मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद
[  ]

कुसुम

‌साल-भर की बात है, एक दिन शाम को हवा खाने जा रहा था कि महाशय नवीन से मुलाक़ात हो गईं । मेरे पुराने दोस्त हैं, बड़े बेतकल्लुफ़ और मनचले । आगरे में मकान है, अच्छे कवि हैं । उनके कवि-समाज में कई बार शरीक हो चुका हूँ। ऐसा कविता का उपासक मैंने नहीं देखा । पेशा तो वकालत है, पर डूबे रहते हैं काव्य-चिंतन में। आदमी ज़हीन हैं, मुक़दमा सामने आया और उसकी तह तक पहुँच गये, इसलिए कभी-कभी मुक़दमे मिल जाते हैं, लेकिन कचहरी के बाहर अदालत या मुक़दमे की चर्चा उनके लिए निषिद्ध है । अदालत की चारदीवारी के अन्दर चार-पाँच घण्टे वह वकील होते हैं। चारदीवारी के बाहर निकलते ही कवि हैं सिर से पाँव तक । जब देखिये, कवि-मण्डल जमा है, कवि-चर्चा हो रही है, रचनाएँ सुन रहे हैं, मस्त हो-होकर झूम रहे हैं, और अपनी रचना सुनाते समय तो उन पर एक तल्लीनता-सी छा जाती है। कण्ठ-स्वर भी इतनी मधुर है कि उनके पद वाण की तरह सीधे कलेजे में उतर जाते है । अव्यात्म में माधुर्य की सृष्टि करना, निर्गुण में सगुण की बहार दिखाना उनकी रचनाओं की विशेषता है। वह जब लखनऊ आते हैं, मुझे पहले सूचना दे दिया करते हैं । आज उन्हें अनायास लखनऊ में देखकर मुझे आश्चर्य हुआ । पूछा - आप यहाँ कैसे ? कुशल तो है । मुझे आने की सूचना तक न दी ।

बोले - भाई जान‚ एक जंजाल में फंस गया हूँ । आपको सूचित करने का समय न था । फिर आपके घर को मैं अपना घर समझता हूँ । इसे तकल्लुफ की क्या ज़रूरत है कि आप मेरे लिए, कोई विशेष प्रबन्ध करें । मैं एक जरूरी मुआमले में आपको कष्ट देने आया हूँ । इस वक्त की सैर को स्थगित कीजिए और चलकर मेरी विपत्ति कथा सुनिए ।

मैंने घबड़ाकर कहा - आपने तो मुझे चिन्ता में डाल दिया । आप और विपत्ति-कथा। मेरे प्राण सूखे जाते हैं । [  ]‘घर चलिए, चित्त शान्त हो तो सुनाऊँ ।'

‘बाल बच्चे तो अच्छी तरह हैं ?’

‘हाँ, सब अच्छी तरह हैं। वैसी कोई बात नहीं है।’

‘तो चलिए, रेस्ट्राँ में कुछ जलपान तो कर लीजिए ।’

‘नहीं भाई, इस वक्त मुझे जलपान नहीं सूझता।'

हम दोनों घर की ओर चले ।

घर पहुँचकर मैंने उनका हाथ-मुँह धुलाया, शरबत पिलाया । इलायची-पान खाकर उन्होंने अपनी विपत्ति-कथा सुनानी शुरू की—

'कुसुम के विवाह में तो आप गये ही थे । उसके पहले भी आपने उसे देखा था । मेरा विचार है कि किसी सरल प्रकृति के युवक को आकर्षित करने के लिए जिन गुणों की ज़रूरत है वह सब उसमें मौजूद हैं । आपका क्या खयाल है ?'

मैंने तत्परता से कहा--मैं आपसे कहीं ज्यादा कुसुम का प्रशंसक हूँ । ऐसी लज्जाशील, सुघड़, सलीकेदार और विनोदिनी बालिका मैने दूसरी नहीं देखी ।

महाशय नवीन ने करुण स्वर में कहा-- वही कुसुम आज अपने पति के निर्दय व्यवहार के कारण रो-रोकर प्राण दे रही है। उसका गौना हुए एक साल हो रहा है। इस बीच मे वह तीन बार ससुराल गई, पर उसका पति उससे बोलता ही नहीं । उसकी सूरत से बेजा़र है। मैंने बहुत चाहा कि उसे बुलाकर दोनों में सफाई करा दूंँ, मगर न आता है, न मेरे पत्रो का उत्तर देता है। न जाने ऐसी क्या गाँठ पड़ गई है कि उसने इस बेदर्दी से आँखें फेर लीं। अब सुनता हू,उसका दूसरा विवाह होनेवाला है। कुसुम का बुरा हाल हो रहा है। आप शायद उसे देखकर पहचान भी न सकें। रात-दिन रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। इससे आप हमारी परेशानी का अनुमान कर सकते हैं । ज़िन्दगी की सारी अभिलाषाएँ मिटी जाती हैं। हमें ईश्वर ने पुत्र न दिया; पर हम अपनी कुसुम को पाकर सतुष्ट थे और अपने भाग्य को धन्य मानते थे । उसे कितने लाड़-प्यार से पाला, कभी उसे फूल की छड़ी से भी न छुआ । उसकी शिक्षा-दीक्षा में कोई बात उठा न रखी । उसने बी० ए० नहीं पास किया; लेकिन विचारों की प्रौढ़ता और ज्ञान-विस्तार में किसी ऊँचे दर्जे की शिक्षिता महिला से कम नहीं । आपने उसके लेख देखे हैं। मेरा खयाल है, बहुत कम देवियाँ वैसे लेख लिख सकती हैं। समाज, धर्म, नीति, सभी विषयों में उसके विचार बडे परिष्कृत हैं । बहस [  ]करने में तो वह इतनी पटु है कि मुझे आश्चर्य होता है। गृह-प्रबन्ध में इतनी कुशल कि मेरे घर का प्रायः सारा प्रबन्ध उसीके हाथ में था ; किन्तु पति की दृष्टि मे वह पाँव की धूल के बराबर भी नहीं । बार-बार पूछता हूँ, तूने उसे कुछ कह दिया है, या क्या बात है ? आखिर वह क्यों तुझसे उदासीन है ? इसके जवाब मे रोकर यही कहती है---‘मुझसे तो उन्होंने कभी कोई बातचीत ही नहीं की। 'मेरा विचार है कि पहले ही दिन दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया। वह कुसुम के पास आया होगा और उससे कुछ पूछा होगा । उसने मारे शर्म के जवाब न दिया होगा। सम्भव है, उसने दो-चार बातें और भी की हों। कुसुम ने सिर न उठाया होगा । आप जानते ही हैं, वह कितनी शर्मीली है। बस पतिदेव रूठ गये होंगे । मैं तो कल्पना ही नहीं कर सकता कि कुसुम-जैसी बालिका से कोई पुरुष उदासीन रह सकता है ; लेकिन दुर्भाग्य को कोई क्या करे । दुखिया ने पति के नाम कई पत्र लिखे ,पर उस निर्दयी ने एक का भी जवाब न दिया । सारी चिट्ठियाँ लौटा दीं । मेरी समझ में नहीं आता कि उस पाषाण-हृदय को कैसे पिघलाऊँ। मैं अब खुद तो उसे कुछ लिख नहीं सकता। आप ही कुसुम की प्राण-रक्षा करें, नहीं शीघ्र ही उसके जीवन का अन्त हो जायगा, और उसके साथ हम दोनों प्राणी भी सिधार जायेंगे । उसकी व्यथा अब नहीं देखी जाती ।

नवीनजी की आँखें सजल हो गई । मुझे भी अत्यन्त क्षोभ हुआ । उन्हें तसल्ली देता हुआ बोला--आप इतने दिनों इस चिन्ता में पड़े रहे, मुझसे पहले ही क्यों न कहा-मैं आज ही मुरादाबाद जाऊँगा और उस लौडे की इस बुरी तरह खबर लूंँगा कि वह भी याद करेगा । बचा को जबरदस्ती घसीटकर लाऊँगा और कुसुम के पैरों पर गिरा दूंँगा।

नवीनजी मेरे आत्मविश्वास पर मुस्कराकर बोले—-आप उनसे क्या कहेगे ?

