भ्रमरगीत-सार/२४९-मधुकर हमहीं कौ समझावत

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७४ से – १७५ तक

 

मधुकर! हमहीं कौ समझावत।
बारंबार ज्ञानगाथा ब्रज अबलन आगे गावत॥

नँदनँदन बिन कपट कथा कहि कत अनरुचि उपजावत?
स्रक[] चंदन तन में जो सुधारत कहु कैसे सचु पावत?
देखु विचारि तुहीं अपने जिय नागर है जु कहावत?
सब सुमनन फिरि फिरि नीरस करि काहे को कमल बँधावत?
कमलनयन करकमल कमलपग कमलबदन बिरमावत।
सूरदास प्रभु अलि अनुरागी काहे को और भुकावत[]?॥२४९॥

  1. स्रक=माला।
  2. भुकावत=भुकाता है, बकवाद करता है