मानसरोवर २
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १८६ से – १९४ तक

 

बालक

गंगू को लोग ब्राह्मण कहते हैं और वह अपने को ब्राह्मण समझता भी है। मेरे सईस और खिदमतगार मुझे दूर से सलाम करते है। गंगू मुझे कभी सलाम नहीं करता। वह शायद मुझसे पालागन की आशा रखता है। मेरा जूठा गिलास कभी हाथ से नहीं छूता, ओर न मेरी कभी इतनी हिम्मत हुई कि उससे पंखा झलने को कहूँ। जब मैं पसीने से तर होता हूँ और वहाँ कोई दूसरा आदमी नहीं होता, तो गंगू आप-ही-आप पंखा उठा लेता है। लेकिन उसकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट प्रकट होता है कि मुझ पर कोई एहसान कर रहा है और मैं भी न-जाने क्यों फौरन ही उसके हाथ से पखा छीन लेता हूँ। उग्र स्वभाव का मनुष्य है। किसी की बात नहीं सह सकता। ऐसे बहुत कम आदमी होंगे, जिनसे उसकी मित्रता हो , पर सईस और खिदमतगार के साथ बैठना शायद वह अपमानजनक समझता है। मैंने उसे किसीसे मिलते-जुलते नहीं देखा। आश्चर्य यह है कि उसे भंग-बूटी से प्रेम नहीं, जो इस श्रेणी के मनुष्यों में एक असाधारण गुण है। मैंने उसे कभी पूजा पाठ करते या नदी मे स्नान करने जाते नहीं देखा। विलकुल निरक्षर है , लेकिन फिर भी वह ब्राह्मण है और चाहता है कि दुनिया उसको प्रतिष्ठा और सेवा करे और क्यो न चाहे ? जब पुरुषाओ को पैदा की हुई सम्पत्ति पर आज भी लोग अधिकार जमाये हुए हैं और उसी शान से, मानो खुद पैदा की हो, तो वह क्यो उस प्रतिष्ठा और सम्मान को त्याग दे, जो उसके पुरुषाओं ने संचय किया था ? यह उसकी बपौती है।

मेरा स्वभाव कुछ इस तरह का है कि अपने नौकरों से बहुत कम बोलता हूँ। में चाहता हूँ, जब तक मैं खुद न वुलाऊँ, कोई मेरे पास न आये। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि जरा सी बातों के लिए नौकरों को आवाज देता फिरूँ। मुझे अपने हाथ से सुराही से पानी उँडेल लेना, या अपना लैम्प जला लेना, या अपने जूते पहन लेना, या आलमारी से कोई किताब निकाल लेना, इससे कहीं ज्यादा मरल मालूम होता

है कि हींगन और मैकू को पुकारूं। इससे मुझे अपनी स्वेच्छा और आत्म-विश्वास का वोध होता है। नौकर भी मेरे स्वभाव से परिचित हो गये हैं और बिना जरुरत मेरे पास बहुत कम आते हैं , इसलिए एक दिन जब प्रात: काल गंगू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया, तो मुझे बहुत बुरा लगा। यह लोग जब आते हैं, तो पेशगी हिसाब मे कुछ मांगने के लिए या किसी दूसरे नोकर की शिकायत करने के लिए, और मुझे यह दोनो ही बातें अत्यन्त अप्रिय हैं। मैं पहली तारीख को हरएक का वेतन चुका देता हूँ और बीच मे जब कोई कुछ मांगता है, तो क्रोध आ जाता है ! कौन दो-दो, चार-चार रुपये का हिसाव रखता फिरे। फिर जब किसीको महीने-भर को पूरी मजूरी मिल गई, तो उसे क्या हक है कि उसे पन्द्रह दिन मे खर्च कर दे और ऋण या पेशगी की शरण ले, और शिकायतों से तो मुझे घृणा है। मैं शिकायतो को दुर्वलता का प्रमाण समझता हूँ, या ठकुर-सुहाती की क्षुद्र चेष्टा ।

'मैंने माथा सिकोड़कर कहा-क्या बात है, मैंने तो तुम्हे बुलाया नहीं ?

