मानसरोवर १
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २४० से – २४६ तक

 
सुभागी

और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी काठ का उल्लू था। सुभागी ग्यारह साल की बालिका होकर भी घर के काम में इतनी चतुर और खेती-बारी के काम में इतनी निपुण थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बालकों से भगवान् को भी तो प्रेम है। कोई सुभागी का बखान न करे, इसलिए वह अनायास ही उसे डाँटती रहती थी। बखान से लड़के बिगड़ जाते हैं, यह भय तो न था, भय था—नज़र का! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्न में विधवा हो गई?

घर में कुहराम मचा हुआ था। लक्ष्मी पछाड़े खाती थी। तुलसी सिर पीटते थे। उन्हें रोते देखकर सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती—क्यों रोती हो अम्मा, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यों रोती हो? उसकी भोली बातें सुनकर माता का दिल और भी फटा जाता था। वह सोचती थी—ईश्वर, तुम्हारी यही लीला है। जो खेल खेलते हो वह दूसरों को दुख देकर! ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे, तो उसे पागलखाने भेजते हैं, मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसका कोई दण्ड नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोयें और तुम हँसो। तुम्हें तो लोग दयालु कहते हैं। यही तुम्हारी दया है।

और सुभागी क्या सोच रही थी? उसके पास कोठरी-भर रुपये होते, तो वह उन्हे छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके से बाजार चली जाती और अम्माँ के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाती, दादा जब बाकी माँगने आते, तो चट रुपये निकालकर दे देती, अम्माँ-दादा कितने खुश होते!

( २ )

जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर दबाव डालने लगे कि लड़की का कहीं घर कर दो। जवान लड़की का यों फिरना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई निंदा नहीं है, तो क्यों सोच-विचार करते हो? तुलसी ने कहा --- भाई, मैं तो तैयार हूँ; लेकिन जब सुभागी भी माने। वह तो किसी तरह राजी नहीं होती।

हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा --- बेटी, हम तेरे ही भले को कहते हैं। मां—बाप अब बूढ़े हुए, उनका क्या भरोसा। तुम इस तरह कब तक बैठो रहोगी ?

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा --- चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ ; लेकिन मेरा मन घर करने को नहीं कहता। मुझे आराम को चिता नहीं है। मैं सब कुछ मेलने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह सिर-आंखों के वल करूंँगी। मगर घर करने को मुमसे न कहो। जब मेरो चाल-कुचाल देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर मैं सच्चे बाप की बेटी हूँगी तो बात को भी पक्को हूँगी। फिर लजा रखनेवाले तो भगवान हैं, मेरो क्या हस्ती है कि अभी कुछ कहूँ।

उजड रामू बोला --- तुम अगर सोचती हो कि भैया कमायेंगे और मैं बैठो मौज करूंँगी, तो इस भरोसे न रहना। यहाँ किसी ने जनम-भर का ठीका नहीं लिया है।

रामू को दुल्हन रामू से भो दो अंगुल ऊँची थी। मटककर बोली- हमने किसो का करज थोड़े हो खाया है कि जनम-मर बैठे भरा करें। यहां तो खाने को भी महीन चाहिए, पहनने को भी महीन चाहिए, यह हमारे बूते की बात नहीं है। सुभागी ने गर्व से भरे हुए स्वर में कहा --- भाभी, मैंने तो तुम्हारा भासरा कभी नहीं छिया और भगवान् ने चाहा तो कभी करूंगी भी नहीं। तुम अपनी देखो, मेरी चिंता न करो।

रामू की दुल्हन को जब मालूम हो गया कि सुभागी धर न करेगी, तो और भी उसके सिर हो गई। हमेशा एक-न-एक खुचड़ लगाये रहती। उसे सुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह वेचारी पहर रात से उठकर कूटने पीसने में ला जातो, चौका-बरतन करतो, गोबर पाथती। फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात को कभी माँ के सिर में तेल डालतो, कभी उसकी देह दवाती। तुलसी चिलम के भक्त थे। उन्हें बार- बार चिलम पिलाती। जहां तक अपना घश चलता, मां-बाप को कोई काम न करने देतो। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती, यह तो जवान आदमी हैं, यह न काम करेंगे, तो गृहस्थी कैसे चलेगी।