‘यह न पूछिए । वशीकरण के जितने मन्त्र हैं, उन सभी की परीक्षा करूगा ।'

‘तो आप कदापि सफल न होंगे । वह इतना शीलवान, इतना विनम्र, इतना प्रसन्न-मुख है, इतना मधुर-भापी कि आप वहाँ से उसके भक्त होकर लौटेंगे। वह नित्य आपके सामने हाथ बाँधे खड़ा रहेगा । आपकी सारी कठोरता शान्त हो जायगी । आपके लिए तो एक ही साधन है। आपके कलम में जादू है ! आपने कितने ही युवको को सन्मार्ग पर लगाया है। हृदय में सोई हुई मानवता को जगाना आपका हिस्सा है। मैं चाहता हूँ, आप कुसुम की ओर से एक ऐसा करुणा-जनक, ऐसा दिल [  ]हिला देनेवाला पत्र लिखें कि वह लज्जित हो जाय और उसकी प्रेम-भावना सचेत हो उठे। मैं जीवन-पर्यन्त आपका आभारी रहूँगा ।'

नवीनजी कवि ही तो ठहरे। इस तजवीज में वास्तविकता की अपेक्षा कवित्व ही की प्रधानता थी । आप मेरे कई गल्पो को पढकर रो पड़े हैं, इससे आपको विश्वास हो गया है कि मैं चतुर सँपेरे की भाँति जिस दिल को चाहू, नचा सकता हूँ। आपको यह मालूम नहीं कि सभी मनुष्य कवि नहीं होते, और न एक-से भावुक । जिन गल्पों को पढ़कर आप रोये हैं, उन्हीं गल्पों को पढ़कर कितने ही सज्जनो ने विरक्त होकर पुस्तक फेंक दी है । पर इन बातों का वह अवसर न था । वह समझते कि मैं अपना गला छुड़ाना चाहता हूं, इसलिए मैंने सहृदयता से कहा--आपको बहुत दूर की सूझी है और में उस प्रस्ताव से सहमत हूँ, और यद्यपि आपने मेरी करुणोत्पादक शक्ति का अनुमान करने में अत्युक्ति से काम लिया है। लेकिन मैं आपको निराश न करूगा । मैं पत्र लिखूंँगा और यथाशक्ति उस युवक की न्याय-बुद्धि को जगाने की चेष्टा भी करूगा, लेकिन आप अनुचित न समझें तो पहले मुझे वह पत्र दिखा दें, जो कुसुम ने अपने पति के नाम लिखे थे। उसने पत्र तो लौटा ही दिये हैं और यदि कुसुम ने उन्हें फाड़ नहीं डाला है, तो उसके पास होगे । उन पत्रों को देखने से मुझे ज्ञात हो जायगा कि किन पहलुओं पर लिखने की गुजांइश बाकी है।

नवीनजी ने जेब से पन्नों का एक पुलिन्दा निकालकर मेरे सामने रख दिया और बोले--मैं जानता था, आप इन पत्रों को देखना चाहेंगे, इसलिए इन्हें साथ लेता आया । आप इन्हें शौक से पढ़ें। कुसुम जैसी मेरी लड़की है, वैसी ही आपकी भी लड़की है । आपसे क्या परदा।

सुगन्धित, गुलाबी, चिकने कागज पर बहुत ही सुन्दर अक्षरों में लिखे हुए उन पत्र को मैंने पढना शुरू किया--

पहला पत्र

मेरे स्वामी, मुझे यहाँ आये एक सप्ताह हो गया ; लेकिन आँखें पल भर के लिए भी नहीं झपकीं । सारी रात करवटें बदलते बीत जाती है । बार-बार सोचती हूँ, मुझ से ऐसा क्या अपराध हुआ कि उसकी आप मुझे यह सज़ा दे रहे है। आप मुझे झिड़के, घुड़के, कोसें, इच्छा हो तो मेरे कान भी पकड़ें । मैं इन सभी सज़ाओं को सहर्ष सह लूंगी;लेकिन यह निष्ठुरता नहीं सही जाती। मैं आपके घर एक सप्ताह रही । पर[ १० ]‌आत्मा जानता है कि मेरे दिल में क्या-क्या अरमान थे। मैंने कितनी बार चाहा कि आपसे कुछ पूंछू, आपसे अपने अपराधों को क्षमा कराऊँ; लेकिन आप मेरी परछाई से भी दूर भागते थे । मुझे कोई अवसर न मिला । आपको याद होगा कि जब दोपहर को सारा घर सो जाता था, तो मैं आपके कमरे में जाती थी और घण्टो सिर झुकाये खड़ी रहती थी, पर आपने कभी आंख उठाकर न देखा। उस वत्त मेरे मन की क्या दशा होती थी, इसका कदाचित् आप अनुमान न कर सकेंगे।मेरी जैसी अभागनी स्त्रियाँ इसका कुछ अन्दाज़ कर सकती हैं । मैंने अपनी सहेलियों से उनकी सोहागरात की कथाएँ सुन-सुनकर अपनी कल्पना में सुखों का जो स्वर्ग बनाया था, उसे आपने कितनी निर्देयता से नष्ट कर दिया ।

मैं आपसे पूछती हूँ, क्या आपके ऊपर मेरा कोई अधिकार नहीं है ? अदालत भी किसी अपराधी को दण्ड देती है, तो उस पर कोई-न-कोई अभियोग लगाती है गवाहियाँ लेती है, उसका बयान सुनती है। आपने तो कुछ पूछा ही नहीं, मुझे अपनी खता मालूम हो जाती, तो आगे के लिए सचेत हो जाती । आपके चरणों पर गिरकर कहती, मुझे क्षमा-दान दो । मैं शपथ-पूर्वक कहती हूँ, मुझे कुछ सहीं मालूम, आप क्यो रूष्ट हो गये । सम्भव है, आपने अपनी पत्नी में जिन गुणों को देखने की कामना की हो वह मुझमे न हो । बेशक मैं अंग्रेजी नहीं पढ़ी, अग्रेंजी-समाज की रीति-नीति से परिचित नहीं, न अङ्गरेजी खेल ही खेलना जानती हूँ । और भी कितनी ही त्रुटियां मुझमें होंगी । मैं मानती हूँ कि मैं आपके योग्य न थी । आपको भुझसे कहीं अधिक रूपवती, बुद्धिमती स्त्री मिलनी चाहिए थी, लेकिन मेरे देवता, दण्ड अपराधों का मिलना चाहिए, त्रुटियों का नहीं । फिर मैं तो आपके इशारे पर चलने को तैयार हूंँ ।आप मेरी दिलजोई करें, फिर देखिए, मैें अपनी त्रुटियों को कितनी जल्द पूरा कर लेता हूंँ ।आपका प्रेम-कटाक्ष मेरे रूप को प्रदीप्त, मेरी बुद्धि को तीव्र और मेरे भाग्य को बलवान कर देगा । वह विभूति पाकर मेरी कायाकल्प हो जायगी।

