मानसरोवर १
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २४७ से – २५४ तक

 
अनुभव

'प्रियतम को एक वर्ष की सजा हो गई। और अपराध केवल इतना था, कि तीन। दिन पहले जेठ की तपती दोपहरी में उन्होंने राष्ट्र के कई सेवकों का शर्बत-पान से सत्कार किया था। मैं उस वक्त अदालत में खड़ी थी। कमरे के बाहर सारे नगर कौ राजनीतिक चेतना किसी पन्दी पशु की भाँति खड़ी चीत्कार कर रही थी। मेरे प्राण धन हथकड़ियों से पकड़े हुए लाये गये। चारों ओर सन्नाटा छा गया। मेरे भीतर हाहाकार मचा हुआ था, मानो प्राण पिघला जा रहा हो। आवेश की लहरें-सी उठसठर समस्त शरोर को रोमांचित किये देती थी। ओह ! इतना गर्ने मुझे कभी न हुआ था। चह अदालत, कुरसी पर बैठा हुआ अङ्ग अफसर, लाल ज़रीदार एड़ियाँ घे हुए पुलीस के कर्मचारी, सब मेरी आँखों में तुच्छ जान पड़ते थे । बार-बार जी मैं आता था, दौड़ कर जीवनधन के चरण से लिपट जाऊँ और उसी दशा में प्राण स्याग दें। कितनी शान्त, अनि चकित, तेज और स्वाभिमान से प्रदीप्त मूर्ति थे । ग्लानि, बिषार्थ या शोक की छाया भी न थी। नहीं, उन ओठ पर एक स्फूर्ति से भरी हुईं मनोहारिणी, ओजस्वी मुस्कान थी। इस अपराध के लिए एक वर्ष का कठिन काराबास ! वाह रे न्याय ! तेरी बलिहारी है। मैं ऐसे हुङ्गार अपराध करने की तैयार थी। प्राणनाथ ने चलते समय एक बार मेरी ओर देखा, कुछ मुसकिराये, फिर उनकी मुद्रा कठोर हो गई। अदालत से लौटकर मैंने पाँच रुपये की मिठाई मैंगवाई और स्वयसेव को बुलाकर खिलाया । और सन्ध्या समय मैं पहली बार कांग्रेस के जलवे में शरीक हुई-शरीक ही नहीं हुई, मंच पर जाकर बोली और सत्याग्रह की प्रतिज्ञा ले ली। मेरी आत्मा में इतनी शक्ति कहाँ से आ गई; नहीं कह सकती। सर्वस्व लुट जाने के बाद फिर किसकी शंका और किसका डर ! विधाता का कठोर-से-कठौर आघात भी अब मेरा क्या अहित कर सकता था ?

( २ )

दूसरे दिन मैंने दो तार दिये। एक पिताजी को, दुसरा ससुरजी को। ससुरजी 'वेन्शन पाते थे। पिताजी जगल के महकमे मैं अच्छे पद पर है; पर सारा दिन गुरु

गया, तार का जवाब नदारद। दूसरे दिन भी कोई जवाब नहीं। तीसरे दिन दोनों महाशों के पत्र आये। दोनों जामे से बाहर थे। ससुरजी ने लिखा-आशा थो, तुम लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे। तुमने उस आशा पर पानी फेर दिया। क्या अब चाहती हो, मैं भिक्षा मागूं ? मैं सरकार से पेंशन पाता हूँ। तुम्हें आश्रय देकर मैं अपनी पेंशन से हाथ नहीं धो सकता। पिताजी के शब्द इतने कठोर न , पर भाव लगभग ऐसा ही था। इसी साल उन्हें प्रेड मिलनेवाला था। वह मुझे बुलायेंगे, तो सम्भव है, ग्रेड से पचित होना पड़े। वह मेरी सहायता मौखिक रूप से मारने को तेयार थे। मैंने दोनों पत्र फापकर फेंक दिये और फिर उन्हें कोई पत्र न लिखा। हा स्वार्थ। तेरी माया कितनी प्रबल है! अपना ही पिता, केवल स्वार्थ में बाधा पढ्ने के भय से, लड़की की तरफ से इतना निर्दय हो जाय। अपना ही सर अपनी बहू की ओर से इतना उदासीन हो जाय। मगर अभी मेरी उम्न हो क्या है ? अभो तो सारी दुनिया देखने को पड़ो है।

