूम हुआ है कि कल आपके मकान पर उनका धावा होनेवाला है। जभी तो आज दारोराजी ने मुझे आपको खिदमत मे भेजा।'
'मगर वहाँ कैसे खबर पहुंची ? मैंने तो किसीसे कहा ही नहीं।'
कान्सटेविल ने रहस्यमय भाव से कहा- हुजूर, यह न पूछें । इलाके के सबसे
बड़े सेठ के पास ऐसे खत आयें और पुलिस को खबर न हो ! भला कोई बात है।
फिर ऊपर से बराबर ताकीद आती रहती है कि सेठजी को शिकायत का कोई मौका
न दिया जाय । सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब की खास ताकीद है आपके लिए। और हुजूर,
सरकार भी तो आप ही के बूते पर चलती है । सेठ-साहूकारों के जान-माल की हिफा-
ज़त न करे, तो रहे कहाँ है हमारे होते मजाल है कि कोई आपकी तरफ तिर्छी आँखों
से देख सके , मगर यह कम्वख्त डाकू इतने दिलेर और तादाद में इतने ज्यादा हैं
कि थाने के बाहर उनसे मुकाबिला करना मुश्किल है। दारोगजी गारद मॅगाने की
बात सोच रहे थे , मगर ये हत्यारे कहीं एक जगह तो रहते नहीं, आज यहाँ हैं, तो
कल यहाँ से दो सौ कोस पर । गारद मँगाकर ही क्या किया जाय ? इलाके की रिआया
की तो हमे ज्यादा फिक्र नहीं, हुजूर मालिक हैं, आपसे क्या छिपाय, किसके पास
रखा है इतना माल-असबाब ! और अगर किसी के पास दो-चार सौ की पूंजी निकल
ही आई, तो उसके लिए पुलिस डाकुओं के पीछे अपनी जान हथेली पर लिये न
फिरेगी । उन्हे क्या, वह तो छूटते ही गोली चलाते हैं, और अकसर छिपकर । हमारे
लिए तो हज़ार बन्दिशे हैं। कोई बात बिगड़ जाय तो उलटे अपनी ही जान'आफत
मे फँस जाय । हमे तो ऐसे रास्ते चलना है कि साँप मरे और लाठी न टूटे, इसलिए
दारोगाजी ने आपसे यह अर्ज करने को कहा है कि आपके पास जोखिम की जो चीज़
हो, उन्हे लाकर सरकारी खजाने में जमा कर दीजिए। आपको उसकी रसीद दे दी
जायगी। ताला और मुहर आप ही की रहेगी। जब यह हङ्गामा ठण्डा हो जाय तो
मॅगवा लीजिएगा। इससे आपको भी बेफिक्री हो जायगो ओर हम भी जिम्मेदारी से
बच जायेंगे। नहीं, खुदा न करें, कोई वारदात हो जाय, तो हुजूर का तो जो नुकसान
हो वह तो हो ही, हमारे ऊपर भी जवाबदेही आ जाय। और यह ज़ालिम सिर्फ
माल-असबाब लेकर ही तो जान नहीं छोड़ते-खून करते हैं, घर में आग लगा देते
हैं, यहां तक कि औरतों की बेइज्जती भी करते हैं। हुजूर तो जानते हैं, होता है
वही जो तकदीर मे लिखा है। आप इकबालवाले आदमी हैं, डाकू आपका कुछ नहीं
बिगाड़ सकते । सारा कस्बा आपके लिए जान देने को तैयार है। आपका पूजा-पाठ,
धर्म-कर्म खुदा खुद देख रहा है। यह इसी की बरकत है कि आप मिट्टी भी छू लें,
तो सोना हो जाय , लेकिन आदमी भरसक अपनी हिफाज़त करता है। हुजूर के पास
मोटर है ही, जो कुछ रखना हो उस पर रख दीजिए । हम चार आदमी आपके साथ
हैं ही, कोई खटका नहीं। वहाँ एक मिनट में आपको फुरसत हो जायगी। पता चला
है कि इस गोल मे बीस जवान हैं। दो तो बैरागी बने हुए हैं, दो पजावियो के भेष
मे धुस्से और अलवान बेचते फिरते हैं। इन दोनो के साथ दो बहँगीवाले भी है।
दो आदमी बलूचियों के भेष मे छूरियाँ और ताले वेचते हैं। कहां तक गिनाऊँ