गंगू के तीखे अभिमानो मुख पर आज कुछ ऐसी नम्रता, कुछ ऐसी याचना, कुछ ऐसा सकोच था कि मैं चकित हो गया । ऐसा जान पड़ा, वह कुछ जवाब देना चाहता है । मगर शब्द नहीं मिल रहे हैं।'

मैंने ज़रा और कड़ा होकर कहा-~आखिर क्या बात है ? कहते क्यों नहीं । तुम जानते हो, यह मेरे टहलने का समय है। मुझे देर हो रही है।

गंगू ने निराशा-भरे स्वर मे कहा-तो आप हवा खाने जायं, मैं फिर आ जाऊँगा।

यह अवस्था और भी चिन्ताजनक थी । इस जल्दी में तो वह एक क्षण मे अपना वृत्तान्त कह सुनायेगा। वह जानता है कि मुझे ज्यादा अवकाश नहीं है । दूसरे अव- सर पर तो दुष्ट घूटो रोयेगा । मेरे कुछ लिखने-पढने को तो वह शायद कुछ काम समझता हो, लेकिन विचार को, जो मेरे लिए सबसे कठिन साधना है, वह मेरे विश्राम का समय समझता है । वह उसी वक्त आँकर मेरे सिर पर सवार हो जायगा ।

मैंने निर्दयता के साथ कहा-वया कुछ पेशगी मांगने आये हो ? मैं पेशगी नहीं देता।

'जी नहीं सरकार, मैने तो कभी पेशगो नहीं मांगी।'

'तो क्या किसी की शिकायत करना चाहते हो ? मुझे शिकायतों से घृणा है।'

'जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी किसी की शिकायत नही की ?' गंगू ने अपना दिल मजबूत किया । उसकी आकृति से स्पष्ट भलक रहा था, मानो वह कोई छलांग मारने के लिए अपनी सारी शक्तियों को एकत्र कर रहा हो। और लड़खड़ाती हुई आवाज मे बोला--मुझे आप छुट्टी दे दें। मैं आपकी नौकरी अब न कर सकूँगा।

यह इस तरह का पहला प्रस्ताव था, जो मेरे कानों में पड़ा। मेरे आत्माभिमान को चोट लगी । मैं जब अपने को मनुष्यता का पुतला समझता हूँ, अपने नौकरो को कभी कटु-वचन नहीं कहता, अपने स्वामित्व को यथासाध्य-म्यान में रखने की चेष्टा करता हूँ, तब मैं इस प्रस्ताव पर क्यो न विस्मित हो जाता ! कठोर स्वर में बोला- क्यो, क्या शिकायत है ?

'आपने तो हुजूर, जैसा अच्छा स्वभाव पाया है, वैसा क्या कोई पायेगा , लेकिन बात ऐसी आ पड़ी है कि अब मैं आपके यहां नहीं रह सकता। ऐसा न हो कि पीछे से कोई बात हो जाय, तो आपको बदनामी हो। मैं नहीं चाहता, मेरी वजह से आपकी आबरू मे वट्टा लगे।'

मेरे दिल में उलझन पैदा हुई । जिज्ञासा की अग्नि प्रचण्ड हो गई। आत्मसमर्पण के भाव से, बरामदे मे पड़ी हुई कुर्सी पर बैठकर बोला-तुम तो पहेलियाँ बुझवा रहे हो । साफ-साफ क्यों नहीं कहते, क्या मामला है ?

गंगू ने बड़ी नम्रता से कहा-बात यह है कि वह स्त्री जो अभी विधवा-आश्रम से निकाल दी गई है, वही गोमती देवी

वह चुप हो गया। मैंने अधीर होकर कहा- हाँ, निकाल दी गई है तो फिर ? तुम्हारी नौकरी से उससे क्या सम्बन्ध ?

गंगू ने जैसे अपने सिर का भारी बोझ जमीन पर पटक दिया-

'मैं उसते व्याह करना चाहता हूँ, बाबूजी !'

