बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११४ से – ११५ तक
स्वान-पूँछ कोटिक जो लागै सूधि न काहु करी॥
जैसे काग भच्छ नहिं छाँड़ै जनमत जौन घरी।
धोये रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी?
ज्यों अहि डसत उदर नहिं पूरत ऐसी धरनि धरी[१]।
सूर होउ सो होउ सोच नहिं, तैसे हैं एउ री॥६९॥