भ्रमरगीत-सार/३२९-गोपालहि बालक ही तें टेव

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०५

 

गोपालहि बालक ही तें टेव।
जानति नाहिं कौन पै सीखे चोरी के छल-छेव॥
माखन-दूध धर्‌यो जब खाते सहि रहती करि कानि।
अब क्यों सही परति, सुनि सजनी! मनमानिक की हानि॥
कहियो, मधुप! सँदेस स्याम सों राजनीति समुझाय।
अजहूँ तजत नाहिं वा लोभै, जुगुत[] नहीं जदुराय॥
बुधि बिबेक सरबस या ब्रज को लै जो रहे मुसकाय।
सूरदास प्रभु के गुन अबगुन कहिए कासों जाय॥३२९॥

  1. जुगुत=युक्त, ठीक, उचित।