मैं विस्मय से उसका मुंँह ताकने लगा। यह पुराने विचारों का पोगा ब्राह्मण, जिसे नयी सभ्यता को हवा तक न लगी, उस कुलटा से विवाह करने जा रहा है, जिसे कोई भला आदमी अपने घर में कदम भी न रखने देगा। गोमती ने मुहल्ले के शान्त वातावरण में थोड़ी-सी हलचल पैदा कर दी। कई साल पहले वह विधवाश्रम में आई थी। तीन बार आश्रम के कर्मचारियों ने उसका विवाह कर दिया था , पर हर बार वह महीने-पन्द्रह दिन के बाद भाग आई थी। यहां तक कि आश्रम के मन्त्रो ने अबकी

बार उसे आश्रम से निकाल दिया था । तबसे वह इसी महल्ले में एक कोठरी लेकर रहती थी और सारे मुहल्ले के शोहदो के लिए मनोरञ्जन का केन्द्र बनी हुई थी।

मुझे गंगू की सरलता पर क्रोध भी आया और दया भी। इस गधे को सारी दुनिया में कोई स्त्री ही न मिलती थी, जो इससे ब्याह करने जा रहा है। जब वह तीन बार पतियों के पास से भाग आई, तो इसके पास कितने दिन रहेगी ? कोई गांठ का पूरा आदमी होता, तो एक बात भी थी। शायद साल छः महीने टिक जाती । यह तो निपट आँख का अन्धा है । एक सप्ताह भी तो निबाह न होगा।

मैंने चेतावनी के भाव से पूछा---तुम्हे इस स्त्री की जोवन-कथा मालूम है ?

गंगू ने आँखों देखी बात की तरह कहा -सब झूठ है सरकार, लोगो ने हक- नाहक उसको बदनाम कर दिया है।

'क्या कहते हो, वह तीन बार अपने पतियों के पास से नहीं भाग आई ?'

'उन लोगो ने उसे निकाल दिया, तो क्या करती ?'

'कैसे बूद्धू आदमी हो । कोई इतनी दूर से आकर विवाह करके ले जाता है, हज़ारों रुपये खर्च करता है इसी लिए कि औरत को निकाल दे ?

गंगू ने भावुकता से कहा--जहाँ प्रेम नहीं है हजूर, वहाँ कोई स्त्री नहीं रह सकती। स्त्री केवल रोटी-कपड़ा ही नहीं चाहती, कुछ प्रेम भी तो चाहती है। वह लोग समझते होगे कि हमने एक विधवा से विवाह करके उसके ऊपर कोई बहुत बड़ा एहसान किया है। चाहते होंगे कि तन-मन से वह उनकी हो जाय , लेकिन दूसरे को अपना बनाने के लिए पहले आप उसका बन जाना पड़ता है हजूर ! यह बात है। फिर उसे एक बीमारी भी है। उसे कोई भूत लगा हुआ है। वह कभी-कभी बक-झक करने लगती है और बेहोश हो जाती है ।

'ओर तुम ऐसी स्त्री से विवाह करोगे ?'-मैंने सदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा-ससझ लो, जीवन कड़वा हो जायगा ।

गंगू ने शहीदों के-से आवेश से कहा- मैं तो समझता हूँ, मेरी ज़िन्दगो व जायगी वाबूजी, आगे भगवान् की मर्जी !

मैंने जोर देकर पूछा -- तो तुमने तय कर लिया है ?

'हाँ, हजूर ।'

'तो मैं तुम्हारा इस्तीफा मंजूर करता है।' मैं निरर्थक रुढियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ , लेकिन जो आदमी एक दुष्टा से विवाह करे, उसे अपने यहाँ रखना वास्तव मे जटिल समस्या थी। आये दिन टण्टे-बखेड़े होगे, नयी-नयी उलझनें पैदा होगी, कभी पुलिस दौड़ लेकर आयेगी, कभी मुकदमे खड़े होगे। सभव है, चोरी की वारदातें भी हों। इस दलदल से दूर रहना ही अच्छा । गंगू क्षुधा-पीड़ित प्राणो को भांति रोटी का टुकड़ा देखकर उसकी और लपक रहा है । रोटो जूठी है, सूखी हुई है, खाने योग्य नहीं है, इसकी उसे परवाह नहीं , उसको विचार-बुद्धि से काम लेना कठिन था। मैने उसे पृथक कर देने ही में अपनी कुशल समझी।

