भ्रमरगीत-सार/२६६-मधुकर सुनहु लोचन-बात

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८१ से – १८२ तक

 

मधुकर! सुनहु लोचन-बात।
बहुत रोके अंग सब पै नयन उड़ि उड़ि जात॥
ज्यों कपोत बियोग-आतुर भ्रमत है तजि धाम।
जात दृग त्यों, फिरि न आवत बिना दरसे स्याम॥

रहे मूँदि कपाट पल[] दोउ, भए घूँघट-ओट।
स्वास कढ़ि तौ जात तितही निकसि मन्मथ फोट[]
स्रवन सुनि जस रहत हरि को, मन रहत धरि ध्यान।
रहत रसना नाम रटि, पै इनहिं दरसन हान[]
करत देह बिभाग भोगहिं, जो कछू सब लेत[]
सूर दरसन हीं बिना यह पलक चैन न देत॥२६६॥

  1. पल=पलक।
  2. फोट=उद्‌गार।
  3. हान=हानि।
  4. करत देह विभाग......लेत=जो कुछ एक अंग प्राप्त करता है उसका सुख सारे अंग बाँट लेते हैं