स्वामी क्या आपने सोचा है। आप यह क्रोध किस पर कर रहे हैं ? वह अबला, जो आपके चरणो पर पड़ी हुई आपसे क्षमा-दान मांग रही है,जो जन्म-जन्मान्तर के लिए आपकी चेरी है, क्या इस क्रोध का सहन कर सकती है?मेरा दिल बहुत कमजोर है। मुझे रुलाकर आपको पश्चात्ताप के सिवा और क्या हाथ आयेगा ! इस क्रोधाग्नि की एक चिन्गारी मुझे भस्म कर देने के लिए काफ़ी है; अगर आपकी [ ११ ]यही इच्छा है कि मैं मर जाऊ, तो मैं मरने के लिए तैयार हूँ। केवल आपका इशारा चाहती हूंँ । अगर मेरे मरने से आपका चित्त सप्रन्न हो, तो मैं बड़े हर्ष से अपने को आपके चरणो पर समर्पित कर दूँगी । मगर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि मुझमे सौ ऐब हों, पर एक गुण भी है---मुझे दावा है कि आपकी जितनी सेवा मैं कर सकती हैं, उतनी कोई दूसरी स्त्री नहीं कर सकती । आप विद्वान् हैं, उदार हैं, मनोविज्ञान के पण्डित हैं, आपकी लौंडी आपके सामने खड़ी दया की भीख माँग रहीं है। क्या उसे द्वार से ठुकरा दीजिएगा ?

आपकीं अपराधिनी,

——कुसुम

यह पत्र पढ़कर मुझे रोमाञ्च हो आया । यह बात मेरे लिए असह्य थी कि कोई स्त्री अपने पति की इतनी खुशामद करने पर मजबूर हो जाय । पुरुष अगर स्त्री से उदासीन रह सकता है, तो स्त्री क्यों उसे नहीं ठुकरा सकती ? यह दुष्ट समझता है कि विवाह ने एक स्त्री को उसका गुलाम बना दिया। वह उस अबला पर जितना अत्याचार चाहे करे, कोई उसका हाथ नहीं पकड़ सकता, कोई चुँ भी नहीं कर सकता । पुरुष अपनी दूसरी, तीसरी, चौथ शादी कर सकता है, स्त्री से कोई सम्बन्ध न रखकर भी उस पर उसी कठोरता से शासन कर सकता है । वह जानता है कि स्त्री कुल-मर्यादा के बन्धनों में जकड़ी हुई है, उसे रो-रोकर मर जाने के सिवा और कोई उपाय नहीं , अगर उसे भय होता कि औरत भी उसकी ईट का जवाब पत्थर से नहीं, ईट से भी नहीं, केवल थप्पड़े से दे सकती है, तो उसे कभी इस बदमिजाजी का साहस न होता । बेचारी स्त्री कितनी विवश है। शायद मैं कुसुम की जगह होता, तो इस निष्ठुरती का जवाब इसकी दसगुनी कठोरता से देता। उसकी छाती पर मूंग दलता । संसार के हॅसने की जरा भी चिन्ता न करता । समाज अबलाओं पर इतना जुल्म देख सकता है और चूं तक नही करता,, उसके रोने या हँसने की मुझे जरा भी परवाह ने होती । अरे अभागे युवक ! तुझे ख़बर नहीं, तू अपने भविष्य की गर्दन पर कितनी बेदर्दी से छुरी फेर रहा है । यह वह समय है, जत्र पुरुष को अपने प्रणय-भण्डार से स्त्री के माता-पिता, भाई-बहन, सखियाँ-सहेलियाँ, सभी के प्रेम की पूर्ति करनी पड़ती है, अगर पुरुष में यह सामर्थ्य नहीं है, तो स्त्री की क्षुधित आत्मा को कैसे सन्तुष्ट रख सकेगा । परि-‌ [ १२ ]णाम वही होगा, जो बहुधा होता है। अबला कुढ़-कुढ़कर मर जाती है। यही वह समय है, जिसकी स्मृति जीवन मे सदैव के लिए मिठास पैदा कर देती है। स्त्री की प्रेम-क्षुधा इतनी तीव्र होती है कि वह पति का स्नेह पाकर अपना जीवन सफल समझती है, और इस प्रेम के आधार पर जीवन के सारे कष्टों को हँस-खेलकर सह लेती है । यह वह समय है, जब हृदय में प्रेम का वसन्त आता है और उसमें नयी-नयी आशा-कोपलें निकलने लगती हैं। ऐसा कौन निर्दयी है, जो इस ऋतु में उस वृक्ष पर कुल्हाड़ी चलायेगा ! यही वह समय है, जब शिकारी किसी पक्षी को उसके बसेरे से लाकर पिजरे में वन्द कर देता है। क्या वह उसको गर्दन पर छुरी चलाकर उसका मधुर गान सुनने की आशा रखता है ? मैंने दूसरा पत्र पढ़ना शुरू किया ।

( २ )

दूसरा पत्र

मेरे जीवन-धन, दो सप्ताह जवाब की प्रतीक्षा करने के बाद आज फिर यह उलहना देने बैठी हूँ। जब मैंने यह पत्र लिखा था, तो मेरा मन गवाही दे रहा था कि उसका उत्तर ज़रूर आयेगा । आशा के विरुद्ध आशा लगाये हुए थी । मेरा मन अब भी इसे स्वीकार नहीं करता कि जान-बूझकर उसका उत्तर नहीं दिया। कदाचित् आपको अवकाश नहीं मिला, या ईश्वर न करे, कहीं आप अस्वस्थ तो नहीं हो गये ? किससे पूछूँ ? इस विचार से ही मेरा हृदय काँप रहा हैं। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप प्रसन्न और स्वस्थ हो, पत्र मुझे न लिखें, न सही, रोकर चुप हो तो हो जाऊँगो । आपको ईश्वर का वास्ता है। अगर आपको किसी प्रकार का कष्ट हो, तो मुझे तुरन्त पत्र लिखिए, मैं किसीको साथ लेकर आ जाऊँगो । मर्यादा और परिपाटी के बन्धनो से मेरा जी घबराता है, ऐसी दशा में भी यदि आप मुझे अपनी सेवा से वञ्चित रखते हैं, तो आप मुझसे मेरा वह अधिकार छीन रहे हैं, जो मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान् वस्तु है। मैं आपसे और कुछ नहीं माँगती, आप मुझे मोटे-से-मोटा खिलाइए, मोटे से मोटा पहनाइए, मुझे ज़रा भी शिकायत न होगी । मैं आपके साथ घोर-से-घोर विपत्ति में भी प्रसन्न रहूंगी। मुझे आभूषण की लालसा नहीं, महल मे रहने की लालसा नहीं, सैर तमाशे की लालसा नहीं, धन बटोरने की लालसा नहीं । मेरे जीवन का उद्देश्य केवल आपकी सेवा करना है। यही उसका ध्येय है। मेरे लिए दुनिया में कोई देवता नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई हाकिम नहीं। मेरे देवता आप हैं,‌ [ १३ ]मेरे गुरु आप है, मेरे राजा आप हैं। मुझे अपने चरणों से न हटाइए, मुझे ठुकराइए नहीं । मैं सेवा और प्रेम के फूल लिये, कर्तव्य और व्रत की भेंट अञ्चल में सजाये आपकी सेवा मे आई हूँ। मुझे इस भेंट को, इन फूलों को अपने चरणों पर रखने दीजिए । उपासक का काम तो पूजा करना है। देवता उसकी पूजा स्वीकार करता है। या नहीं, यह सोचना उसका धर्म नहीं ।

