भ्रमरगीत-सार/३०९-उती दूर तें को आवै हो

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उती दूर तें को आवै हो।
जाके हाथ सँदेस पठाऊँ सो कहि कान्ह कहाँ पावै हो॥
सिंधुकूल एक देस कहत हैं, देख्यो सुन्यो न मन धावै हो।
तहाँ रच्यो नव नगर नंदसुत पुरि द्वारका कहावै हो॥
कंचन के सब भवन मनोहर, राजा रंक न तृन छावै हो।
ह्वा के सब बासी लोगन को ब्रज को बसिबो नहिं भावै हो॥
बहु विधि करति बिलाप बिरहिनी बहुत उपावन चित लावै हो।
कहा करौं कहँ जाउँ सूर प्रभु को मोहिं हरि पै पहुँचावै हो॥३०९॥