( २ )

पांच महीने गुज़र गये। गंगू ने गोमती से विवाह कर लिया था ओर उसी मुहल्ले में एक खपरैल का मकान लेकर रहता था। वह अब चाट का खोंचा लगाकर गुजर-बसर करता था। मुझे जब कभी बाजार मे मिल जाता, तो मैं उसका क्षेम-कुशल पूछता । मुझे उसके जीवन से विशेष अनुराग हो गया था। यह एक सामाजिक प्रश्न की परीक्षा थी--सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक भो । मैं देखना चाहता था इसका परिणाम क्या होता है । मैं गंगू को सदैव प्रसन्न-मुख देखता। समृद्धि और निश्चिन्तता से मुख पर जो एक तेज और स्वभाव में जो एक आत्म-सम्मान पैदा हो जाता है, वह मुझे यहाँ प्रत्यक्ष दिखाई देता था । रुपये-बीस आने की रोज बिक्री हो जातो थी। इसमे लागत निकालकर आठ-दस आने वच जाते थे । यही उसकी जिविका थी , किन्तु इसमे किसी देवता का वरदान था। क्योकि इस वर्ग के मनुष्यो में जो निर्लज्जता और विपन्नता पाई जाती है, इसका वहाँ चिह्न तक न था। उसके मुख पर आत्म-विकास और आनन्द की झलक थी, जो चित्त की शान्ति से हो आ सकती है।

एक दिन मैंने सुना कि गोमती गंगू के घर से भाग गई है। कह नहीं सकता, क्यों मुझे इस खबर से एक विचित्र आनन्द हुआ। मुझे गंगू के सन्तुष्ट और सुखी जीवन पर एक प्रकार की ईषर्या होती थी। मैं उसके विषय में किसी अनिष्ट की, किसी घातक अनर्थ को, किसी लज्जास्पद घटना की प्रतीक्षा करता था । इस खबर से ईर्ष्या को सान्त्वना मिली । आखिर वही बात हुई, जिसका मुझे विश्वास या । आखिर बचा को अपनी अदूरदर्शिता का दण्ड भोगना पड़ा। अब देखें, बचा कैसे मुँह दिखाते हैं । अब आँखें खुलेंगी और मालूम होगा कि लोग जो उन्हें इस विवाह से रोक रहे

थे, उनके कैसे शुभचिन्तक थे। उस वक्त तो एसा मालूम होता था, मानो आपको कोई दुर्लभ पदार्थ मिला जा रहा है। मानो मुक्ति का द्वार खुल गया है। लोगों ने कितना कहा कि यह स्त्री विश्वास के योग्य नहीं है, कितनो को दगा दे चुकी है, तुम्हारे साथ भी दगा करेगी , लेकिन इसके कानों पर जूं तक न रेंगी। अब मिलें, तो जरा उनका मिज़ाज पुछूं, कहूँ-क्यों महाराज, देवीजी का यह वरदान पाकर प्रसन्न हुए या नहीं ? तुम तो कहते थे, वह ऐसी है और वैसी है, लोग उस पर केवल दुर्भावना के कारण दोष आरो- पित करते हैं । अब बतलाओ, किसको भूल थी ?

उसी दिन सयोगवश गंगू से बाजार मे भेंट हो गई । घबराया हुआ था, चद- हवास था, बिलकुल खोया हुआ। मुझे देखते ही उसको आँखो मे आँसू भर आये, लज्जा से नहीं, व्यथा से । मेरे पास आकर बोला-- बाबूजी, गोमतो ने मेरे साथ भी विश्वासघात किया । मैंने कुटिल आनन्द से , लेकिन कृत्रिम सहानुभूति दिखाकर, कहा-तुमसे तो मैंने पहले ही कहा था , लेकिन तुम माने ही नहीं, अब सब्र करो। इसके सिवा और क्या उपाय है । हपये-पैसे ले गई या कुछ छोड़ गई ?

