भ्रमरगीत-सार/८०-अब नीके कै समुझि परी
अब नीके कै समुझि परी।
जिन लगि हुती बहुत उर आसा सोऊ बात निबरी[१]॥
वै सुफलकसुत, ये, सखि! ऊधो मिली एक परिपाटी।
उन तो वह कीन्ही तब हमसों, ये रतन छँड़ाइ गहावत माटी॥
ऊपर मृदु भीतर तें कुलिस सम, देखत के प्रति भोरे।
जोइ जोई आवत वा मथुरा तें एक डार के से तोरे॥
यह, सखि, मैं पहले कहि राखी असित न अपने होंहीं।
सूर कोटि जौ माथो दीजै चलत आपनी गौं हीं॥८०॥
- ↑ निबरी=छूटी, खतम हुई, जाती रही।