अब तक मैं अपने विषय में निश्चिन्त थी , लेकिन अब यह नई चिन्ता सवार हुई। इस निर्जन घर में, निराधार, निराश्रय, कैसे रहूँगी; मगर जालँगी कहाँ। अगर कोई मर्द होती, तो कांग्रेस के आश्रम में चली जातो, या कोई मजूरी कर लेती। मेरे पैरों में तो नारीत्व की वेड़ियों पड़ी हुई थीं। अपनी रक्षा को इतनो चिन्ता न थी. जितनी अपने नारोल की रक्षा की। अपनी जान की फिक्र न थी, पर नारीक्षक को ओर किसो की आँख भी न उठनी चाहिए।

किसी की आहट पाकर मैंने नीचे देखा। दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछ , तुम कौन हो ? यहाँ श्यों खड़े हो मगर फिर खयाल आया, मुझे यह पूछने का क्या हक्क ! आम रास्ता है। जिसका जी चाहे, खड़ा हो।

पर मुझे खटका हो गया। उस शंका को किसी तरह दिल से न निकाल सकती थी। यह एक चिनगारी को भाँति हृदय के अन्दर समा गई थी।

गर्मी से देह फुको जाती थी, पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बन्द कर लिया। घर में एक बड़ा-सा चाकू था, उसे निकालकर सिरहाने रख लिया। वह शन सामने बैठो घूरतो हुई मालूम होती थी।

किसी ने पुकारा। मेरे रोयें खड़े हो गये। मैंने द्वार से कान लगाया। कोई. मेरो कुण्डी खटखटा रहा था। कलेजा धक-धक करने लगा। वही दोनों बदमाश होंगे।
क्यों कुण्डी खड़सा रहे हैं ? मुझसे क्या काम है ? मुझे मलाइट भा गई। मैंने द्वार खोला और छज्जे पर खड़ी होकर ज़ोर से बोली --- कौन कुण्डी सहखड़ा रहा है।

आवाज़ सुनकर मेरी शका शान्त हो गई। जितना डारस हो गया ! याबाबू ज्ञानचन्द थे। मेरे पति के मित्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दूसरा नहीं है। मैंने नीचे जाकर द्वार खोल दिया। देखा तो एक स्त्री भी थी। यह मिसेज ज्ञानचन्द थीं। वह मुझसे रही थी। पहले-पहल मेरे घर आई थी। मैंने उनके चरण स्पर्श किये। हमारे यहाँ मित्रता मरों ही तक रहती है। औरतों तक नहीं जाने पाती।

दोनों जने ऊपर आये। ज्ञान बाबू एक स्कूल में मास्टर हैं। बड़े हो उदार, विद्वान्, निष्कपट ; पर आज मुझे मालूम हुआ कि उनकी पथ प्रदर्शिका उनको स्त्री हैं। यह दोहरे बदन की, प्रतिभाशाली महिला थी। चेहरे पर ऐसा रोष था, मानों कोई -रानी हो। सिर से पांव तक गहनों से नदी हुई। मुख सुन्दर न होने पर भी भाक- -र्षक था। शायद मैं उन्हें कहीं और देखती, तो मुंह फेर लेती। गर्व को सजीव प्रतिमा यी पर बाहर जितनी कठोर, भीतर उतनी ही दयालु।

'घर कोई पत्र लिखा है --- यह प्रश्न उन्होंने कुछ हिचकते हुए किया।'

मैंने कहा --- हाँ, लिखा था।

'कोई लेने भा रहा है ?'