हुजूर । हमारे थाने मे तो हर एक का हुलिया रखा हुआ है।
खतरे मे आदमी का दिल कमजोर हो जाता है और वह ऐसी बातो पर विश्वास कर लेता है, जिन पर शायद होश-हवास मे न करता ! जब किसी दवा से रोगी को लाभ नहीं होता, तो हम दुआ, तावीज, ओझो और सयानो की शरण लेते है, और यहाँ तो सन्देह करने का कोई कारण ही न था । सम्भव है, दारोगाजी का कुछ स्वार्थ हो , मगर सेठजी इसके लिए तैयार थे, अगर दो चार सौ भल खाने पडें तो कोई बड़ी बात नहीं। ऐसे अवसर तो जीवन मे आते ही रहते हैं और इस परिस्थिति में इससे अच्छा दुसरा क्या इन्तज़ाम हो सकता था , बल्कि इसे तो ईश्वरीय प्रेरणा सम- झना चाहिए । माना, उनके पास दो-दो बन्दूकें हैं, कुछ लोग मदद करने के लिए निकल ही आयेंगे, लेकिन है जान-जोखिम । उन्होने निश्चय किया, दारोगाजी की इस कृपा से लाभ उठाना चाहिए । इन्हीं आदमियो को कुछ दे-दिलाकर सारी चीजें निक- लवा लेंगे। दूसरों का क्या भरोसा ? कहीं कोई चीज उड़ा दे तो बस।
उन्होंने इस भाव से कहा, मानो दारोगाजी ने उन पर कोई विशेष कृपा नहीं की
है-वह तो उनका कर्तव्य ही था--मैंने यहां ऐसा प्रबंध किया था कि यहां वह सब
आते तो उनके दांत खट्ट कर दिये जाते, सारा कस्बा मदद के लिए तैयार था। सभी
से तो अपना मित्र-भाव है, लेकिन दारोगाजी की तजबीज मुझे पसन्द है। इससे वह
भी अपनो जिम्मेदारी से बरी हो जाते हैं और मेरे सिर से भी फिक्र का बोझ उतर
जाता है, लेकिन भीतर से चीजें बाहर निकाल-निकालकर लाना मेरे बूते की बात नहीं।
आप लोगो की दुआ से नौकर-चाकरों को तो कमी नहीं है, मगर किसी की नीयत
कैसी है, कौन जान सकता है ? आप लोग कुछ मदद करें तो काम आसान हो जाय।
हेड कांस्टेबिल ने बड़ी खुशी से यह सेवा स्वीकार कर ली और बोला— हम सब हुजूर के ताबेदार हैं, इसमे मदद को कौन बात है ? तलब सरकार से पाते हैं, यह ठीक है, मगर देनेवाले तो आप ही हैं। आप केवल सामान हमे दिखाते जायें, इस बात को-बात मे सारी चीजें निकाल लायेंगे। हुजूर की खिदमत करेंगे तो कुछ- इनाम-इकराम मिलेगा ही । तनख्वाह मे गुज़र नहीं होता सेठजी, आप लोगो की करम की निगाह न हो, तो एक दिन भी निवाह न हो । बाल-बच्चे भूखों मर जाय । पन्द्रह- बीस रुपया मे क्या होता है हुजूर, इतना तो हमारे लिए ही पूरा नहीं पड़ता।
सेठजी ने अन्दर जाकर केसर से यह समाचार कहा तो उसे जैसे आँख मिल गई। बोली-भगवान् ने सहायता की, नहीं मेरे प्राण बड़े सकट में पड़े हुए थे।
सेठजी ने सर्वज्ञता के भाव से फरमाया- इसी को कहते हैं सरकार का इन्तज़ाम ! इसी मुस्तैदी के बल पर सरकार का राज थमा हुआ है । कैसी सुव्यवस्था है कि जरा- सी कोई बात हो, वहाँ तक खबर पहुँच जाती है और तुरन्त उसके रोक-थाम का हुक्म हो जाता है । और यहाँवाले ऐसे बुद्धू है कि स्वराज्य-स्वराज्य चिल्ला रहे हैं। इनके हाथ में अख्तियार आ जाय तो दिन-दोपहर लूट मच जाय, कोई किसीकी न सुने । ऊपर से ताकीद आई है। हाक्मिो का आदर-सत्कार कभी निष्फल नहीं जाता। मैं तो सोचता हूँ, कोई बहुमूल्य वस्तु घर मे न छोड़ूं। साले आयें तो अपना-सा मुंँह लेकर रह जायें।
