भ्रमरगीत-सार/३३०-जदपि मैं बहुतै जतन करे

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०५ से – २०६ तक

 

जदपि मैं बहुतै जतन करे।
तदपि, मधुप! हरि-प्रिया जानि कै काहु न प्रान हरे॥
सौरभ-युत सुमनन लै निज कर संतत सेज धरे।
सनमुख होति सरद-ससि, सजनी! तऊ न अङ्ग जरे[]
चातक मोर कोकिला मधुकर सुर सुनि स्रवन भरे।
सादर ह्वै निरखति रतिपति को नैक न पलक परे॥
निसिदिन रटति नंदनँदन, या उर तें छिन न टरे।
अति आतुर चतुरंग चमू सजि अनँग न सर सँचरे[]

जानति नाहिं कौन गुन या तन जातें सबै डरे।
सूरदास सकुचन श्रीपति के सुभटन बल बिसरे॥३३०॥

  1. इसी प्रकार की उक्ति भवभूति की है, 'मालती-माधव'
    में।
  2. सँचरे=चलाए।