मानसरोवर २
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १९५ से – २०७ तक

 





जीवन का शाप

कावसजी ने पत्र निकाला और यश कमाने लगे। शापूरजी ने रूई को दलाली शुरू की और धन कमाने लगे । कमाई दोनों ही कर रहे थे, पर शापूरजी प्रसन्न थे, कावसजी विरक्त । शापूरजी को धन के साथ सम्मान और यश आप-ही-आप मिलता था। कावसजी को यश के साथ धन दूरबीन से देखने पर भी न दिखाई देता था इसलिए शापूरजी के जीवन में शांति थी, सहृदयता थी, आशाबाद था, क्रीड़ा थी। कावसजी के जीवन में अशांति थी, कटुता थी, निराशा थी, उदासीनता थी । धन को तुच्छ समझने की वह बहुत चेष्टा करते थे , लेकिन प्रत्यक्ष को कैसे झुठला देते। शापूरजी के घर मे विराजनेवाले सौजन्य और शान्ति के सामने उन्हें अपने घर के क्लह और फूहड़पन से घृणा होती थी। मृदुभाषिणी मिसेज शापूर के सामने उन्हे अपनी गुलशन बान संकीर्णता और ईर्ष्या का अवतार-सी लगती थी। शापूरजी घर में आते, तो शीरी बाई मृदु हास उनका स्वागत करती । वह खुद दिन-भर के थके- मांदे घर आते, तो गुलशन अपना दुखड़ा सुनाने वैठ जाती और उनको खूब फटकारें बताती तुम भी अपने को आदमी कहते हो ! मैं तो तुम्हें बैल समझती हूँ, बैल बड़ा मेहनती है, गरीब है, सन्तोषी है, माना, लेकिन उसे विवाह करने का क्या हक था।

कावसजी से एक लाख बार यह प्रश्न किया जा चुका था कि जब तुम्हे समाचार- पत्र निकालकर अपना जीवन वरवाद करना था, तो तुमने विवाह क्यों किया ? क्यों मेरी ज़िन्दगी तबाह कर दी ? जब तुम्हारे घर में रोटियाँ न थीं, तो मुझे क्यों लाये ? इस प्रश्न का जवाब देने की कावसजी में शक्ति न थी। उन्हें कुछ सूझता ही न था। वह सचमुच अपनी गलती पर पछताते थे। एक बार बहुत तंग आकर उन्होने कहा था-अच्छा भाई, अब तो जो होना था, हो चुका ; लेकिन मैं तुम्हें बाँधे तो नहीं हूँ, तुम्हें जो पुरुष ज्यादा सुखी रख सके, उसके साथ जाकर रहो, अब मैं क्या कहूँ।
आमदनी नहीं बढती, तो मैं क्या करूँ, क्या चाहती हो जान दे दूं? इस पर गुलशन ने उनके दोनों कान पकड़कर जोर से ऐंठे और गालो पर दो तमाचे लगाये और पैनी आँखों से काटती हुई बोली-अच्छा, अब चोंच सँभालो, नहीं अच्छा न होगा। ऐसी बात मुंह से निकालते तुम्हे लाज नही आती ? ह्यादार होते, तो चिल्लू-भर पानी मे डूब मरते ! उस दूसरे पुरुष के महल मे आग लग दूंगी, उसका मुंँह झुलस दूंँगी। तबसे बेचारे कावसजी के पास इस प्रश्न का कोई जवाब न रहा। कहाँ तो यह असन्तोष और विद्रोह की ज्वाला, ओर कहाँ वह मधुरता और भद्रता की देवी शीरी, जो कावसजी को देखते ही फल को तरह खिल उठतो, मीठी-मीठी बातें करती, चाय और मुग्ने और फूलो से सत्कार करती और अक्सर उन्हें अपनी कार पर घर पहुँचा देती ? कावसजी ने कभी मन मे भी इसे स्वीकार करने का साहस नहीं किया, मगर उनके हृदय में यह लालसा छिपी हुई थी कि गुलशन की जगह शीरी होती, तो उनका जीवन कितना गुलजार होता। कभी-कभी गुलशन की कटूक्तियो से वह इतने दुखी हो जाते कि यमराज का आवाहन करते। घर उनके लिए कंदखाने से कम जान-लेवा न था और उन्हे जब अवसर मिलता, सीधे शीरी के घर जाकर अपने दिल की जलन बुझा आते।

( २ )

एक दिन कावसजी सबेरे गुलशने से भलाकर शापूरजी के टेरेस में पहुंचे, तो देखा जोरों बानू की आँखें लाल हैं और चेहरा भभराया हुआ है, जैसे रोकर उठी हो। कावसजी ने चिन्तित होकर पूछा-आपका जी कैसा है, बुखार तो नहीं आ गया ?

