बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११५
जबहीं सुनत बात तुव मुख की रोवत रमत ढराने[१]॥ बारँबार स्यामघन धन तें भाजत फिरन लुकाने। हमकों नहिं पतियात तबहिं तें जब ब्रज आपु समाने॥ नातरु यहौ काछ हम काछति[२] वै यह जानि छपाने। सूर दोष हमरै सिर धरिहौ तुम हौ बड़े सयाने॥७१॥