मेरे सिरताज, शायद आपको पता नही, आजकल मेरी क्या दशा है। यदि मालूम होता तो आप इस निष्ठुरता का व्यवहार न करते । आप पुरुष हैं, आपके हृदय में दया है, सहानुभूति है, मैं विश्वास नहीं कर सकती कि आप मुझ-जैसी नाचीज पर क्रोध कर सकते हैं। मैं आपकी दया के योग्य हूँ-कितनी दुर्बल, कितनी अपङ्ग, कितनी बेज़बान । आप सूर्य हैं, मैं अणु हूँ, आप अग्नि हैं, मै तृण हूँ, आप राजा हैं, मैं भिखारिन हूँ। क्रोध तो बरोबरवालों पर करना चाहिए, मैं भला आपके क्रोध का आघात कैसे सह सकती हूँ। अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सेवा के योग्य नहीं हूँ, तो मुझे अपने हाथों से विष का प्याला दे दीजिए। मैं उसे सुधा समझकर सिर और आँखो से लगाऊँगी और आँखें बन्द करके पी जाऊँगी। जब यह जीवन आपकी भेंट हो गया, तो आप इसे मारें या जिलाये, यह आपकी इच्छा है । मुझे यही सन्तोष काफी है कि मेरी मृत्यु से आप निश्चिन्त हो गये । मैं तो इतना ही जानती हूँ कि मैं आपकी हूँ और सदैव आपकी रहूँगी, इस जीवन में ही नहीं , बल्कि अनन्त तक ।

अभागिनी,

--कुसुम

यह पत्र पढ़कर मुझे कुसुम पर भी झुंँझलाहट आने लगी और उस लौंडे से तो घृणा हो गई। माना, तुम स्त्री हो, आजकल के प्रथानुसार पुरुष को तुम्हारे ऊपर हर तरह का अधिकार है । लेकिन नम्रता की भी तो कोई सीमा होती है ? स्त्री में कुछ तो मान, कुछ ती अकड़ होनी चाहिए। अगर पुरुष उससे ऐंठता है, तो उसे भी चाहिए कि उसकी बात न पूछे। स्त्रियों को धर्म और त्याग का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर हमने उनके आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास दोनों ही का अन्त कर दिया , अगर पुरुष स्त्री का मुहताज नहीं, तो स्त्री पुरुष की मुहताज क्यो हो ? ईश्वर ने पुरुष को हाथ दिये हैं, तो क्या स्त्री को उससे वंचित रखा है ? पुरुष के पास बुद्धि है , तो क्या स्त्री अबोध है ? इसी नम्रता ने तो मरदों का मिज़ाज आसमान पर पहुंचा दिया । पुरुष रूठ गया‌ [ १४ ]तो स्त्री के लिए मानो प्रलय आ गया। मैं तो समझता हैं, कुसुम नहीं, उसका अभागा पति दया के योग्य है, जो कुसुम-जैसी स्त्री-रत्न की कद्र नहीं कर सकता। मुझे ऐसा सन्देह होने लगा कि इस लौंडे ने कोई दूसरा रोग पाल रखा है। किसी शिकारी के रङ्गीन जाल में फंसा हुआ है।

खैर, मैंने तीसरा पत्र खोला---

तीसरी पत्र

प्रियतम, अब मुझे मालूम हो गया कि मेरी ज़िन्दगी निरुद्देश्य है । जिस फुल को देखनेवाला, चुननेवाला कोई नहीं, वह खिले तो क्यों ? क्या इसी लिए कि मुरझाकर जमीन पर गिर पड़े और पैरों से कुचल दिया जाय ? मैं आपके घर में एक महीना रहकर दोबारा आई हूँ । ससुरजी ही ने मुझे बुलाया, ससुरजी ही ने मुझे बिदा कर दिया । इतने दिनों में आपने एक बार भी मुझे दर्शन न दिये । आप दिन में बीसों हो बार घर में आते थे, अपने भाई-बहनों से हँसते-बोलते थे, या मित्रों के साथ सेरतमाशे देखते थे , लेकिन मेरे पास आने को आपने कसम खा ली थी। मैने कितनी बार आपके पास सन्देशे भेजे, कितना अनुनय-विनय किया, कितनी बार बेशर्मी करके आपके कमरे में गई ; लेकिन आपने कभी मुझे आँख उठाकर भी न देखा । मे तो कल्पना ही नहीं कर सकती कि कोई भी इतना हृदयहीन हो सकता है। मैं प्रेम के योग्य नहीं, विश्वास के योग्य नहीं, सेवा करने के भी योग्य नहीं, तो क्या दया के भी योग्य नहीं है ? मैंने उस दिन कितनी मेहनत और प्रेम से आपके लिए रसगुल्ले बनाये ये। आपने उन्हे हाथ से छुआ भी नहीं। जब आप मुझसे इतने विरक्त हैं, तो मेरी समझ में नहीं आता कि जी कर क्या करूँ । न जाने वह कौन-सी आशा है, जो मुझे जीवित रखे हुए है। क्या अन्धेर है कि आप सज़ा तो देते हैं, पर अपराध नहीं बतलाते ! यह कौन-सी नीति है ! आपको ज्ञात है, इस एक मास में मैंने मुश्किल से दस दिन आपके घर में भोजन किया होगा। मैं इतनी कमज़ोर हो गई हूँ कि चलती हूँ तो आँखो के सामने अंधेरा छा जाता है। आँखों में जैसे ज्योति ही नहीं रही । हृदय में मानो रक्त का संचालन ही नहीं रहा। खैर, सता लीजिए, जितना जी चाहे, इस अनीति का अन्त भी एक दिन हो ही जायगा। अब तो मृत्यु ही पर सारी आशाएँ टिकी हुई हैं। अब मुझे प्रतीत हो रहा है कि मेरे मरने की खबर पाकर आप उछलेंगे और हल्की साँस लेंगे, आपकी आँखों से आँसू की एक बूंँद भी न गिरेगी ; पर‌ [ १५ ]यह आपका दोष नहीं, मेरा दुर्भाग्य है । उस जन्म में मैंने कोई बहुत बड़ा पाप किया। था । मैं चाहती हूँ, मैं भी आपकी परवाह न करूँ, आप ही को भाँति आपसे आँखें फेर लू, मुंह फेर लें, दिल फेर लें, लेकिन न-जाने क्यों मुझमें वह शक्ति नहीं है। क्या लता वृक्ष की भाँति खड़ी रह सकती है ? वृक्ष के लिए किसी सहारे की ज़रूरत नही । लता वह शक्ति कहाँ से लाये ? वह तो वृक्ष से लिपटने के लिए पैदा की गई है। उसे वृक्ष से अलग कर दी और वह सूख जायगी । मैं आपसे पृथक् अपने अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकती । मेरे जीवन की हर एक गति, प्रत्येक विचार, प्रत्येक कामना मे आप मौजूद होते हैं। मेरा जीवन वह वृक्ष है, जिसके केन्द्र आप हैं । मैं वह हार हूँ, जिसके प्रत्येक फूल मे आप धागे की भाँति धुसे हुए हैं। उस धागे के बगैर हार के फुल बिखर जायेंगे और धूल में मिल जायेंगे ।