मगर रामू को यह बुरा लगता। अम्मां और दादा को तिनका तक नहीं उठाने

देती और मुझे पीसना चाहती है। यहाँ तक कि एक दिन वह जामे से बाहर हो गया। सुभागी से बोला-अगर उन लोगों का बड़ा मोह है, तो क्यों नहीं अलग कर रहती हो। तब सेवा करो तो मालूम हो कि सेवा कड़वी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने बल पर काम करे।

सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके मा-पाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले --- क्या है रामू, उस सरोजिन से क्यों लाते हो?

रामू पास आकर बोला --- तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसको कहता था।

तुलसी --- जब तक मैं जीता हूँ, तुम उसे कुछ नहीं कह सकते। मेरे पीछे जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया।

रामू --- आपकी बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले बाँधकर रखिए। मुम्हसे तो नहीं सहा जाता।

तुलसी --- अच्छी बात है। मगर तुम्हारी यही मरजो है, तो यही होगा। मैं पल गांव के आदमियों को बुलाकर बटवारा कर देगा। तुम चाहे छूट बाव, सुभागी लही छूट सकती।

रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आई, जब रामू के जन्मोत्सव में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था, और सुभागी पैदा हुई, तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी न खर्च को। पुत्र को रत्न समझा था, पुत्री को पूर्व जन्म के पापों का दण्ड। वह रत्न कितना कठोर निकला और वह दण्ड कितना अगलमय।

( ३ )

दूसरे दिन महतो ने गांव के आदमियों को जमा करके कहा-पंचो, अब रामू का और मेरा एक में निबाह नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ़ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की किचकिच अच्छी नहीं।

गांव के मुख्तार बाबू सजनसिंह बड़े सज्जन पुरुष थे। उन्होंने राम को बुलाकर पूछा- क्यों जो, तुम अपने मां-बाप से अलग रहना चाहते हो ? तुम्हें शर्म नहीं आती कि औरत के कहने से मां-बाप को अलग किये देते हो? राम ! राम ! रामू ने दिठाई के साथ कहा --- जब एक में न गुजर हो, तो अलग हो जाना हो अच्छा है।

सजनसिंह --- तुमको एक में क्या कष्ट होता है ?

रामू-एक बात हो तो बताऊँ।

सजन० --- कुछ तो बतलाओ!

रामू --- साहब, एक में मेरा इनके साथ निबाह न होगा। बस मैं और कुछ नहीं जानता।

यह कहता हुभा रामू वहाँ से चलता बना।

तुलसी --- देख लिया आप लोगों ने इसका मिजाज ! माप चाहे चार हिस्सों में तीन हिस्से उसे दे; पर अब मैं इस दुष्ट के साथ न रहूँगा। भगवान् ने बेटी का दुःख दे दिया, नहीं मुझे खेत-बारी लेकर क्या करना था। जहा रहता वहीं कमा- खाता। भगवान ऐसा बेटा सातवें वैरो को भी न दें। 'लड़के से लड़की भली, जो कुलवतो होय।'

सहसा सुभागी आकर बोली --- दादा, यह सब बार-बखरा मेरे ही कारन तो हो रहा है, मुझे क्यों नहीं अलग कर देते ? मैं मेहनत-मजूरी करके अपना पेट पाल लूंगी। अपने से जो कुछ बन पढेगा, तुम्हारी सेवा करती रहूँगो , पर रहूंगी अलग। यो घर का बाराबाट होना मुझसे नहीं देखा जाता। मैं अपने माथे यह कलक नहीं लेना चाहती।

तुलसी ने कहा --- बेटी, हम तुझे न छोड़ेंगे, चाहे संसार झट जाय ! रामू का मैं मुँह नहीं देखना चाहता, उसके साथ रहना तो दूर रहा।