केसर ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा--कुञ्जी उनके सामने फेक देना कि जो चीज़ चाहो, निकाल ले जाओ।।
'साले मेंप जायेंगे।
मुंँह मे कालिरा लग जायगी ।, 'घमण्ड तो देखो कि तिथि तक बता दी । यह नहीं समझे कि अंग्रेजी सरकार का राज है । तुम डाल-डाल चलो, तो वह पात-पात चलती है।'
'समझे होंगे कि धमकी में आ जायेंगे।'
तीन कान्सटेबिलो ने आकर सन्दूकचे और सेफ निकालने शुरू किये। एक बाहर सामान को मीटर पर लाद रहा था और हरेक चीज को नोट-बुक पर टांकता जाता था। आभूषण, मुहरें, नोट, रुपये, कीमती कपड़े, साड़ियां, लहँगे, शाल-दुशाले, सब कार में रख दिये गये। मामूली बरतन, लोहे-लकड़ी के सामान, फर्श आदि के सिवा घर में और कुछ न बचा । और डाकुओं के लिए यह चीजें कौड़ी की भी नहीं । केसर का सिंगार दान खुद सेठजी लाये और हेड के हाथ में देकर बोले-इसे बड़ी हिफाज़त से रखना भाई।
हेड ने सिगार-दान लेकर कहा-मेरे लिए एक-एक तिनका इतना ही कीमती है।
सेठजो के मन मे एक सन्देह उठा। पूछा-खजाने की कुञ्जी तो मेरे ही पास रहेगी ?
और क्या, यह तो मैं पहले ही अर्ज कर चुका, मगर यह सवाल आपके दिल में क्यो पैदा हुआ ?'
'यो ही पूछा था --सेठजी लज्जित हो गये।
'नहीं, अगर आपके दिल में कुछ शुबहा हो, तो हम लोग यहाँ भी आपकी खिदमत के लिए हाजिर है । हाँ, हम जिम्मेदार न होंगे।
'अजी नहीं हेड साहब मैने यों ही पूछ लिया था। यह फिहरिस्त तो मुझे दे दोगे न?'
'फिहरिस्त आपको थाने में दारोगाजी के दस्तखत से मिलेगी। इसका क्या एतबार ।"
कार पर सारा सामान रख दिया गया। कस्बे के सैकड़ों आदमी तमाशा देख रहे थे। कार बड़ी थी ; पर ठसा ठस भरी हुई थी। बड़ी मुश्किल से सेठजी के लिए जगह निकली । चारों कान्सटेबिल आगे की सीट पर सिमटकर बैठे।
कार चली । केसर द्वार पर इस तरह खड़ी थी, मानो उसकी बेटी विदा हो रही हो । वेटी ससुराल जा रही है, जहाँ वह मालकिन बनेगी, लेकिन उसका घर सूना
किये जा रही है। ( ४ )
थाना यहाँ से पांच मील पर था। कस्बे से बाहर निकलते ही पहाड़ों का पथ- रीला सन्नाटा था, जिसके दामन में हरा-भरा मैदान था और इसी मैदान के बीच मे से लाल मोरम की सड़क चक्कर खाती हुई लाल साँप-जैसी निकल गई थी।
हेड ने सेठजी से पूछा- यह कहाँ तक सही है सेठजी कि आज से पचीस साल पहले आपके बाप केवल लोटा-डोर लेकर यहाँ खाली हाथ आये थे ?
सेठजी ने गर्व करते हए कहा-बिलकुल सही है। मेरे पास कुल तीन रुपये 'थे। उसी से आटे-दाल की दूकान खोली थी। तकदीर का खेल है, भगवान् की दया चाहिए, आदमी के बनते-बिगड़ते देर नहीं लगती , लेकिन मैंने कभी पैसे को दांतों से नहीं पकड़ा । यथाशक्ति धर्म का पालन करता गया । धन की शोभा धर्म ही से है, नहीं धन से कोई फायदा नहीं।
'आप बिलकुल ठीक कहते हैं सेठजी । आपकी सूरत बनाकर पूजना चाहिए । तीन रुपये से तीन लाख कमा लेना मामूली काम नहीं है।'
'आधी रात तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती, खां साहब ।'
'आपको तो यह सब कारोबार जज्जाल-सा लगता होगा?'