मेरी एक सहेली है शन्नो । उसको इस साल पाणिग्रहण हो गया है। उसका पति जब ससुराल आता है, शन्नो के पाँव जमीन पर नहीं पड़ते । दिन-भर में न-जाने कितने रूप बदलती है । मुख-कमल खिल जाता है। उल्लास सँभाले नहीं सँभलता। उसे बिखेरती, लुटाती चलती है, हम जैसे अभागों के लिए। जब आकर मेरे गले में लिपट जाती है, तो हर्ष और उन्माद की वर्षा मे जैसे मैं लथपथ हो जाती हूँ। दोनों अनुराग से मतवाले हो रहे हैं। उनके पास धन नहीं है, जायदाद नहीं है। मगर अपनी दरिद्रता में ही मगन हैं । इस अखण्ड प्रेम का एक क्षण ! उसकी तुलना मे संसार की कौन-सी वस्तु रखी जा सकती है ? मैं जानती हूँ, यह रङ्गरेलिया और बेफिक्रियाँ बहुत दिन न रहेगी । जीवन की चिन्ताएँ और दुराशाएँ उन्हें भी परास्त कर देंगी ; लेकिन यह मधुर स्मृतियां संचित धन की भांति अन्त तक उन्हे सहार देती रहेगी । प्रेम की भीगी हुई सूखी रोटियाँ और प्रेम में रँगे हुए मोटे कपड़े और प्रेम के प्रकाश से आलोक्ति छोटी-सी कोठरी, अपनी इस विपन्नता में भी वह । स्वाद, वह शोभा और वह विश्वास रखती है, जो शायद देवताओं को स्वर्ग में भी नसीब नहीं । जव शन्नो को पति अपने घर चला जाता है, तो वह दुखिया किस तरह फूट-फूटकर रोती है कि मेरा हृदय गदगद हो जाता है; उसके पत्र आ जाते हैं तो मानो उसे कोई विभूति मिल जाती है। उसके रोने में भी, उसकी विफलताओं में भी, उसके उपालम्भों में भी एक स्वाद है, एक रस है। उसके आँसू व्यग्रता और विह्वलता के हैं, मेरे आँसू निराशा और दुख के । उसकी व्याकुलता में प्रतीक्षा और‌ [ १६ ]उल्लास है, मेरी व्याकुलता में दैन्य और परवशता। उसके उपालम्भ में अधिकार और ममता है, मेरे उपालम्भ में भग्नता और रुदने ।

पत्र लम्बा हुआ जाता है और दिल का बोझ हलका नहीं होता । भयंकर गरम पड़ रही हैं। दादा मुझे मसूरी ले जाने का विचार कर रहे हैं। मेरी दुर्बलता से उन्हें ‘टी० बी०' का सन्देह हो रहा है। वह नहीं जानते कि मेरे लिए मसूरी नहीं, स्वर्ग भी कालकोठरी हैं।

अभागिनी,

--कुसुम

चौथा पत्र

मेरे पत्थर के देवता, कल मसूरी से लौट आई । लोग कहते हैं, बड़ा स्वास्थ्यवर्द्धक और रमणीक स्थान है, होगा । मैं तो एक दिन भी कमरे से नहीं निकली । भग्न हृदयों के लिए संसार सूना है ।

मैंने एक रात बड़े मज़े का सपना देखा । बतलाऊँ , पर क्या फायदा । न-जाने क्यों अब भी मौत से डरती हैं। आशा का कच्चा धागा मुझे अब भी जीवन से बांधे हुए हैं। जीवन-उद्यान के द्वार पर जाकर बिना सैर किये लौट जाना कितना हसरतनाक है। अन्दर क्या सुषमा है, क्या आनन्द है। मेरे लिए वह द्वार ही बन्द है ! कितनी अभिलाषाओं से विहार का आनन्द उठाने चली थी --- कितनी तैयारियों से—पर मेरे पहुँचते ही द्वार बन्द हो गया है ।

अच्छा बतलाओं, मैं मर जाऊँगी, तो मेरी लाश पर आँसू की दो बूंदै गिराओगे ? जिसकी ज़िन्दगी-भर की जिम्मेदारी ली थी, जिसकी सदैव के लिए बाँह पकड़ी थी, वया उसके साथ इतनी उदारता भी न करोगे ? मरनेवालों के अपराध सभी क्षमा कर दिया करते हैं। तुम भी क्षमा कर देना। आकर मेरे शव को अपने हाथों से नहलाना, अपने हाथ से सौहार के सिन्दूर लगाना, अपने हाथ से सोहाग की चूड़ियाँ पहनाना, अपने हाथ से मेरे मुंह में गंगाल डालना, दो-चार पग कन्धा दे देना, बस मेरी आत्मा सन्तुष्ट हो जायगो और तुम्हें आशीर्वाद देगी । मैं वचन देती हैं कि मालिक के दरबार में तुम्हारा यश गाऊँगी । क्या यह भी महँगा सौदा हैं ? इतने से शिवाचार से तुम अपनी सारी ज़िम्मेदारी से मुक्त हुआ जाते हों । आह ! मुझे विश्वास होता कि तुम इतना शिष्टाचार करोगे, तो मैं कितनी खुशी से‌ [ १७ ]मौत का स्वागत करती ; लेकिन मैं तुम्हारे साथ अन्याय न करूंँगी । तुम कितने ही निष्ठुर हो, इतने निर्दयी नहीं हो सकते । मैं जानती हूँ, तुम यह समाचार पाते ही आओगे और शायद एक क्षण के लिए मेरी शोक-मृत्यु पर तुम्हारी आँखें रो पड़ें। कहीं मैं अपने जीवन में वह शुभ अवसर देख सकती ।

अच्छा, क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकती हैं ? नाराज़ न होना । क्या मेरी जगह किसी और सौभाग्यवती ने ले ली है ? अगर ऐसा है, तो बधाई ! जरा उसका चित्र मेरे पास भेज देना। मैं उसकी पूजा करूंँगी, उसके चरणों पर शीश नवाऊँगी । मैं जिस देवता को प्रसन्न न कर सकी, उसी देवता से उसने वरदान प्राप्त कर लिया। ऐसी सौभागिनी के तो चरण धो-धो पीना चाहिए। मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम उसके साथ सुखी रहो। यदि मैं उस देवी की कुछ सेवा कर सकती, अपरोक्ष न सही, परोक्ष रूप से ही तुम्हारे कुछ काम आ सकती । तुम मुझे केवल उसका शुभ नाम और स्थान बता दो, मैं सिर के बल दौड़ी हुई उसके पास जाऊँगी और कहूँगी, देवी, तुम्हारी लौंडी हूँ , इसलिए कि तुम मेरे स्वामी की प्रेमिका हो, मुझे अपने चरणों में शरण दो। मैं तुम्हारे लिए फूलों की सेज बिछाऊँगी, तुम्हारी माँग मोतियों से भरूँगी, तुम्हारी एड़ियों में महावर रचाऊँगी-- यही मेरे जीवन की साधना होगी । यह न समझना कि मैं जलूँगी या कुडूँगी । जलन तब होती है, जब कोई मुझसे मेरी वस्तु छीन रहा हो। जिस वस्तु को अपना समझने का मुझे कभी सौभाग्य ही न हुआ, उसके लिए मुझे क्यों जलन हो ?

