भ्रमरगीत-सार/२९२-जाहि री सखी सीख सुनि मेरी

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९२

 

राग मलार

जाहि री सखी! सीख सुनि मेरी।
जहाँ बसत जदुनाथ जगतमनि बारक तहाँ आउ दै फेरी॥
तू कोकिला कुलीन कुसलमति, जानति बिथा बिरहिनी केरी।
उपवन बैठि बोलि मृदुबानी, बचन बिसाहि[] मोहिं करु चेरी॥
प्रानन के पलटे[] पाइय जस सेंति बिसाहु[] सुजस ढेरी।
नाहिंन कोउ और उपकारी सब बिधि बसुधा हेरी॥
करियो प्रगट पुकार द्वार है अबलन्ह आनि अनँग अरि घेरी।
ब्रज लै आउ सूर के प्रभु को गावहिं कोकिल! कीरति तेरी॥२९२॥

  1. बचन बिसाहि=वचनों से अर्थात् केवल वहाँ बोलकर मुझे मोल ले।
  2. प्रानन के पलटे=यश प्राण देने पर मिलता है, जल्दी नहीं मिलता (पर तुझे केवल बोलने से ही मिलेगा)।
  3. बिसाहु=मोल ले।