बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९१
राग कान्हरो
अँखियाँ अजान भईं।
एक अंग अवलोकत हरि को और हुती सो गई।
यों भूली ज्यों चोर भरे घर चोरी निधि न लई।
बदलत[१] भोर भयो पछितानी, कर तें छाँड़ि दई॥
ज्यों मुख परिपूरन हो त्यों ही पहिलेइ क्यों न रई।
सूर सकति अति लोभ बढ्यो है, उपजति पीर नई॥२९०॥