भ्रमरगीत-सार/६४-निर्गुन कौन देस को बासी

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११२ से – ११३ तक

 

राग सारंग
निर्गुन कौन देस को बासी?

मधुकर! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी॥

को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन भेस है कैसो केहि रस में अभिलासी॥
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे! कहैगो गाँसी[]
सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी॥६४॥

  1. गाँसी=गाँस या कपट की बात, चुभनेवाली बात।