भ्रमरगीत-सार/५-जदुपति लख्यो तेहि मुसकात

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ८७ से – ८८ तक

 

राग रामकली
जदुपति लख्यो तेहि मुसकात।

कहत हम मन रही जोई सोइ भई यह बात॥
बचन परगट करन लागे प्रेम-कथा चलाय।

सुनहु उद्धव मोहिं ब्रज की सुधि नहीं बिसराय॥
रैनि सोवत, चलत, जागत लगत नहिं मन आन।
नंद, जसुमति नारि नर ब्रज जहाँ मेरो प्रान॥
कहत हरि, सुनि[] उपँगसुत! यह कहत हौं रसरीति।
सूर चित तें टरति नाहीं राधिका की प्रीति॥५॥

  1. सुनि=सुन।