शीरों ने दर्द-भरी आंखों से देखकर रोनी आवाज से कहा- नहीं, बुखार तो नहीं है, कम-से-कम देह का बुखार तो नहीं है।

कावसजी इस पहेली का कुछ मतलब न समझे।

शीरी ने एक क्षण मौन रहकर फिर कहा - आपको मै अपना मित्र समझती हूँ मि० कावसजी ! आपसे क्या छिपाऊँ । मैं इस जीवन से तंग आ गई हूँ। मैने अब तक हृदय की आग हृदय में रखी , लेकिन ऐसा मालूम होता है कि अब उसे बाहर न निकालूं, तो मेरो हड्डियाँ तक जल जायेंगी । इस वक्त आठ बजे हैं , लेकिन मेरे रँगीले पिया का कहीं पता नहीं। रात को खाना खाकर वह एक मित्र से मिलने का बहाना करके घर से निकले थे और अभी तक लौटकर नहीं

आये । और आज यह कोई बात नयी नहीं है। इधर कई महीनों से यह इसको रोज़ को आदत है। मैंने आज तक आपसे कभी अपना दर्द नहीं कहा , मगर उस समय भी जब में हँस-हँसकर आपसे बातें करती थी, मेरी आत्मा रोती रहती थी।

कावसजी ने निष्कपट भाव से कहा - तुमने पूछा नहीं, कहाँ रह जाते हो ?

'पूछने से क्या लोग अपने दिल की बातें बता दिया करते हैं ?

'तुमसे तो उन्हें कोई भेद न रखना चाहिए।'

'घर में जी न लगे, तो आदमी क्या करे ।'

'मुझे यह सुनकर आश्चर्य हो रहा है । तुम-जैसी देवी जिस घर मे हो, वह स्वर्ग है। शापूरजी को तो अपना भाग्य सराहना चाहिए।'

'आपका यह भाव तभी तक है, जब तक आपके पास धन नहीं है। आज तुम्हे कहीं से दो-चार लाख मिल जाय, तो तुम यो न रहोगे, और तुम्हारे यह भाव बदल जायेंगे। यही धन का सबसे बड़ा अभिशाप है। ऊपरी सुख-शान्ति के नीचे कितनी आग है, यह तो उसी वक्त खुलता है, जब ज्वालामुखी फट पड़ता है। वह समझते हैं, धन से घर भरकर उन्होंने मेरे लिए वह सब कुछ कर दिया, जो उनका कर्तव्य था, और अब मुझे असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं। वह नहीं जानते कि ऐश के ये सारे सामान उन मिश्री तहखानो मे गड़े हुए पदाथों की तरह हैं, जो मृतात्मा के भोग के लिए रखे जाते थे।'

कावसजी एक नयी बात सुन रहे थे। उन्हें अब तक जीवन का जो अनुभव हुआ था, वह यह था कि स्त्री अंत: करण से विलासिनी होती है । उस पर लाख प्राण वारो, उसके लिए मर ही क्यों न मिटो , लेकिन व्यर्थ । वह केवल खरहरा नहीं चाहती, उससे कहीं ज्यादा दाना और घास गहती है , लेकिन एक यह देवी है, जो विलास की चीजों को तुच्छ समझती है और केवल मोठे स्नेह और रसमय सहवास से ही प्रसन्न रहना चाहती है । उनके मन में गुदगुदी-सी उठी।

मिसेज़ शापूर ने फिर कहा- उनका यह व्यापार मेरी बर्दाश्त के बाहर हो गया है, मि० कावसजी ; मेरे मन मे विद्रोह को ज्वाला उठ रही है, और मैं धर्म और शास्त्र और मर्यादा इन सभी का आश्रय लेकर भी त्राण नहीं पाती। मन को समझाती हूँ-वया संसार में लाखो विधवाएँ नही पड़ी हुई हैं, लेकिन किसी तरह चित्त नहीं शान्त होता। मुझे विश्वास आता जाता है कि वह मुझे मैदान में आने के लिए

चुनौती दे रहे हैं। मैंने अब तक उनकी चुनौती नहीं ली है , लेकिन अब पानी सिर, से ऊपर चढ गया है और मैं किसो तिनके का सहारा ढूँढे विना नहीं रह सकती । वह जो चाहते हैं, वह हो जायगा। आप उनके मित्र है, आपसे बन पड़े, तो उनको समझाइए मैं इस मर्यादा को बेड़ी को अब और न पहन सकूँगी।

मि० कावसजी मन में भावी सुख का एक स्वर्ग-निर्माण कर रहे थे। बोले--- हाँ-हाँ, मैं अवश्य समझाऊँगा। यह तो मेरा धर्म है , लेकिन मुझे आशा नहीं कि मेरे समझाने का उन पर कोई असर हो। मैं तो दरिद्र हूँ, मेरे समझाने का उनकी दृष्टि में मूल्य ही क्या ?