अभी बहुत-कुछ लिखना था , लेकिन डाक्टर साहब आ गये हैं। बेचारा हृदयदाह को ‘टी० वी’ समझ रहा है।

दु ख की सताई हुई,


-कुसुम

इन दोनों पत्रों ने मेरे धैर्य का प्याला भर दिया । मैं बहुत ही आवेशहीन आदमी हूँ । भावुकता मुझे छू भी नहीं गई । अधिकांश कलाविदो की भाँति मैं भी शब्दों से आन्दोलित नहीं होता। क्या वस्तु दिल से निकलती है, क्या वस्तु केवल मर्म को स्पर्श करने के लिए लिखो गई है ! यह भेद बहुधा मेरे साहित्यिक आनन्द मे बाधक हो जाता है , लेकिन इन पत्रों ने मुझे आपे से बाहर कर दिया । एक स्थान पर तो सचमुच मेरी आँखें भर आई । यह भावना कितनी वेदनापूर्ण थी कि वहीं‌ [ १८ ]बालिका, जिस पर माता-पिता प्राण छिड़कते रहते थे, विवाह होते ही इतनी विषदग्रस्त हो जाय । विवाह क्या हुआ, मानो उसकी चिंता बनी, या उसकी मौत का परवाना लिखा गया। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसौ वैवाहिक दुर्घटनाएँ कम होती हैं, लेकिन समाज की वर्तमान दशा में उनकी सम्भावना बनी रहती है। जब तक स्त्री-पुरुष के अधिकार समान न होंगे, ऐसे आघात नित्य होते रहेंगे । दुबल को सताना कदाचित् प्राणियों का स्वभाव है। काटनेवाले कुत्ते से लोग दूर भागते हैं, सीधे कुते पर बालवृन्द विनोद के लिए पत्थर फेकते हैं। तुम्हारे दो नौकर एक ही श्रेणी के हो, उनमें कभी झगड़ा न होगा , लेकिन आज उनमें से एक को अफसर और दूसरे को उसका मातहत बना दो, फिर देखो, अफसर साहब अपने मातहत पर कितना रोब जमाते हैं ? सुखमय दाम्पत्य को नींव अधिकार-साम्य ही पर रखी जा सकती है। इस वैषम्य में प्रेम का निवास हो सकता है, मुझे तो इसमे सन्देह है। हम आज जिसे पुरुषों में प्रेम कहते हैं वह वहीं प्रेम है, जो स्वामी को अपने पशु से होता है। पशु सिर झुकाये काम किये चला जाय स्वामी उसे भूसा और खली भी देगा, उसकी देह भी सहलायेगा, उसे आभूषण भी पहनायेगा, लेकिन जानवर ने ज़रा चाल धीमी की, ज़रा गर्दन टेढ़ी की और मालिक का चाबुक पीठ पर पड़ा । इसे प्रेम नहीं कहते ।

खैर, मैंने पाँचवाँ पत्र खोला ।

पाँचवाँ पत्र

जैसा मुझे विश्वास था, आपने मेरे पिछले पत्र का भी उत्तर न दिया । इसका खुला हुआ अर्थ यह है कि आपने मुझे परित्याग करने का संकल्प कर लिया है। जैसी आपकी इच्छा । पुरुष के लिए स्त्री पाँव की जूती है, स्त्री के लिए तो पुरुष देवतुल्य है, बल्कि देवता से भी बढ़कर । विवेक का उदय होते ही वह पति की कल्पना करने लगती है। मैंने भी वही किया । जिस समय में गुड़ियाँ खेलती थी, उसी समय आपने गुड्डे के रूप में मेरे मनोदेश में प्रवेश किया । मैंने आपके चरणों को पखारा, माला-फूल और नैवेद्य से आपका सत्कार किया। कुछ दिनों के बाद कहानियाँ सुनने और पढ़ने की चाट पड़ी, तब आप कथाओं के नायक के रूप में मेरे घर आये । मैंने आपको हृदय में स्थान दिया । बाल्यकाल ही से आप किसी-न-किसी रूप में मेरे जीवन में घुसे हुए थे । वह भावनाएँ मेरे अन्तस्तल की गहराइयों तक पहुंँच गई हैं।
[ १९ ]
मेरे अस्तित्व का एक-एक अणु उन भावनाओं से गुंँथा हुआ है। उन्हें दिल से निकाल डालना सहज नहीं है। उसके साथ मेरे जीवन के परमाणु भी बिखर जायेंगे, लेकिन आपकी यही इच्छा है तो यही सही। मैं आपकी सेवा मे सब कुछ करने को तैयार थी । अभाव और वियन्नता का तो कहना ही क्या, मैं तो अपने को मिटा देने को भी राज़ी थी। आपकी सेवा में मिट जाना ही मेरे जीवन का उद्देश्य था। मैने लज्जा और संकोच का परित्याग किया, आत्म सम्मान को पैरों से कुचला, लेकिन आप सुझ स्वीकार नहीं करना चाहते । मजबूर हूँ। आपका कोई दोष नहीं। अवश्य मुझसे कोई ऐसी बात हो गई है, जिसने आपको इतना कठोर बना दिया है। आप उसे जवान पर लाना भी उचित नहीं समझते। मैं इस निष्ठुरता के सिवा और हर एक सज़ा झेलने को तैयार थी। आपके हाथ से ज़हर का प्याला लेकर पी जाने में भी मुझे विलम्ब न होता, किन्तु बिवि की गति निराली है। मुझे पहले इस सत्य के स्वीकार करने में बाधा थी कि स्त्री पुरुष की दासी है। मैं उसे पुरुष को सचहरी, अर्धाङ्गिनी समझती थी, पर अब मेरी आँखें खुल गई। मैंने कई दिन हुए एक पुस्तक मे पढा था कि आदिकाल मे स्त्री पुरुष की उसी तरह सम्पत्ति थी, जैसे गाय, बैल या खेत-बारी। पुरुष को अधिकार था स्त्री को बेचे, गिरो रखे या मार डाले । विवाह की प्रथा उस समय केवल यह थी कि घर-पक्ष अपने सूर-सामन्तों को लेकर सशस्त्र आता था और कन्या को उड़ा ले जाता था। कन्या के साथ कन्या के घर मे रुपया-पैसा, अनाज या पशु जो कुछ उसके हाथ लग जाता था उसे भी उठा ले जाता था। स्त्री को अपने घर ले जाकर वह उसके पैरों में बेड़ियाँ डालकर घर के अन्दर बन्द कर देता था। उसके आत्म-सम्मान के भावो को मिटाने के लिए यह उपदेश दिया जाता था कि पुरुष ही उसका देवता है, सोहाग स्त्री की सबसे बड़ी विभूति है। आज कई हजार वर्षों के बीतने पर पुरुष के उस मनोभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पुरानी सभी प्रथाएँ कुछ विकृत या संस्कृत रूप में मौजूद हैं। आज मुझे मालूम हुआ कि उस लेखक ने स्त्री-समाज की दशा का कितना सुन्दर निरूपण किया था।

