भ्रमरगीत-सार/३१०-हमैं नंदनँदन को गारो

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९९

 

राग सारंग

हमैं नंदनँदन को गारो[]
इन्द्रकोप ब्रज बह्यो जात हो, गिरि धरि सकल उबारो॥
रामकृस्न बल बदति न काहू, निडर चरावत चारो।
सगरे बिगरे को सिर ऊपर बल को बीर[] रखबारो॥
तब तें हम न भरोसो पायो केसि तृनाब्रत मारो।
सूरदास प्रभु रङ्गभूमि में हरि जीतो, नृप हारो॥३१०॥

  1. गारो=गौरव, गर्व।
  2. बीर=भाई।