'यो वह मेरे ऊपर बड़ी कृपा रखते हैं, बस उनकी यही आदत मुझे पसन्द नहीं ।'

'तुमने इतने दिनों बर्दाश्त किया, यही आश्चर्य है। कोई दूसरी औरत तो एक दिन न सहती।'

'थोड़ी-बहुत तो यह आदत सभी पुरुषो में होती है , लेकिन ऐसे पुरुषो की लियां भी वैसी ही होती हैं । कर्म से न सही, मन से हो सही। मैंने तो सदैव इनको अपना इष्टदेव समझा।'

'किन्तु जब पुरुष इसका अर्थ ही न समझे, तो क्या हो। मुझे भय है, वह मन मे कुछ और न सोच रहे हों।'

'और क्या सोच सकते हे ?'

'आप अनुमान नहीं कर सकती ?'

'अच्छा, वह बात ? सगर मेरा कोई अपराध ?'

'शेर और मेमनेपाली कथा आपने नहीं सुनो ?'

मिसेज़ शापूर एकाएक चुप हो गई। सामने से शापूरजी की कार आती दिखाई दी। उन्होने कावसजी को ताकीद और विनय-भरी आँखों से देखा और दूसरे द्वार से कमरे से निकलकर अन्दर चली गई । मि. शापूर लाल आँखें किये कार से उतरे और मुसकिराकर कावसजी से हाथ मिलाया । स्त्री की आँखें भी लाल थीं, पति की आंखें भी लाल । एक सदन से, दूसरी रात की खुमारी से।

(३)

शापूरजी ने हैट उतारकर गूंटी पर लटकाते हुए कहा-क्षमा कीजिएगा, मैं

१८
रात को एक मित्र के घर सो गया था। दावत थी । खाने में देर हुई, तो मैंने सोचा, अब कौन घर जाय!

कावसजी ने व्यंग्य-मुस्कान के साथ कहा--किसके यहाँ दावत थी ? मेरे रिपोर्टर ने तो कोई खबर नहीं दी। ज़रा मुझे नोट करा दीजिएगा।

उन्होंने जेब से नोटबुक निकाली।

शापूरजी ने सतर्क होकर कहा-ऐसी कोई बड़ी दावत नहीं थी जी, दो-चार मित्रों का प्रीतिभोज था।

'फिर भी समाचार तो जानना ही चाहिए। जिस प्रीतिभोज मे आप-जैसे प्रति- ष्ठित लोग शरीक हों, वह साधारण बात नहीं हो सकती। क्या नाम है मेजवान साहब का?'

'आप चौंकेंगे तो नहीं ?

'बतलाइए तो।

'मिस गौहर ।'

'मिस गौहर !!'

'जी हाँ, आप चौंके क्यों ? क्या आप इसे तस्लोम नहीं करते कि दिन-भर रुपये-आने-पाई से सिर मारने के बाद मुझे कुछ मनोरंजन करने का भी अधिकार है, नहीं, जीवन भार हो जाय?'

'मैं इसे नहीं मानता।'

'क्यों!'

'इसी लिए कि मैं इस मनोरंजन को अपनी ब्याहता स्त्री के प्रति अन्यान समझता हूँ।

शापूरजी नकली हँसी हँसे-वही दकियानूसी बात। आपको मालूम होना चाहिए, आज का समय ऐसा कोई बन्धन स्वीकार नहीं करता।

'और मेरा खयाल है कि कम-से-कम इस विषय में आज का समाज एक पीढ़ी पहले के समाज से कहीं परिष्कृत है। अब देवियों का यह अधिकार स्वीकार किया जाने लगा है।'

'यानी देवियाँ पुरुषों पर हुकूमत कर सकती हैं ?'