'जी नहीं। न पिताजी अपने पास रखना चाहते हैं, न ससुरजी।'

'तो फिर ?'

'फिर क्या, अभी तो, यहीं पड़ी हूँ।'

'तो मेरे घर क्यों नहीं चलती। अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूंगी।'

'खुफ़िया के दो आदमी इस वक्त भी डटे हुए हैं।'

'मैं पहले ही समझ गई थी, दोनों खुफिया के आदमी होंगे।'

ज्ञान बाबू ने पत्नी की ओर देखकर, मानों उनकी भाज्ञा से, कहा --- तो मैं जाकर -तांगा लाऊँ ?

देवीजी ने इस तरह देखा, मानों कह रही हो, क्या अभी तुम यहीं खड़े हो ?

मास्टर साहम चुपके से द्वार की ओर चले।

'ठहरो'-देवीजी बोली --- 'कै तांगे लाओगे? कै !'-मास्टर साहब बड़ा गये।

'हाँ, कै ! एक तांगे पर तो तीन सवारियां ही बैठेगी। सन्दूक, बिछावन, बरतन- भाड़े क्या मेरे सिर पर जायंगे ?'

'तो दो लेता आऊँगा।'--- मास्टर साहब डरते-डरते बोले।

'एक तांगे में कितना सामान भर दोगे।'

'तो तीन लेता आऊँ ?

'अरे, तो जाओगे भी। जरा-सी बात के लिए घटा-भर लगा दिया।'

मैं कुछ कहने न पाई थी, कि ज्ञान बाबू चल दिये । मैंने सकुचाते हुए कहा --- पहन, तुम्हें मेरे जाने से इष्ट होगा और ..

देवीजी ने तीक्ष्ण स्वर में कहा --- हाँ, होगा तो अवश्य। तुम दोनों जून में दो- तीन पाव आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में आने का तेल डालोगी। यह क्या थोड़ा कष्ट है ?

मैंने झेपते हुए कहा --- आप तो मुझे बना रही हैं।

देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कथा पकड़कर कहा-जब तुम्हारे बाबूजी लौट आचे, तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेना। मेरा घाटा पूरा हो जायगा । भर तो राजी हुई ? चलो, असबाव बांधो। खाट-बाट कल मँगवा लेंगे।

( ३ )

मैंने ऐसौ सहृदय, उदार, मीठी बाते करनेवाली स्त्री नहीं देखी। मैं उनकी छोटी बहन होती, तो भी शायद इससे अच्छी तरह न रखती। चिन्ता या क्रोध को तो जैसे उन्होंने जीत लिया हो। सदैव उनके मुख पर मधुर विनोद खेला करता था। कोई लड़का-बाला न था, पर मैंने उन्हें कभी दुस्ती नहीं देखा। ऊपर के काम के लिए एक लौंडा रख लिया था। भीतर का स रा काम खुद करतों। इतना कम खाकर और इतनी मेहनत करके वह कैसे इतनी हृष्ट-पुष्ट थो, मैं नहीं कह सकती। विश्राम तो जैसे उनके भाग्य ही में नहीं लिखा था। जेठ की दुपहरी में भी न लेटती थीं। हाँ, मुझे कुछ न करने देतो, उस पर जब देखो, कुछ खिलाने को सिर पर सवार। मुझे यहाँ धस यही एक तकलीफ थी।

मगर आठ दिन गुजरे थे, कि एक दिन मैंने उन्हीं दोनों खुफियों को नीचे बैठे

देखा। मेरा माथा ठनका। यह अभागे यहाँ म मेरे पीछे पड़े हैं। मैंने तुरत बहनजो से कहा -- दोनों बदमाश यहाँ भी मँडरा रहे है।

उन्होंने हिकारत से कहा --- कुत्ते हैं। फिरने दो।

मैं चिन्तित होकर बोली --- कोई स्वाँग खढ़ा करें।

उसी बेपरवाही से बोली --- भूँकने के सिवा और क्या कर सकते हैं ?