रामू की दुल्हन बोली --- तुम किसी का मुंह नहीं देखना चाहते, तो हम भी तुम्हारी पूजा करने को व्याकुल नहीं हैं।


महतो दांत पीसते हुए उठे कि यह को मारें ; मगर लोगों ने पकड़ लिया ।

बँटवारा होते ही महतो और लक्ष्मी को मानों पेंशन मिल गई। पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी, कुछ-न-कुछ करते ही रहते थे, पर अब उन्हें पूरा विश्राम था। पहले दोनों दध-घी को तरसते थे। सुभागी ने कुछ रुपये बचाकर एक भैंस ले लो। बूढ़े आदमियों की जान तो उनका भोजन है। अच्छा
खुल गई बरतन, कपड़े, घी, शकर, सभी सामान इफ़ात से जमा हो गये। रामू देख-देख जन्ता था और सुभागी उसे जलाने हो के लिए सबको यह सामान दिखाती थी।

लक्ष्मी ने कहा --- बेटी, घर देवर खर्च करो। मम कोई कमाने वाला नहीं बैठा है। आप ही कुआं खोदना और पानी पीना है।

सुभागी बोली --- बाबूजी का काम तो धूप-धाम से ही होगा अम्मा, चाहे घर रहे या जाय। बाबूजीजी फिर थोड़े हो पायेगे। मैं भैया को दिखा देना चाहती हूँ कि अपना क्या कर सकती है। वह सामने होंगे, इन दोनों के किये कुछ न होगा। उनका यह घमड ते दूंगी।

लक्ष्मी चुप हो रही। तेरहवीं के दिन पाठ गाँव के ब्राह्मणों का भोग हुआ। चारों तरफ वाह-वाह मच गई।

पिठले पहर का समय था। लोग भोजन करके चले गये थे। लक्ष्मी थककर सो गई थी। केवल सुभागी मची हुई चीज़ें उठा-उठाकर रख रही थी कि ठाकुर सजनसिंह ने आकर कहा --- अब तुम भी आराम करो बेटी! सबेरे यह सब काम कर लेना । ने कहा-अभी यको नहीं हूँ दादा ! आपने जोड़ लिया, कुल कितने

गया। उसे भव ज्ञात हुआ कि मेरो बुद्धि, मेरा बल, मेरी सुमति, मानों सबसे मैं वंचित हो गई।

उसने कितनी बार ईश्वर से विनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना मगर उसने यह विनती स्वीकार न की। मौत पर अपना काबू नहीं तो क्या जीवन पर भी काबू नहीं है ?

वह लक्ष्मी जो गांव में अपनो बुद्धि के लिए मशहूर थी, जो दूसरों को सोख , दिया करती थी, अब बौड़ही हो गई है। सीधी-सी बात करते नहीं बनती।

लक्ष्मी का दाना-पानी उसी दिन से छूट गया। भागो के आग्रह पर चौके में जाती ; मगर कौर कण्ठ के नीचे न उतरता। पचास वर्ष हुए, एक दिन भो ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाये उसने खुद खाया हो। अब उन नियम को कैसे तोड़े ?

आखिर उसे खाँसी आने लगी। दुर्बलता ने जल्द हो खाट पर डाल दिया। सुभागी अब क्या करे। ठाकुर साहब के रुपये चुकाने के लिए दिलोजान से काम करने की जरूरत थी। यहाँ मा बीमार पड़ गई। अगर बाहर जाय तो मां अकेली रहती है। उसके पास बैठे तो बाहर का काम कौन करे। मां को दशा देखकर सुभागी समम गई कि इनका परवाना भी आ पहुँचा। महतो को भी तो यही ज्वर था !