'उसी तरह जैसे पुरुष देवियो पर हुकूमत कर सकते हैं।' 'मैं इसे नहीं मानता । पुरुष स्त्री का मुहताज नहीं है, स्त्री पुरुष को मुहताज है।'

'आपका आशय यही तो है कि स्त्री अपने भरण-पोषण के लिए पुरुष पर अव- लभित है।

'अगर आप इन शब्दो में कहना चाहते हैं, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं , मगर अधिकार की बागडोर जैसे राजनीति में, वैसे ही समाज-नीति में धन-बल के हाथ रही है और रहेगी।'

'अगर दैवयोग से धनोपार्जन का काम स्त्री कर रही हो। और पुरुष कोई काम न मिलने के कारण घर बैठा हो, तो स्त्री को अधिकार है कि अपना मनोरंजन जिस तरह चाहे करे?'

'मैं स्त्री को अधिकार नहीं दे सकता ।'

'यह आपका अन्याय है।'


'बिलकुल नहीं । स्त्री पर प्रकृति ने ऐसे बन्धन लगा दिये हैं कि वह कितना भी चाहे, पुरुष की भांति स्वच्छन्द नहीं रह सकती और न पशुबल में पुरुष का मुकाबला कर सकती है। हां, गृहिणो का पद त्याग कर, या अप्राकृतिक जीवन का आश्रय लेकर वह सब कुछ कर सकती है।'

'आप लोग उसे मजबूर कर रहे हैं कि अप्राकृतिक जीवन का आश्रय ले।'

'मैं ऐसे समय की कल्पना ही नहीं कर सकता, जब पुरुषों का आधिपत्य स्वीकार करनेवाली औरतों का काल पड़ जाय । कानून और सभ्यता मैं नहीं जानता। पुरुषों ने स्त्रियों पर हमेशा राज किया है और करेंगे।'

सहसा कावसजो ने पहलू वदला। इतनी थोड़ी-सी देर में ही वह अच्छे खासे कूटनीति-चतुर हो गये थे। शापूरजी को प्रशंसा-सूचक आँखो से देखकर बोले-तो हम और आप दोनों एक विचार के हैं। मैं आपकी परीक्षा ले रहा था। मै भी स्री को गृहिणी, माता और स्वामिनी, सब कुछ मानने को तैयार हूँ, पर उसे स्वच्छन्द नहीं देख सकता । अगर कोई स्त्री स्वच्छन्द होना चाहती है, तो उसके लिए मेरे घर में स्थान नहीं है। अभी मिसेज शापूर की बातें सुनकर मैं दंग रह गया। मुझे इसको कल्पना भी न थी कि कोई नारी मन मे इतने विद्रोहात्मक भावों को स्थान दे सकती है।

मि० शापूरजी को गर्दन की नसे तन गई । नथने फूल गये। कुरसी से उठकर

बोले-अच्छा, तो अब शीरी ने यह ढंग निकाला । मैं अभी उससे पूछता हूँ- आपके सामने पूछता हूँ-अभी फैसला कर डालूंगा। मुझे उसकी परवाह नहीं है। किसीकी परवाह नहीं है। बेवफा औरत । जिसके हृदय में जरा भी समवेदना नहीं, जो मेरे जीवन मे जरा-सा आनन्द भी नहीं सह सकती। चाहती है, मै उसके अञ्चल में बँधा-बॅधा घूमूँ । शापूर से यह आशा रखती है ? अभागिनी भूल जाती है कि आज मै आंखो का इशारा कर दूं, तो एक सौ एक शीरियां मेरी उपासना करने लगे, जी हाँ, मेरे इशारो पर नाचे। मैने इसके लिए जो कुछ किया, बहुत कम पुरुष किसी स्त्री के लिए करते हैं। मेने, मैने

उन्हे खयाल आ गया कि वह ज़रूरत से ज्यादा बहके जा रहे है। शीरी की प्रेममय सेवाएँ याद आई। रुककर बोले-लेकिन मेरा खयाल है कि वह अब भी समझ से काम ले सकती है। मैं उसका दिल नहीं दुखाना चाहता। मै यह भी जानता हूँ कि वह ज्यादा-से-ज्यादा जो कर सकती है, वह शिकायत है। इसके आगे बढ़ने की हिमाकत वह नहीं कर सकती। औरतो को मना लेना बहुत मुश्किल नहीं है, कम-से-कम मुझे ती यही तजुरबा है।

कावसजी ने खण्डन किया-मेरा तजुरबा तो कुछ और है।

'हो सकता है , मगर आपके पास खाली बातें हैं, मेरे पास लक्ष्मी का आशी- वाद है।

'जब मन में विद्रोह के भाव जम गये, तो लक्ष्मी के टाले भी नहीं टल सकते।'

शापूरजी ने विचार पूर्ण भाव से कहा- शायद आपका विचार ठीक है।

( ४ )