गंगू ने छाती पर हाथ रखा । ऐसा जान पड़ा, मानो मेरे इस प्रश्न ने उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया है।

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए, उसने धेले को चीज भी नहीं छुई। अपना जो कुछ था, वह भी छोड़ गई । न जाने मुझमे क्या बुराई देखी। मैं उसके योग्य न था और क्या कहूँ। वह पढ़ी-लिखी थी, मै करिया अक्षर भैस बराबर । मेरे साथ इतने दिन रही, यहो बहुत था। कुछ दिन और उसके साथ रह जाता, ता आदमी बन जाता । उसका आपसे कहाँ तक बखान करू हजूर, औरो के लिए चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आनीर्वाद थी । न-जाने मुझसे क्या ऐसी खता हो गई , मगर कसम ले लोजिए, जो उसके मुत्र पर मैल तक आया हो। मेरी औकात ही क्या है बाबूजी, दस- बारह आने का मंजूर है, पर इसी मे उसके हाथों इतनी बरक्कत थी कि कभी कमी नही पड़ी।'

मुझे इन शब्दों से घोर निराशा हुई। मैने समझा था, वह उसकी बेवफाई की कथा कहेगा और मै उसकी अन्ध-भक्ति पर कुछ सहानुभूति प्रकट करूँगा , मगर उस सूर्ख की आँखें अब तक नहीं खुली। अब भी उसीका मन्त्र पढ रहा है । अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित है। मेने कुटिल परिहास आरम्भ किया -तो तुम्हारे घर से कुछ नहीं ले गई ?

'कुछ भी नहीं बाबूजी, धेले की चीज़ भी नहीं ।'

'और तुमसे प्रेम भी बहुत करती थी ।'

'अब आपसे क्या कहूँ बापूजी, वह प्रेम तो मरते दम तक याद रहेगा।'

‘फिर भी तुम्हें छोडकर चली गई ।'

'यही तो आश्चर्य है, बाबूजी ।'

'त्रया-चरित्र का नाम कभी सुना है ?'

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए । मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे, तो भी मैं उसमा यश ही गाऊँगा।'

'तो फिर हूंढ निकालो।

'हां, मालिक । जब तक उसे हूँढ न लाऊँगा, मुझे चैन न आवेगा। मुझे इतना मालूम हो जाय कि वह कहाँ है, फिर तो मे उसे ले ही आऊँगा , और वाबूजी, मेरा दिल कहता है कि वह आयेगी जरूर। देख लीजिएगा । वह मुझसे रूटकर नहीं- गई , लेकिन दिल नहीं मानता । जाता है, महीने-दो-महोने जंगल-पहाड़ को धूल छानूँगां । जीता रहा, तो फिर आपके दर्शन करूंगा।'

यह कहकर वह उन्माद की दशा मे एक तरफ चल दिया।

( ३ )

इसके बाद मुझे एक जरूरत से नैनीताल जाना पड़ा। सर करने के लिए नहीं । एक महीने के बाद लौटा, और अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि देखता हूँ, गंगू एक नर-जात शिशु को गोद में लिये खडा है। शायद कृष्ण को पाकर नन्द भी इतने पुलकित न हुए होगे । मालूम होता था, उसके रोम-रोम से आनन्द फूटा पड़ता है। चेहरे और आंखों से कृतज्ञता और श्रद्धा के राग से निकल रहे थे। कुछ वही भाव था, जो विसो क्षुधा-पीडि़त भिक्षुक के चेहरे पर भर-पेट भोजन करने के बाद नज़र आता है।

मैने पूछा---क्हो महाराज, गोमतो देवी का कुछ पता लगा, तुम तो बाहर गये थे।

गंगू ने आपे मे न समाते हुए जवाब दिया---हाँ बाबूजी, आपके आशीर्वाद से दृढ़ लाया । लखनऊ के जनाने अस्पताल में मिली । यहाँ एक सहेली से कह नई थी
कि अगर वह बहुत घबराये, तो बतला देना। मैं सुनते ही लखनऊ भागा और उसे घसीट लाया। घाते में यह बच्चा भी मिल गया ।

उसने बच्चे को उठाकर मेरी तरफ बढाया-मानो कोई खिलाड़ी तमगा पाकर दिखा रहा हो।

मैंने उपहास के भाव से पूछा-अच्छा, यह लड़का भी मिल गया ? शायद इसी लिए वह यहां से भागी थी। है तो तुम्हारा ही लड़का ?

