बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०७
राग सोरठ
सखी री! मथुरा में द्वै हँस। एक अक्रूर और ये ऊधो, जानत नीके गंस[१]॥ ये दोउ छीर नीर पहिचानत, इनहि बधायों कंस। इनके कुल ऐसी चलि आई, सदा उजागर बंस॥ अजहूं कृपा करौ मधुबन पर जानि आपनो अंस। सूर सुयोग सिखावत अबलन्ह, सुनत होय मनभ्रंस[२]॥३३५॥