कई दिन के बाद कावसजी की शीरी से पार्क में मुलाकात हुई। वह इसी अव- सर की खोज मे थे। उनका स्वर्ग तैयार हो चुका था। केवल उसमे शीरी को प्रति- ष्टित करने की क्सर थी। उस शुभ-दिन की कल्पना मे वह पागल-से हो रहे थे। गुलशन को उन्होंने उसके मैके भेज दिया था-भेज क्या दिया था, वह रूठकर चली गई थी। जब शीरी उनकी दरिद्रता का स्वागत कर रही है, तो गुलशन की खुशामद क्यो की जाय । लपककर शीरी से हाथ मिलाया और बोले- -आप खूब मिली। में आज आनेवाला था। . शीरी ने गिला करते हुए कहा-आपकी राह देखते-देखते आँखें थक गई । आप भी ज़बानी हमदर्दी ही करना जानते हैं। आपको क्या खबर, इन कई दिनों मे मेरी आँखों से आंसू बहे हैं।

कावसजी ने शीरी बानू को उत्कण्ठापूर्ण मुद्रा देखी, जो बहुमूल्य रेशमी साड़ी की आब से और भी दमक उठी थी, और उनका हृदय अदर से बैठता हुआ जान पड़ा। उस छात्र की-सी दशा हुई, जो आज अन्तिम परीक्षा पास कर चुका हो और जीवन का प्रश्न उसके सामने अपने भयंकर रूप में खड़ा हो। काश वह कुछ दिन और परीक्षाओं को भूल-भुलैया मे जीवन के स्वप्नों का आनन्द ले सकता। उस स्वप्न के सामने यह सत्य कितना डरावना था । अभी तक कावसजी ने मधुमक्खी का शहद ही चखा था। इस समय वह उनके मुख पर मॅडरा रही थी और वह डर रहे थे , कहाँ डक न मारे।

दवी हुई आवाज से बोले- मुझे यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। मैने तो शापूर को बहुत समझाया था।

शीरी ने उनका हाथ पकड़कर एक बेंच पर विठा दिया और बोली-उन पर अब समझाने-बुझाने का कोई असर न होगा। और मुझे ही क्या गरज़ पङी है कि मै उनके पांव सहलाती रहूँ। आज मैंने निश्चय कर लिया है, अब उस घर में लौट- कर न जाऊँगी , अगर उन्हें अदालत में ज़लील होने का शौक है, तो मुझ पर दावा करें, मै तैयार हूँ। मै जिसके साथ नहीं रहना चाहती, उसके साथ रहने के लिए ईश्वर भी मुझे मज़बूर नहीं कर सकता, अदालत क्या कर सकती है ? अगर तुम मुझे आश्रय दे सकते हो, तो मैं तुम्हारी बनकर रहूँगी, जब तक तुम मेरे रहोगे। अगर तुममे इतना आत्मबल नहीं है, तो मेरे लिए दूसरे द्वार खुल जायेंगे। अब साफ-साफ बतलाओ, क्या वह सारी सहानुभूति ज़बानी थी ?

कावसजी ने कलेजा मजबूत करके कहा----नहीं-नहीं, शीरी, खुदा जानता है,

मुझे तुमसे कितना प्रेम है । तुम्हारे लिए मेरे हृदय में स्थान है।

'मगर गुलशन को क्या करोगे?'

'उसे तलाक दे दूंगा।'

'हाँ, यही मैं भी चाहती हूँ। तो मैं तुम्हारे साथ चलूगी, अभी, इसी दम । शापूर से अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है।'
कावसजी को अपने दिल में कम्पन का अनुभव हुआ। बोले-लेकिन अभी तो वहां कोई तैयारी नहीं है।

'मेरे लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं। तुम सब कुछ हो । एक टैक्सी ले लो। मैं इसी वक्त चलूँगी।'