अब आपसे मेरा सविनय अनुरोध है, और यही अन्तिम अनुरोध है कि आप मेरे पत्रों को लौटा दें। आपके दिये हुए गहने और कपड़े अब मेरे किसी काम के नहीं। इन्हें अपने पास रखने का मुझे कोई अधिकार नहीं। आप जिस समय चाहें, वापस मँगवा लें। मैने उन्हें एक पेटारी मे बन्द करके अलग रख दिया है। उनकी‌ [ २० ]सूची भी वहीं रखी हुई है, मिला लीजिएगा। आज से आप मेरी ज़बान या कलम से कोई शिकायत न सुनेंगे। इस भ्रम को भूलकर भी दिल में स्थान न दीजिएगा कि मैं आपसे बेवफ़ाई या विश्वासघात करूंगी। मैं इसी घर मे कुढ़-कुढ़कर मर जाऊँगी, पर आपकी ओर से मेरा मन कभी मैला न होगा। मैं जिस जलवायु में पली हूँ, उसका मूल तत्व है पति मे श्रद्धा। ईर्ष्या या जलन भी उस भावना को मेरे दिल से, नहीं निकाल सकती। मैं आपके कुल मर्यादा की रक्षिका हूँ। उस अमानत मे जीते- जी ख्यानत न करूंगी, अगर मेरे बस मे होता, तो मैं उसे भी वापस कर देती, लेकिन यहाँ मैं भी मजबूर हूँ और आप भी मजबूर हैं। मेरी ईश्वर से यही विनती हैं कि आप जहाँ रहे, कुशल से रहे । जीवन मे मुझे सबसे कटु अनुभव जो हुआ, वह यही है कि नारी-जीवन अधम है, अपने लिए, अपने माता-पिता के लिए, अपने पति के लिए। उसकी कदर न माता के घर में है, न पति के घर मे । मेरा घर गोकागार बना हुआ है। अम्मा रो रही हैं, दादा रो रहे हैं, कुटुम्ब के लोग रो रहे हैं, एक मेरी जात से लोगो को कितनी मानसिक वेदना हो रही है। कदाचित् वे सोचते होगे, यह कन्या कुल में न आती तो अच्छा होता, मगर सारी दुनिया एक तरफ हो जाय, आपके ऊपर विजय नहीं पा सकती। आप मेरे प्रभु हैं। आपका फैसला अटल है। उसकी कहीं अपील नहीं, कहीं फरियाद नहीं । खैर, आज से यह काण्ड समाप्त हुआ, अब मैं हूँ और मेरा दलित, भग्न-हृदय । हसरत यही है कि आपको कुछ सेवा न कर सकी।

अभागिनी

--कुसुम

( ३ )

मालूम नहीं, मैं कितनी देर तक सूक-वेदना की दशा में बैठा रहा कि महाशय नवीन बोले---आपने इन पत्रों को पढकर क्या निश्चय किया ?

मेंने रोते हुए हृदय से कहा-अगर इन पत्रों ने उस नरपिशाच के दिल पर कोई असर नहीं किया, तो मेरा पत्र भला क्या असर करेगा। इससे अधिक करुणा और वेदना मेरी शक्ति के बाहर है। ऐसा कौन-सा धार्मिक भाव है, जिसे इन पत्रों में स्पर्श न किया गया हो। दया, लज्जा, तिरस्कार, न्याय, मेरे विचार में तो कुसुम ने कोई पहलू नहीं छोड़ा। मेरे लिए अब यही अन्तिम उपाय है कि उस शैतान के सिर पर‌ [ २१ ]
सवार हो जाऊँ और उससे मुंँह-दरमुंँह बातें करके इस समस्या की तह तक पहुंचने की चेष्टा करूं । अगर उसने मुझे कोई सन्तोषप्रद उत्तर न दिया, तो मैं उसका और अपना खून एक कर दूंँगा । या तो मुझी को फांसी होगी, या वहीं कालेपानी जायगा। कुमुम ने जिस धैर्य और साहस से काम लिया है, वह सराहनीय है। आप उसे सान्त्वना दीजिएगा। मैं आज रात को, गाड़ी से मुरादाबाद जाऊंँगा और परसों तक जैसी कुछ परिस्थिति होगी, उसको आपको सूचना दूंँगा। मुझे तो यह कोई चरित्र- हीन और बुद्धिहीन युवक मालूम होता है।

मैं उस बहक में जाने क्या-क्या बकता रहा । इसके बाद हम दोनों भोजन करके स्टेशन चले । वह आगरे गये, मैंने मुरादाबाद का रास्ता लिया। उनके प्राण अब भी सूखे जाते थे कि मैं क्रोध के आवेश में कोई पागलपन न कर बैलूं। बारे मेरे बहुत समझाने पर उनका चित्त शान्त हुआ।

में प्रातःकाल मुरादाबाद पहुंँचा और जांच शुरू कर दी। इस युवक के चरित्र के विषय मे मुझे जो सन्देह था, वह गलत निकला। महल्ले मे, कालेज में, उसके इष्ट- मित्रोमें, सभी उसके प्रशसक थे। अंधेरा और गहरा होता हुआ जान पड़ा । सन्ध्या- समय में उसके घर जा पहुंँचा। जिस निष्कपट भाव से वह दोड़कर मेरे पैरों पर झुका है, वह मैं नहीं भूल सकता। ऐसा वाक्-चतुर, ऐसा सुशील और विनीत युवक मैंने नहीं देखा। बाहर और भीतर में इतना आकाश पाताल का अन्तर मैंने कभी न देखा था। मैंने कुशल-क्षेम और शिष्टाचार के दो चार वाक्यों के बाद पूछा- तुमसे मिलकर चित्त प्रसन्न हुआ; लेकिन आखिर कुसुम ने क्या अपराध किया है, जिसका तुम उसे इतना कठोर दण्ड दे रहे हो। उसने तुम्हारे पास कई पत्र लिखे, तुमने एक का भी उत्तर न दिया। वह दो-तीन बार यहाँ भी आई । पर तुम उससे बोले तक नहीं। क्या उस निर्दोष बालिका के साथ तुम्हारा यह अन्याय नहीं है ?

