बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९२ से – १९३ तक
कोउ माई बरजै या चंदहि। करत है कोप बहुत हम्ह ऊपर, कुमुदिनि करत अनंदहि॥ कहाँ कुहू, कहँ रवि अरु तमचुर, कहाँ बलाहक[१] कारे[२]? चलत न चपल, रहत रथ थकि करि, बिरहिनि के तन जारे॥ निंदति सैल, उदधि, पन्नग को, सापति कमठ कठोरहिं[३]। देति असीस जरा[४] देवी को, राहु केतु किन जोरहि?
ज्यों जलहीन मीन-तन तलफत त्योंहि तपत ब्रजबालहि। सूरदास प्रभु बेगि मिलावहु मोहन मदन-गोपालहि॥२९३॥