कावसजी टैक्सी की खोज में पार्क से निकले । वह एकान्त मे विचार करने के लिए थोड़ा-सा समय चाहते थे। इस वहाने से उन्हें समय मिल गया । उन पर अब जवानी का वह नशा न था, जो विवेक की आँखो पर छाकर बहुधा हमें गड्ढे मे गिरा देता है। अगर कुछ नशा था, तो अबतक हिरन हो चुका था। वह किस फन्दे में गला डाल रहे हैं, वह खूब समझते थे । शापूरजी उन्हें मिट्टी में मिला देने के लिए पूरा जोर लगायेंगे, यह भी उन्हे मालूम था। गुलशन उन्हे सारी दुनिया में बदनाम कर देगी, यह भी वह जानते थे। यह सब विपत्तियाँ झेलने को वह तैयार थे। शापूर को जवान बन्द करने के लिए उनके पास काफी दलीलें थीं। गुलशन को भी स्त्री समाज में अपमानित करने का उनके पास काफी मसाला था। डर था, तो यह कि शीरी का यह प्रेम टिक सकेगा, या नहीं। अभी तक शोरी ने केवल उनके सौजन्य का परिचय पाया है, केवल उनकी न्याय और सत्य और उदारता से भरी बातें सुनी हैं । इस क्षेत्र में शापूरजी से उन्होंने बाजी मारी है , लेकिन उनके सौजन्य और उनकी प्रतिमा का जादू उनके बेसरोसामान घर मे कुछ दिन रहेगा, इसमे उन्हें सन्देह था। हलवे की जगह चुपड़ी रोटियां भी मिलें, तो आदमी सब कर सकता है। रूखी भी मिल जाये, तो वह सन्तोष कर लेगा, लेकिन सूखी घास सामने देसकर तो ऋषि-मुनि भी जामे से बाहर हो जायेंगे । शीरी उनसे प्रेम करती है । लेकिन प्रेम के त्याग की भी तो सीमा है ! दो-चार दिन भावुकता के उन्माद मे वह सब कर ले, लेकिन भावुकता कोई टिकाऊ चीज तो नहीं है। वास्तविकता के आधात के सामने यह भावुकता कै दिन टिकेगो ! उस परिस्थिति की कल्पना करके कावसजी कांप उठे। अब तक वह रनिवास में रही है। अब उसे एक खपरैल का काटेज मिलेगा, जिसके फर्श पर कालीन की जगह टाट भी नहीं , कहाँ वरदीपोश नौकरी की पलटन, कहाँ एक बुढ़िया मामा को सदिग्ध सेवाएँ जो बात-बात पर भुनभुनाती है, धमकाती है, कोसती है। उनका आधा वेतन तो संगीत सिखानेवाला मास्टर ही खा जायगा और शापूरजी ने कहीं ज्यादा कमीनापन से काम लिया, तो उनको बदमाशों से पिटवा भी

सकते हैं । पिटने से वह नहीं डरते। यह तो उनकी फतह होगी , लेकिन शीरी को भोग-लालसा पर कैसे विजय पायें । बुढ़िया मामा जब मुंह लटकाये आकर उसके सामने रोटियां और सालन परोस देगी, तब शीरी के मुख पर कैसी विदग्ध विरक्ति छा जायगी ! कहीं वह खड़ी होकर उनको और अपनी किस्मत को कोसने न लगे। नहीं, अभाव की पूर्ति सौजन्य से नहीं हो सकती। शीरी का वह रूप कितना विकराल होगा।

सहसा एक कार मामने से आतो दिखाई दी। कावसजी ने देखा-शापूरजी बैठे हुए थे। उन्होने हाथ उठाकर कार को रुकवा लिया और पीछे दौड़ते हुए जाकर शापूरजी से बोले- --आप कहाँ जा रहे हैं।

'यो ही, जरा घूमने निकला था।'

'शोरी वानू पार्क में हैं, उन्हे लेते जाइए।'

'वह तो मुझसे लड़कर आई है कि अब इस घर मे कभी कदम न रखूगी।'

'और आप सैर करने जा रहे हैं ?'

'तो क्या आप चाहते है, बैठकर रोऊँ ?'

'वह बहुत रो रही है।

'सच ।'

'हां, बहुत रो रही हैं।

'तो शायद उसको बुद्धि जाग रही है।'

'तुम इस समय उन्हे मना लो, तो वह हर्ष से तुम्हारे साथ चली जायँ।'

'मैं परीक्षा करना चाहता हूँ कि वह बिना मनाये मानती है या नहीं।' 'मैं बड़े असमंजस में पड़ा हुआ हूँ। मुझ पर दया करो, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ।'

'जीवन में जो थोड़ा सा आनन्द है, उसे मनावन के नाट्य मे नहीं छोड़ना चाहता।'