'मेरा काहे को है वावूजी, आपका है, भगवान् का है।'

'तो लखनऊ में पैदा हुआ ?'

'हाँ बाबूजी, अभी तो कुल एक महीने का है।'

'तुम्हारा ब्याह हुए कितने दिन हुए?'

'यह सातवां महीना जा रहा है।'

'तो शादी के छठे महोने पैदा हुआ ?'

'और क्या बाबूजी।'

'फिर भी तुम्हारा लड़का है ?'

'हाँ, जी।'

'कैसी बेसिर-पैर की बातें कर रहे हो ?'

मालूम नहीं, वह मेरा आशय समझ रहा था, या बन रहा था। उसी निष्कपट भाव से बोला---मरते-मरते बची बाबूजी, नया जन्म हुआ। तीन दिन तीन रात छटपटाती रही। कुछ न पूछिए ।

मैंने अब जग व्यंग्य-भाव से कहा-लेकिन छ महीने मे लड़का होते आज ही सुना।

यह चोट निशाने पर जा बैठी।

मुस्कराकर बोला-अच्छा, वह बात। मुझे तो उसका ध्यान भी नहीं आया । इसी भय से तो गोमती भागी थी। मैंने कहा-~-गोमती, अगर तुम्हारा मन मुझसे नहीं मिलता, तो मुझे छोड़ दो। मैं अभी चला जाऊँगा और फिर कभी तुम्हारे पास न आऊँगा। तुमको जब कुछ काम पड़े, तो मुझे लिखना, मैं भरसक तुम्हारी मदद करूँगा। मुझे तुमसे कुछ मलाल नहीं । मेरी आँखो मे तुम अब भी उतनी ही भली हो। अब भी मैं तुम्हे उतना ही चाहता हूँ। नहीं, अब मैं तुम्हें और ज्यादा

चाहता हूँ, लेकिन अगर तुम्हारा मन मुझसे फिर नहीं गया है, तो मेरे साथ चलो। गंगू जीते-जी तुमसे वेवफाई नहीं करेगा। मैंने तुमसे इसलिए व्याह नहीं किया कि तुम देवी हो , बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें चाहता था और सोचता था कि तुम भी मुझे चाहती हो । यह बच्चा मेरा बच्चा है । मेरा अपना बच्चा है। मैंने एक बोया हुआ खेत लिया तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूंगा कि उसे किसी दूसरे ने बोया था।

यह कहकर उसने ज़ोर से ठट्ठा मारा ।

मैं कपड़े उतारना गया । कह नहीं सकता, क्यो मेरी आँखें सजल हो गई । न-जाने वह कौन-सी शक्ति थी, जिसने मेरी मनोगत घृणा को दबाकर मेरे हाथो को बढा दिया। मैंने उस निष्कलक चालक को गोद में ले लिया और इतने प्यार से उसका चुम्बन लिया कि शायद अपने बच्चों का कभी न लिया होगा।

गंगू बोला-वाबूजी, आप बड़े सज्जन हैं। मैं गोमतो से बार-बार आपका बखान किया करता हूँ। कहता हूँ, चल एक बार उनके दर्शन कर आ , लेकिन मारे लाज के आती हो नहीं।

मैं और सज्जन ! अपनी सज्जनता का पर्दा आज मेरी आँखों से हटा । मैंने भक्ति से डूबे हुए स्वर में कहा- नहीं जी, मेरे-जैसे कलुषित मनुष्य के पास वह क्या आयेंगी। चलो, मैं उनके दर्शन करने चलता हूँ। तुम मुझे सज्जन समझते हो ? मै ऊपर से सज्जन हूँ, पर दिल का कमीना हूँ। असली सज्जनता तुममें हैं और यह बालक वह फूल है, जिससे तुम्हारी सज्जनता की महक निकल रही है।

मैं बच्चे को छाती से लगाये हुए गंगू के साथ चला ।


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