बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८१
राग सोरठ
मधुकर! चलु आगे तें दूर।
जोग सिखावन को हमैं आयो बड़ो निपट तू क्रूर॥
जा घट रहत स्यामघन सुन्दर सदा निरन्तर पूर।
ताहि छाँड़ि क्यों सून्य अराधैं, खोवैं अपनो मूर[१]?
ब्रज में सब गोपाल-उपासी, कोउ न लगावै धूर।
अपनो नेम सदा जो निबाहै सोई कहावै सूर॥२६५॥