युवक ने लज्जित भाव से कहा-बहुत अच्छा होता कि आपने इस प्रश्न को न उठाया होता। उसका जवाब देना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। मैंने तो इसे आप लोगो के अनुमान पर छोड़ दिया था, लेकिन इस गलतफहमी को दूर करने के लिए मुझे विवश होकर कहना पड़ेगा।

यह कहते-कहते वह चुप हो गया। बिजली की बत्ती पर भांति-भांति के कीट- पतग जमा हो गये थे। कई झींगुर उछल-उछलकर मुंँह पर आ जाते थे, और‌
[ २२ ]मनुष्य पर अपनी विजय का परिचय देकर उड़ जाते थे। एक बङा-सा आखफोड़ भी मेज पर बेटा था और शायद जस्त मारने के लिए अपनी देह तौल रहा था। युवक ने एक पंखा लाकर मेज़ पर रख दिया, जिससे विजयी कीट-पतंगों को दिखा दिया कि मनुष्य इतना निर्बल नहीं है, जितना वे समझ रहे थे। एक क्षण में मदान साफ हो गया और हमारी बातों में दखल देनेवाला कोई न रहा ।

युवक ने सकुचाते हुए कहा-~-सम्भव है, आप मुझे अत्यन्त लोभी, कमीना और स्वार्थी समझे , लेकिन यथार्य यह है कि इस विराह में मेरी वह अभिलाषा पूरी न हुई, जो मुझे प्राणों में भी प्रिय थी। मैं विवाह पर रजामन्द न था, अपने पैरों में बेड़िया न डालना चाहता था; किन्तु जय महाशय नवीन बहुत पीछे पड़ गये और उनकी बातों से मुझे यह आशा हुई कि यह सब प्रकार से मेरी महायता करने को तैयार है, , तब में राज़ी हो गया; पर विवाह होने के बाद उन्होंने मेरी बात भी न पूरी। मुझे एक पत्र भोग लिखा कि कब तक वह मुझे विलायत भेजने का प्रबन्ध कर सकेंगे । हालांकि मेने अपनी इच्छा उन पर पहले ही प्रकट का दी थी, पर उन्होंने मुझे निराश करना हो उचित समझा । उनकी इस अकृपा ने मेरे सारे मनसूबे धूल में मिला दिये। मेरे लिए अब इसके सिवा और क्या रह गया है कि एल.एल बी. पारा कर लूं और कचहरी में जूती फटफटाता फिरू ।

मैंने पूछा-तो आखिर तुम नवीनजी से क्या चाहते हो? लेन-देन में तो उन्होंने शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया । तुम्हें विलायत भेजने खर्च तो शायद उनके काबू से बाहर हो । [ २३ ]
पद प्रात करना चाहते हैं। विद्यार्जन के लिए विदेश जाना बुरा नहीं। ईश्वर सामर्थ्य दे तो शौक से जाओ ; किन्तु पत्नी का परित्याग करके ससुर पर इसका भार रखना निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। तारीफ की बात तो तब थी कि तुम अपने पुरुषार्थ से जाते । इस तरह किसीकी गरदन पर सवार होकर, अपना आत्म-सम्मान बेचकर, गये तो क्या गये । इस पामर की दृष्टि में कुसुम का कोई मुल्य ही नहीं। वह केवल उसकी स्वार्थ सिद्धि का साधन मात्र है । ऐसे नीच प्रकृति के आदमी से कुछ तर्क करना व्यर्थ था। परिस्थिति ने हमारी चुटिया उसके हाथ में रखी थी और हमे उसके चरणों पर सिर झुकाने के सिवा और कोई उपाय न था।

दूसरी गाड़ी से मैं आगरे जा पहुंँचा और नवीनजी से यह वृत्तान्त कहा। उन बेचारे को क्या मालम था कि यहाँ सारी ज़िम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल दी गई है ; यद्यपि इस मन्दी ने उनकी वकालत भो ठण्डी कर रखी हैं और वह दस-पाँच हज़ार का खर्च सुगमता से नहीं उठा सकते ; लेकिन इस युवक ने उनसे इसका सक्ते भी किया होता, तो वह अवश्य कोई-न-कोई उपाय करते । कुसुम के सिवा दूसरा उनका कौन बैठा हुआ है । उन बेचारे को तो इस बात का ज्ञान ही न था। अतएव मैंने ज्योंही उनसे यह समाचार कहा, तो वह बोल उठे-छि ! इस ज़रा-सी बात को इस भले आदमी ने इतना तूल दे दिया। आप आज ही उसे लिख दें कि वह जिस वक्त जहाँ पढने के लिए जाना चाहे, शौक से जा सकता है । मै उसका सारा भार स्वीकार करता हूँ। साल-भर तक निर्दयी ने कुसुम को रुला-रुलाकर मार डाला।

घर मे इसकी चर्चा हुई। कुसुम ने भी माँ से सुना । मालूम हुआ, एक हजार का चेक उसके पति के नाम भेजा जा रहा है , पर इस तरह, जैसे किसी सङ्कम का मोचन करने के लिए अनुष्ठान किया जा रहा हो।

कुसुम ने भृकुटी सिकोड़कर माँ से कहा-- अम्माँ, दादा से कह दो, कहीं रुपये भेजने की ज़रूरत नहीं।

माता ने विस्मित होकर बालिका की और देखा--कैसे रुपये ? अच्छा ! वह ! क्यों इसमें क्या हज है ? लड़के का मन है, तो विलायत जाकर पढे । हम क्यों रोकने लगे । यों भी उसी का है, ओ भी उसी का है। हमें कौन छाती पर लादकर ले जाना है।

'नहीं, आप दादा से कह दीजिए, एक पाई न भेजें।'

'आखिर इसमें क्या बुराई है ?' [ २४ ]'इसीलिए कि यह उसी तरह को डाकाज़नी है, जैसे बदमाश लोग किया करते हैं। किसी आदमी को पकड़कर ले गये और उसके घरवालो से उसके मुक्तिधन के तौर पर अच्छी रकम ऐंठ ली।

माता ने तिरस्कार की आँखों से देखा।

'कैसी बातें करती हो बेटी ? इतने दिनों के बाद तो जाके देवता सीधे हुए हैं और तुम उन्हें फिर चिढाये देती हो।'

कुसुम ने झल्लाकर कहा----ऐसे देवता का रूठे रहना ही अच्छा । जो आदमी इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना नीच है, उसके साथ मेरा निर्वाह न होगा। मैं कहे देती हूँ, वहाँ रुपये गये, तो मैं ज़हर खा लूँगी। इसे दिल्लगी न समझना । मैं ऐसे आदमी का मुंँह भी नहीं देखना चाहती । दादा से कह देना और अगर तुम्हें डर लगता हो, तो मैं खुद कह दूंँ। मैने स्वतन्त्र रहने का निश्चय कर लिया है।

मां ने देखा, लड़की का मुखमण्डल आरक्त हो उठा है। मानो इस प्रश्न पर वह न कुछ कहना चाहती है, न सुनना ।

दूसरे दिन नवीनजी ने यह हाल मुझसे कहा, तो मैं एक आत्मविस्मृत की दशा में दौड़ा हुआ गया और कुसुम को गले लगा लिया। मैं नारियों में ऐसा ही आत्मा- भिमान देखना चाहता हूँ। कुसुम ने वही कर दिखाया, जो मेरे मन में था और जिसे प्रकट करने का साहस मुझमे न था ।

साल-भर हो गया है, कुसुम ने पति के पास एक पत्र भी नहीं लिखा और न उसका ज़िक्र ही करती है। नवीनजी ने कई बार जमाई को मना लाने की इच्छा प्रकट की ; पर कुसुम उसका नाम भी सुनना नहीं चाहती। उसमे स्वाव-लम्बन को ऐसी दृढता आ गई है कि आश्चर्य होता है। उसके मुखपर निराशा और वेदना के पीलेपन और तेजहीनता की जगह स्वाभिमान और स्वतन्त्रता की लाली और तेजस्विता भासित हो गई है।