मैंने कहा --- काट भी तो सकते हैं।

हँसकर बोली --- इसके डर से कोई भाग तो नहीं जाता न!

मगर मेरी दाल में मक्खी पड़ गई। बार-बार छज्जे पर जाकर उन्हें रहन देख आती। यह सब क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं ? आखिर मैं नौकरशाहो का क्या बिगाड़ सकती हूँ। मेरी सामर्थ्य ही क्या है। क्या यह सब इस तरह मुझे यहाँ से भगाने पर तुले हैं। इससे उन्हें क्या मिलेगा ! यही तो कि मैं मारी-मारो फिरूं ? जितनी नीची तबीयत है।

एक हफ्ता और गुज़र गया। खुफियों ने पिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखने जाते ये। ऐसी दशा में यहां रहना मुझे अनुचित मालूम होता था; पर देवोजी से कुछ कह न सकती थी।

एक दिन शाम को ज्ञान बाबू आये, तो घबड़ाये हुए थे। मैं बरामदे में भी। परवल छील रही थी। ज्ञान बाबू ने कमरे में जाकर देवीको को इशारे से बुलाया।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा --- पहले कपड़े-पड़े तो उतारो, मुंह-हाथ धोओ, कुछ खाओ, फिर जो कहना हो, कह लेना।

ज्ञान बाबू को धैर्य कहाँ ? पेट में बात की गंध तक न पचती यौ। आग्रह से बुलाया ! तुमसे उठा नहीं लाता। मेरी जान आफत में है।

देवी ने बैठे-बैठे कहा --- तो कहते क्यों नहीं, क्या कहना है ?

'यहाँ आओ।

'क्या यहाँ कोई और बैठा हुआ है ?

मैं वहां से चली। बहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं बोर करने पर भी न छुपा सकी। ज्ञान बाबू मेरे सामने न कहना चाहते थे ; पर इतना सन्न भो न था बिना देर रुक जाते। बोले --- प्रिन्सिपल से मेरी लड़ाई हो गई।

देवी ने बनावटी गम्भीरता से का-सच ! तुमने उसे खूब पीटा न ! 'तुम्हें दिल्लगी सूझती है ! यहाँ नौकरी जा रही है।'

'जब यह डर था, तो लड़े क्यों ।'

'मैं थोड़ा हो लड़ा। उसी ने मुझे बुलाकर बांटा।'

'बेकसूर ?'

'अब तुमसे क्या कहूँ।'

'फिर वही पर्दा। कह चुकी, यह मेरी बहन है। मैं इससे कोई पक्ष नहीं रखना चाहती।'

'और जो इन्हों के बारे में कोई बात हो, तो ?'

देवीजी ने जैसे पहेलो बूझकर कहा --- अच्छा, समझ गई। कुछ खुफियो काम झगड़ा होगा ? पुलोस ने तुम्हारे प्रिसिपल से शिकायत की होगी। ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी पहेलो का बूमझा जाना स्वीकार न किया।

बोले --- पुलीस ने प्रिसिपल से नहीं, हाकिम-जिला से कहा। उसने प्रिंसिपल को बुलाकर मुझसे जवाब तलब करने का हुक्म दिया। देवी ने अन्दाज़ से कहा --- समझ गई। प्रिंसिपल ने तुमसे कहा होगा कि उस स्त्री को घर से निकाल दो।

'हो, यही समझ लो।'

'तो तुमने क्या जवाब दिया।'

अभी कोई जवाब नहीं दिया। वहां खड़े-खड़े क्या कहता।'

देवीजी ने उन्हें भाड़े हाथों लिया --- जिस प्रश्न का एक ही जवाब हो, उसमें सोच-विचार कैसा ?

