बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७६ से – १७७ तक
मधुकर काके मीत भए?
दिवस चारि की प्रीति-सगाई सो लै अनत गए॥
डहकत फिरत आपने स्वारथ पाखँड और ठए।
चाँड़ै सरे[१] चिन्हारी मेटी, करत हैं प्रीति नए॥
चितहि उचाटि मेलि गए रावल[२] मन हरि हरि जु लए।
सूरदास प्रभु दूत-धरम तजि बिष के बीज बए॥२५४॥