भ्रमरगीत-सार/९५-उर में माखनचोर गड़े

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२३

 

राग केदारो
उर में माखनचोर गड़े।

अब कैसहु निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जो अड़े॥
जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छड़े।
वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े॥
को बसुदेव, देवकी है को, ना जानैं औ बूझैं।
सूर स्यामसुन्दर बिनु देखें और न कोऊ सूझैं॥९५॥