ज्ञान बाबू सिटपिटाकर बोले --- लेकिन कुछ सोचना तो जरूरी था।

देवीजी की त्यौरियां बदल गई । आज मैंने पहली बार उनका यह रूप देखा। बोली-तुम उस प्रिंसिपल से जाकर कह दो, मैं उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकता और न माने, तो इस्तीफा दे दो। अभी जाओ । लौटकर हाथ-मुँह धोना।

मैंने रोकर कहा --- बहन, मेरे लिए...

देवी ने डांट बताई --- तू चुप रह, नहीं कान पकड़ लगी। तू क्यों बोच में कूदती है ? रहेंगे, तो साथ रहेंगे। मरेंगे, तो साथ मरेंगे । इस मर्दुए को मैं क्या कहूँ !
आधी उम्र बीत गई और मात करना न आया। (पति से) बड़े सोच क्या रहे हो ? तुम्हें डर लगता हो, तो मैं जाकर कह पाऊँ ?

ज्ञान बाबू ने खिसियाकर कहा --- तो कल कह दंगा, : इस वक्त कहाँ होगा, कौन जाने।

रात-भर मुझे नींद नहीं आई। बाप और ससुर जिसका मुंह नहीं देखना चाहते, उसका यह आदर ! राह की भिखारिन का यह सम्मान ! देवी, तू सचमुच देवी है।

दृसरे दिन ज्ञान बाबू चले, तो देवी ने फिर, कहा-फैसला करके घर आना। यह न हो कि फिर सोचकर जवाब देने को प्ररूरत पड़े।

ज्ञान बाबू के चले जाने के बाद मैंने कहा-तुम मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रहो हो बहनजी । मैं यह कभी नहीं देख सकती कि मेरे कारण तुम्हें यह विपत्ति झेलनी पड़े।

देवी ने हास्य-भाव से कहा --- कह चुकी या कुछ और कहना है ?

'कह चुकी ; मगर अभी बहुत कुछ कहूंगी।'

'अच्छा, बता, तेरे प्रियतम क्यों जेल गये ? इसीलिए तो कि स्वयसेवकों का सत्कार किया था ? स्वयंसेवक कौन है। यह हमारी सेना के घोर हैं, जो हमारी कड़ाइयां ला रहे हैं। स्वयंसेवकों के भी तो बाल-बच्चे होंगे, मां-बाप होंगे, वह भी तो कोई कार-बार करते होंगे ; पर देश की लड़ाई लड़ने के लिए, उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है। ऐसे वीरों का सत्कार करने के लिए जो आदमी जेल में बाल दिया जाय, उसकी स्त्री के दर्शनों से भी भात्मा पवित्र होती है। मैं तुझ पर एहसान नहीं कर रही हूँ, तु मुझ पर एहसान कर रही है।

मैं इस दया-सागर में डुबकियां खाने लगी। बोलती क्या।

शाम को अब शान शबू लौटे, तो उनके मुख पर विषय का मानन्द था ।

देवो ने पूछा --- हार कि जीत ?

ज्ञान बाबू ने अकड़कर कहा --- बीत ! मैंने इस्तीफा दे दिया, तो चक्कर में आ गया। उसी वक हाकिम-जिला के पास गया। वहां न जाने मोटर पर बैठकर दोनों में क्या बातें हुई। लौटकर मुझसे बोला --- आप पोलिटिकल जलसों में तो नहीं जाते ?

मैंने कहा --- कभी भूलकर भी नहीं।

'कांग्रेस के मेम्बर तो नहीं है?' मैंने कहा --- मेम्बर क्या, मेम्बर का दोस्त भी नहीं।

'कांग्रेस-फंड में चन्दा तो नहीं देवे?'

मैंने कहा --- कानी कौड़ो भी कमी नहीं देता।

'तो हम आपसे कुछ नहीं कहना है। मैं आपका इस्तीफा वापस करता हूँ।'

देवीजी ने मुझे गले लगा लिया।