कार चल पड़ी और कावसजी कर्तव्य-भ्रष्ट से वहीं सड़े रह गये। देर हो रही थी। सोचा-कहीं शीरी यह न समझ ले कि मैंने भी उसके साथ दगा की ; लेकिन जाऊँ भी तो क्योंकर। अपने सम्पादकीय कुटीर में उस देवो को प्रतिष्ठित करने की कल्पना ही उन्हें हास्यास्पद लगी । वहाँ के लिए तो गुलशन ही उपयुक्त है। कुढ़ती है, कठोर बातें कहती है, रोती है, लेकिन वक्त से भोजन तो दे देती है। फटे हुए कपड़ों को रफू तो कर देती है, कोई मेहमान आ जाता है, तो कितने प्रसन्न-मुख से उसका आदर-सत्कार करती है, मानो उसके मन में आनन्द-ही-आनन्द है। कोई छोटी-

सो चीज भी दे दो, तो कितना फूल उठती है । थोड़ी-सी तारीफ करके चाहे उससे गुलामी करवा लो । अव उन्हें अपना जरा-जरा-सी बात पर झुँझला पड़ना, उसकी सीधी-सी बातो का टेढा जवाब देना, विकल करने लगा। उस दिन उसने यही तो कहा था कि उसकी छोटी बहन के सालगिरह पर कोई उपहार भेजना चाहिए। इसमें बरस पड़ने की कौन-सी बात थी। माना, वह अपना सम्पादकीय नोट लिख रहे थे, लेकिन उनके लिए सम्पादकीय नोट जितना महत्व रखता है, क्या गुलशन के लिए उपहार भेजना उतना ही या उससे ज्यादा महत्त्व नहीं रखता ? बेशक उनके पास उस समय रुपये न थे, तो क्या वह मीठे शब्दों में यह नहीं कह सकते थे कि डालिङ्ग, मुझे खेद है, अभी हाथ खाली है, दो-चार रोज़ में मैं कोई प्रबन्ध कर दूंगा। यह जवाब सुन- कर वह चुप हो जाती । और अगर कुछ भुनभुना ही लेती, तो उनका क्या बिगड़ जाता था। अपनी टिप्पणियों मे वह कितनी शिष्टता का व्यवहार करते हैं । कलम ज़रा भी गर्म पड़ जाय, तो गर्दन नापी जाय । गुलशन पर वह क्यो बिगड़ जाते हैं । इसी लिए कि वह उनके अधीन है और उन्हें रूठ जाने के सिवा कोई दण्ड नहीं दे सकती। कितनी नीच कायरता है कि हम सबलों के सामने दुम हिलायें और जो हमारे लिए अपने जीवन का बलिदान कर रही है, उसे काटने दौड़ें।

सहसा एक तांगा आता हुआ दिखाई दिया और सामने आते ही उस पर से एक स्त्री उतरकर उनकी ओर चली । अरे ! यह तो गुलशन है । उन्होंने आतुरता से आगे बढकर उसे गले लगा लिया और बोले--तुम इस वक्त यहाँ कैसे आई ? मैं अभी- अभी तुम्हारा ही खयाल कर रहा था।

गुलशन ने गद्गद कण्ठ से कहा-तुम्हारे ही पास जा रही थी। शाम को बरा- मदे में बैठी तुम्हारा लेख पढ़ रही थी । न-जाने कब झपकी आ गई, और मैने एक बुरा सपना देखा । मारे डर के मेरी नींद खुल गई और तुमसे मिलने चल पड़ी । इस वक्त यहाँ कैसे खड़े हो ? कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई ? रास्ते-भर मेरा कलेजा धड़क रहा था।

कावसजी ने आश्वासन देते हुए कहा-मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ। तुमने क्या स्वप्न देखा?

'मैंने देखा-जैसे तुमने एक रमणी को कुछ कहा है और वह तुम्हें बांधकर घसीटे लिये जा रही है।' 'कितना बेहूदा स्वप्न है , और तुम्हे इस पर विश्वास भी आ गया । मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि स्वप्न केवल चिन्तित मन की क्रीड़ा है।'

'तुम मुझसे छिपा रहे हो । कोई-न-कोई बात हुई है ज़रूर । तुम्हारा चेहरा बोल रहा है। अच्छा, तुम इस वक्त यहाँ क्यों खड़े हो ? यह तो तुम्हारे पढ़ने का समय है।'

'यों ही, जरा घूमने चला आया था।'

'झूठ बोलते हो। खा जाओ मेरे सिर की कमम ।'

'अब तुम्हें एतबार ही न आये तो क्या करूँ ?'

'क़सम क्यों नहीं खाते ?'

'कसम को मैं झूठ का अनुमोदक समझता हूँ।'

गुलशन ने फिर उनके मुख पर तीन दृष्टि डाली । फिर एक क्षण के बाद बोली--अच्छी बात है। चलो घर चलें।

कावसजी ने मुसकिराकर कहा-~-तुम फिर मुझसे लड़ाई करोगी?

