बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १०६
बाँधे फिरत सीस पर ऊधो देखत आवै ताप॥ नूतन रीति नंदनंदन की घरघर दीजत थाप। हरि आगे कुब्जा अधिकारी, तातें है यह दाप॥ आए कहन जोग अवराधो अबिगत-कथा की जाप। सूर सँदेसो सुनि नहिं लागै कहौ कौन को पाप? ॥४७॥