मधुकर! सुनहु लोचन-बात।
बहुत रोके अंग सब पै नयन उड़ि उड़ि जात॥
ज्यों कपोत बियोग-आतुर भ्रमत है तजि धाम।
जात दृग त्यों, फिरि न आवत बिना दरसे स्याम॥
रहे मूँदि कपाट पल[१] दोउ, भए घूँघट-ओट।
स्वास कढ़ि तौ जात तितही निकसि मन्मथ फोट[२]॥
स्रवन सुनि जस रहत हरि को, मन रहत धरि ध्यान।
रहत रसना नाम रटि, पै इनहिं दरसन हान[३]॥
करत देह बिभाग भोगहिं, जो कछू सब लेत[४]।
सूर दरसन हीं बिना यह पलक चैन न देत॥२६६॥