'सरकार से लड़कर भी तुम सरकार की अमलदारी में रहते हो कि नहीं ? मैं भी तुमसे लड़ूगी , मगर तुम्हारे साथ रहूँगी।'

'हम इसे कब मानते हैं कि यह सरकार की अमलदारी है '

'यह तो तुम मुंह से कहते हो । तुम्हारा रोआं रोआं इसे स्वीकार करता है। नहीं, तुम इस वक्त जेल में होते।'

'अच्छा चलो, मैं थोड़ी देर में आता है।'

'मैं अकेली नहीं जाने की । आखिर सुनूँ, तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?'

कावसजी ने बहुत कोशिश की कि गुलशन यहाँ से किसी तरह चली जाय ; लेकिन वह जितना ही इस पर जोर देते थे, उतना ही गुलशन का आग्रह भी बढता जाता था। आखिर मजबूर होकर कावसजी को शीरी और शापूर के झगड़े का वृत्तान्त कहना ही पड़ा , यदापि इस नाटक में उनका अपना जो भाग था, उसे उन्होंने बड़ी होशियारी से छिपा देने की चेष्टा की।

गुलशन ने विचार करके कहा-तो तुम्हें भी यह सनक सवार हुई ?

कावसजी ने तुरन्त प्रतिवाद किया-कैसी सनक ! मैंने क्या किया ? अव यह तो इसानियत नहीं है कि एक मित्र की स्त्री मेरी सहायता मांगे और मैं बगले झांकने लगूं । 'भूठ बोलने के लिए बड़ी अक्ल को जरूरत होती है प्यारे, और वह तुममे नहीं है ! समझे ? चुपके से जाकर शीरी वानू को सलाम करो और कहो कि आराम से अपने घर में बैठे। सुख कभी सम्पूर्ण नहीं मिलता। विधि इतना घोर पक्षपात नहीं कर सकता । गुलाब मे कांटे होते ही हैं। अगर सुख भोगना है तो उसे उसके दोषों के साथ भोगना पड़ेगा। अभी विज्ञान ने कोई ऐसा उपाय नहीं निकाला कि हम सुख के काँटों को अलग कर सके। मुफ्त का माल उड़ानेवालों को ऐयाशी के सिवा और क्या सूझेगी ? धन अगर सारी दुनिया का विलास न मोल लेना चाहे तो वह धन ही कैसा ? शीरी के लिए भी क्या वह द्वार नहीं खुले हैं, जो शापूरजी के लिए खुले हैं ? उससे कहो-शापूर के घर में रहे, उनके धन को भोगे और भूल जाय कि वह शापूर की स्त्री है, उसी तरह जैसे शापूर भूल गया है कि वह शीरी का पति है। जलना और कुढना छोड़कर विलास का आनन्द लूटे । उसका धन एक-से-एक रुपवान् विद्वान् नवयुवकों को खींच लायेगा। तुमने ही एक बार मुझसे कहा था कि एक जमाने मे फ्रान्स में धनवान् विलासिनी महिलाओ का समाज पर आधिपत्य था। उनके पति सब कुछ देखते थे और मुंह खोलने का साहस न करते थे। और मुंह क्या खोलते। वे खुद इसी धुन में मस्त थे । यही धन का प्रसाद है । तुमसे न बने, तो चलो, मैं शीरी को समझा दूं। ऐयाश मर्द की स्त्री अगर ऐयाश न हो, तो उसकी कायरता है-- लतखोरपन है ।'

कावसजी ने चकित होकर कहा लेकिन तुम भी तो धन की उपासक हो ?

गुलशन ने शर्मिन्दा होकर कहा-यही तो जीवन का शाप है। हम उसी चीज़ पर लपकते हैं, जिसमें हमारा अमगल है, सत्यानाश है। मैं बहुत दिनों पापा के इलाके मे रही हूँ। चारों तरफ किसान और मंजूर रहते थे। वेचारे दिन-भर पसीना बहाते थे, शाम को घर जाते थे। ऐयाशी और बदमाशी का कहीं नाम न था। और यहाँ शहर मे देखती हूँ कि सभी बड़े घरो मे यही रोना है। सब-के-सब हथकडों से पैसे कमाते हैं और अस्वाभाविक जीवन बिताते हैं। आज तुम्हें कहीं से धन मिल जाय, तो तुम शापूर बन जाओगे, निश्चय ।

'तब शायद तुम भी अपने बताये हुए मार्ग पर चलोगी, क्यो ?'

'शायद नहीं, अवश्य ।

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