'जजाल तो है ही , मगर भगवान् की ऐसी माया है कि आदमी सब कुछ समझ कर भी इसमें फँस जाता है और सारी उन्न फंसा रहता है। मौत आ जाती है, तभी छुट्टी मिलती है। बस, यही अभिलाषा है कि कुछ यादगार छोड़ जाऊँ ।'
'आपके कोई औलाद हुई ही नहीं ?'
'भाग्य में न थी खां साहब, और क्या कहूँ । जिनके घर में भूनी भांग नहीं है, उनके यहां घास-फूस की तरह बच्चे-ही-बच्चे देख लो , जिन्हे भगवान् ने खाने को दिया है, वे सन्तान का मुंह देखने को तरसते हैं।'
'आप विलकुल ठीक कहते हैं सेठजी । ज़िन्दगी का मज़ा सन्तान से है । जिसके आगे अंधेरा है, उसके लिए धन-दौलत किस काम का।'
'ईश्वर की यही इच्छा है तो आदमो क्या करे ! मेरा बस चलता, तो मायाजाल से निकल भागता खां साहब, एक क्षण-भर यहाँ न रहता, कहीं तीर्थस्थान में बैठकर भगवान् का भजन करता , मगर करूँ क्या, मायाजाल तोड़े नहीं टूटता।' एक बार दिल मजबूत करके तोड़ क्यों नहीं देते? सब उठाकर गरीबों को बाँट दीजिए । साधु-सन्तों को नहीं, न मोटे ब्राह्मणों को वल्कि उनको, जिनके लिए यह ज़िन्दगी बोझ हो रही है, जिनकी यही एक आरजू है कि मौत आकर उनकी विपत्ति का अन्त कर दे।'
'इस मायाजाल को तोड़ना आदमी का काम नहीं है खाँ साहब । भगवान् की इच्छा होती है, तभी मन में वैराग आता है।'
'आज भगवान् ने आपके ऊपर दया की है। हम इस मायाजाल को मकड़ी के जाले की तरह तोड़कर आपको आजाद करने के लिए भेजे गये हैं। भगवान आपकी भक्ति से प्रसन्न हो गये हैं और आपको इस बन्धन में नहीं रखना चाहते, जीवन-मुक्त कर देना चाहते हैं।'
'ऐसी भगवान् की दया हो जाती, तो क्या पूछना खाँ साहब ।'
'भगवान् की ऐसी ही दया है सेठजी, विश्वास मानिए । हमे इसी लिए उन्होंने मृत्युलोक मे तैनात किया है। हम कितने ही मायाजाल के कैदियों की बेड़ियाँ काट चुके हैं । आज आपकी वारी है।'
सेठजी की नाड़ियों मे जैसे रक्त का प्रवाह बन्द हो गया। सहमी हुई आँखों से सिपाहियों को देखा । फिर बोले- आप बड़े हँसोड़ हो खाँ साहब ।
'हमारे जीवन का सिद्धान्त है कि किसी को कष्ट मत दो , लेकिन ये रुपयेवाले कुछ ऐसी औंधी खोपड़ी के लोग हैं कि जो उनका उद्धार करने आता है, उसी के दुश्मन हो जाते हैं। हम आपको बेड़ियाँ काटने आये है, लेकिन अगर आपसे कहें कि यह सब जमा जथा और लता-पता छोड़कर घर की राह लोजिए, तो आप चीखना- चिल्लाना शुरू कर देंगे। हम लोग वही खुदाई फौजदार हैं, जिनके इत्तलाई खत आपके पास पहुंच चुके हैं !'
सेठजी मानो आकाश से पाताल में गिर पड़े। सारी ज्ञानेन्द्रियों ने जवाब दे दिया। और इसी मूर्छा की दशा मे वह मोटरकार से नीचे ढकेल दिये गये और गाड़ी चल पड़ी।
सेठजी की चेष्टा जाग पड़ी। बदहास गाड़ी के पोछे दौड़े-हुजूर, सरकार, तबाह हो जायेंगे, दया कीजिए, घर मे एक कौड़ी भी नहीं है...... खां साहब ने खिड़की से बाहर हाथ निकाला और तीन रुपये जमीन पर फेंक दिये । मोटर की चाल तेज हो गई।
सेठजी सिर पकडकर बैठ गये और विक्षिप्त नेत्रों से मोटरकार को देखा, जैसे कोई शव स्वर्गारोही प्राण को देखे । उनके जीवन का स्वप्न उड़ा चला जा रहा था ।
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