भलेहि मिले बसुदेव देवकी जननि जनक निज कुटुँब घनेरो।
केहि अवलंब रहैं हम ऊधो! देखि दुःख नँद-जसुमति केरो॥
तुम बिनु को अनाथ-प्रतिपालन, जाजरि[१] नाव कुसँग सबेरो[२]।
गए[३] सिंधु को पार उतारै, अब यह सूर थक्यो ब्रज-बेरो[४]॥३३६॥
मानौ ढरे एक ही साँचे।
नखसिख कमल-नयन की सोभा एक भृगुलता-बाँचे[५]॥
दारुजात[६] कैसे गुन इनमें, ऊपर अन्तर स्याम।
हमको धूम-गयन्द[७] बताबत, बचन कहत निष्काम॥
ये सब असित देह धरे जेते ऐसेई, सखि! जानि।
सूर एक तें एक आगरे वा मथुरा की खानि॥३३७॥