भ्रमरगीत-सार/३४७-तुमहिं मधुप गोपाल-दुहाई

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २१२

 

तुमहिं मधुप! गोपाल-दुहाई।
कबहुंक स्याम करत ह्याँ को मन, किधौं निपट चित सुधि बिसराई?
हम अहीरि मतिहीन बापुरी हटकत[] हू हठि करहिं मिताई।
वै नागर मथुरा निरमोही, अँग अँग भरे कपट चतुराई॥
साँची कहहु देहु स्रवनन सुख, छाँड़हु जिया कुटिल धूताई[]
सूरदास प्रभु बिरद-लाज धरि मेटहु ह्याँ की नेकु हँसाई॥३४७॥

  1. हटकत हू=मना करते हुए भी।
  2. धूताई=घूर्त्तता।