गांव में और किसे फुरसत थी कि दौड़ धूप करता। सजनसिंह दोनों वक्त आते, लक्ष्मी को देखते, वा पिलाते, सुभागी को समझाते, और चले जाते ; मगर लक्ष्मी की दशा बिगड़ती ही जाती थी। यहां तक कि पदहवें दिन वह भो ससार से सिधार गई। अतिम समय रामू आया और उसके पैर छूना चाहता था; पर लक्ष्मी ने उसे ऐसो मिहको दी कि वह उसके समीप न जा सका। सुभागो को उसने आशीर्वाद दिया-तुम्हारी-जैसी बेटी पाकर तर गई। मेरा क्रिया-कर्म तुम्हों करना। मेरी मा- वान् से यही अरजी है कि उस जन्म में भो तुम मेरी कोख पवित्र करो।

( ७ )

माता के देहान्त के बाद सुभागो के जीवन का केवल एक लक्ष्य रह गया- सजनसिंह के रुपये चुकाना । ३००) पिता के क्रिया-कर्म में लगे थे । लगभग २००) माता के काम में लगे। ५००) का प्रण था और उसकी अकेली जान ! मगर वह हिम्मत न हारतो थी। तीन साल तक सुभागी ने रात को रात और दिन को दिन न समझा। उसको कार्य-शक्ति और पौरुष देखकर लोग दांतों उँगली दवाते थे। दिन-

भर खेतो-बारी का काम करने के बाद वह रात को चार-चार पसेरो आटा पोस हालतो। तीस दिन १५) लेकर वह सजनसिंह के पास पहुंच जाती। इसमें कमी नागा न पड़ता। यह मानों प्रकृति का अटल नियम था।

अब चारों ओर से उसको सगाई के पैगाम आने लगे। सभी उसके लिए मुँह कलाये हुए थे। जिसके घर सुभागी मायगी, उसके भाग्य फिर जायेंगे। सुभागी यही जवाब देती --- अभी बह दिन नहीं आया।

जिस दिन सुभागी ने आखिरी किस्त बुझाई, उस दिन उसको खुशी का ठिकाना न था। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा हो गया।

वह चलने लगी तो सजनसिंह ने कहा --- बेटी, तुमसे मेरो एक प्रार्थना है, कहो हूँ ; कहो न हूं , मगर बचन दो कि मानोगी।

सुभागी ने कृतज्ञभाव से देखकर कहा --- दादा, आपकी बात न मानूंगी तो किसकी यात मानूंगी। मेरा तो रोया-रोयाँ आपका गुलाम है।

सजन० --- अगर तुम्हारे मन में यह भाव है, तो मैं न उहूँगा। मैंने अब तक तुमसे इसीलिए नहीं कहा कि तुम अपने को मेरा देनदार समझ रही थी। अब रुपये वुक गये। मेरा तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नहीं है, रत्ती भर भी नहीं। बोलो कहूँ ?

सुभागी --- आपकी जो आज्ञा हो।

सजन० --- देखो, इनकार न करना, नहीं मैं फिर तुम्हें अपना मुंह न दिखाऊँगा।

सुभागी --- क्या आज्ञा है ?

सजन० --- मेरी इच्छा है कि तुम मेरी बहू बनकर मेरे घर को पवित्र करो। मैं जात पात का कायल हूँ , मगर तुमने मेरे सारे बन्धन तोड़ दिये। मेरा लड़का तुम्हारे नाम का पुजारी है। तुमने उसे बारहा देखा है। बोलो, मजूर करतो हो ?

सुभागो --- दादा, इतना सम्मान पाकर पागल हो जाऊँगी।

सजन --- तुम्हारा सम्मान भगवान् कर रहे है बेटीतुम साक्षात् भगवती का अवतार हो।

सुभागी --- मैं तो आपको अपना पिता समझती हूँ। आप जो कुछ करेंगे, मेरे भले हो के लिए करेंगे। आपके हुक्म को कैसे इनकार कर सकती हूँ।

सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा --- बेटी, तुम्हारा सोहाग अमर हो। तुमने मेरो बात रख लो। मुझ-सा भाग्यशाली ससार में और कौन होगा !